ज्योति सिंह, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, निवाई, टोंक संगीत मनुष्य की आरम्भिक अवस्था से जुड़ा हुआ है। प्र...
ज्योति सिंह, शोध छात्रा,
हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ,
निवाई, टोंक
संगीत मनुष्य की आरम्भिक अवस्था से जुड़ा हुआ है। प्रकृति में होने वाली समस्त क्रियाओं व बदलावों ने मानव को आश्चर्य चकित किया। मस्तिष्क ने अपनी स्वाभाविक जैविक क्रिया की और मनुष्य अनजाने में ही जिज्ञासा के मोहपाश में फंसता चला गया (मस्तिष्क मनन) का कार्य ही सोच व शंका को जन्म देता है और यही सोच व शंका प्रगति व परिवर्तन की आधारभूत भूमि है।
ब्रह्मण्ड में उपस्थित समस्त ध्वनियों ने मनुष्य को अलग-अलग वातावरण व प्रतिक्रियाओं में बांटा। हर ध्वनि पर उसकी प्रतिक्रिया उसके भीतर एक अलग भाव व उत्तेजना को जन्म देती है। यहाँ भी उसे संगीत द्वारा अपने मनोविज्ञान पर होने वाले प्रभाव का पता नहीं था। किन्तु यह क्रिया स्वाभाविक व प्राकृतिक थी। इन्हीं अलग-अलग भावों ने अलग-अलग ध्वनियों की (अमूर्त) श्रेणी व उनकी (मूर्त) पहचान बनाई जो बाद में एक निरंतर खोज व जिज्ञासा के कारण स्वर, राग व संगीत के शुद्ध रूप में सामने आई। संगीत शास्त्रों में स्वरों का जीव-जन्तुओं की बोलियों से सम्बन्ध इसी बात का प्रमाण है।
कला वह प्रतिक्रिया है जो मनुष्य के अनुभवों से उत्पन्न होती है, संगीत में यह प्रतिक्रिया सबसे तीव्र होती है। संगीत में सर्वप्रथम कला का प्रस्तुतकर्ता अर्थात् संवेग एवं संवेदनाओं का प्रथम उपभोक्ता ही इसके सम्मोहन में आता है। संगीत पर शोध व अभ्यास करने वाला व्यक्ति स्वयं भी एक सम्मोहन के मनोविज्ञान के प्रभाव में समस्त भावनाओं के साथ संगीत को जोड़ता है, अथवा संगीत को समर्पित करता है। इसलिए संगीत मानव के सर्वाधिक निकट है।
''संगीत मानव के भीतर उपस्थित समस्त तत्वों को गति देने के साथ-साथ तारतम्य भी प्रदान करता है। संगीत से विचारों व चिंतन की धाराओं को प्रभावित किया जा सकता है। शरीर में उपस्थित करोड़ों कोशिकाओं व नाड़ी तंत्र को तरंगीय अनुभूति और फिर गति देने में संगीत महत्वपूर्ण है। संगीत या ध्वनि को ही मानव ने सर्वप्रथम अपने शरीर के वाह्य व भीतरी तंत्रिका तंत्र में भोगा, इसके पश्चात् उसने कभी स्वतः तो कभी विचार के पश्चात् प्रतिक्रिया प्रकट की। मनुष्य में भाव (जो एक निश्चित रासायनिक क्रिया का प्रतिफल है। संगीत या ध्वनि के माध्यम से प्रभावित व तरंगित किया जा सकता है। संगीत मनोविज्ञान को जन्म भले ही न दे किन्तु उसे नव काया व नव रूप अवश्य दे सकता है। इसी प्रकार मनोविज्ञान भी संगीत का उपयोग करने के पश्चात् संगीत को जन्म न देते हुए भी नए-नए रूप व भाव अवश्य दे सकता है। अतीत से लेकर वर्तमान तक संगीत व मनोविज्ञान यूँ ही एक दूसरे के सहायक व कभी-कभी पूरक भी बनते रहे हैं।)''1
