भ्रष्टाचार दो शब्दों से मिलकर बना है। भ्रष्ट+आचार। जिसका अर्थ हुआ भ्रष्ट आचरण। जिस तरह से आचरण से गिरा व्यक्ति पतित-दुराचारी कहलाता ...
भ्रष्टाचार दो शब्दों से मिलकर बना है। भ्रष्ट+आचार। जिसका अर्थ हुआ भ्रष्ट आचरण। जिस तरह से आचरण से गिरा व्यक्ति पतित-दुराचारी कहलाता है। वैसे ही साफ-सुथरी से रिश्वत-कामचोरी की व्यवस्था अपना लेना भ्रष्टाचार है। दूसरे शब्दों में कहें तो जब कोई कार्य नियमों का उल्लंघन कर अथवा गलत तरीके से किया जाय तो वही भ्रष्टाचार है। हमारे धर्मग्रन्थों में आचरण को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। धन से हीन व्यक्ति हीन नहीं माना जाता किन्तु आचरण से हीन व्यक्ति हीन(मरे हुए के समान) माना जाता है यथा-
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद वित्तमायाति याति च।
अक्षीणेां वृत्ततः क्षीणों वृत्तत वस्तु हतोहतः॥
हमारे देश में भ्रष्टाचार शब्द कोई नया नहीं है। आजादी के कई दशकों के बाद हमने किसी भी क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति न की हो, लेकिन भ्रष्टाचार के क्षेत्र में हमारे लिए विश्व में एक-दो देशों को छोड़कर कोई चुनौती नहीं है। आजादी के बाद ही यद्यपि तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू द्वारा कहा गया था कि भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्ति को निकटतम खम्भे(पोल) पर लटका देना चाहिए। लेकिन इसके कुछ समय बाद ही उनके मन्त्रिमण्डल के एक सहयोगी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा, सिद्ध हुआ तब भी वे कोई दण्ड न दे पाये थे। तब से पड़ा भ्रष्टाचार का बीज महाराष्ट्र में अंतुले से, शेयर, टेलीफोन, यूरिया, हवाला, बोफोर्स, चीनी,ताबूत, लाटरी, चारा, सांसद रिश्वत, तहलका, तेलगी, दूरसंचार, कामनवेल्थ, प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक करने जैसे अनेकाने पड़ावों का सफर तय कर चुका है। परिणामतः प्रवासी भारतीयों को छोड़कर इतना पैसा स्विस जैसी विदेशी बैंकों में जमा है, जितने से भारत के प्रत्येक गरीब का जीवन खुशहाल बनाया जा सकता है। ट्रांसपेरेसी इंटरनेकशनल इंडिया के सर्वे के अनुसार भारत के लोग सार्वजनिक सेवा के बदले प्रतिवर्ष 26728 करोड़ रूपया नौकर शाहों की जेब में डालते हैं।
यह धनराशि हिन्दुस्तान के रक्षाबजट का करीब आधा है। वहीं सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत है। यही नहीं देश का प्रत्येक दसवां व्यक्ति भ्रष्टाचार से प्रभावित है। जहां तक विविध सेवा क्षेत्रों का प्रश्न है देश की दस शीर्ष सेवाओं (भ्रष्ट) में स्वास्थ्य सेवा नम्बर एक पर, ऊर्जा दो पर और शिक्षा नम्बर तीन पर है। यही नहीं देश की न्यायिक सेवा के आंकड़े भी चौकाने वाले हैं। जहां एक अनुमान के अनुसार 2510 करोड़ रूपये बतौर घूस के दे दिये जाते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप ही देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के विरुद्ध वारंट जारी कर दिये जाते हैं जबकि अपराधियों, माफियों के विरुद्ध वारंट वर्षों तामील नहीं हो पाते हैं।
