रा त गहरी हो चुकी थी, परन्तु धनेसरी को नींद नहीं आ रही थी। बुढ़ापा और नींद का वैसे भी आपस में बैर होता है। बुढ़ापे में मन इधर-उधर भागता है, जी...
रात गहरी हो चुकी थी, परन्तु धनेसरी को नींद नहीं आ रही थी। बुढ़ापा और नींद का वैसे भी आपस में बैर होता है। बुढ़ापे में मन इधर-उधर भागता है, जीवन के प्रति मोह जगाता है, भूतकाल को याद करके अफसोस करता है और रीत चुके पलों को फिर से पाने के लिये लालायित रहता है।
पता नहीं रात कितनी बीत चुकी थी, कुआर का महीना था और जाड़ा बदन को सिहराने लगा था। उसने खमसार में चारपाई डाल रखी थी। खुले दरवाजे से आंगन के ऊपर पसरे आसमान का एक कोना सितारों से जगमगा रहा था। रजाई को सिर की तरफ खींचते हुए उसने करवट बदली, तो चारपाई चरमराकर रह गई।
तभी एक धप् की आवाज हुई, जैसे कोई दीवाल के ऊपर से आंगन में कूदा हो। आंगन कच्चा था, अतः आवाज हल्की थी, परन्तु धनेसरी के कान सजग थे। रात में वैसे भी सन्नाटे की दीवार बहुत पतली होती है और हल्की आवाज भी बहुत दूर तक हवा में तैरकर पहुंच जाती है। आवाज सुनकर धनेसरी एक पल के लिए सहम सी गई। बिना हिले-डुले कानों को आंगन की तरफ लगा दिया, फिर उसे लगा जैसे कोई सरक कर चल रहा हो। उसके पांवों की आवाज तो नहीं आ रही थी, परन्तु सांप जैसी फुफकारने की आवाज जरूर आ रही थी। क्या यह कोई जानवर था... रेंगने वाला जानवर, या कोई आदमी, जिसकी सांसों की आवाज फुफकार जैसी हवा में तैरती हुई उसके कानों तक पहुंच रही थी। अगर यह कोई आदमी था, तो जरूर घबराया हुआ होगा, तभी गहरी-गहरी सांसें ले रहा था। क्या वह कोई चोर होगा? ...लेकिन चोर उसके घर में क्या लेने आया होगा? घर में उसकी बहू और उसके अलावा और था ही कौन। छोटा बेटा खेतों की रखवाली के लिए खेतों के बीच बनी कुटिया में सोने के लिए गया हुआ था। बड़ा लड़का पंजाब में था और वहां किसी ईंट भट्ठे में काम करता था।
घर में दो-चार बर्तन और पहनने ओढ़ने के कपड़ों के सिवा और था ही क्या? खेतों में मुश्किल से इतना पैदा होता था कि दो जून की रोटी-दाल का जुगाड़ हो सके। ऊपर से नीलगायों का प्रकोप फसलों पर इस कदर बरपा होता था कि एक ही रात में हरी-भरी लहलहाती फसलें चौपट हो जाती थीं। उन्हीं नीलगायों से फसल को बचाने के लिए छोटा बेटा मूलचन्द रात को खेतों में सोता था। बड़ा बेटा पंजाब चला गया था कि दो पैसे अतिरिक्त आएंगे तो घर की हालत में कुछ सुधार होगा, वरना जवान बीवी को छोड़कर जाने का उसका मन नहीं करता था। छोटा भाई मूलचन्द थोड़ा आलसी था। हरदम काम से जी चुराता था। रात में खेतों की रखवाली जरूर करता था, परन्तु खेतों के मोटे काम से जी चुराता था। धनेसरी ही अपनी बहू कुसुम के साथ खेती-बाड़ी का काम संभालती थी।
क्या देखकर चोर उसके घर में घुसा होगा? धनेसरी सोचने लगी, आंखें चौड़ी करके आंगन में देखने लगी। कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। माह का अन्धेरा पाख था और आसमान के तारों की रोशनी धरती को प्रकाशवान करने में नाकाम थी।
चोर भी घुसता तो कोई अच्छा घर देखकर घुसता। यहां तो चोरी करने पर एक बोरा अनाज भी उसे नहीं मिलेगा। बहू के दो-चार गहने होंगे, चांदी के, उनकी क्या कीमत होगी? पुराने हैं, बेचने पर एक चौथाई भी नहीं मिलेगा... फिर... फिर... क्या उसकी बहू... अचानक धनेसरी का माथा ठनका। कहीं बहू से मिलने तो नहीं घुसा है कोई घर में... क्या पता... बहू तो नायाब हीरा है। जवान, खूबसूरत और तराशा हुआ बदन... क्या उसका कोई यार आया है उससे मिलने? धनेसरी को शंका तो नहीं थी। बहू उसे सुशील और सज्जन लगती थी, अपने काम से काम रखने वाली... अड़ोस-पड़ोस में या राह चलते किसी से ज्यादा बात या हंसी-मजाक नहीं करती थी। गांव के आवारा लड़के या निठल्ले, हुश्न के शौकीन मर्द भी उसके घर के चक्कर नहीं लगाते थे। बहू भी खेत-खलिहान उसी के साथ आती-जाती थी। फिर क्या यह संभव था कि उसका किसी मर्द के साथ टांका भिड़ गया हो और वहीं रात के अन्धेरे में दीवार फांदकर उससे मिलने आया हो। पश्चिम दिशा की दीवार कच्ची थी और वर्षों से बरसात की मार झेलते-झेलते आधी रह गयी थी। न जाने कब से उसकी मरम्मत नहीं हुई थी और उसके ऊपर कोई छप्पर भी नहीं था कि बरसात की बूंदों से उसका बचाव हो सकता। उस दीवार को फांदकर बड़ी आसानी से कोई भी व्यक्ति उसके घर के आंगन में घुस सकता था या आनन-फानन में लांघकर बाहर जा सकता था।
बहू की तरफ से धनेसरी का मन साफ था, परन्तु मनुष्य के मन में क्या है, किसी को क्या पता चल सकता है। कुसुम ऊपर से भोली बनने और दुनिया से निस्पृह रहने का दिखावा कर सकती थी, परन्तु अन्दर ही अन्दर वह कोई गुल खिला दे तो किसी को कैसे पता चल सकता है? मानव चरित्र का कोई भरोसा नहीं, कब बदल जाए।
तभी जोर का खटका हुआ... धनेसरी चमककर खटिया में उठकर बैठ गयी। अब कोई शक़ नहीं रह गया था। वह डरी नहीं, वरन् हौले से चारपाई से उतरी और खमसार के दरवाजे पर अपनी लाठी टेककर बोली, ''कौन है, कौन है वहां...? अरी बहू... नासपीटी, जहर पीकर सो रही है क्या? देख तो कौन घर में घुस आया है?''
