प्रमोद भार्गव का आलेख - वैज्ञानिक अनुसंधान में पिछड़ता देश

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यह अच्‍छी बात है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भुवनेश्‍वर में विज्ञान कांग्रेस के उद्‌घाटन समारोह में यह स्‍वीकारने में कोई हिचक नहीं ...

यह अच्‍छी बात है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भुवनेश्‍वर में विज्ञान कांग्रेस के उद्‌घाटन समारोह में यह स्‍वीकारने में कोई हिचक नहीं दिखाई कि हम वैज्ञानिक अनुसंधान के मामले में चीन से पिछड़ गए हैं। लेकिन यह दुखद है कि नितांत मौलिक चिंतन से जुड़ी इस समस्‍या का समाधान वे निजीकरण की कुंजी और शोध-खर्च को बढ़ावा देने में तलाश रहे हैं। जबकि हमारी संपूर्ण शिक्षा व्‍यवस्‍था को बाजार के हवाले कर दिया गया है और वह गुणवत्ता की पर्याय बनने की बजाए, डिग्री हासिल कर किसी भी तरह से वैभवपूर्ण जीवन जीने का पर्याय बनकर रह गई है। ये आधार व्‍यक्‍ति के मौलिक चिंतन और शोध की गंभीर भावना को पलीता लगाने वाले हैं। यहां फोर्ब्‍स की उस सूची का जिक्र करना जरूरी है, जो बीते साल के अंत में जारी हुई थी और जिसमें उन देशज वैज्ञानिक आविष्‍कारकों को शामिल किया गया था, जिन्‍होंने ग्रामीण पृष्‍ठभूमि से होने के बावजूद ऐसी अनूठी तकनीकें व उपकरण ईजाद किए थे, जिन्‍हें अपनाने से देशभर के लोगों को जीवन में बदलाव के अवसर मिले। यहां आश्‍चर्य में डालने वाली बात यह भी है कि इनमें से ज्‍यादातर लोगों ने प्राथमिक स्‍तर की भी शिक्षा हासिल नहीं की है। इसलिए यहां यह जरूरी है कि अनुसंधान के अवसर उन लोगों को मुहैया कराएं जो वाकई अनुसंधान के मौलिक-सूत्र बटोरने की जिद ठान लेते हैं।

विज्ञान आधुनिक प्रगति की आधारशिला है। नतीजतन जो देश विज्ञान को जितना महत्‍व देता है, प्रगति के उतने ही सोपानों पर आरूढ़ होता है। 17 वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद तो विज्ञान और विकास का रिश्‍ता समानांतर हो गया। लेकिन इस रिश्‍ते की समानता कायम रखने में हम पिछड़ते जा रहे हैं और चीन हमसे कहीं ज्‍यादा आगे निकल गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि उदारवादी अर्थ-व्‍यवस्‍था लागू होने के बाद हमने न केवल आर्थिक विकास पर जोर दिया, बल्‍कि उन शैक्षिक बुनियादी ढांचों को भी बाजारवाद के हवाले करते चले गए जो प्रतिभाओं की आंतरिक सोच को परिमार्जित कर परिपक्‍व बनाते हैं और मौलिक चिंतन को अनुकूल वातावरण उपलब्‍ध कराते हैं। हालांकि प्रधानमंत्री ने इस कमजोर नश को पकड़ा है। वे कहते हैं ‘अनुसंधान से नई जानकारी मिलती है और हमें समाज के लाभ के लिए इस जानकारी का इस्‍तेमाल करते हुए नवाचार की जरूरत भी है। हमें नवाचार को व्‍यावहारिक सार्थकता देनी है ताकि यह सिर्फ शाब्‍दिक खेल बनकर न रह जाए।'