राष्ट्र की विविध सेवाओं में भ्रष्टाचार था। इस मामले में शिक्षा जगत काफी पीछे था। अपनी पारदर्शिता व लोकप्रियता के स्तर पर निरन्तर आगे बढ़ रहा था। लेकिन जब कतिपय शिक्षकों के द्वारा विद्यार्थियों को अपने यहां टयूशन पढ़ने के लिए प्रेरित किया गया तो इस विभाग का नम्बर भी तीसरा हो गया। इसके साथ ही माध्यमिक स्तर से प्रशिक्षण काल, डिग्री लेने, नियुक्ति पत्र लेने, नियुक्ति पाने, व्यवसाय चयन, शिक्षण अवकाश, चिकित्सा अवकाश, विविध देयकों के भुगतान, बोनस, टी0 ए0, डी0 ए0 एरियर आदि के लिए अपेक्षा से अधिक बिलम्ब, सुविधा शुल्क की मांग, अनावश्यक कमियां निकालना आदि के कारण शैक्षिक जगत भ्रष्टाचार के चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। और इसमें आग में घी डालने का कार्य किया रमसा के अन्तर्गत आने वाले अगाध पैसे ने। ऊपर से आडिट की लचर व्यवस्था। कभी महामुनि भर्तृहरि द्वारा कही जाने वाली-किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या।‘ भ्रष्टाचार के मकड़जाल में उलझ गयी। सत्यमेव जयते का सिद्धान्त भ्रष्टाचार मेव जयते बन गया।
यदि हम शैक्षिक जगत में भ्रष्टाचार के संभावित कारणों पर विचार करें तो निजी, गैर सरकारी, संस्थाओं में प्रबन्ध तंत्र की भूमिका, शासकीय में अधिकारी वर्ग की अपने अधीनस्थों पर अधिक निर्भरता, निजी संस्थाओं में कम वेतन देना और अधिक पर हस्ताक्षर करवाना, सत्रारम्भ में छँटनी करना महिला शिक्षकों का शोषण, कहीं-कहीं पर प्रबन्धकों द्वारा शैक्षिक प्रमाणपत्र अपने पास रखकर मनमानी करना, प्रवेश प्रक्रिया, डिग्री प्राप्ति, साक्षात्कार, प्रवेश परीक्षाओं व नियुक्ति में खुला व्यापार, प्रायोगिक परीक्षाओं का धन-बल से अंकन किया जाना आदि माने जा सकते हैं। वहीं वर्तमान समय में बढ़ रही रिश्वत खोरी की प्रवृत्ति, स्वार्थपरता, जमाखोरी की भावना, जातिवादी धारणा, बढ़ती महंगाई, नैतिकता की कमी, श्रम के प्रति उदासीनता, कर्त्तव्यनिष्ठा में कमी, शिक्षा का राजनीतिकरण, शीघ्रातिशीघ्र नियुक्ति, पदोन्नति, कार्य की पूर्ति करवाने की ललक, द्वेष की भावना आदि कारण भी शैक्षिक जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण है। वहीं कुकुरमुत्ते की तरह गैर पंजीकृत संस्थाओं, कोचिंगों का खुलना, मनमाने पाठय्क्रमों का प्रयोग, उनमें कम पढ़े लिखों के बिना अंकुश के बच्चों को सौंपना कहीं न कहीं भ्रष्टाचार को बढ़ाता है। दूसरी ओर कुशल अध्यापक के द्वारा मन्द बुद्धि बालक को घर पर बुलाकर अतिरिक्त सहायता देना टयूशन की श्रेणी में लाना भी शैक्षिक जगत में भ्रष्टाचार को बढ़ाता है। हालांकि पूरी कक्षा को टयूशन के लिए प्रेरित करना, न पढ़ने वालों को कम अंक देना या फेल करने की धमकी देना पाप ही नहीं अध्यापक के आचरण के प्रतिकूल है। उसका अपना कर्त्तव्य से पीछे हटना है। इसके अतिरिक्त कस्बों, शहरों से लेकर बड़े नगरों तक में अधिकांश अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों की आवश्यकता के अनुसार नहीं आस-पड़ोसियों व नाते-रिश्तेदारों पर रौब डालने के लिए टयूशन अधिक पढ़वायी जा रही है। के0 जी0 नर्सरी वाले बच्चों के लिए टयूटर को 400-500 रुपये तक दिये जा रहे हैं।
प्राचीन काल में गुरु द्रोण को अभावों के चलते दूध के स्थान पर आटा घोलकर अपने पुत्र अश्वत्थामा को पिलाना पड़ा था। उन्होंने पद का दुरुपयोग करते हुए मोहवश एकलव्य का अंगूठा मांगा था जबकि आज ऐसी स्थिति नहीं है शिक्षकों को पर्याप्त वेतन, सुविधायें मिल रही हैं। उनको अधिक टयूशन की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। दबाब की राजनीति न कर स्वकर्त्तव्य का निर्वहन करना चाहिए। यदि कोई छात्र मन्द बुद्धि अथवा गरीब है तो उसका सहयोग करना कोई अपराध नहीं है।