कुछ पल सन्नाटा रहा। बहू शायद गहरी नींद में थी। धनेसरी भी आहट लेती रही, जब कोई आवाज नहीं आई तो वह आंगन में आकर जरा जोर से बोली, ''बहू! मरी, उठती क्यों नहीं? ऐसी भी क्या नींद जो नगाड़े की आवाज से भी न टूटे। बदबख्त, मरी, कोई खसम के साथ नहीं सो रही है जो उठ नहीं सकती।'' कहते-कहते वह आंगन के चारों तरफ धुंधली आंखों से देखने लगी।
तभी अचानक दाहिनी तरफ की दीवार की आड़ से कोई शख्स तेजी से झपटा और दीवार फांदकर नौ-दो ग्यारह हो गया। धनेसरी हक्की-बक्की रह गयी। उसकी समझ में नहीं आया कि वह कौन था, और भाग क्यों गया? अगर चोर था, तो उसके ऊपर हमला करके गिरा सकता था, घायल कर सकता था और घर को लूटकर आसानी से भाग सकता था। फिर वह बिना कुछ किए क्यों भाग गया था? क्या वह बहू के ही चक्कर में आया था और उसके जाग जाने के कारण मुंह छिपाकर भाग गया था? क्या वह गांव का कोई आदमी था, जिसे अपने पहचान लिए जाने का डर था? बहू क्या इसीलिए सांस रोककर लेटी हुई थी और उसके आवाज देने के बाद भी नहीं उठी थी कि उसकी पोल खुल जाएगी।
पल भर में ही तमाम तरह के खयाल धनेसरी के मन में हल-चल मचा गये।
कुसुम दक्षिण वाली एक मात्र कोठरी में सोती थी, अन्दर से दरवाजा बन्द करके... अभी भी उसका दरवाजा बन्द था। सास के चीखने-चिल्लाने पर भी वह नहीं उठी थी। इतनी आवाज पर तो पूरा गांव जाग गया होगा। धनेसरी गुस्सा हो गयी। पहले तो हाथ की लाठी से दरवाजा ठकठकाया, फिर अपने बूढ़े हाथों से पूरी ताकत के साथ उन्हें भड़भड़ाने लगी। गुस्से में वह भद्दी-भद्दी गालियां भी देती जा रही थी। कई मिनट बाद अन्दर से आवाज आई, ''क्या हुआ अम्मा? चिल्ला क्यों रही हो?'' फिर किवाड़ भड़ाक से खुल गये।
धनेसरी भी उसी सुर में चिल्लाई, ''मरी यहां आग लगी हुई है और तू घोड़े बेचकर सो रही है। आग लगे ऐसी नींद को और ऐसी जवानी को... कि न कुछ सुनाई पड़ता है, न दिखाई। न जाने कौन सा दिन दिखाएगी ये जवानी। सोचती होगी, मैं मर-खप जाऊं तो खुल्लम-खुल्ला खेल खेले। अभी मैं हूं न! इसकी आंखों की किरकिरी... इसीलिए खुलकर नहीं खेल पाती।''
कुसुम अपने कपड़े संभालते हुए बाहर निकली और जोर से पूछा, ''क्या हुआ अम्मा? इतनी रात गए क्यों चीख-चीखकर गांव को सर पर उठाए हुए हो। साफ-साफ बताओ, क्या हुआ? खाली बक-बक ही करती रहोगी या...?''
