व्यंग्य लो हट गई गरीबी! डॉ. रामवृक्ष सिंह बचपन में एक नारा सुनते थे-गरीबी हटाओ। लेकिन आज चार दशक बाद भी, जब बुढ़ापा हमारे जिस्म और ज़हन, दो...
व्यंग्य
लो हट गई गरीबी!
डॉ. रामवृक्ष सिंह
बचपन में एक नारा सुनते थे-गरीबी हटाओ। लेकिन आज चार दशक बाद भी, जब बुढ़ापा हमारे जिस्म और ज़हन, दोनों पर दस्तक देने पर आमादा हो रहा है, तब भी गरीबी जस की तस है। उसका हटना तो दूर, अलबत्ता वह बढ़ रही है। बल्कि हमें तो लगता है कि उसकी ज़द में अब बड़े-बड़े हाकिम-हुक्काम और नेता साहिबान भी आ गए हैं। यदि ऐसा न होता तो लोग अपनी इज्जत-आबरू दाँव पर लगाकर बस पैसा बनाने के चक्कर में इतने बड़े-बड़े गड़बड़- घोटाले क्यों करते? ज़रूर इन बेचारों पर ग़रीबी की बेतहाशा मार पड़ रही होगी, तभी तो कुछ और पैसे बनाने के लिए ऊल-जलूल कारनामे करने निकल पड़ते हैं। चाहे उसके लिए उनको अपनी इज्जत ही क्यों न गँवानी पड़े। ग़रीब न होते तो ऐसा करने की उन्हें क्या ज़रूरत थी! इसी को कहते हैं मरता, क्या न करता! पैसे कम पड़ रहे हों और ग़रीबी के मारे जान पर आ पड़ी हो तो आदमी कुछ भी कर गुजरता है- बुभुक्षितं किं न करोति पापम्!
हमें तो लगता है कि देश से ग़रीबी हटाने का जो अभियान हमारे बचपन में चला था, यह ऊंचे लोगों द्वारा मचाई गई लूट-खसोट भी उसी अभियान का एक हिस्सा है। इस प्रक्रिया में देश का एक तबका इतना ऊपर पहुँच गया है कि वहाँ से उसे आम आदमी के दुःख-दर्द नज़र ही नहीं आते। अपने बैकुंठ धाम में बैठे भगवान को जैसे आज भी सवा रुपया ही बहुत बड़ी रकम प्रतीत होता है, वैसे ही मृत्यु-लोक में अपने पुरुषार्थ से स्वर्गिक सुख-साधन जुटाकर बैठे हमारे आकाओं को भी अब भी कुछ-कुछ ऐसे ही मुगालते हैं। हालांकि चवन्नी अब प्रचलन में नहीं रही, लेकिन सवा रुपये का माहात्म्य अब भी बरकरार है।
लिहाजा देश के जिस हिस्से और तबके में अपनी आमद-रफ्त और बसाहट है, वहाँ देखते हैं तो मन जार-जार रो उठता है। वहाँ से तो गरीबी हटने का नाम ही नहीं ले रही। इधर महँगाई है कि मुई गरीब की बेटी की तरह रात-दिन लगातार बढ़ती ही चली जाती है। सोना तीस हजारी हो चला। अब गरीब आदमी अपनी दुल्हन के लिए सोने की मुंदरी और मंगलसूत्र भी गढ़वाने की नहीं सोच सकता। दूध चालीस रुपये लीटर हो चला। दाल सत्तर पार और तेल अस्सी से ऊपर। आटा-चावल बीस-बाईस से कम नहीं। यानी हर चीज महँगी होती चली जा रही है। लेकिन चमत्कार देखिए कि अपने आका कह रहे हैं कि गरीबी घट रही है।
