"मैं उन्हें कुछ कह न सका" बात उन दिनों की है जब मैं भारतीय वायु सेना में नौकरी पर जोधपुर में सेवारत था। विवाहित होने के बावजूद मै...
"मैं उन्हें कुछ कह न सका"
बात उन दिनों की है जब मैं भारतीय वायु सेना में नौकरी पर जोधपुर में सेवारत था। विवाहित होने के बावजूद मैं कुछ दिनों से वहाँ अकेला ही रहता था। अब अपनी पत्नी तथा बच्चों को देहली-नारायणा में अपने पैतृक घर से जोधपुर लिवा ले जाने को छुट्टी लेकर आया था। वैसे तो एक फ़ौजी का जब अपने बच्चों से तथा बच्चों का अपने पिता से मिलन होता है तो दोनों को ही लगता है कि जैसे उन्हें दुनिया का नायाब तोहफा मिल गया हो। परन्तु जब बच्चों को यह पता चला कि वे सब मेरे साथ जोधपुर जाएगें तो उनकी खुशी का पारावार न रहा। सबके मन में छिपी-छिपी हर्ष एवं उल्लास की हिलोरें दिखाई देने लगी थी। सबके चेहरे कमल के फूल की तरह खिल उठे थे। सभी अपनी अपनी आवश्यक वस्तुओं को एकत्रित करने में जुट गए थे। ज्यों-ज्यों जाने का दिन नजदीक आता जा रहा था उनके मन में उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
वह दिन भी आ गया जब मैं अपना सब सामान लेकर अपनी पत्नी, संतोष तथा बच्चों के साथ जिनमें एक लड़की, प्रभा जिसकी उम्र पाचँ वर्ष तथा एक लड़का, प्रवीण जिसकी आयु तीन वर्ष थी, नई देहली रेलवे स्टेशन पहुंचा। स्टेशन पर यात्रियों की भारी भीड़ थी। विभिन्न प्रकार के कोलाहल से सारा वातावरण चंचल और गतिमान सा लग रहा था। वहाँ टिकट खिड़की पर लम्बी कतार थी। परंतु मुझे इसकी कोई चिंता न थी क्योंकि मैने जोधपुर मेल की टिकटें पहले से ही आरक्षित करा राखी थी। मैंने अपना रेल का डिब्बा ढूंढा तथा अपने परिवार के सद्स्यों के साथ गाड़ी में सवार हो गया। सोने के लिए हमें ऊपर की आमने-सामने वाली दोनों सीटें मिली थी।
गर्मियों का मौसम होने के कारण डिब्बे में बहुत गर्मी थी। हमारे सभी के शरीर पसीने से भीगे थे। कुछ राहत पाने के लिये मैने डिब्बे की खिड़कियां खोल दी। बाहर आसमान में डूबते सूर्य की लालिमा छाई थी। धीरे-धीरे चारों और अंधकार व्याप्त हो गया। रात के लगभग आठ बजे रेल गाड़ी छुक-छुक करती हुई आगे बढ़ने लगी। आकाश में तारे दिखाई देने लगे थे। पसीनों से भीगे शरीर में हवा लगने से राहत मिली। इसके बाद हम खाना खाकर सोने के लिये ऊपर वाली अपनी सीटों पर चढ़ गये। मेरी लड़की मेरे साथ सो गई तथा लड़का अपनी मम्मी के साथ सो गया।
रात के बारह बजे मेरी निंद्रा भंग हुई तो देखा कि गाड़ी लोहारु स्टेशन पर खड़ी हुई है। मैंने साथ वाली सीट पर नजर डाली तो पाया कि मेरी पत्नी वहाँ नहीं हैं। केवल मेरा लड़का ही उस सीट पर सो रहा है। मैंने सोचा कि शायद मेरी पत्नी शौचालय गई होंगी। इतने में गाड़ी चल दी। मैंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की परंतु मेरी पत्नी लौट कर नहीं आई। मुझे चिंता सताने लगी। मैं सीट से नीचे उतर कर डिब्बे के दोनों और के शौचालय देख आया तथा पूरे डिब्बे में भी नजर डाली परंतु वे कहीं दिखाई न दी।