''हां, हां, बताऊंगी क्यों नहीं? दुनिया भर की खबरें बताने के लिए मैं ही एक बची हूं। तेरे को तो जैसे कुछ पता नहीं...!'' वह हाथ नचाकर बोली।
''मुझे क्या पता है?'' कुसुम ने आश्चर्य से पूछा।
''ये लो! सारी रामायण खत्म हो गई और पूछ रही है कि सीता किसका बाप था। तेरा खसम आया था, खसम क्यों यार। वो तो मैं जाग न रही होती, तो अब तक वह तेरे ऊपर होता। हाय राम! बेटा बेचारा धूल-मिट्टी में सना तपती धूप में अपने को गला रहा है और एक ये है करमजली, जो अपनी जवानी की आग बुझाने के लिए पराये मर्दों को घर में बुला रही है, कोई डर नहीं। इतनी ही जवानी फटी पड़ रही थी तो मरद के साथ चली जाती या घर में जवान देवर भी तो बैठा था। यही दिन देखना बदा था। तेरे कारण और न जाने क्या-क्या देखना पड़े... अब किसी को क्या मुंह दिखाऊंगी कि जवान बहू घर में कौन सा खेल खेल रही है... एक तो गरीबी का कलंक, ऊपर से बदनामी... भगवान क्या होगा, तू मुझे उठा क्यों नहीं लेता। यही दिन देखने के लिए मुझे जिन्दा रखा। हाय राम! फूलचन्द के बापू, तुम तो सही समय पर ऊपर चले गये, मुझे यहां छोड़ गए, दुःख तकलीफ और बेइज्जती झेलने के लिए। यह मरा, मूलचन्द भी खेतों में सोता रहा। नहीं तो कुत्ते की तरह दौड़कर पकड़ता और गर्दन दबोच लेता, उस कमीने की। पता चल जाता इसके यार को कि पराये घर की औरतों की इज्जत लूटने का क्या अंजाम होता है।'' धनेसरी अनाप-सनाप बकती जा रही थी। उसकी स्वयं की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या कह रही थी। और कुसुम की तो बोलती ही बन्द हो गई थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि बुढ़िया को इतनी रात गये कौन सा दौरा पड़ गया था, जो उल्टी-सीधी बातें कर रही थी, चीखे-चिल्लाये जा रही थी।
अब तक तो पूरा गांव जाग गया होगा, क्या पता उसके घर के आगे सारे लोग इकट्ठा न हो गए हों... वह डरते-डरते बोली, ''अम्मा थोड़ा चुप भी करो। जरा आराम से एक-एक बात बताओ कि क्या हुआ। जब तक मेरी समझ में कुछ नहीं आएगा, मैं आपको क्या जवाब दूंगी ? सारा गांव दरवाजे पर इकट्ठा हो गया होगा, जरा धीरे बोलो।''
बुढ़िया और ज्यादा उखड़ गई। बुड्ढे और बच्चे अगर किसी बात पर नाराज हो जाएं तो जल्दी मानते नहीं। यही हाल धनेसरी का था। किसी मर्द के घर में फांदकर आने का वह एक ही मतलब निकाल रही थी। उसके आगे उसकी सोच ठप्प हो गई थी। न और कुछ वह सोच पा रही थी, न कह पा रही थी। पत्थर की लकीर की तरह उसके मन में यह घुस चुका था कि जो भी मर्द उसके घर में आया था, उसका एक ही मकसद था... वह था कुसुम से मिलना और उसके साथ व्यभिचार करना।
''अब किस-किस से छुपायेगी रांड़! आज नहीं तो कल, सबको पता चलना ही था। ऐसे खेल ज्यादा दिन तक किसी की नज़रों से छिपे नहीं रहते!''
''कौन से खेल! मैंने कौन सा खेल किया है? तुम्हारी मति मारी गई है।'' वह खीझकर बोली।
''हाय दइया! देख तो कैसे बात कर रही है, चोरी और सीना जोरी... कहती है, मेरी मति मारी गई है।'' धनेसरी ज़मीन पर बैठ गई। अपने दोनों पैर इधर-उधर पटकने लगी। कुसुम भी हतप्रभ और परेशान होकर वही जमीन पर बैठ गई। ऊपर आसमान के तारे उनको देखकर हंस रहे थे। दोनों ही कम कपड़ों में थीं, परन्तु किसी को भी सर्दी का एहसास नहीं हो रहा था। बातों की गर्मी ने उनके तन-बदन को झुलसा रखा था। मौसम की सर्दी का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था।
''अब क्या बचा? नाक तो कटवा दी।'' धनेसरी बोली। कुसुम ने चुप्पी साध ली। बुढ़िया जब सीधे ढंग से कोई बात नहीं बताती, तो वह क्यों पूछे? वह उठकर बाहर की तरफ गई और दहलीज में खड़ी होकर बाहर का अनुमान लगाने लगी। बाहर थोड़ी हल-चल थी, जैसे कुछ लोग इकट्ठा होकर आपस में बातें कर रहे हों। लोग जिज्ञासा में एक दूसरे से पूछताछ कर रहे होंगे कि फूलचन्द के घर से चीखने-चिल्लाने की आवाजें क्यों आ रही थीं? उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा होगा, तो कयास लगा रहे होंगे। अच्छा बवाल खड़ा कर दिया बुढ़िया ने... न साफ-साफ कुछ बताती है, न चुप रहती है।
''हां, हां, जा, दरवाजा खोलकर बुला ले उसे, अभी तेरी प्यास कहां बुझी है?'' धनेसरी पीछे से चिल्लाई। कुसुम के बदन में आग लग गई। तमककर पीछे मुड़ी और बुढ़िया के सिर के ऊपर खड़ी होकर बोली, ''शरम नहीं आती तुमको, पता नहीं क्या बक रही हो? किसको मैंने घर के अन्दर बुला लिया?''
''यही पता होता तो अब तक मुंडी पकड़कर पटक न देती, भाग गया... नामर्द कहीं का। एक बार पता चल जाए... तू बताएगी, कौन था वह?''
''कौन था वह?'' कुसुम ने बिना कुछ समझे दोहराया।
''यही तो पूछ रही हूं।'' बुढ़िया किलबिलाई।
''कहां, कौन था?''
''अब इतनी भोली न बन, तुझसे मिलने रोज आता है।, आज पकड़ में आने से पहले भाग गया... नाटक मत कर...!''
