(पिछले अंक से जारी...) दृश्य : नौ (हमीदा बेगम के घर के किसी कमरे/बरामदे में पड़ोस की औरतों की महफ़िल जमी है। फ़र्श पर रतन की मां बैठी ...
(हमीदा बेगम के घर के किसी कमरे/बरामदे में पड़ोस की औरतों की महफ़िल जमी है। फ़र्श पर रतन की मां बैठी कुछ काढ़ रही है। सामने तन्नो बैठी है। तन्नो के बराबर एक 18-19 साल की लड़की साजिदा बैठी है। सामने हमीदा बेगम बैठी। उनके सामने पानदान खुला हुआ है। हमीदा बेगम के बराबर बेगम हिदायत हुसैन बैठी हैं।)
हमीदा बेगम : (बेगम हिदायत हुसैन से) बहन, पान तो यहां आंख लगाने के लिए नहीं मिलता... और बग़ैर पान के पान का मज़ा ही नहीं आता।
बेगम हिदायत : ऐ, यहां पान होता क्यों नहीं?
रतन की मां : बेटा पान तो उत्थोंईं अनन्दा सी... जद तों बंटवारा होया तां तो मोया पान वी न्यामत हो गया।
हमीदा बेगम : माई ये शहर हमारी समझ में तो आया नहीं।
रतन की मां : बेटे इस तरहां न कहा, लाहौर ज्या ते कोई शहर ही नहीं है दुलिनयां च।
हमीदा बेगम : लेकिन लखनऊ में जो बात है वो लाहौर में कहां...
रतन की मां : बेटे अपना वतन ते अपना ई होंदा... है उसदा कोई बदल नहीं।
तन्नो : दादी आपने हमें उलटे फंदे जो सिखये थे उसमें धागे को दो बार घुमाते हैं कि तीन बार।
रतन की मां : देख बेटी... फिर देख ले... इस तरह पैले फंदा पा... फिर इस तरह घुमा कं इदरन तरहां ले जा... फिर दो फंदे और पा दे।
साजिदा : दादी आपकी पंजाबी हमारी समझ में नहीं आती।
रतन की मां : बेटी होंण मैं कोई दूसरी जबान तो सिक्खण तो रई। हां मेरा पुत्तर रतन ज़रूर उदू्र जाणदा सी।
(आंखों के किनारे पोंछने लगती है।)
हमीदा बेगम : माई हो सकता है आपका बेटा और बीवी बच्चे खै़रियत से भारत में हों...
रतन की मां : बेटी इन्न बखत गुजर गया... अगर वो लोग जिंदा होंदे तां ज़रूर मेरी कोई खबर लेंदे।
बेगम हिदायत : माई ऐसा भी तो हो सकता है कि उन लोगों ने सोचा हो कि आप जब लाहौर में न होंगी... (हमीदा बेगम से) बहन आपने सुना सिराज साहब के भाई जिंदा हैं और करांची में रह रहे हैं... सिराज साहब वग़ैरह बेचारे के लिए रो-धो कर बैठ रहे थे।
हमीदा बेगम : हां, अल्लाह की रहमत से सब कुछ हो सकता है।
रतन की मां : रेडियो ते वी कई बार ऐलान कराया है लेकिन रतन दा किधरी कोई पता नहीं चलाया।
बेगम हिदायत : अल्लाह पर भरोसा रखो माई... वही सबकी निगेहदाश्त करने वाला है।
रतन की मां : ए ते है... (आंखें पोंछते हुए) बेटी आ गये तन्नू फंदे पाणें।
तन्नो : हां माई ये देखिए...
