प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की इस आत्मस्वीकृति को दाद देनी होगी कि उन्होंने कुपोषण की हकीकत को स्वीकारते हुए ‘राष्ट्रीय शर्म' ...
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की इस आत्मस्वीकृति को दाद देनी होगी कि उन्होंने कुपोषण की हकीकत को स्वीकारते हुए ‘राष्ट्रीय शर्म' का दर्जा दिया। क्योंकि किसी भी बड़ी समस्या के निदान से पहले जरूरी है कि उसे शासन-प्रशासन के स्तर पर जिस हाल में भी है, मंजूर किया जाए। जबकि हम हकीकत को झुठलाने में ज्यादा ऊर्जा खपाते हैं। देश में कुल 16 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से 42 प्रतिशत बच्चों का कुपोषण के दायरे में आना वाकई शर्मनाक है। इस समस्या से निजात के लिए फिलहाल देश में केवल ‘एकीकृत बाल विकास परियोजना' (आईसीडीएस) वजूद में है। प्रधानमंत्री ने कुपोषण की व्यापकता का आकलन करते हुए बिना किसी लाग-लपेट के कहा, कुपोषण जिस तादाद में है, उसके चलते अकेले आईसीडीएस औजार से इसे काबू में नहीं लिया जा सकता। नीति-निर्माताओं को जरूरी है कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, साफ पानी, और पोषण के बीच की कड़ियों को समझें और उनके मुताबिक अपनी गतिविधियों को आकार व अंजाम दें। ‘हंगामा' (भूख और कुपोषण) नामक इस रिपोर्ट को खुद प्रधानमंत्री ने जारी किया ।
भारत में कुपोषण का बड़े फलक पर सामने आना कोई नई बात नहीं है। अब तक जितने भी सर्वेक्षण और अध्ययन हुए हैं, सभी ने कुपोषण की भयावहता को उजागर किया है। खास बात है प्रधानमंत्री ने इसे मंजूर किया। इस स्थिति का निर्माण उस दौरान हुआ, जब हम विकास दर ऊंची बनाए हुए थे और अपनी उपलब्धियों का डंका देश-दुनिया में पीट रहे थे। अब साफ हो गया है कि न तो अर्थव्यवस्था की ऊंचाई समाज के समग्र विकास की गारंटी है और न ही समावेशी विकास का लक्षण ! क्योंकि गुजरात, कर्नाटक, तमिनाडू और महाराष्ट्र उन प्रदेशों में शुमार हैं, जिसकी राष्ट्रीय औसत आय अन्य प्रदेशों की तुलना में सबसे अधिक है। बावजूद कुपोषण इन प्रदेशों में भी उतरने ही पैर पसारे हुए, जितने पिछड़े और बीमारू माने जाने वाले प्रदेशों में।
यह सर्वे देश के 9 राज्यों के 112 जिलों के 73 हजार परिवारों को नमूने के तौर पर लेकर किया गया। हालांकि सर्वे की इस दलील पर थोड़ा संतोष किया जा सकता है कि बीते सात सालों में बालकों में घर कर गए कुपोषण में 20 फीसदी की कमी आई है। बावजूद उत्तरप्रदेश के 41 जिलों में कुपोषण का आंकड़ा 42 प्रतिशत से भी ज्यादा है। वर्तमान में वहां विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया चल रही है। मुस्लिमों का आरक्षण देने जैसा काल्पनिक और कमोबेश संकीर्ण मानसिकता का मुद्दा सभी प्रमुख दलों के केंद्र में है, किंतु कुपोषण, जिसकी व्यापक भयावहता सभी धर्म और समाजों में उपस्थित है, वह किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र में शामिल नहीं है। कुपोषण के निदान के लिए सर्वोच्च न्यायालय भी बार-बार आगाह कर चुकी है कि जो पोषाहार अभी साल में केवल 126 दिन दिया जाता है, वह कम से कम साल में 300 दिन मुहैया कराया जाए।
उत्तरप्रदेश में भूख के हालात कितने बद्तर हैं, इसका पता इस बात से भी चलता है कि कुछ समय पहले ही यहां के माने गांव से एक खबर आई थी कि भूख से बेहाल बच्चे सिलीकॉनयुक्त मिट्टी के लौंदे (डेले) खाकर भूख मिटा रहे हैं। इलाहाबाद के पास स्थित इस खदान की मिट्टी का स्वाद सत्तू जैसा है। इस कारण बच्चे इसे आसानी से आहार बना लेते हैं। यह स्वादिष्ट मिट्टी कुपोषण और कुपोषण से पैदा होने वाली तमाम बीमारियों की वजह बन रही है। हर दूसरे बच्चे की आंखों में सूजन है और पेट फूले हैं। आंखों और पेट में दर्द भी बना रहता है। सुस्ती और कमजोरी इनके शरीर का स्थायी भाव बन गया है। बावजूद इन बच्चों के परिवार जब तक खबर नहीं बन गए तब तक बीपीएल की सूची में दर्ज नहीं हुए थे।