कुसुम की बुद्धि चकरा गई, बुढ़िया गोल-गोल बातें कर रही थी। उसने साफ पूछा, ''क्या घर के अन्दर कोई घुसा था?''
''अभी तक और कौन सी रामायण पढ़ रही थी मैं? गलती हो गई जो पहले ही शोर मचा दिया... तेरे कमरे में घुस जाता और मैं बाहर से कुंडी लगा देती, तब मजा आता। सारे गांव को इकट्ठा करके रंगे हाथ रंगरेलियां करते पकड़वाती, तब देखती कैसे मुझसे ऐसी चोंचलेबाजी करती? आग लगा देती, तुम दोनों को... समझी?''
कुसुम की समझ में बात कुछ-कुछ आने लगी थी। वह अपनी सास के प्रति क्रोध से भर उठी। सठिया गई है, बुढ़ापे में... अकल काम नहीं करती। घर की कोई बात थी, तो पहले उसे बताती। पहले ही ढिढोंरा पीटने लगी। पता नहीं कौन था, कोई आदमी या जानवर... वह आदमी चोर भी तो हो सकता था, क्या पता बुढ़िया ने ठीक से देखा भी था या नहीं... बुढ़ापे में आंखों से साफ कहां दिखाई पड़ता है? वैसे भी घनी अंधियारी रात है। रोशनी का कतरा भी कहीं नज़र नहीं आ रहा था। बुढ़िया ने क्या देखा, क्या समझा? परन्तु उसकी बातों से तो यही लग रहा था कि उसे कुसुम के ऊपर शक था कि उसका कोई यार उससे मिलने आया था।
कुसुम का दिमाग चकरा गया। एक धमाका सा हुआ उसके दिलो-दिमाग में... अन्दर ही अन्दर उसकी आत्मा कांपकर रह गयी। वह समझ गयी, आज उसके साथ कुछ बुरा हो सकता था। तो उसने सच कहा था कि जल्द ही बदला लेगा। किस प्रकार बदला लेता उससे, अगर उसकी कोठरी में प्रवेश कर जाता। कुछ सोचते हुए वह कांपकर रह गई। जाड़े में भी उसे पसीने छूटने लगे। अगर बुढ़िया के जागने के कारण वह भाग न जाता, तो क्या उसकी इज्जत सही-सलामत रह सकती थी? या वह जिन्दा बची रह सकती थी। तरह-तरह के खयाल उसके मन में आ रहे थे। वह बेचैन होती जा रही थी, घबरा भी रही थी।
कुसुम अपने खयालों में गुम थी और धनेसरी अपना सुर अलापे जा रही थी।
''अब तो भगवान का ही भरोसा है, कल भगवान शंकर के चबूतरे पर गंगाजल लेकर पूछा जाएगा, तब बताना कि कौन था तेरा यार और कब से तू उसके साथ गुलछर्रे उड़ा रही है।'' धनेसरी हताश स्वर में बोली, अब उसका स्वर कुछ धीमा पड़ने लगा था। चीख-चीख कर गला बैठ गया था।
''गंगाजल लेकर तुम कसम खाना कि तुमने किसके साथ मुझे कुकर्म करते हुए देखा है। बात तो तुमने उडा़ई है, मैं क्या जानूं कौन था, कहां था और कब यहां आया था। मैंने तो किसी को नहीं देखा। तुमने देखा है, तो पकड़कर लाओ और कबूल करवाओ कि वह हमारे घर में क्यों घुसा था?'' वह चिढ़कर बोली। बुढ़िया की अनाप-शनाप बातों से वह खफा हो रही थी, वरना वह जानती थी कि इसी बुढ़िया की वज़ह से आज वह सही-सलामत है।
''सब दूध का दूध हो जाएगा... भगवान सबके करम देखता है, तू जितना चाहे छिपा ले, पाप एक दिन बाहर आ ही जाएगा।'' वह जमीन पर लगभग लेटती हुई बोली।
''तो कर ले पंचायत बुढ़िया... यही ठंड में मर नहीं जाती। बिना सोचे-समझे लांछन लगा रही है। खुद जवानी में जो किया, वही तुझे हर जगह दिखाई देता है। पंचायत में क्या तेरी पोल नहीं खुलेगी। मैं भी सब सच बयान कर दूंगी।'' कुसुम उठी और अपने कमरे में जाकर भड़ाम से पीछे से किवाड़ बन्द कर लिए।
बुढ़िया आंगन में बैठी, चीखती-चिल्लाती रही। बाहर के लोगों ने इसे सास-बहू का झगड़ा समझा और अन्त में अपने-अपने घर जाकर सो रहे।
धनेसरी अनपढ़ और गंवार थी। बूढ़ी भी हो चुकी थी। ऐसी औरतें बिना सोचे-समझे कोई भी कदम उठा लेती हैं, अपना नुकसान करती हैं और मजे की बात ये कि बाद में पछताने जैसा भाव भी उनके मन में नहीं आता।
धनेसरी ने अपने घर में घुसने वाले व्यक्ति को न तो ठीक से देखा था, न यही पता था कि वह कौन था और किस उद्देश्य से उसके घर में घुसा था। उसने इस क्रिया का तुरन्त परिणाम निकाल लिया था कि उसके घर में जवान सुन्दर बहू थी, बेटा बाहर रहता था। जरूर बहू के किसी गांव के आदमी से नाजायज सम्बंध बन गये होंगे, इसलिए वह रात के अन्धेरे में दीवार फांदकर उससे मिलने आया होगा। बुढ़िया के मन में एक बार भी यह खयाल नहीं आया कि अगर यही सच होता तो बहू उसे घर में बुलाने का जोखिम क्यों उठाती। गांव में तमाम ऐसी सूनी जगहें हैं, जहां वह दोनों बेखौफ होकर मिल सकते थे। या उसकी बहू खुद दरवाजा खोलकर उसे रात में चुपचाप अन्दर कर लेती, बुढ़िया को क्या पता चलता?
