प्रा चीन समय में ऐसे भी राजा होते थे जो अपने कथन की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा दिया करते थे। और तो और स्वप्न में दिए गये कथनों तक की र...
प्राचीन समय में ऐसे भी राजा होते थे जो अपने कथन की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा दिया करते थे। और तो और स्वप्न में दिए गये कथनों तक की रक्षा में राज पाट व राज सुख भी त्याग देते थे। लेकिन आज के राजाओं के लिए अपना कथन वापस लेना बाँयें हाथ का खेल हो गया है। कुछ भी बोल दो। बात बन जाये तो ठीक है । यदि कोई बवाल दिखे तो कथन वापसी की घोषणा कर दो। कथित माफी माँग लो। क्या जुगत है। कोई प्रश्न कर सकता है कि आज राजा कहाँ हैं ? यदि हैं भी तो उनके पास राज पाट नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है। पहले एक राज्य में सिर्फ एक राजा होता था। आज एक राज्य में हजारों राजा होते हैं ।
ऐसे ही एक राजा यानी राजनेता हैं चिरौंजीलाल जी। पहले ये भी आम आदमी थे। आदमी तो अब भी हैं लेकिन आम नहीं हैं। आज इनके पास दाम है। नाम है। कम से कम देश में ही सही। खैर काम क्या है ? सरकारें बनाते, चलाते और गिराते हैं। जनता को दिलासा देते हैं। हिन्दुस्तानी सहनशील व दार्शनिक प्रवृत का होता ही है। अतः नेता की बात उसे अच्छी तरह समझ में आती है कि-
" तत्काल नहीं वर्षों में हल।
आज नहीं तो होगा कल "।।
आखिर करे भी तो क्या ? अपनी न्याय व्यस्था भी इसी सिद्धांत पर चलती है। नेताओं के राज सुख को देखकर ही बर्षों पहले इनके मन में राजनेता बनने की इच्छा हुई थी। कोई भी अपने पार्टी से इन्हे टिकट देने को तैयार ही नहीं था। भला आम आदमी को टिकट देकर कौन अपनी एक सीट जान-बूझ कर गवाँने की जहमत मोल लेगा। जनता आम आदमी को वोट ही नहीं देती। नेता बनने लायक प्रोफाइल होनी चाहिए। नहीं तो जमानत जप्त होना तय। आम आदमी ही आम आदमी को नहीं देखना चाहता तो नेता क्या करे ?
पिछले रिकार्ड के रूप में जन-सेवा लायक कोई निशानी इनके नाम में दर्ज ही नहीं थी। वैसे कॉलेज के नेताओं के साथ कॉलेज बंद करवाने, लड़कियों को छेड़ने, दुकानें बंद कराने, लूटने व चंदा वसूलने, कमजोर छात्रों व शिक्षकों को पीटने जैसी जन सेवा में इन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। लेकिन इसका श्रेय साथी छात्र नेता जिसे किसी पार्टी का समर्थन प्राप्त था ले उड़ा। उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर तथा उसे जन-सेवा के बिल्कुल योग्य जानकर उस पार्टी ने उसे पार्टी में शामिल होने का ऑफर दिया। अब वह सरकार में है। बेचारे चिरौंजीलाल क्या करते ?