इस सोच के पीछे एक बहुत बड़ा राज़ है। हमारे होनहार मार्केटिंग महारथियों ने महँगाई को कमतर दिखाने का एक तोड़ निकाल लिया है। पहले जो चाय-पत्ती का पैकेट आपको पैँसठ रुपये में मिलता था, वह महँगाई बढ़ने के बाद भी पैंसठ में ही मिल रहा है। बस फर्क इतना आया है कि पहले उसमें पाव भर यानी टू फिफ्टी ग्राम चाय-पत्ती रहती थी, अब उससे लगभग पंद्रह प्रतिशत कम यानी टू फिफ्टीन ग्राम चाय रहती है। बेचने वाले से पूछो तो वह युधिष्ठिरी सत्य बोलता है- टू फिफ्टी(न) ग्राम है। न का उच्चारण वह वैसे ही खा जाता है, जैसे धर्मराज युधिष्ठिर ने- नरो वा कुंजरो वा- बोलते समय किया था। उपभोक्ता को जब तक इसका बोध होता है, वह सदमे की क्रिटिकल स्टेज से बाहर निकल चुका है और संतोष कर लेता है-दुनिया में जो आए हैं तो जीना ही पड़ेगा।
कुछ-कुछ इसी तर्ज़ पर अपने अर्थशास्त्री लोगों ने एक झटके में देश की ग़रीबी घटाने का उपाय खोज निकाला है। अंतरराष्ट्रीय रूप से यदि किसी व्यक्ति की क्रय-शक्ति प्रति दिन सवा डॉलर से कम है तो वह गरीब है। इस लिहाज से अपने देश के लगभग 40 प्रतिशत लोग अत्यधिक गरीब हैं। इस दृष्टिकोण में केवल भोजन को आधार बनाया गया है और स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया गया है। इसीलिए कभी-कभी गरीबी रेखा को भुखमरी रेखा का नाम भी दिया जाता है। वस्तुओं के दाम बढ़ने के कारण एक ओर इस मानदंड को बढ़ाकर सवा डॉलर के बजाय दो डॉलर करने की बात हो रही है, वहीं दूसरी और हमारे देश में इसे घटाकर लगभग साढ़े अट्ठाईस रुपये कर दिया गया है।
सच कहें तो अपने देश के अर्थशास्त्रियों को यह बिलकुल नहीं सुहाता कि सोने की चिड़िया कहलानेवाले इस भारत में कोई ग़रीब रहे। इसलिए उन्होंने तय किया कि शहरों में अट्ठाईस रुपये और गाँवों में बाईस रुपये प्रतिदिन उपभोग करनेवाले लोग गरीब नहीं, बल्कि उसके उलट, यानी सम्पन्न कहलाने के पात्र हैं।
इस एक उपाय के करने मात्र से देश की ग़रीबी अचानक गायब हो गई है। अब अपने देश में ग़रीब आदमी ढूंढ़े से भी नहीं मिलेगा, क्योंकि शहरों में अट्ठाईस और गाँवों में बाईस रुपये दैनिक का व्यय तो हर कोई करता है, आबाल-वृद्ध। बल्कि हमें तो लगता है कि गरीब आदमी को अब अपने देश की लुप्त-प्राय प्रजाति घोषित करके उसके संरक्षण की व्यवस्था करनी पड़ेगी। ताकि आनेवाली पीढ़ियों को बताया और दिखाया जा सके कि देखो गरीब इसे कहते हैं। हमें बड़ा डर लग रहा है कि यह गुरुतर दायित्व कैसे पूरा होगा। अब अपने यहाँ गरीब तो रहे नहीं।
अपने देश में अमीरों की संख्या अचानक बढ़ गई, यह तो वाकई बड़ी खुशी की बात है। लेकिन हमारी चिन्ता का एक सबब और है। कई दशक से हमें विदेशों से बहुत सारी इमदाद इसी मद पर मिलती थी। गरीब थे तो इमदाद थी। कई-कई सौ करोड़ रुपये इधर से उधर हो जाते थे। बड़े-बड़े लोगों, गैर सरकारी संगठनों और विभागों के अधिकारियों-कर्मचारियों की ग़रीबी और भूख उससे दूर होती थी। अब उसकी कोई जरूरत ही नहीं बची। न बचे ग़रीब, न रही इमदाद। अब विश्व बैंक और यूरोप की ढेरों संस्थाओं से मदद पाने का हमारा हक जाता रहा। हाँ, यह जरूर है कि अब चूंकि अपना देश अमीरों का देश हो चला, तो दुनिया के जो गरीब लोग हैं, उनके लिए हमें कुछ सोचना चाहिए। वैसे यह काम हम पहले भी चोरी छिपे कर रहे थे और स्विटजरलैंड के बैंकों की गरीबी दूर करते चले आ रहे थे। लेकिन अब हम खुलकर दुनिया के ग़रीब देशों की मदद कर सकते हैं।