धनेसरी को अपने घर की इज्जत, बहू के मान-सम्मान से कोई लेना-देना नहीं था। उसके मन में खलबली मची थी और वह सुबह होते न होते पूरे गांव में यह खबर फैला चुकी थी कि उसकी बहू बदचलन थी, गांव के किसी आदमी से उसका टांका भिड़ा था, और वह आदमी रोज रात को उसकी बहू से मिलने आता है। आज वह जाग रही थी और उसने दीवार से कूदते हुए उस व्यक्ति को देख लिया था। उसके शोर करने पर वह व्यक्ति भाग खड़ा हुआ था। बच गया, वरना धनेसरी उसकी खोपड़ी तोड़ देती।
अच्छी बात पर लोगों को सहज विश्वास नहीं होता, परन्तु किसी के बारे में गलत बात पर लोग तुरन्त विश्वास कर लेते हैं। कुसुम के बारे में भी यही हुआ। जिन औरतों के साथ उसका रात-दिन का उठना-बैठना था, जो उसके चरित्र के एक-एक पहलू से परिचित थीं, उनके मन में भी शक़ के बादल मड़राने लगे कि क्या पता... सच ही होगा। अकेली औरत है, पति से भी दूर रहती है। मन चंचल होता है, किसी के साथ लग गया होगा। परन्तु वह है कौन? हर औरत को अपने-अपने मर्दों पर शक होने लगा।
उधर गांव के मनचले युवकों और लम्पट आदमियों का भी बुरा हाल था। वह सभी एक-दूसरे को शक की निगाहों से देख रहे थे, पता नहीं उनमें से कौन ऐसा भाग्यशाली पुरुष होगा, जिसने अपनी लच्छेदार बातों और मनमोहक अंदाज से कुसुम को पटा लिया था।
कुसुम को पटाने का प्रयास तो उस गांव के लगभग सभी मर्दों ने किया था, परन्तु वह न जाने किस मिट्टी की बनी थी कि न तो किसी की बात या गंदे मजाकों का जवाब देती, न कोई प्रतिक्रिया जाहिर करती। वह बिना कुछ बोले अपनी राह जाती या घर में बैठी रहती। अड़ोस-पड़ोस की औरतों के साथ अड्डा जमाने की भी उसे आदत नहीं थी। वह अपने काम से काम रखने वाली स्त्री थी। घर से बाहर बहुत कम निकलने वाली, किसी से ज्यादा बात न करने वाली... किसी मर्द से हंसी-मजाक न करने वाली जवान औरत को किस मर्द ने फंसा लिया था, यह पूरे गांव की औरतों और मर्दों के लिए बहुत बड़ा आश्चर्य था। आज इस आश्चर्य का पटाक्षेप होनेवाला था।
सभी लोग सोच रहे थे, और एक दूसरे को शक की निगाहों से देख भी रहे थे कि उनमें से कौन ऐसा सुन्दर, जवान और कामदेव का अवतार उस गांव में पैदा हो गया था, जिसके फन्दे में चुप रहने वाली गंभीर स्वभाव की औरत फंस गई थी। गंभीर और चुप रहने वाले लोग ही कभी-कभी ऐसा खेल दिखा जाते हैं कि किसी को विश्वास नहीं होता। कुसुम को ही लो, कैसे आज तक सबकी आंखों में धूल झोंकती रही और पराए मर्द की बाहों में लिपटकर जवानी का सुख लूट रही थी... उसका पति बेचारा... क्या जमाना आ गया है, लोगों ने आह् भरकर सोचा।
प्रश्न अभी तक शेष था। वह कौन भाग्यशाली पुरुष था, जिसको कुसुम जैसी नवोढ़ा सुन्दर स्त्री का सानिध्य प्राप्त हुआ था। स्त्रियों को अपने मर्दों पर शक था, तो लोग एक दूसरे को शंका भरी नज़रों से देख रहे थे। लड़कों को इस बात का खेद था कि उनको ऐसा सौभाग्य क्यों नहीं प्राप्त हुआ? सभी अपनी-अपनी जगह पर दुःखी थे।
धनेसरी के दरवाजे पर मजमा लगा हुआ था। ढेर सारी चिल्लपों और कनफूसियों के बाद गांव के स्वयंभू मालिक, गरीबों के हितैषी, हजार देकर दस हजार वसूलने वाले ज्ञानी और कर्मकांडी पंडित श्री कृपाशंकर शुक्ल ने पूछा, ''इतनी तलवारबाजी हो गई, परन्तु यह नहीं पता चला कि रात का वह योद्धा कौन था, जिसके कलेजे में इतने बड़े बाल हैं, जो बेधड़क धनेसरी के घर में कूदकर उसकी बहू के साथ बदखोरी करने की हिम्मत कर बैठा। बताओ, धनेसरी?''