बिस्मिल्लाह खाँ साहिब की यह उक्ति संगीतज्ञ के कुलबुलाते मनोविज्ञान का ही परिचायक है-''हमें सुबह-सुबह गंगा के किनारे-बजरे पर बैठकर शहनाई बजाने में जो आनन्द आता है वो और कहीं नहीं आता।''2
यहाँ संगीतज्ञ की स्वच्छन्दता, स्वाधीनता, स्वरों को भोगने का सुख तथा ध्वनि को बिना किसी आशय व लोभ के उपभोग करने का सुख सामने आया है।
इन्हीं मानसिक अवस्थाओं में संगीत ने सदैव ही मानव को एक सकारात्मक सहयोग दिया है। मानव के मन पर पड़े दुष्प्रभाव व संवेग तथा संवेदनाओं की तीव्रता को संगीत से संतुलित किया जा सकता है। युगो-युगों से मानव के प्रत्येक सुख व दुख की परिस्थिति हेतु विशेष गीतों व संगीत का प्रयोग होता रहा है। विवाह, जन्म, मृत्यु, प्रेम, विरह, युद्ध, असफलता, संघर्ष, दरिद्रता, जैसी स्थितियों में सात्वनां, उत्साह, प्रेम, परीक्षा व वीरता से भरे गीतों व रागों का गायन अथवा वादन भारतीय जीवन की परम्परा रही है।
संगीत मनुष्य के जन्म के साथ ही उससे जुड़ गया था, मानव अपनी कठिनाइयों एवं जिज्ञासाओं को इसी के माध्यम से हल किया करता था। संगीत एक ऐसा माध्यम है जो पूर्णतः प्राकृतिक है। केवल संगीत ही बिना किसी सहायक यंत्र या कारक के अपने माधुर्य, अर्थ व अपनी सार्थकता को बनाए रख सकता है। संगीत की ध्वनियाँ किसी भी मानसिक रोगी के मानस-पटल के लिए उद्दीपक का कार्य प्रदान करती है। संगीत जब भी प्रफुष्ठित होता है तो वह सभी अंगों, कारकों व प्रवृत्तियों को संतुष्ट करता है। संगीत में युद्ध, करूणा, व्यथा, क्रोध, काम, तृष्णा, मृत्यु, आघात, विरह इत्यादि पक्षों में भी स्वयं की सुन्दरता व प्रभाव बनाएं रखने की क्षमता है। संगीत सम्पूर्ण जगत के सुन्दर व सजीव पक्ष को गतिशील बनाने का गुण रखता है।
''विलियम ब्राउन'' ने भी सुन्दर व सजीव प्रकृति के इस पक्ष को उद्धत करते हुए कहा है-"Clearly it should be the universe as a perfected system as the full realization of the good, Beautiful and the Truth.**3
मनोविज्ञान के क्षेत्र में संगीत द्वारा दी जाने वाली उपचार से अत्यधिक सकारात्मक निष्कर्ष सामने आए हैं।
''अल्ट शुगर'' जैसे मनोवैज्ञानिक ने कहा है-''संगीत में रोगी के संवेगात्मक एवं बौद्धिक पहलुओं को जागृत करने की शक्ति होती है। इसे सुनते ही रोगी की मनःस्थिति परिवर्तित हो जाती है।''4
''सन् 1933 की बात है। इटली के तानाशाह मुसोलिनी को अनिद्रा रोग हो गया। काफी चिकित्सा की गई मगर लम्बे समय तक उसे नींद नहीं आयी। किसी ने सुझाव दिया कि 'संगीत चिकित्सा' का सहारा ले। उन्हीं दिनों पं. ओंकार नाथ ठाकुर यूरोप की यात्रा पर थे। उनसे अनुरोध किया कि मुसोलिनी को संगीत सुनाएँ। पंडित जी ने राग पूरिया का आलाप किया। लगभग आधा घण्टा ही हुआ था कि मुसोलिनी को नींद आ गई। जब मुसोलिनी जागा तो बहुत प्रभावित हुआ। उसने पं. ओंकार नाथ ठाकुर को सम्मानित किया।''5
