रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - रात को तीन बजे हम पत्थर के होते रह गए

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व्यंग्य रात को तीन बजे डॉ. रामवृक्ष सिंह रात को तीन बजे भी कुछ लोग सक्रिय होते होंगे, लेकिन अपनी आदत है इस समय गहरी निद्रा में डूबे रहने की...

व्यंग्य

रात को तीन बजे

डॉ. रामवृक्ष सिंह

रात को तीन बजे भी कुछ लोग सक्रिय होते होंगे, लेकिन अपनी आदत है इस समय गहरी निद्रा में डूबे रहने की। लेकिन आज जैसे कोई अनहोनी हो गई। कभी मोबाइल पर तो कभी लैंडलाइन पर फोन कर-करके हमारे शुभचिन्तक हमें जगाते रहे। अब उन्हें कौन समझाए कि हम तो आहार, निद्रा, भय और मैथुन के चलाए चलनेवाले प्राणी हैं। इसलिए हमें निद्रा की भी उतनी ही जरूरत है, जितनी इस समूह में शामिल बाकी तीनों प्रवृत्तियों की। गलती फोन करनेवालों की भी नहीं है। वे बेचारे भय से आक्रांत होकर हमें फोन कर रहे थे। किसी को भय था कि हम पत्थर के हो गए तो उनकी उधारी कैसे चुकाएँगे और किसी को लगा कि हम चले गए तो उनको दिया गया भारी-भरकम वादा कौन पूरा करेगा।

हुआ यह कि किसी ने अफवाह फैला दी कि रात तीन बजे भूकंप आ रहा है। किसी और ने अफवाह उड़ा दी कि जो इस समय सोएगा, वह पत्थर का हो जाएगा। मजे की बात यह है कि जिनके मकान ज्यादा आलीशान और खूब ऊँचे-ऊँचे हैं, वे सब मजे से मखमली रज़ाई और मिंक कंबलों में रुई और दूई हुए सोते रहे, जबकि जिनके मकान पहले से ही जमींदोज़ हैं और बस नाम मात्र के मकान हैं, उनकी नींद हराम हो गई कि भूकंप आ गया तो हम जमीन में समा जाएँगे।

खैर हमने तो फोन का रिसीवर एक ओर रखा और मोबाइल स्विच ऑफ करके रुई-दूई होकर सो गए। अलबत्ता नींद में खलल पड़ने से सुबह जगने में थोड़ी देर जरूर हो गई। सुबह काम वाली बच्ची आई और हमारी पत्नी यानी अपनी आन्टी को बताने लगी कि कैसे उसने रतजगा करके अपनी नन्ही सी जान बचाई है। हम दोनों ने भगवान को धन्यवाद दिया कि हे ईश्वर तूने बड़ा अच्छा किया जो हमारी सोना को पत्थर होने से बचा लिया। पास-पड़ोस के लोगों से पूछा तो उन्होंने भी तसदीक की कि उनकी कामवालियाँ भी अभी तक हाड़-माँस की ही हैं, कोई भी पत्थर की नहीं हुई है। बड़ा अच्छा लगा कि चलो दुनिया के कामगार अभी पत्थर नहीं हुए हैं। सोना भी बड़ी प्रसन्न हुई कि उसके अंकल-आंटी अभी तक पत्थर नहीं हुए हैं और उनकी कोठी ईंट-पत्थर की होकर भी अभी तक न जमींदोज़ हुई है, न उसमें से जीवन का स्पन्दन समाप्त हुआ है।

दफ्तर आते-आते हमें पता चल गया कि आधी रात के बाद पूरे देश का लगभग यही हाल रहा। यह बात अलहिदा है कि अपने देश में ही कहीं-कहीं ऐसे हलके भी हैं जहाँ के बाशिन्दे पहले से ही पत्थर के हैं। उनकी संवेदनाएं मर चुकी हैं और आत्मा निर्वासित हो चुकी है। ऐसे लोग आराम से घोड़े बेचकर सो रहे थे, जबकि वे लोग रतजगा कर रहे थे, जिनके पास पूँजी और संपत्ति के नाम पर भगवान का दिया हुआ यह हाड़-माँस का शरीर ही है। इसी शरीर के बूते वे मेहनत मजूरी करके अपनी पूरी जिन्दगी गुजार देते हैं। यही नहीं, वे अपने जाननेवालों और सगे-संबंधियों को फोन कर-करके जगाते भी रहे, ताकि उनको भी पत्थर होने से बचा सकें। हम उनकी परदुःख-कातरता के कायल हो गए। इन्हीं फरिश्तों की वजह से आज भी दुनिया कायम है। भगवान तुमको बहुत-बहुत धन्यवाद। हमारा भारत देश सोने की चिड़िया नहीं रहा, न सही, इसमें इन्सानियत अब भी जीवित है, यही क्या कम है!

इस पूरे प्रकरण को लेकर हमारे फितूरी दिमाग में एक विचार कौंधा है, जिसे सार्वजनिक नहीं किया तो हम रतजगा करने के बावजूद सचमुच पत्थर के हो जाएंगे। विचार यह है कि यह पत्थर-फार्मूला सार्वजनिक जीवन में बड़े काम का नुस्खा साबित हो सकता है। आप ज़रा सोचिए कि जो लोग मतदान करने नहीं जाते या जिनका नाम वोटर लिस्ट में नहीं है और न ही वे इसके लिए प्रयासरत हैं, उनके मन में किसी तरह यह बात डाल दी जाए कि भइए वोटर लिस्ट में नाम नहीं डलवाया या वोट नहीं डाला तो सीधे पत्थर बन जाओगे। निश्चय ही इससे अपने देश का प्रजातंत्र पटरी पर आ जाएगा। इसी प्रकार नोट के बदले वोट की जुगलबन्दी बिठानेवालों को यकीन दिला दिया जाए कि यदि सही उम्मीदवार को वोट न डालकर केवल नोट के लालच में अपना वोट डाला तो सीधे पत्थर बन जाओगे। इससे लोग अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनेंगे और सही उम्मीदवार का चयन करेंगे।