मुझे चिंता ने आ घेरा। व्याकुलता पल-पल बढ़ने लगी। मैं निढाल सा होकर नीचे सीट से लग कर बैठ गया। कई प्रकार के विचार मन में आने लगे। मैंने सोचा कि शायद वे पिछ्ले रेलवे स्टेशन पर नीचे उतरी होंगी कि पैरों पर थोड़ा ठंडा पानी डाल लेंगी क्योंकि गर्मियों के मौसम में उन्हें पैरों के तलवों में काफी जलन महसूस होती है तथा घर पर वे अमूमन ऐसा ही करती थी। इस बीच गाड़ी अपने गंतव्य की और बढ चली होगी तथा वे किसी और डिब्बे में चढ़ गई होंगी। मैं उतावला होकर आने वाले उस स्टेशन की प्रतीक्षा करने लगा जहाँ अब गाड़ी रूकेगी। लगभग दो घंटे बाद गाड़ी सादुलपुर जक्शन पर रूकी।
गाड़ी के रूकते ही मेरी रगों में एक विध्युत प्रवाह सा दौड़ गया। डिब्बे में चढ़ने वाले यात्रियों के घोर प्रतिरोध के होते हुए भी मैं पलक झपकते रेलवे प्लेट्फार्म पर उतर गया। मेरी बेबस नजरें प्लेटफार्म पर दूर दूर तक अपनी प्रियतमा को खोज रही थी परंतु व्यर्थ। अब मुझे वहां खड़े होकर प्रतिक्षा करना दुष्कर प्रतीत हो रहा था। अतः मैं दौड़-दौड़कर अपने डिब्बे के अलावा प्रत्येक डिब्बे के पास जाकर अपनी पत्नी का नाम तोषी, तोषी (अपनी पत्नी संतोष को मैं प्यार से तोषी कहकर बुलाता था) लेकर पुकारने लगा परंतु कहीं से भी कोई उत्तर नहीं मिला।
मेरे पास समय बहुत कम था। मैं दौड़ कर स्टेशन मास्टर के पास गया तथा विनती करके उनसे पिछ्ले स्टेशन पर दूरभाष कराया कि कहीं मेरी पत्नी पिछ्ले स्टेशन लोहारू पर ही तो नहीं छूट गई है। जब वहाँ से उत्तर मिला कि वहाँ प्लेट फ़ार्म पर कोई स्त्री नहीं है तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानों मेरे पैरों तले की जमीन ही खिसक गई हो। मेरा पूरा शरीर काँप कर रह गया। किसी तरह अपने को सम्भाल कर मैंने स्टेशन मास्टर को हाथ जोड़कर विनती की कि वह रेलगाड़ी को पाँच मिनट और रोके रखें तथा चलने का सिग्नल न दें जिससे मैं अपना सामान गाड़ी से नीचे उतार सकूं।
स्टेशन मास्टर के आश्वासन देने पर मैं तेजी से अपने डिब्बे की और दौड़ा। ज्यों ही मैं डिब्बे के पास पहुंचा तो मुझे अपने लडके की रोने की आवाज सुनाई दी। मैंने उसकी कोई परवाह न करते हुए वहाँ बैठे दूसरे यात्रियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि वे मेरा सामान शीघ्रता से गाड़ी से नीचे उतरवा दें। मेरा इतना कहना था कि मेरे कानों में मिश्री घोलने वाली एक जानी पहचानी आवाज सुनाई दी ‘क्यों’?
इस ‘क्यों’ शब्द को सुनकर एक पल में ही मेरा सारा उतावलापन, उत्सुकता, चिंता आदि सब समाप्त हो गए। मुझे उस "क्यों" शब्द ने संसार के परम सुख का आभास करा दिया था। मैं एकदम निश्चल एंव स्तब्ध खड़ा एकटक उस तरफ देखता रह गया जहाँ से वह ‘क्यों’ शब्द की आवाज आई थी।
और, मैं उन्हें कुछ कह न सका।
चरण सिंह गुप्ता
W.Z. 653-नारायणा
नई देहली-110028
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