हिन्दी के आरंभिक उपन्यासों में स्त्री चेतना के बीज पाये जाते हैं। प्रथम गद्य रचना ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’, ‘वामा शिक्षक’, ‘भाग्यवती’, ‘सु...
हिन्दी के आरंभिक उपन्यासों में स्त्री चेतना के बीज पाये जाते हैं। प्रथम गद्य रचना ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’, ‘वामा शिक्षक’, ‘भाग्यवती’, ‘सुन्दर शिक्षक’ और ‘परीक्षा गुरु’ आदि में स्त्री चेतना ही निहित है। जैसे-जैसे समाज में नारी की स्थिति में बदलाव आया है, वह अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत हुई है। स्त्री अपनी गुलाम मानसिकता वाली छवि, सती-साध्वी या पति-परमेश्वरी को तोड़कर अपना स्वतंत्र वजूद बनाना चाहती है। आधुनिकता और बौद्धिकता के कारण वह अपने निज स्वरूप और अपनी भावनाओं एवं इच्छाओं के प्रति सचेत हुई है। महादेवी वर्मा के अनुसार -‘‘हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी पर प्रभुत्व, केवल अपना वह स्थान वे स्वत्व चाहिये जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन सकेगी’’ (श्रृंखला की कडियाँ,अपनी बात से)
समकालीन महिला लेखन नारी के अस्मिता व स्वतंत्र अस्तित्व की खोज का लेखन है। उन्होंने सदियों की चुप्पी को तोड़ा है। वह पुरानी रूढियों, रीति रिवाजों को मानने के लिए विवश नहीं है। अपने निर्णय वह स्वयं लेती है। ‘कोहरे’ की नायिका कहती है कि ‘‘औरतें जितनी कमजोर दिखती है उतनी ही वह भीतर से ठोस होती है।’’ चित्रा मुद्गल के शब्दों में ‘‘नारी चेतना की मुहिम स्वयं स्त्री के लिए अपने अस्तित्व को मानवीय रूप में अनुभव करने और करवाने का आन्दोलन है कि मैं भी मनुष्य हूँ और अन्य मनुष्यों की तरह समाज में सम्मानपूर्वक रहने की अधिकारी हूँ।’’ उनका ‘आवां’ उपन्यास स्त्री चेतना को अभिव्यक्ति देता समय से पड़ताल है। मैत्रेयी पुष्पा की ‘फैसला’ कहानी स्त्री का वह तेवर और पहचान है जो पुरुष वर्चस्व के आतंक तले कभी अभिव्यक्ति नहीं पा सका, लेकिन अब उभर रहा है। आज का महिला लेखन किसी विशिष्ट चौखट में बंधने को तैयार नहीं।
भूमंडलीकरण ने उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया है। ममता कालिया का ‘दौड़’ इस पूरे विमर्श की प्रस्तुति है। उपभोक्तावादी संस्कृति की विरूपता को व्यक्त करती रचनाओं में नीलम शंकर की ‘प्रतिशोध’, अल्पना मिश्र की ‘पड़ाव’ जैसी रचनाएँ समाज को दिशा देने की द्दष्टि से उल्लेखनीय है। स्वातंत्रयोत्तर महिला लेखिकाओं ने नैतिक मूल्यों के प्रति जागृत होकर हिन्दी कथा साहित्य को नयी दिशा देने का प्रयत्न किया। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, सूर्यबाला, मालती जोशी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा आदि लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री की साहसिकता का परिचय देकर उसकी मानसिक पीड़ा को बहुत ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्ति दी है। कृष्णा सोबती ने ‘मित्रो मरजानी’ के माध्यम से एक स्त्री की साहसिकता व्यक्त की है। उनकी मित्रो एक ऐसी पात्र है जिसने नैतिकता का आडंबर छोड़कर अपनी दैहिक जरुरतों की खुलकर अभिव्यक्ति की है। मृदुला गर्ग का चितकोबरा, नासिरा शर्मा का शाल्मली, प्रभा खेतान का छिन्नमस्ता आदि नारी की विभिन्न समस्याओं को अभिव्यक्त करने वाले उपन्यास हैं। मृदुला गर्ग का ‘मैं और मैं’ एक महिला लेखिका के जिन्दगी के संघर्ष को चित्रित करने वाला उपन्यास है। पारिवारिक जिम्मेदारियां और लेखन के द्वन्द्व के बीच फंसी नारी की विवशता का चित्रण इसमें है। मैत्रेयी पुष्पा का चर्चित उपन्यास ‘इदन्नमम’ स्त्री संघर्ष का जीवंत दस्तावेज कहा जाता है। वैश्विक तथा भारतीय परिवेश में स्त्री शोषण की कहानी सुनाने वाला एक और उपन्यास है-‘कठगुलाब’। कठगुलाब के सभी पुरुषों द्वारा नारी को पीड़ित एवं प्रताड़ित दिखाया गया है। आधुनिक काल की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण स्त्री का भी सर्वांगीण विकास हुआ। वह घर से बाहर आने लगी। पुरुष पर ज्यादा निर्भर रहना उसे पसंद न आया। परिणामतः पति पत्नी में झगड़ा शुरू हो गया। एक दूसरे को सहना मुश्किल हो गया तो तलाक का प्रश्न भी सामने आया। मन्नु भंडारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’ में दाम्पत्य जीवन की समस्याएं हैं। दोनों की अहंवादी प्रकृति के कारण दाम्पत्य जीवन की समस्याएं शुरू होती हैं। आपका बंटी अपने समय से आगे की कहानी कहता है। शकुन के जीवन की सबसे बडी ट्रेजेडी यह है कि वह व्यक्ति और माँ के द्वन्द्व में न व्यक्ति बनकर जी सकी और न माँ बनकर यह अकेली शकुन की ट्रेजेडी न होकर भारतीय समाज की सैकड़ों स्त्रियों की दास्तां है।