जाहिर है परमाणु शक्‍ति संपन्‍न होने और अंतरिक्ष में उपस्‍थिति दर्ज करा चुकने के बावजूद कुल मिलाकर विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्‍य देशों की तुलना में पीछे हैं। मानव विकास दर में हम 95 वें स्‍थान पर हैं। भूख और कुपोषण हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा। किसानों की आत्‍महत्‍या का सिलसिला जारी है और बेराजगारों की फौज में लगातार इजाफा हो रहा है। आर्थिक असमानता की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञों का दावा है कि ये हालात निजीकरण की देन हैं। बावजूद प्रधानमंत्री वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए निजीकरण की राह तलाश रहे हैं। उनके पास शायद सभी मर्जों की एक ही दवा है, निजीकरण ! इसीलिए उन्‍होंने पूंजीपतियों को आगाह किया है कि वे वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए आगे आएं। इस नजरिए से प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास पर खर्च होने वाली राशि में बढ़ोत्तरी की मंशा भी जताई है। 12 वीं पंचवर्षीय योजना के अंतिम साल में इसे दोगुना किया जा सकता है। जाहिर है, इसमें ऐसे प्रावधान जरूर किए जाएंगे, जो औद्योगिक घरानों के हित साधने वाले होंगे। तय है अनुसंधान की बढ़ी राशि इन घरानों को अनुसंधान के बहाने अनुदान में दिए जाने के रास्‍ते खोल दिए जाएंगे ? यदि ये घराने देशज वैज्ञानिकों को प्रोत्‍साहित करने लग जाएं तो कई तकनीकी अविष्‍कार देश का कायाकल्‍प करने में कारगर साबित हो सकते हैं।

फोर्ब्‍स द्वारा जारी देशज आविष्‍कारकों और अविष्‍कारों की जानकारी से इस बात की पुष्‍टि हुई है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लेकिन शालेय व अकादमिक शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की मजबूरी के चलते केवल कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ज्ञानी और परंपरागत ज्ञान आधारित कार्यप्रणाली में कौशल-दक्षता रखने वाले शिल्‍पकार और किसान को अज्ञानी व अकुशल ही माना जाता है। यही कारण है कि हम ऐसे शोधों को सर्वथा नकार देते हैं, जो स्‍थानीय स्‍तर पर ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती के वैकल्‍पिक प्रणालियों से जुड़े हैं। जबकि जलवायु संकट से निपटने और धरती को प्रदूषण से छुटकारा दिलाने के उपाय, इन्‍हीं देशज तकनीकों में अंतनिर्हित हैं। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री के इस कथन को कि ‘नवाचार को व्‍यावहारिक सार्थकता देनी है, ताकि यह सिर्फ शाब्‍दिक खेल बनकर न रह जाए' चरितार्थ करना है तो फोर्ब्‍स की सूची में दर्ज ग्रमीण आविष्‍कारकों और आविष्‍कारों को प्रेरणा का अभिमंत्र मानना होगा।

इन वैज्ञानिकों ने आम लोगों की जरूरतों के मुताबिक स्‍थानीय संसाधनों से सस्‍ते उपकरण व तकनीकें ईजाद कर समाज व विज्ञान के क्षेत्र में ऐतिहासिक व अतुलनीय काम किया है। इस सूची में दर्ज मनसुख भाई जगनी ने मोटर साइकिल आधारित ट्रेक्‍टर विकसित किया है। जिसकी कीमत महज 20 हजार रूपए है। केवल दो लीटर ईंधन से यह ट्रेक्‍टर आधे घंटे के भीतर एक एकड़ भूमि जोतने की क्षमता रखता है। इसी क्रम में मनसुखभाई पटेल ने कपास छटाई की मशीन तैयार की है। इसके उपयोग से कपास की खेती की लागत में उल्‍लेखनीय कमी आई है। इस मशीन ने भारत के कपास उद्योग में क्रांति ला दी है। इसी नाम के तीसरे व्‍यक्‍ति मनसुख भाई प्रजापति ने मिट्‌टी से बना रेफ्रिजरेटर तैयार किया है। यह फ्रिज उन लोगों के लिए वरदान है, जो फ्रिज नहीं खरीद सकते अथवा बिजली की सुविधा से वंचित हैं। ट्राईका फार्मा के एमडी केतन पटेल ने दर्द निवारक आइक्‍लोफेनैक इंजेक्‍शन तैयार किया है। ठेठ ग्रामीण दादाजी रामाजी खेबरागढ़े भी एक ऐसे आविष्‍कारक के रूप में सामने आए हैं, जिन्‍होंने चावल की नई किस्‍म एचएमटी तैयार की है। यह पारंपरिक किस्‍मों के मुकाबले 80 फीसदी ज्‍यादा पैदावार देती है। इसी तरह मदनलाल कुमावत ने ईंधन की कम खपत वाला थ्रेसर विकसित किया है, जो कई फसलों की थ्रेसिंग करने में सक्षम है। ‘लक्ष्‍मी आसू' मशीन के जनक चिंताकिंडी मल्‍लेश्‍याम का यह यंत्र बुनकरों के लिए वरदान साबित हो रहा है। यह मशीन एक दिन में छह साड़ियों की डिजाइनिंग करने की दक्षता रखती है।