शिक्षा-शिक्षण प्रभावित हो रहा है, बल्कि शिक्षकों में दायित्व निर्वहन की भावना कम हो रही है। वह सम्पूर्ण पाठ्य-शिक्षण- प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों को न पढ़ाकर टाप टेन, महत्वपूर्ण जैसी पद्धतियों का सहयोग ले रहा है। शिक्षा-शिक्षण का स्तर गिर रहा है। शिक्षक की मानसिकता, व्यवहार व आचरण भी प्रभावित हो रहा है। उदाहरणार्थ-यदि किसी अध्यापक के चिकित्सा, बोनस, टी.ए., डी. ए. जी.पी. एफ. अग्रिम आदि के सभी देयक निश्चित प्रतिशत लेकर पास किये जा रहे हों तो क्या वह वैसा ही निष्ठापूर्वक अपनी कक्षा में शिक्षण कार्य करेगा जैसाकि इन सभी के बगैर प्रतिशत दिये पास होने पर करता था। मुझे तो नहीं लगता।
निजी संस्थाओं में कम वेतन वाले अध्यापकों की मनःस्थिति किसी से छिपी ही नहीं है। साथ ही गत कई वर्षों से उत्तरप्रदेश व उत्तराखण्ड में स्वकेन्द्र परीक्षाप्रणाली ने माध्यमिक शिक्षा को भ्रष्टाचार के और समीप कर दिया है जिससे ही कतिपय संस्थायें, संस्था प्रधान, शिक्षक अपना परीक्षाफल येन-केन प्रकारेण परीक्षाओं में नकल करवाकर साध रहे हैं। परिणाम यह हो रहा है कि शिक्षा गुणात्मक दृष्टि से रसातल में जा रही है। 35 प्रतिशत न ला पाने वाला छात्र 75-80 प्रतिशत ला रहा है। वहीं 75-80 वाला 55-60 पर सिमट रहा है। अध्यापक और बच्चे दोनों अपने कर्त्तव्य से भागने लगे हैं। फल बिना श्रम मिल रहा है।
मनुष्य यदि अपने आचरण को सुधार ले तो उसकी समस्त बुराईयां नष्ट हो जाती है। वैसे ही शैक्षिक जगत में भ्रष्टाचार की समस्या के समाधान के लिए हमें शिक्षाजगत के उच्चाधिकारियों से लेकर स्वच्छकार तक की गरिमा व आचरण को बदलने का प्रयास करना होगा। प्रत्येक पहलू, शिक्षक चपरासी, प्रशासन, प्रबन्धक, अभिभावक, छात्र, प्रधानाचार्य, अधिकारी वर्ग आदि में अपने कर्त्तव्य निर्वहन के प्रति जागरूकता लानी होगी। साथ ही ऊपर से नीचे तक शैक्षिक जगत की गतिविधियों पर एक मजबूत गोपनीय तंत्र विकसित करना होगा। जो इन सब पर तत्काल आवश्यक व कठोर समय बद्ध कार्यवाही कर सके। अभिभावकों की जागरूकता संस्थाओं को अधिक कल्याणकारी, बच्चों को लगनशील बनायेगी, वहीं शिक्षकों के हितों की रक्षा, छात्र कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगी। शिक्षण, प्रशिक्षण, नियुक्ति, पदोन्नति, स्थानान्तरण, पेंशन, भुगतान आदि प्रकरणों के लिए स्पष्ट पारदर्शी नीति बनानी पड़ेगी।
उपरोक्त के अतिरिक्त अन्य उपाय भी हो सकते हैं। शैक्षिक जगत में भ्रष्टाचार को समाप्त किये बिना स्वामी दयानन्द, विवेकानन्द, गाँधी, सुभाष, टैगोर, नेहरू, अम्बेडकर, शास्त्री, कलाम जैसे शिष्यों की कल्पना नहीं की जा सकती है और न ही गुरु संदीपन, रामानन्द, चाणक्य, राधाकृष्णन व जाकिर हुसैन जैसे गुरु प्राप्त हो सकते हैं।
सम्पर्कः- दुबौला-रामेश्वर-262529 पिथौरागढ़-उ.अखण्ड
shashank.misra73@rediffmail.com
शशांक मिश्र भारती
सम्पर्कः-हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर&242401 m0iz0 9410985048
ईमेल shashank.misra73@rediffmail.com
गंभीर आलेख। बहुत नजदीकी से शिक्षाजगत को महसूस करने के बाद अनुभव जन्य ज्ञान के आधार पर लिखी गई समीक्षात्मक रपट। समस्या पर जितना व्यापक चिंतन किया गया समाधान को हल्के में निपटा दिया गया। जिस पर और लिखा जाना चाहिए था।
जवाब देंहटाएंantem peraa kam se kam sabdon me sabkuchh kehta hai.pratikriya.sujhhaon hetu dhanyavad.
हटाएं