हिन्दी उपन्यास साहित्य में ‘स्त्री विमर्श’ पिछले तीन-चार दशकों से एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुका है। महिलायें पारम्परिक रूढ़िवादी सोच को चुनौती देती हुई पूरे साहस के साथ खुलकर अपनी बात कह रही है। नासिरा शर्मा का ‘एक और शाल्मली’ जिसमें घर और बाहर अपने अधिकार माँगती आजादी के बाद की उभरती एक अलग किस्म की स्वतंत्रचेता स्त्री है जो पति से संवाद चाहती है, बराबरी का दर्जा चाहती है, प्रेम की माँग करती है जो उसका हक है। शाल्मली एक स्थान पर कहती है ‘‘मैं पुरुष विरोधी न होकर अत्याचार विरोधी हूँ मेरी नजर में नारी मुक्ति और स्वतंत्रता समाज की सोच, स्त्री की स्थिति को बदलने में है।’’ नासिरा शर्मा का एक और उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ जिसमें बचपन में बिना पैसे के लेन-देन के मंगनी हो जाती है और लड़का बड़ा होने पर शादी करने से मुकर जाता है। इस पर जुझारू औरत टूटती नहीं, वह अपना एक घर बनाती है, एक वजूद हासिल करती है और मर्द के लौटने पर उसे दुबारा कुबूल नहीं करती। यह संघर्षशील नारी बदली हुई स्थितियों में पुराने मूल्यों की पड़ताल करती है। स्वतंत्रता के बाद की लेखिकाओं की रचनाओं में आत्माभिव्यक्ति के साथ-साथ नारी जीवन की विभिन्न स्थितियों का वर्णन मिलता है। ‘कुइयाँ जान’ उपन्यास के केन्द्र में पानी की समस्या है। इस समस्या से रू-ब-रू होती औरतों में सामाजिक सरोकार उभर आते हैं और वे पर्यावरण के मुद्दे पर बात करती हैं।
कृष्णा सोबती की नारी स्थूल द्दष्टि में देखने पर कामनाओं द्वारा संचालित विशुद्ध देह के स्तर पर जीवन जीती नारी है, लेकिन जरा सी गहराई में उतरते ही वह स्त्री अस्मिता की उँचाईयों को छूने के प्रयास में जिन मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था व्यक्त करती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। मित्रो और रत्ती के जरिये बहिष्कृत स्त्री को उन्होंने पहले-पहल हिन्दी कथा साहित्य में स्थान दिया। इसके विपरीत मंदा (इदन्नमम), सारंग (चाक) और कदम बाई (अल्मा कबूतरी) बनी बनाई कसौटियों को तोड़ने या उन पर स्वयं कसने के तनाव भरे द्वन्द्व से मुक्त होकर समाज में अपनी पहचान बनाती है।
स्त्रियों के बहुआयामी जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं को कतरा-दरकतरा निचोड़ता हुआ रेशा-दर-रेशा बुनता हुआ यह कथात्मक साहित्य उनकी जिन्दगी के अंधेरे कोनों में सूर्य किरणों की भाँति घुसकर आर-पार देखने का जोखिम उठा रहा है। शशीप्रभा शास्त्री (‘नावें’, ‘सीढ़ियाँ’), मृदुला गर्ग (‘उसके हिस्से की धूप’), मंजुल भगत (‘अनारो’), कुसुम अंसल (‘उसकी पंचवटी’, ‘अपनी अपनी यात्रा’), उषा प्रियंवदा (‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ , ‘रुकोगी नहीं राधिका’), मन्नु भंडारी (‘आपका बंटी’), कृष्णा सोबती (‘सूरजमुखी अंधेरे के’, मित्रो मरजानी’), ममता कालिया (‘बेघर’), प्रभा खेतान (‘छिन्नमस्ता’, ‘पीली आँधी’), राजीसेठ (‘तत्सम’), मेहरुन्निसा परवेज (‘अकेला पलाश’), अलका सरावगी (‘कलिकथा वाया बायपास’), नासिरा शर्मा (‘ठीकरे की मंगनी’, ‘शाल्मली’) आदि लेखिकायें स्त्री विमर्श को सुविचारित रूप में कथा साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत कर रही है।
--- डॉ. दीप्ति बी. परमार एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग आर. आर. पटेल महिला महाविद्यालय, सौराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजकोट
डॉ. दीप्तिजी ने नारी होने के नाते नारी वर्ग की कठिनाइयों को सहजता एवं स्वाभाविकता से पकडा है । नारी ह्रदय की प्रतिपल धड्कन को चित्रित करने का न केवल स्तुत्य प्रयास किया है, अपितु मन की सूक्ष्म परतों की गहराई में उतरकर उन्हें जानने, समझने व विश्लेषित करने का प्रयास भी किया है । हालांकि स्त्री सशक्तिकरण के लिए अभी लम्बा सफर तय करना है । इस चिंतनपरक लेख के लिए आभार ।
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