यदि ऐसा हो गया तो अन्ना हजारे साहब भी लोकपाल बिल आराम से पास करवा लेंगे। तब उन्हें अनशन करके अपनी जान जोखिम में डालने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बल्कि तब तो वे सीधे कहेंगे कि जो माई का लाल उचित होने के बावजूद लोकपाल बिल पारित नहीं होने देगा, वह सीधे-सीधे पत्थर का हो जाएगा और वह भी ऐसा पत्थर जो भारत के महानगरों से गुजरती रेल-लाइनों के स्लीपर के आस-पास पडा रहता है, और जिसपर अवैध झुग्गी बस्ती वाले लोग सुबह-शाम प्रकृति की पुकार सुनने-सुनाने जाते हैं। यह फार्मूला हमें तो बड़े काम की चीज़ नज़र आता है और जिस किसी ने इसे ईज़ाद किया है, उसे चाहिए कि जल्द से जल्द इसे पेटेंट करा ले। वरना यदि अमेरिकी के बराक ओबामा को पता चल गया तो वे इसका पेटेंट ले लेंगे और हमें अपने इस मौलिक आविष्कार के इस्तेमाल के लिए अमेरिका को ढेरों डॉलर रॉयल्टी देनी पड़ेगी। डॉलर की तुलना में रुपये की हालत पतली होने के कारण इसका दर्द और भी अधिक होगा।

वैसे सच कहें, तो अपने यहाँ ढंग का पत्थर होना भी बड़े गौरव की बात है। पत्थरों की पूजा करने की लंबी परंपरा अपने देश में रही है। अपने सभी देवी-देवता पत्थर की पिंडी रूप में ही पूजे जाते रहे हैं। मानव रूप में उनकी प्रतिमाओं और तस्वीरों की परिकल्पना बहुत नई बात है। जितने भी बड़े-बड़े महापुरुष हुए हैं उन सबकी प्रतिमाएं देश भर में जगह-जगह स्थापित की गई हैं। सैकड़ों साल से वे जस की तस कायम हैं। इस मायने में पत्थर होना कोई घाटे का सौदा नहीं लगता। हमारा हाड़-माँस का यह शरीर खत्म हो जाएगा, लेकिन पत्थर सदा के लिए अजर-अमर चाहे न हो, हमारे जैविक शरीर की तुलना में तो हर हाल में ज्यादा ही दिन तक टिकेगा। बस यही एक लालच है जो कई नेताओं को अपने जीते-जी प्रस्तर-प्रतिमा में परिवर्तित होने को विवश कर रहा है। अपने यूपी की मुख्यमंत्री महोदया इसकी एक बहुत बड़ी नज़ीर हैं। उन्होंने अपनी और अपने राजनीतिक गुरु ही नहीं, बल्कि ढेरों हाथियों की मूर्तियाँ भी तैयार कराई हैं। लखनऊ शहर का एक बहुत बड़ा इलाका प्रस्तर-मय हो गया है। आज के प्रकरण के बाद हमें ऐसा लगता है कि ये सब पत्थर ऐसी ही किसी त्रासदी की देन हैं। और हमें इसमें कुछ अनहोना भी नहीं लगता। सुना है कि अपने विंध्याचल आदि पर्वत भी कभी सजीव थे और पंखों के सहारे उड़ा करते थे।

खैर आज तो हम पत्थर बनने से बच गए। थैंक्स टू दि टेलीफोन एंड मोबाइल क्रान्ति। फोन कर-करके हमारी नींद भगाने और पत्थर में परिवर्तित होने से बचाने वालों को हम कलियुग और खास तौर से इस इक्कीसवीं सदी का भगवान राम ही कहेंगे। बल्कि उनसे भी बड़ा। क्योंकि भगवान राम ने तो अहिल्या को पैर से छूकर पत्थर से सजीव स्त्री बनाया था। इन आधुनिक अवतारी लोगों ने तो फोन-कॉल मात्र से ही यह चमत्कार कर दिया। अब देखना यह है कि आनेवाले दिनों में ये लोग हमसे कैसे पेश आते हैं। यदि वे वाकई इन्सानों जैसा सदाचरण करेंगे तो हम उनके आभारी रहेंगे। किन्तु यदि वे फिर से भ्रष्टाचार, अनाचार, झूठ और फरेब की जीती-जागती तस्वीरें बन गए तो हम उन्हें पत्थर के सनम ही समझेंगे और हमें बड़ा अफसोस होगा कि सोते-सोते, बिना तकलीफ झेले इस बेदर्द मृत्यु-लोक से मुक्ति पाकर पत्थर बन जाने का सुयोग हमने व्यर्थ ही गँवा दिया। अस्तु।

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आर.वी.सिंह/R.V. Singh

rvsingh@sidbi.in

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. लोग इस पर विश्वास कर लेंगे कि पत्थर दूध पी सकता है... लेकिन इस पर नहीं, कि अनाचार से भी कोई पत्थर बन सकता है... हर विचार को हर व्यक्ति अपने विचारों से मेल कर के ही स्वीकारता है।

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  2. Aaj ke halat ko Sahi bayab kiya hai, sunder bahut sunder Rachna...Badhai Kabool Karain...Ravi,Dehradun

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रचनाकार: रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - रात को तीन बजे हम पत्थर के होते रह गए
रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - रात को तीन बजे हम पत्थर के होते रह गए
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