यह तो एक बानगी भर है। भूख मिटाने के लिए हमारे देश में लोग क्या-क्या धत् कर्म नहीं करते। बिहार में तो चूहों को मारकर खाने वाले लोगों को ‘मूसाहार' जाति का ही दर्जा दे दिया गया है। देश की कई आदिवासी जातियां आज भी जंगली पेड़ों की छाल उबालकर खाते हैं। इन्हीं सब कारणों से मानव विकास रिपोर्ट में हम 95 वें स्थान पर हैं। यही नहीं सामाजिक विकास से जुड़े हर मुद्दे पर हम पिछड़े हुए हैं। साक्षरता, शिक्षा, जन-स्वास्थ्य, पोषाहार, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के मानकों में भी हम फिसड्डी हैं। यही कारण है कि एक ओर हमारे देश में प्रति व्यक्ति आमदनी में साल दर साल इजाफा हो रहा है, वहीं दूसरी ओर उसी अनुपात में भुखमरों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है। इन्हीं सब वजहों से कुपोषण के मामले में हम दुनिया में अग्रणी देश हैं। 2011 में आई ‘वैश्विक भूख सूचकांक' रिपोर्ट ने भी हमें भूख के माामले में 67 वां स्थान दिया है। यह रिपोर्ट उन 81 देशों की है, जिन्हें विकासशील होने के साथ पिछड़े देशों की सूची में दर्ज किय गया है। इस मामले में चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, वियतनाम, रवांडा और सूडान हमसे बेहतर स्थिति में हैं। कुछ समय पहले ही योजना आयोग द्वारा जारी मानव विकास रिपोर्ट के सर्वे को सही मानें तो भारत में 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के दायरे में हैं। चूंकि प्रधानमंत्री ने जो सर्वे जारी किया है, वह महज 112 जिलों का है। यदि समूचे देश का सर्वे कराया जाए तो कुपोषण के हालात 50 से 60 फीसदी के इर्द-गिर्द ही आएंगे। वैसे भी पूर्व के सर्वेक्षणों का आंकलन 47 फीसदी बच्चों को कुपोषण के दायरे में दर्शाने वाले रहे हैं।
एक तरफ कुपोषण की यह बद्तर तसवीर है, वहीं दूसरी ओर खाद्य एवं लोक वितरण मंत्रालय के एक अध्ययन ने तय किया है कि हम शादी-ब्याह जैसे सामाजिक जलसों में 10 से 30 प्रतिशत तक भोजन खराब हो जाने की आशंका के चलते सड़कों या कूड़ादानों में फेंक देते हैं। जूठन के रूप में भी खाद्यान्न की बड़ी मात्रा में बरबादी होती है। यह अध्ययन खाद्य मंत्री के वी थॉमस की पहल पर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कराया गया था। अब इस अध्ययन को देश के दूसरे चुनिंदा शहरों में भी किए जाने का फैसला लिया गया है। इस अध्ययन की रिपोर्ट आ जाने के बाद मंत्रालय इस भोजन की बरबादी रोकने के उपाय तलाशेगा।
एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर साल 230 लाख टन अनाज, 120 लाख अन सब्जियां, रख रखाव के बेहतर इंतजाम न होने के कारण, ज्यादा पैदावार होने के बाद मुनासिब दाम न मिलने के कारण और यातायात में रूकावट आने के कारणों चलते बरबाद हो जाते हैं। इस खाद्य सामग्री का आकलन 58 हजार करोड़ रूपए का किया गया है। यह स्थिति अनाज फसलों को हतोत्साहित करने व अखाद्य (ईंधन) फसलों को प्रोत्साहित करने के कारण भी निर्मित हुई है। इन्हीं वजहों के कारण जहां 1990 से 2007 तक जनसंख्या की औसत वृद्धि दर 1.9 फीसद रही, वहीं खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि दर 1.2 फीस तक सिमट गई।
खाद्यान्न उत्पादन में अखाद्य फसलों की भागीदारी, मुनाफे की ज्यादा संभावनाओं की वजह से भी बढ़ रही है। 1983-84 में कुल खाद्यान्न उत्पादन में 37 फीसदी अखाद्य फसलें थीं, जो कि 2006-07 में बढ़कर 47 फीसदी हो गईं। नतीजतन अनाज का उपभोग कम होने लगा। 1990-91 में अनाज की प्रति व्यक्ति दैनिक खपत 468 ग्राम थी जो कि 2005-06 में घटकर 412 रह गई। ये हालात भूख और कुपोषण के जनक हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा है कि पोषण के साथ अन्य कड़ियों को भी जोड़ने की जरूरत है। यदि ये कड़ियां जुड़ती हैं और कुपोषण जैसी राष्ट्रीय शर्म से देश को निजात मिलती है तो यह एक अच्छी स्थिति होगी ?
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प्रमोद भार्गव
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