खैर अनुभवी तो थे ही। राजनीत के सारे गुर जानते ही थे। इसलिए एक नई पार्टी बनाने का बिचार किया। सोचा देश अपना है। सो जनता अपनी है। पार्टी भी अपनी होगी। अतः सबसे उपयुक्त नाम होगा ' सब कुछ अपना पार्टी '। यानी ' एसकेएपी '। पार्टी भी बन गई तो मुद्दों की बात आई। देश के सामने समस्याएं कम तो हैं नहीं। अतः मुद्दे ही मुद्दे हैं। लेकिन ये कुछ नये तरीके से शुरुआत करके सबको छका देना चाहते थे। ताकि विरोधी जान सके कि चिरौंजीलाल भी क्या चीज है ? धर्म, जाति व साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दे तो बहुतों के हथियार बने ही हुए हैं। कुछ तो सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़कर बनाने में महारत हाशिल कर चुके हैं। गरीबी, बेकारी, बिजली, पानी, सड़क, व रोजी-रोटी के मुद्दे तो आजादी से ही कायम है। लेकिन ये क्या करें ? कैसे अपनी बात रखें की जनता विरोधियों के पैर उखाड़ दे।
आखिर एक जुगुत सूझ ही गयी। इन्होने बिल्कुल ही अलग तरीके से जनता के बीच जाने का निर्णय लिया। ये जहाँ भी जाते बिकुल नंगे पाँव जाते। जूता पैर में न पहनकर सिर पर रखते थे। मानों जूता न हो मुकुट हो। संतुलित विकास का नारा दिया। यानी देश के हर कोने व हर तबके का विकास । जिससे अमीर और गरीब के बीच की खाईं ख़त्म हो जाये। जनता में जाकर कहते कि गरीबों तथा पिछडों को उठाना ही अपना लक्ष्य है। आजतक सभी ने सिर्फ अपना उल्लू सीधा किया है। जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, गरीबी व पिछड़ेपन के नाम पे आप से वोट लेकर सभी ने अपना तथा अपनों का घर नोट से भरा है। लेकिन आप देख ही रहे हैं। मैंने जूते को भी पाँव से निकालकर सिर के ऊपर रखा है। ठीक इसी तरीके से जब तक गरीबों व पिछड़ों को उठा नहीं दूँगा जूते नहीं पहनूँगा। इनकी इस अनूठी घोषणा का अनूठा असर हुआ । क्षेत्र की जनता ' एसकेएपी ' मय हो गई। जूते से मुकुट पा ही लिया। सच में अब इन्हे भारतीय जूतों की दरकार नहीं है। विद्वान बताते हैं की जैसे पानी, पानी में जाता है। ठीक वैसे ही धन, धन में। इसलिए ही धनी और धनी तथा गरीब और गरीब होता जाता है। अतः गरीबी उठती ही जाती है। लेकिन देश से नहीं बल्कि देश में। समस्याएं भी उठती ही रहती हैं। बैठती कहाँ है ? गरीब भी उठता ही रहता है। बचे तो अपनी बला से। नहीं तो भूँख-प्यास, सूखा, बाढ़ , सर्दी, गर्मी सब गरीबों को ही उठाते हैं। नेता भी यही चाहते हैं कि गरीब उठे।
एक बार चुनाव प्रचार के दौरान इनके एक दबंग साथी ने कुछ ऐसा बोल दिया कि मीडिया में काफी हो-हल्ला उठा। चिरौंजीलाल जी बोले कि हमारे सहयोगी के जिस कथन को हमारे बिरोधी इतना तूल दे रहे हैं तथा मीडिया भी बढा -चढ़ा कर पेश कर रही है। उसपर वे अपनी स्थित पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं। लेकिन मीडिया और हमारे बिरोधियों की मिली भगत है। जिससे इस पर विराम नहीं लग पा रहा है। कथन को तोड़-मरोड़ कर इस प्रकार पेश किया जा रहा है -
'' जीतेंगे तो रम चलेगा।
हारेंगे तो बम चलेगा। ।
जनता हमारे साथ चलेगी।
एसकेएपी राज करेगी। । "
' गम ' को ' बम ' बनाया जा रहा है। फिर भी हमने सलाह दिया और उन्होंने सिर्फ 'कथित माफी' ही नहीं माँगा। बल्कि यह भी घोषणा किया कि " मैं अपना कथन वापस लेता हूँ "। सारी कारिस्तानी विरोधियों की है। जनता तो सहिष्णु हैं। फिर भी कथन की वापसी के बाद कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए।