''मैं क्या बताऊं, मालिक? सारा मामला आप लोगों के सामने है। मैंने देखा होता तो बता देती। बस इतना देखा था कि वह कोई आदमी था, जवान और इकहरे बदन का... सर्र से भाग निकला था।'' धनेसरी ने दुःख भरे स्वर में बयान दिया।
''वह कोई चोर भी तो हो सकता था!'' उन्होंने मन को सान्त्वना देने के लिए कहा।
''चोर किसी खंडहर में क्या चोरी करने के लिए घुसेगा?''
''कोई अनजान चोर होगा! उसे पता नहीं होगा कि तुम्हारे घर में कितना धन गड़ा है।'' किसी ने अंधेरे में तीर मारा।
''अब यह तो कुसुम ही बताएगी कि वह कौन था। किसके साथ उसका टांका भिड़ा है और कितने दिनों से उसके साथ मुंह काला करती फिर रही है... बड़ी बेइज्जती की बात है। एक शादी-शुदा स्त्री की ऐसी बेवफाई... मरद बाहर शहर में खून-पसीना एक कर रहा है और यहां स्त्री गुलछर्रे उड़ा रही है।'' ठाकुर गजेन्द्र सिंह ने अपना मन्तव्य दिया। वह बड़े रसिया किस्म के इंसान थे। उनकी निगाह भी कुसुम पर थी, परन्तु वह हाथ ही धरने नहीं देती थी। अब अपने मन की खुन्दक निकाल रहे थे।
बोलने के मामले में कौओं और मनुष्यों में बहुत समानता होती है। जहां चार कौए इकट्ठा हुए नहीं कि कांव-कांव करके कान फोड़ देते हैं। यही हाल मनुष्यों का है। जहां कहीं इनकी संख्या एक से दो या ज्यादा हुई नहीं कि चर्र-चर्र लकड़ी चीरने लगते हैं।
चारों तरफ से आवाजें आ रही थी, ''हां, हां, बताओ... कौन था वह?'' ''चुप क्यों हो?'' ''गुलछर्रे उड़ाते समय तो खूब चहक रही होगी, अब बोलती क्यों बन्द है?'' ''सास की आंखों में धूल झोंक रही थी।'' ''कितनी सीधी बनती है, परन्तु करम तो देखो।'' ''देखो, इधर पति आंखों के सामने से टरा नहीं कि उड़ने लगी।'' जितने मुंह उतनी बातें...
अन्त में पंडित कृपाशंकर शुक्ल, गजेन्द्र सिंह, भवानी प्रसाद गुप्ता, लालचन्द यादव और हीरा लाल के नेतृत्व में पंचायत बैठी। यही पांचों पंच परमेश्वर बने और पंचायत की कार्रवाई शुरू हुई।
''सबसे पहले धनेसरी तुम बताओ क्या हुआ था?'' पंचों ने पूछा।
धनेसरी ने जो देखा था, उसे नमक मिर्च लगाकर बता दिया, ''मुझे तो पहले ही शक था, इसीलिए रात में जाग-जागकर ताका करती थी। आज रात में पकड़ में आ गया। वो तो अन्धेरा था और मैं बूढ़ी औरत... वरना धरकर दबोच लिया था।'' फिर बुढ़िया ने जो कुछ नहीं देखा था, उसे भी बयान कर दिया, ''मर्दुआ, बहू का दरवाजा खोलकर अन्दर घुस रहा था। यह भी उसका इन्तजार कर रही थी, लेकिन दिखावे के लिए जैसे बिलकुल चीं करके पड़ी थी। मैं चिल्लाई, तो बाहर तक नहीं निकली। मैं अकेली, बूढ़ी जान, कहां वह जवान मरद... कैसे पकड़ पाती?''
''क्यों सरासर झूठ बोल रही है, बुढ़िया। कब्र में पैर लटकाकर बैठी है, कुछ तो ऊपर वाले का ख्याल कर... किस जनम का बदला ले रही है मुझसे?'' कुसुम अचानक बोली।
''तुम अभी चुप रहो, अपना बयान बाद में देना।'' पंचों ने कहा, फिर बुढ़िया से पूछा- ''क्या तुम उसे पहचान पाई थी?''
''कहां मालिक, बड़ा अंधेरा था।'' वह हताश स्वर में बोली, ऐसे जैसे अगर पहचान जाती तो पता नहीं क्या कर डालती।
''हाव-भाव से कुछ लगा हो कि वह कौन था। गांव का कोई आदमी या अनजाना...?''
बुढ़िया सोचने का नाटक करने लगी, जैसे याद करके पहचान जाएगी। फिर बोली, ''मुझे तो गांव का ही कोई आदमी लगता था, परन्तु बता नहीं सकती कौन था वह?'' पंच समझ गये थे कि इससे ज्यादा बताने के लिए धनेसरी के पास कुछ नहीं था। जितना ज्यादा पूछा जाएगा, वह कोई न कोई उल्टी बात बताने लगेगी।
''अच्छा, तुम बताओ, फूलचन्द की बहुरिया, तुम्हारा क्या कहना है इस बारे में?'' पंचों ने कुसुम से पूछा।
कुसुम ने दृढ़ स्वर में कहा, ''चाहे मुझे गंगा नदी के बीच खड़ा कर दो, चाहे आग में झोंक दो, हर हाल में मैं यही कहूंगी कि मैंने कोई गलत काम नहीं किया, मेरे किसी के साथ गलत सम्बन्ध नहीं है, आप माने या न माने, इसके सिवा मैं कुछ नहीं कह सकती, न कुछ जानती हूं।''
''तो क्या जो कुछ तुम्हारी सास कह रही है, वह झूठ है ?''