इतिहासकार उमेश जोशी कहते हैं- ''द्रविड़ों को संगीत के वैज्ञानिक रूप का भी पता था। इसीलिए उन्होंने संगीत का चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोग किया।''6 उन्होंने मंत्र उच्चारण व ऋचाओं के स्वरों का ध्वनि से कई प्रकार के मानसिक तनावों व रोगों का उपयोग किया।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी सदैव ही अपना व अपने आश्रम का चित्त शांत व स्थिर रखने के लिए ''रघुपति राघव राजा राम'' का भजन सुना करते थे। गाँधी जी संगीत चिकित्सा को विशेष महत्व देते थे, एक बार जब वह बीमार पड़ गए थे तो उनकी चिकित्सा में महान संगीतज्ञ 'मनहर बर्वे' ने सहायता की थी, जिसका उन्होंने प्रमाण पत्र भी दिया था।7
संगीत से वृद्धों और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को सिद्ध करते हुए 'सोसाइटी फॉर जीरोनटोलॉजीकल रिसर्च' के अध्यक्ष डॉ. कल्याणी बागची ने बताया कि इस क्षेत्र में किए जा रहे शोध के आधार पर 'संगीत थेरेपी' से अब मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति के खौफ को तो दूर किया ही जा सकता है। 70 और 80 साल से ऊपर की आयु के एक वृद्ध को सुर और लय के रस में डुबोकर उसमें जीवन जीने की आशाएँ भी जगाई जा सकती हैं। यह प्रयोग श्रोताओं पर किया गया और इसके अनुकूल परिणाम देखे गये।8
आज के समय में कई चिकित्सक संगीत के माध्यम से रोगियों का उपयोग कर रहे हैं। कई जेलों में भी संगीत के माध्यम से जघन्य अपराध में लिप्त कठोर अपराधियों को भी सरल व्यवहार का बनाया गया है। जहाँ संगीत की मधुर स्वर लहरियों से दुनिया को मंत्र-मुग्ध करने का काम महान कलाकारों ने किया है। वही अब संगीत चिकित्सा अपने चमत्कार दिखाने को तैयार है।
''संगीत है शक्ति ईश्वर की, हर स्वर में बसे हैं राम।
रागी जो सुनाए रागिनी, रोगों को मिले आराम।।''
संदर्भ ग्रंथ :
1. डॉ. किरन तिवारी, संगीत एवं मनोविज्ञान, कनिष्क पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2008, पृ.सं.-151
2. वही, पृ.सं.-217
3. By William Brown, Science and Personality, Humphrey Milford, 1929, p.-59
4. डॉ. किरन तिवारी, संगीत एवं मनोविज्ञान, कनिष्क पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2008, पृ.सं.-264
5. नवभारत टाइम्स(1.06.1998), एकदा
6. उमेश चन्द्र जोशी, भारतीय संगीत का इतिहास, मानसरोवर पब्लिकेशन, फिरोजाबाद,1969, पृ.सं.-50
7. वही, पृ.सं.-397
8. डॉ. किरन तिवारी, संगीत एवं मनोविज्ञान, कनिष्क पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2008, पृ.सं.-271
Bahut accha vhagwan kare aap u hi aage badhti rahe.God Bless u
जवाब देंहटाएंकला कैसा आनंद देती है ये बिस्मिल्लाह खाँ साहिब से अच्छा कौन बता सकता है|जहां आनंद कि सृष्टि होगी वहाँ रोग शोक कुछ भी ठीक नहीं सकता उम्दा आलेख
जवाब देंहटाएंसंगीत के बिना भी जीवन कोई जीवन है
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