रतन की मां : हां शाबाश... तू ते इतनी जल्दी सिख गई।
बेगम हिदायत : अच्छा तो अब इजाज़त दीजिए... मैं चलती हूं।
रतन की मां : बेटी त्वानूं जद वी रजाई तलाई च तागे पाणें होंण तां मन्नू बुला गेणां। मैं ओ वी करा दवांगी।
बेगम हिदायत : अच्छा माई शुक्रिया... मैं ज़रूर आपको तकलीफ़ दूंगी... और खांसी की जो दवा आपने बना दी थी उससे बेटी को बड़ा फ़ायदा हुआ है। अब ख़त्म हो गई है।
रतन की मां : ते के होया फिर बणा दबांगी... इस विच की है तू मुलैठी, काली मिर्ज़, शहद और सोंठ मंगा के रख लई बस।
हमीदा बेगम : तो बहन आती रहा कीजिए।
बूगम हिदायत : हां, ज़रूर... और आप भ आइए... माई के साथ।
हमीदा बेगम : (हंसकर) माई के साथ ही मैं घर से निकलती हूं लेकिन माई जैसा ख़िदमत का जज़्बा हां से लाऊं... ये तो सुबह से निकलती हैं तो शाम ही को लौटती हैं।
रतन की मां : बेटी जद तक इस शरीर विच तकात है तद तक ही सब कुछ है नहीं तों एक दिन त्वाडे लोकां दे बोझ बणना ही है।
हमीदा बेगम : माई हम पर आप कभी बोझ नहीं होंगी... हम ख़ुशी-ख़ुशी आपकी ख़िदमत करेंगे।
बेगम हिदायत : अच्छा खुदा हाफ़िज़।
(बेगम हिदायत चली जाती है।)
रतन की मां : अजे मनूं आफ़ताब साहब दे घर जाणा हैं... उन्हों दे वड्डे मुंडे नूं माता निकल आई है ना... वो बड़ी परेशान है। एक मुंडा बीमार, दूसरा घर दे सारे कामकाज करने होय। मैं मुंडे कौल बैठांगी तां ओ बेचारी घर दा चूल्हा चौका करेगी।
(सिकन्दर मिर्ज़ा आते हैं।)
सिकंदर मिर्ज़ा : आदाब अर्ज़ है माई।
रतन की मां : जीदे रह पुत्तर।
सिकंदर मिर्ज़ा : रहते एक ही घर में हैं लेकिन आपसे मुलाक़ात इस तरह होती है जैसे अलग-अलग मोहल्ले में रहते हों।
हमीदा बेगम : माई घर में रहती ही कहां हैं। तड़के रावी में नहाने चली जाती हैं। सुबह अ़लीक साहब के यहां बड़ियां डाल रही हैं, तो कभी नफ़ीसा को अस्पताल ले जा रही हैं, तीसरे पहर बेगम आफ़ताब के लड़के की तीमारदारी कर रही हैं तो शाम को सकीना को अचार-डालना सिखा रही हैं... रात में दस बजे लौटती हैं। हम लोगों से मुलाक़ात हो तो कैसे हो...
सिकंदर मिर्ज़ा : जज़ाकल्लाह!
हमीदा बेगम : मोहल्ले के बच्चे की ज़बान पर माई का नाम रहता है... हर मर्ज़ की दवा हैं माई।
रतन की मां : बेटी कल्ली पई-पई करांवी तें की... सब दे नाल ज़रा दिल वी परे-परे जांदा है...हाथ-पैर वी हिलदे रहदें ने। मन्नू होण चाहिदा की है... अच्छा बेटे तेरे कल्लों एक गल पूछणी सी।
सिकंदर मिर्ज़ा : हुक्म दीजिए माई।
रतन की मां : बेटा दीवाली आ रही है... हमेशा दी तरहां इस साल वी मैं दीवे जलाण और पूरा करां... मिठाइयां बणांण। मैं तनूं कहण चाहदी सी कि तन्नूं कोई एतराज ते नई होएगा।
सिकंदर मिर्ज़ा : ये भी कोई पूछने की बात है? खुशी से वो सब कुछ कीजिए जो आप करती थीं। हमें इसमें कोई एतराज़ नहीं है... क्यों बेगम।
हमीदा बेगम : बेशक...
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(रतन की मां हवेली में चिराग़ां कर रही है। तन्नो और जावेद उसकी मदद कर रहे हैं। पीछे से संगीत की आवाज़ आ रही है। हमीदा बेगम एक कोने में बैठी चिराग़ां देख रही है। जब सब तरफ़ चिरागां जल चुकते हैं ता माई दाहिनी तरफ़ पूजा करने की जगह पर बैठ जाती है। तन्नो और जावेद अपनी मां के पास आकर बैठ जाते हैं।
रतन की मां पूजा करना शुरू करती है। पूजा पूरी होती है तो वो खड़ी हो जाती हैं और मिठाई लेकर हमीदा बेगम, तन्नो और जावेद की तरफ़ आती है। संगीत की आवाज़ तेज़ हो जाती है। ये तीनों मिठाई खाते हैं। संगीत की आवाज़ कम हो जाती है।)
हमीदा बेगम : दीवाली मुबारक हो माई।
रतन की मां : त्वानूं सब नूं वी मुबारक होवे। (कुछ ठहरकर कांपती आवाज़ में) खब़रे मेरा रतन किधरी दीवाली मना ही रया होवे।
हमीदा बेगम : माई त्योहार के दिन आंसू न निकालो... अल्लाह ने चाहा तो ज़रूर दिल्ली में होगा और जल्दी तुमसे मिलेगा।
(रतन की मां अपने आंसू पोंछ लेती है।)
रतन की मां : बेटी, मैं मोहल्ले च मिठाई वंडण जा रई हां... देर हो जाये तां घबराणा नई...