''उसने क्या देखा, क्या कह रही है, उसके बारे में कुछ नहीं कह सकती, परन्तु यह मेरा भगवान ही जानता है कि मैंने कुछ नहीं किया।'' उसके स्वर में दृढ़ता थी और था आत्मविश्वास...
सारे पंच सन्न बैठे रहे। सभा में भी सन्नाटा छा गया था। लोगों की समझ में नहीं आ रहा था, सच क्या था और झूठ क्या? कुसुम की बातों में दृढ़ता थी, आत्म-विश्वास था, ऐसा आत्म विश्वास किसी सच्चे आदमी की बातों में ही हो सकता था। पंचों ने इस बात को महसूस किया। यूं भी आज तक किसी को कुसुम के बारे में कोई गलत बात पता नहीं चली थी, वरना छोटे से गांव में लोगों के छींकने की आवाज भी बहुत दूर तक सुनाई पड़ती है।
सभी स्तब्ध थे, एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। लगा कि अब पता नहीं चल पाएगा कि वह कौन आदमी था जो कुसुम के साथ बदखोरी करने के लिए रात में उसके घर घुसा था। अनुमान से भी पता नहीं चल पा रहा था। गांव के सारे लोग वहां मौजूद थे। रहस्य भरी खामोशी पसरी हुई थी। लोगों के मन संशय और खेद से सनसना रहे थे।
फिर जैसे अचानक कुसुम ने रहस्योद्घाटन किया, ''पंचों से एक प्रार्थना है, अगर आप ज्यादा सवाल न करें और मेरी बात पर विश्वास करें तो मैं यह बता सकती हूं कि वह कौन था, जो हमारे घर में रात को दीवार फांदकर घुसा था, मैंने उसे देखा नहीं था, परन्तु मैं समझ सकती हूं कि वह कौन हो सकता है। फिर ये बुढ़िया, जो अभी तक टांय-टांय कर रही थी, बिल्कुल चुप हो जाएगी।''
एक पल के लिए फिर से सभा में सन्नाटा छा गया। पंचों ने एक दूसरे की तरफ देखा, फिर पंच प्रधान पंडित कृपाशंकर ने कहा, ''हम आश्वासन देते हैं कि और कोई प्रश्न नहीं करेंगे, तुम बताओ, वह कौन था? परन्तु क्या उसके साथ तुम्हारा कोई संबंध था?''
सुई पटक सन्नाटा छा गया था। सबके दिल धड़क रहे थे कि उन्हीं में से कोई एक होगा... चोर नजरों से सभी एक दूसरे को देख रहे थे कि कौन होगा, जिसने इतने बड़े काण्ड को अन्जाम दिया होगा।
''उससे मेरा संबंध है, परन्तु उस तरह का नहीं जैसा आप समझ रहे हैं।''
''अच्छा बताओ तो कौन था वह?'' सारे लोग उत्सुक थे और अब और ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते थे। सभी के दिल बाहर आने को बेताब हो रहे थे। अब रहस्य पर से पर्दा उठ जाना चाहिए।
''वह मूलचन्द था।'' कुसुम ने जैसे बम दाग दिया था। सबने इधर-उधर देखा... मूलचन्द कहीं नजर नहीं आ रहा था। गांव में इस कदर सनसनी फैली हुई थी कि सुबह से अभी तक किसी ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया था कि मूलचन्द वहां नहीं था। अब पता चला था कि वह वहां नहीं था। तुरन्त दो चार लड़कों को खेतों की तरफ दौड़ाया गया, वह वहां भी नहीं था। गांव में भी ढूंढ़ा गया, परन्तु वह कहीं नहीं मिला। जिसके घर में इतनी बड़ी बात हो जाए, वह बिना बताये कहीं चला जाय, इसका राज समझ में नहीं आ रहा था।
मूलचन्द के गायब होने से बात कुछ कुछ साफ हो चुकी थी, परन्तु प्रश्न अभी शेष था? ...क्यों?
अगर मूलचन्द के नाजायज़ सम्बन्ध कुसुम के साथ थे, तो रात में उसे अपने ही घर में अपनी ही भाभी के पास जाने के लिए दीवार फांदकर जाने की क्या आवश्यकता थी? परन्तु कुसुम तो बता चुकी थी कि उसके साथ उसके उस तरह के संबंध नहीं थे। फिर अपने ही घर में वह चोरों की तरह दीवार फांदकर क्यों घुसा था?