अब देश के दहकान और मजूर सब अमीर हो गए। इस नाते अब पूर्ववर्ती अमीरों तथा परवर्ती अमीरों के बीच रोटी-बेटी का नाता करने में कोई अड़चन नहीं रहनी चाहिए। अब किसी अमीरजादी का बाप किसी पूर्ववर्ती गरीब बाप के बेटे को यह कहकर ताना नहीं दे पाएगा कि पहले अपनी औकात देखो। यदि भूल से उसके मुँह से ऐसी कोई बात निकल गई तो लड़का चट से कह सकता है कि अंकल अब मैं भी गरीब नहीं हूँ। अट्ठाईस रुपये का गुटका और पान मसाला चबाकर थूक देता हूँ हर रोज। पचास रुपये का पउवा ऊपर से चढ़ाता हूँ हर शाम। रिक्शे खींचनेवाले और बीएमडब्ल्यू में चलनेवाले, दोनों की कैटेगरी अब एक हो गई। वाह! यह तो समाजशास्त्रीय दृष्टि से बड़ी प्यारी बात हो गई।
मार्क्स चचा आज यदि जिन्दा होते तो हमारे अर्थ-शास्त्रियों की कदमबोसी करते। अर्थशास्त्रियों ने ऐसा उपाय खोज निकाला है कि देखते ही देखते भारत का सर्वहारा भी मर्दुआ बुर्जुआ हो गया। वल्लाह! एक आँकड़ा इधर से उधर करते ही कितना बड़ा काया-कल्प हो चला।
बात तो खुश होने की है। लेकिन अपना दिल बैठा जा रहा है। पता नहीं हर खुश होनेवाली बात पर ये मर्दुआ दिल हर बार ऐसी हरकत क्यों करने लगता है? देश के करोड़ों लोगों की तरह हमें भी शक करने की बुरी आदत है। इसलिए उनके साथ-साथ हमें भी इस अट्ठाईस-बाईस फार्मूले पर यकीन नहीं हो रहा। कारण साफ है। हम सुनते आए हैं कि आँकड़ों और सच्चाई में दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता। यानी आँकड़े अलग होते हैं और सच्चाई अलग। इसलिए बहुत मुमकिन है कि महज अट्ठाईस रुपये रोज खर्च करनेवाला कोई शहरी और केवल बाईस रुपये रोज पर जिन्दा रहनेवाला ग्रामीण व्यक्ति भी खुद को वाकई बहुत ही ज्यादा अमीर समझता हो और ईमानदारी से संतोष की जिन्दगी जीता हो, और उसके विपरीत लाखों रुपये की पगार पानेवाला अफसर तथा करोड़ों पीट चुकने के बाद भी कुछ और रुपयों के पीछे लार टपकाते, दौड़नेवाला नेता भी खुद को अभी और ज़रूरतमंद गरीब समझता रहे। तब तो बड़ी गड़बड़ होगी मेरे मौला। आँकड़ेबाजी के चक्कर में सब गड्ड-मड्ड हो जाएगा। अब तो बस उन्हीं लोगों का आसरा है, जिन्होंने ये आग लगाई है। तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना। हो सकता है इसके बारे में भी हमारे उन गुरु-घंटाल लोगों ने अपने ए.सी. कमरों में बैठकर महँगी शराब पीने और दर्जनों मुर्गे-बकरे तोड़ने के बाद उपजी अपनी नवीन चेतना के जौम में कुछ युगांतरकारी मौलिक उद्भावनाएं की हों, या करने की सोच रहे हों। तब तक आइए अपनी इस नई-नई प्राप्त हुई समृद्धि और उच्च सामाजिक हैसियत के मजे लें, चटखारे ले-लेकर।
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