इस लिहाज से जरूरत है, नवाचार के जो भी प्रयोग देश में जहां भी हो रहे हैं, उन्‍हें प्रोत्‍साहित करने की ? क्‍योंकि इन्‍हीं देशज उपकरणों की मदद से हम खाद्यान्‍न के क्षेत्र में तो आत्‍मनिर्भर हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्‍वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैैं। लेकिन देश के ऐसे होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्‍पा चस्‍पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्‍यता दिलाने की राह में प्रमुख रोड़ा है। इसके लिए शिक्षा प्राणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है। क्‍योंकि हमारे यहां पढ़ाई की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने, सवाल-जबाव करने और व्‍यवहार के स्‍तर पर मैदानी प्रयोग व विश्‍लेषण की छूट की बजाए, तथ्‍यों, आंकड़ों, सूचनाओं और वस्‍तुनिष्‍ठ प्रश्‍नों की घुट्‌टी पिलाई जाती है। यह स्‍थिति वैज्ञानिक चेतना व दृष्‍टि विकसित करने में एक बड़ी बाधा है।

लिहाजा प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिक नवाचार के लिए बजट प्रावधान दोगुना करने का जो प्रस्‍ताव रखा है, उसमें देशज वैज्ञानिकों को भी प्रात्‍सोहित करने के लिए अनुदान देने की शर्त रख दी जाए तो हम चीन से आगे निकलने का रास्‍ता आसानी से नाप सकते हैं। क्‍योंकि चीन ने अपने सस्‍ते उत्‍पादों के जरिए ही दुनिया के बाजार में धाक जमाई है। चीन अपने सकल घरेलू उत्‍पाद (जीडीपी) का 1.4 फीसद इसी मद में खर्च करता है और वर्ष 2011 में चीन ने 153.7 बिलियन डॉलर खर्च किए। चीन का भी इरादा 2020 तक इस खर्च को दोगुना करने का है। यहां यह भी ख्‍याल रखने की जरूरत है कि चीन इस मद का एक हिस्‍सा देशज वैज्ञानिकों पर भी खर्च करता है और उनके अनुसंधानों की जानकारी मिलने पर उन्‍हें सीधे विश्‍वविद्यालयीन अनुसंधानों से जोड़ता है। यही वजह है कि चीन स्‍थानीय स्‍तर पर सस्‍ते उपकरण ईजाद करने में लगातार कामयाबी हासिल करता जा रहा है। लिहाजा जरूरी है कि हमारे यहां वैज्ञानिक अनुसंधानों पर जीडीपी का जो खर्च महज 0.9 फीसदी है, उसे 2017 मे दोगुना किए जाने पर, देशज वैज्ञानिकों को भी प्रोत्‍साहन राशि बतौर अनुदान दी जाए और उनके अनुसंधानों को वैज्ञानिक संस्‍थानों में परीक्षण की मान्‍यता मिले ? इस काम को औद्योगिक घराने और बेहतर ढंग से अंजाम तक पहुंचा सकते हैं। बशर्ते वे भी डिग्री की अनिवार्यता और अंग्रेजी ज्ञान की मानसिक दासता से मुक्‍त हों।

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प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी (म.प्र.) पिन 473-551

 

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COMMENTS

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  1. जी, ये सब लोग बड़े ही ईमानदार हैं, कितनी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि पन्द्रह पैसे पहुँच रहे हैं, काम नहीं हो रहा है, कुपोषण है.

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  2. सही है....पहले हम नकल की मौज़-मस्ती करना तो बन्द करें...खोज तो तभी करेंगे न ...
    ---सभी तो नकल की ज़िन्दगी---क्रिकेट, गाना-बजाना, सीडीप्लेयर-होमथेयेटर पर अन्ग्रेज़ी डान्स के साथ नया साल मनाने में लगे हैं..बडी बडी सेलेरी लेकर उसे विदेश घूमने में खर्च करके, स्पा, सौना-बाथ आदि के मज़े लेने में लगे हैं...