तन्नो : ठीक है दादी... आप जाइए।
(रतन की मां जाती है।)
हमीदा बेगम : बेचारी... उसका दुख देखा नहीं जाता।
तन्नो : अम्मां ये सब हुआ क्यों?
हमीदाब ेगम : क्या बेटी?
तन्नो : यही हिंदोस्तान, पाकिस्तान?
हमीदा बेगम : बेटी, मुझे क्या मालूम....
तन्नो : तो हम लोग पाकिस्तान क्यों आ गए।
हमीदा बेगम : मैं क्या जानूं बेटी?
तन्नो : अम्मां, अगर हम लोग और माई एक ही घर में रह सकते हैं तो हिन्दुस्तान में हिन्दू और मुसलमान क्यों नहीं रह सकते थे।
हमीदा बेगम : रह सकते क्या... सदियों से रहते आये थे।
तन्नो : फिर पाकिस्तान क्यों बना?
हमीदा बेगम : तुम अपने अब्बा से पूछना।
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दृश्य : ग्यारह
(नासिर अपने कमरे में बैठे कुछ लिख रहे हैं। सामान बेतरतीबी से फैला हुआ है। हिदायत हुसैन अंदर आते हैं।)
हिदायत हुसैन : वालेकुमस्सलाम... आइए हिदायत भाई बैठिए...
(हर तरफ़ किताबें बिखरी हैं। नासिर एक कुर्सी से किताबें हटाकर उन्हें बैठने का इशारा करता है। हिदायत हुसैन कमरे में चारों तरफ नज़रें दौड़ाते हैं। हर तरफ़ अफ़रातफ़री है।)
हिदायत : अरे भाई चीज़ों को सीक़े से भी रखा जा सकता है। क़रीने से रहा करो यद।
नासिर : मैं बहुत क़रीने से रहता हूं हिदायत भाइ्रर्।
हिदायत : (हंसकर) वो तो नजर आ रहा है।
नासिर : नहीं... अफ़सोस कि मेरा क़रीना नज़र नहीं आता।
हिदायत : तुम्हारा करीना क्या है।
नासिर : देखिए किस करीने से अपने ख़्यालात और जज़बात को दो मिसरे को अश्आर में पिरोता हूं।
हिदायत : हां भाई ग़ज़ल कहने में तो तुम्हारा सानी नहीं है।
नासिर : शुक्रिया... तो हिदायत भाई करीने से दिमाग़ के अंदर काम कर सकता हूं या बाहर... बाहर के काम सभी लोग करीने से करते हैं, इसलिए मैं दिमाग़ के अन्दर के काम करीने सक करता हूं।
हिदायत : अच्छा एक बात बताओ।
नासिर : जी फ़रमाइए।
हिदायत : तुम शेर क्यों कहते हो?
नासिर : अगर मुझे शेर के अलावा उतनी ख़ुशी किसी और काम में होती तो मैं शायरी न करता, दरअसल आज भी अगर मुझे कोई ऐसा खुशी मिल जाये तो शायरी का बदल हो तो मैं शायरी छोड़ दूं। लेकिन शायरी से ज़्यादा खुशी मुझे किसी और चीज़ में नहीं मिलती।
हिदायत : क्या ख़ुशी मिलती है तुम्हें शायरी से।
नासिर : सर की, हक़ीक़त की तरजुमानी... उसे इस तरह बयान करना कि उसकी आंच से दिल पिद्यल जाये...
हिदायत : अरे भाई ये तो हम लोग तनक़ीदल बातें करने लगे... मैं आया था तुम्हारी ताज़ा ग़ज़ल सुनने।
नासिर : ताज़ातरीन ग़ज़ल सुनाऊं...