इसका उत्तर कुसुम के पास था, परन्तु उसने न बताने की पंचों से अनुमति ले रखी थी। पंच हैरान थे, अब आगे वह कुछ पूछ नहीं सकते थे। धनेसरी भी बौखला गई थी। उसे तो विश्वास हीं नहीं हो रहा था कि रात के अंधेरे में जिस आदमी को उसने अपने घर में घुसते हुए देखा था, वह उसका अपना सगा छोटा बेटा था। रात से सुबह हुई और सुबह से शाम... अब तब उसे अपने बेटे का ख्याल नहीं आया था।
अब पता चला था। यह क्या से क्या हो गया? क्या सचमुच वह मूलचन्द ही था? लेकिन वह चोरी से अपने ही घर में घुसकर क्यों आया था? ...वह सोच रही थी। क्या वह अपनी भाभी की इज्जत लूटने के इरादे से घर में घुसा था? इतना तो वह समझ सकती थी कि कुसुम का अपने देवर के साथ कोई ऐसा-वैसा चक्कर नहीं था।
बुढ़िया की समझ में कुछ नहीं आ रहा था... उसने सोचना छोड़ दिया।
परन्तु कुसुम के मन में विचारों का अनवरत कारवां चल रहा था, जैसे हवा के थपेड़े हर चीज को हिलाए दे रहे हों। उस की आंखों में वह मंज़र अभी तक बसा हुआ था, जब एक दिन पहले मूलचन्द ने उसे घर के अंदर छुटपुटे अंधेरे में अपनी बांहों में भरकर चूम लिया था। कुसुम की आशा के विपरीत यह हुआ था। वह हतप्रभ रह गई थी। अपने देवर से उसने कभी ऐसी उम्मीद नहीं की थी। वह गुस्से से भर गई। गुस्से के अतिरेक में उस ने मूलचन्द को एक थप्पड़ रसीद करते हुए अपने को उसकी बांहों से मुक्त किया और नफरत से कहा था, ''लल्ला, तुम मेरे देवर हो, इसलिए माफ करती हूं। भाभी के नाते हंसी मजाक करने का हक है तुम्हें, परन्तु इस शरीर पर केवल तुम्हारे भैया का हक है। अपने होश ठिकाने रखना, वरना अगर तुमने अपनी हद पार की तो इससे ज्यादा भी कुछ हो सकता है।''
मूलचन्द ग्रामीण युवक था। अभी तक उसकी शादी नहीं हुई थी। बदन में जवानी की आग सुलगने लगी थी, उसे बुझाने का मौका नहीं मिल पा रहा था। बाहर के बजाय उसने अपने घर में ही सेंध लगाने की सोची। जब घर में जवान और सुन्दर भाभी मौजूद थी, तो उसे बाहर मुंह मारने की क्या जरूरत थी। भाभी और देवर का रिश्ता हंसी-मजाक का होता है। उसके मन में बचकाने ख्याल आने लगे कि इसी रिश्ते की आड़ में वह भाभी से दैहिक संबंध बना लेगा। भाभी भी मना नहीं करेगी। भैया से दूर है, तो तन की आग में सुलग रही होगी। ऐसे में क्या उसे मर्द की जरूरत नहीं महसूस होती होगी। गांव के कई लड़के इस तरह की बातें करते रहते थे कि भाभी पर देवर का आधा हक होता है। कई भाभियां मनचली होती हैं और पति की गैर-मौजूदगी में अपने देवरों पर डोरे डालकर फंसा लेती हैं।
अपनी इसी ओछी सोच के चलते एक दिन मौका देखकर उसने दहलीज के अंधेरे में भाभी को दबोच ही तो लिया था, परन्तु जो उसने सोचा था, वैसा नहीं हुआ था। उल्टे भाभी नाराज हो गई थी। एक थप्पड़ भी उसके गाल पर रसीद कर दिया था। इस थप्पड़ को एक सीख की तरह लेने के बजाय उसने अपना अपमान समझा और अंदर ही अंदर अपमान की आग से सुलग उठा।
''हुंह, इतना घमण्ड!'' मुलचन्द ने गुस्से में कहा था, ''सुन्दर हो न... इसलिए इस कदर घमण्ड कर रही हो। मैंने छू लिया तो मैली हो गई। मायके में न जाने कितने गुल खिलाए होंगे, अब सती-सावित्री बनी फिरती हो, लेकिन याद रखना, इस थप्पड़ का जवाब तुम्हें देना पड़ेगा... बहुत जल्द!''
कुसुम ने कोई जवाब नहीं दिया था। चुपचाप वहां से चली गई थी।
और मूलचन्द ने एक दिन बाद ही अपना असली चेहरा दिखा दिया था। वह कुसुम को मारने आया था या उसके साथ बलात्कार करन... यह तो कुसुम भी नहीं जानती थी। परन्तु इस बात में कोई शक नहीं था कि वह मूलचन्द ही था। वह किसी बुरे इरादे से ही अपने घर में चोरी-चोरीे घुसा था, वरना पता चलने पर गांव से भाग क्यों जाता?
कुसुम बहुत दुखी थी... अपनी सास की बेजा हरकतों से। पूरे गांव में उस बुढ़िया ने उसकी बदनामी करवा दी थी। उसकी इज्जत का फैसला करने के लिए पंचायत तक बैठ गई थी। इससे बड़ी बदनामी की बात और कौन हो सकती थी। एक बार किसी विवाहिता औरत की इज्जत को कोई सरेआम उछाल दे, तो लोग जल्दी उसकी पाकीजगी पर विश्वास नहीं करते... खासकर पति। शक के अंधेरे उसके चारों ओर मंड़राते ही रहते हैं।
इसके बावजूद वह अपनी बूढ़ी सास की तहेदिल से शुक्रगुजार भी थी कि उस की वज़ह से ही आज वह जिन्दा थी और उसकी इज्जत सही-सलामत थी। आज जो बदनामी उसे मिली थी, उस बदनामी से भी बुरा उसके साथ कुछ हो सकता था। बातों द्वारा की गई बदनामी को लोग जल्दी ही भूल जाते हैं।
परन्तु प्रश्न अभी शेष था कि मूलचन्द कहां गया था? क्या वह लौटकर गांव आएगा? अगर हां तो क्या वह अपनी भाभी से बदला लेगा?
(राकेश भ्रमर)
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कहानी बहुत अच्छी लगी....और शीर्षक बहुत सटीक है......
जवाब देंहटाएंकहानी बहुत अच्छी लगी....और शीर्षक बहुत सटीक है......
जवाब देंहटाएंkahani rochak hai.
जवाब देंहटाएंkathanak badiya hai shaily lagatar utasukata banaye rakhati hai
जवाब देंहटाएंBeautiful an original story
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