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  3. नरेंद्र तोमर11:06 pm

    यह एक विचित्र विरोधाभास ही है कि एक ओर तो हमारे देश में आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उपलब्धियों, जैसे कि टेलीविजन,मोबाइल,कम्‍पयूटर, कारें, फ्रिज तथा बीसियों तरह के घरेलू उपकरणों के उपयोग में गुणात्‍मक रूप से भारी बढोतरी हुई है, और जहां हम उपग्रह और रोकेट तक बना रहे हैं, वहां विज्ञान में खासतौर पर हमारे युवाओ की दिलचस्‍पी घटती जा रही है। प्रधानमंत्री ने यह सही ही इंगित किया है कि वैज्ञानिक अनुसंधान के मामले में हम चीन से पिछड गए है। अपने आलेख में प्रमोद जी ने सही कहा है,'' लेकिन यह दुखद है कि नितांत मौलिक चिंतन से जुड़ी इस समस्‍या का समाधान वे निजीकरण की कुंजी और शोध-खर्च को बढ़ावा देने में तलाश रहे हैं। जबकि हमारी लेकिन यह दुखद है कि नितांत मौलिक चिंतन से जुड़ी इस समस्‍या का समाधान वे निजीकरण की कुंजी और शोध-खर्च को बढ़ावा देने में तलाश रहे हैं। जबकि हमारीजबकि हमारी संपूर्ण शिक्षा व्‍यवस्‍था को बाजार के हवाले कर दिया गया है और वह गुणवत्ता की पर्याय बनने की बजाए, डिग्री हासिल कर किसी भी तरह से वैभवपूर्ण जीवन जीने का पर्याय बनकर रह गई है।''
    इसमें कोई संदेह नहीं कि विज्ञान के क्षेत्र में हम पीछे मौजूदा शिक्षा प्रणाली के चलते हैं जिसे पूरी तरह से बाजार के हवाले कर दिया गया है। लेकिन यह पूरा सच नहीं। बाजारवाद तो आज चीन में भी कम फलाफूला नहीं है। इसके अलावा आधुनिक विज्ञान का पूरा विकास तो पश्चिमी देशों में पूंजीवादी बाजार के विकास के दौरान ही हुआ है। अत: संक्षेप में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में पिछडने का मूल कारण यह नहीं कि संपूर्ण शिक्षा व्‍यवस्‍था को बाजार को सौप दिया गया है। पर इसका अर्थ प्रधानमंत्री के इस कथन का समर्थन करना भी नहीं कि इस समस्‍या का समाधान अनुसंधान के क्षेत्र में अधिक निवेश (निजी पूंजी निवेश पढिए) को बढावा देकर किया जा सकता है।
    समस्‍या अधिक गंभीर और गहरी है और इसका संबंध हमारी परंपरागत और मुख्‍यतया नवउदारीकरण के बाद पली बढी सोच से है जिसने देश की नई पीढी के बहुत बढे हिस्‍से को उपभोक्‍तावाद के साथ नव-नि‍यतिवाद और अंधविश्वासों में जकड दिया है। और इस काम में हमारे गैर जिम्‍मेदार मास मीडिया ने बडी भारी भूमिका अदा की है। अपनी आमदनी बढाने के लिए समाचार पत्र पत्रिकाएं और चौबीस घंटे चलने वाले निजी टीवी चैनल(न केवल धार्मिक बल्कि न्‍यूज चैनल भी ), और एक हद तक सोशल नेटवर्क कुछ भी करने और पाठकों /श्रोताओं को कुछ भी परोसने को तैयार है। देश की मौजूदा अर्थव्‍यवस्‍था और आक्रामक नियतिवाद तथा अंधविश्‍वासों के पुर्नजीवन ने युवाओं की एक पूरी ऐसी पीढी की मानसिकता को कुछ ऐसा बना दिया है जिसकी तर्कबुद्धि और विवेक जैसे भी हो केवल पैसा कमाने और मौज मस्‍ती करने तक सीमित होकर रह गया है। पारलौकिक शक्तियों पर इस पीढी की बढती हुई अंधीआस्‍था उसी विज्ञान को खा रही है जिससे उसे आज की सारी सुख सुविधांएं मिल रहीं है। और दुर्भाग्‍यवश देश में एक भी ऐसा व्‍यक्तित्‍व नजर नहीं आता जो साहस के साथ इस प्रतिगामी मानसिकता को चुनौती देने के लिए सामने आ सके।
    नरेंद्र तोमर

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - वैज्ञानिक अनुसंधान में पिछड़ता देश
प्रमोद भार्गव का आलेख - वैज्ञानिक अनुसंधान में पिछड़ता देश
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