हिदायत : इरशाद।
नासिर : थोड़ी सी ख़िताब है... जिसके लिए उम्मीद है माफ़ फ़रमायेंगे... अर्ज़ है-
साज़े हस्ती की सदा ग़ौर से सुन
क्यों है ये शोर बपा ग़ोर से सुन
चढ़ते सूरज की अदा को पहचान
डूबते दिन की निदा ग़ौर से सुन
इसी मंज़िल में हैं सब हिज्रो-विसाल
रहरवे आब्ला पा ग़ौर से सुन
इसी गोशे में है सब दैरो हरम
दिल सनम है के खुदा ग़ौर से सुन
काबा सुनसान है क्यों ए वायज़
हाथ कानों से उठा ग़ौर से सुन
दिल से हर वक़्त कोई कहता है
मैं नहीं तुझसे जुदा ग़ौर से सुन
हर क़दम राहे तलब में वासिर
जरसे दिल की सदा ग़ौर से सुन
(हिदायत हुसैन उन्हें बीच-बीच में दाद देते हैं। नासिर के ग़ज़ल सुना चुकने के बाद हिदायत कुछ क्षण के लिए ख़ामोश हो जाते हैं।)
हिदायत : बड़ी इल्हामी कैफ़ियत है ग़ज़ल में।
नासिर : मुझे ख़ुशी है कि ग़ज़ल आको पसन्द आई।
(दरवाज़े पर दस्तक सुनाई देती है।)
नासिर : कौन है? अन्दर तशरीफ़ लाइए।
(रतन की मां हाथ में मिठाई लिए अन्दर आती है। उन्हें देखकर नासिर खड़ा हो जाता है।)
नासिर : माई तशरीफ़ लाइए... आपने नाहक तकलीफ़ की... मुझे बुलवा लिया होता।
रतन की मां : त्योहार च कोई किसी नूं बुलवांदा नई है बेटा... लोग खुद एक दूजे दे घर जांदे ने।
नासिर : (आश्चर्य से) त्योहार? आज कौन-सा त्योहार है माई।
रतन की मां : बेटा अज दीवाली है।
नासिर : माई, दीवाली मुबारक हो।
रतन की मां : त्वानूं वी दीवाली मुबारक होए... मैं त्वानूं मिठाई खिलादी हां।
नासिर : वतन की याद ताज़ा हो गयी...
रतन की मां : बेटा की तुस्सी अपणें वतन च दीवाली मनादें सी।
नासिर : हां माई हम सब त्योहार मनाते ही नहीं थे, नए-नए त्योहार ढूंढते थे।
रतन की मां : लो मिठाई खाओ।
(रतन की मां दोनों के सामने मिठाई रख देती है। वे दोनों खाते हैं।)
नासिर : माई, आपके हाथ के खाने में वही लज़्ज़त है जो मेरी दादी के हाथ के खाने में थी।
हिदायत : बहुत लज़ीज़ मिठाई है।
रतन की मां : बेटे ज्यादा बणा नहीं सकी... फिर डर वी रई सी कि...
(अपने आप रुक जाती है।)
हिदायत : क्यों डर रही थी माई?
रतन की मां : बेटे पाकिस्तान बण गया है नां...
नासिर : तो पाकिस्तान में क्या दीवाली नहीं मनाई जा सकती।
रतन की मां : मैं समझी पता नई लोग की कहणंगे खब़रें की समझणगें।
नासिर : लोगों को कहने दो माई, लोग तो कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं। इतनी मेरी भी सुन लीजिए कि इस्लाम दूसरे मज़हबों की क़द्र और इज़्ज़त करना सिखाता है।
रतन की मां : बेटा ठीक है कह दां है। साड्डे लाहौर विच हिन्दू- मुसलमान एक सी तो तां पता नई किसने की कीत्ता कि अचानक भरा-भरा नाल खून दी होली खेलण लग पाया।
(दोनों चुप रहते हैं।)
रतन की मां : अच्छा मैं चलदी हां... गली च दूसरे घरां च वी मिठाई वंड्ड आवां।
नासिर : सलाम माई।
रतन की मां : ज़ींदा रह पुत्तर।
(रतन की मां निकल जाती है।)
नासिर : हिदायत भाई अब मैं घर में नहीं बैठ सकता।
हिदायत : क्यों?
नासिर : यादों से मुलाक़ात मुझे घर की चहारदीवारी में पसन्द नहीं है।
हिदायत : कहो ये के आवारगी का दौरा पड़ गया है।
नासिर : आप भी चहिए...
हिदायत : ना भाई... तुम्हारे पैरों जैसी ताक़त नहीं है मेरा पास... खुदा हाफ़िज़।
नासिर : खुदा हाफ़िज़।
(हिदायत बाहर निकल जाते हैं।)
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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