हमने भी एक बार इस फोर्मूले को ट्राई करने की जुगुत भिडाई। लेकिन सफलता नहीं मिली। मेरा छोटा भाई मनी प्लांट का पौधा लगाकर घर के सामने शीशम के पेड़ पर चढ़ा रहा था। मैंने कहा कि इसकी पत्तियाँ बहुत छोटी हैं। चौड़ी पत्तियों वाला लगाना चाहिए। काफी दिन से वह वैसा ही दिख रहा था। वह बोला इसी को मैं बड़ी पत्तियों वाला बना दूँगा। यदि आप पॉँच सो रुपए की शर्त रखें । मैंने सोचा इसी बहाने गर्मी में पानी डालता रहेगा। अन्यथा इसका सूखना तय है। मैंने एक तरफा शर्त लगा दिया। उसने छ महीने का समय लिया। छ महीने बाद जब मैं घर गया तो नीम के पेड़ पर चौड़ी पत्तियों वाला मनी प्लांट लहरा रहा था। शर्तानुसार भाई पैसा मांगने लगा। मैंने कहा यह शीशम के पास वाला पौधा नहीं है। उसने बताया यह वही पौधा है। वहाँ बढ़ नहीं रहा था। सो मैंने यहाँ लगा दिया। मैंने कहा पत्तियाँ चौड़ी हो गयी तो अच्छी बात है । लेकिन अपनों के बीच में शर्त का कोई अर्थ नहीं होता । शर्त-वर्त तो गैरों से रखी जाती है। कोई अपने भाई से वह भी बड़े भाई से शर्त रखकर पैसा थोड़े मांगता है । वह मान ही नहीं रहा था। मैंने कहा कि तुम छोटे हो और मैं बड़ा । फिर भी मैं कथित माफी माँग रहा हूँ। अब देना नहीं रहेगा तो शर्त नहीं लगाऊँगा। वह बोला सिर्फ पॉँच सो रूपये के लिए बड़े होकर माफी मांगते शर्म नहीं आती।
आज पैसे के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते ? लोग ऐसे ही शर्माने लगें तो इक्कीसवीं सदी किस नाम की। आज लड़कियाँ भी तो नहीं शर्माती। लड़कों के हाथ में हाथ और गले में बाँहे डालकर चलती हैं। महिला संगठन का कहना है कि पुरुषों के कंधे से कंधे मिलाकर चलना है । लेकिन यहाँ तो दिल से दिल मिल जाते हैं। कितनों के खोते भी हैं। इसी चक्कर में कितनों की आँखे गम से नम होती हैं। कितने ही पतियों व पत्नियों को हाथ मल कर रह जाना पड़ता है। पार्कों-उद्यानों को सार्थक किया जाता हैं। लेकिन पार्कों-उद्यानों को और अधिक सफल बनाने के लिए कुछ और जरूरी कदम उठाये जाने की जरूरत है। जिससे लड़के-लड़कियाँ सबकी, कम से कम सगे सम्बन्धियों की नजरें बचाकर नयन-बयन की सीमा से और अधिक आगे बढ़ सकें । ' हास्य-रस के नये आयाम ' को पूर्णतया जीवंत रूप देकर मन-मोद की पूर्णता प्राप्त कर सकें ।
' कथित माफी ' वाला दांव फेल हो जाने पर मैंने ' कथन वापसी ' वाली ट्रिक इस्तेमाल किया। मैंने कहा जो हुआ सो हुआ। आज मैं अपना शर्त वाला कथन वापस लेता हूँ। भाई तपाक से बोला आप कथन वापस कैसे ले सकते हैं ? आप नेता थोड़े ही हैं। मैंने उसे समझाया कि नेताओं ने कथन वापसी का अधिकार पेटेंट तो करा नहीं रखा है। देश में जनतंत्र है। सबको समान अधिकार प्राप्त है। दीगर है कुछ लोग लूटते हैं और कुछ लुटते हैं। कुछ लोग सिर्फ खाते हैं और कुछ भूँखे ही रहते हैं। कुछ लोगों के अधिकार में पीने का पानी व दो जून की रोटी के भी लाले ही हैं।
सारी जुगत फेल हो गई। वह बिना पॉँच सौ लिए नहीं माना। वैसे हर बार उसे मैं कम से कम पॉँच सौ रूपए देता ही था। लेकिन नेताओं वाली चाल मेरे लिए कामयाब नहीं हुई। किसी ने सच ही कहा है
" जिसका काम उसी को साजे।
और करे तो डंडा बाजे "।।
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एस. के. पाण्डेय, समशापुर (उ. प्र.)।
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