व्यवहार शुद्धि और भ्रष्टाचार डॉ․पुष्पेंद्र दुबे महाराजा रणजीतसिंह कॉलेज, इन्दौर आजादी के बाद ही बेचैनी बढ़ी थी आज अनेकानेक क्षेत्...
व्यवहार शुद्धि और भ्रष्टाचार
डॉ․पुष्पेंद्र दुबे
महाराजा रणजीतसिंह कॉलेज, इन्दौर
आजादी के बाद ही बेचैनी बढ़ी थी
आज अनेकानेक क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर सारा देश परेशान है। यह कोई नयी बात नहीं है। पुरानी पीढ़ी को हमेशा ऐसा लगता रहता है कि उनके समय जो नैतिक मूल्य कायम थे, वे आज समाप्त हो गए। ईमानदार और सत्याचरण करने वालों की तादाद उस समय अधिक थी। जब इतिहास की ओर दृष्टि डालते हैं तब उनके नैतिकता के सारे दावे हवा हो जाते हैं। देश में गहराई तक जड़ें तक जमा चुके भ्रष्टाचार को लेकर आज जो बेचैनी दीख रही है, वह तो देश आजाद होने के दो साल बाद ही शुरू हो गई थी। ‘सर्व सेवा संघ' ने सन् 1955 में सर्वोदय के वरिष्ठ विचारक श्री कृष्णदास जाजू की पुस्तक ‘व्यवहार शुद्धि' प्रकाशित की थी। श्री जाजू अपनी पुस्तक की शुरुआत इस बात से करते हैं कि ‘‘स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद, लोगों में सुराज्य की आशा का जागना स्वाभाविक था, परंतु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, त्यों-त्यों परिणाम विपरीत दिखाई देने लगा। जनता में व्याकुलता बढ़ने लगी, अनेक प्रकार के दोष उभरते-से दीखने लगे। इनमें सबसे प्रमुख था भ्रष्टाचार, जो सब क्षेत्रों में फैला हुआ था। स्वराज्य के पहले भी भ्रष्टाचार था, पर बाद में वह तेजी से बढ़ने लगा। इसके कारणों में जाने की जरूरत नहीं है। इतना समझना काफी है कि वस्तुस्थिति काफी चिंताजनक हो उठी है।''
क्या बदलाव हुआ है ?
मूल्यों में हम कोई परिवर्तन नहीं कर पाये हैं। भ्रष्टाचार को लेकर स्थिति तब भी चिंताजनक थी और आज भी है। किस बात में बदलाव हुआ है ? भारत को त्यागभूमि के नाम से जाना जाता है। बीच के काल में उसके भोग बढ़ते चले गए और गुलामी के अंधेरों में वह भटक गया। आजादी हासिल करने के लिए उसने त्याग के रास्ते को अपनाया। जाजू जी लिखते हैं, ‘‘स्वराज्य प्राप्ति के प्रयत्न में जितने त्याग की आवश्यकता थी उससे कई गुना अधिक त्याग की आवश्यकता देश के पुनरुत्थान के लिए थी और है। त्याग के बिना नैतिक स्तर उंचा नहीं उठ सकता और जीवन-व्यवहार में भी शुद्धि नहीं आ सकती। परंतु स्वराज्य मिल जाने के बाद ऐसा कुछ दीख पड़ा कि बहुत से लोग, विशेषकर कांग्रेसजन, जिनके हाथ में सत्ता आयी, वे समझने लगे कि अब त्याग की वैसी जरूरत नहीं रही, भोग का मौका है, इसलिए स्वराज्य के फलस्वरूप जो कुछ शक्ति या अधिकार मिल रहा है, उसे अपनी ओर खींचने में बाधा नहीं है। इसका परिणाम पतन ही था।''
सज्जन चिंतित
देश में भ्रष्टाचार को बढ़ते देख जैसे आज सज्जन चिंतित हैं वैसे ही तत्कालीन समय के सज्जन भी चिंतित थे। वे इस बारे में लिखते हैं, ‘‘जब भ्रष्टाचार का इतना बोलबाला है, तब स्वराज्य होते हुए भी समाज का कल्याण कैसे हो सकता है, इस विचार ने सज्जनों को चिंतित कर दिया। जहां कहीं खानगी या सार्वजनिक रूप से, मुसाफिरी में या सभाओं आदि में थोड़े से भी व्यक्ति इकट्ठे होते, तो भ्रष्टाचार की चर्चा चलती, उसकी निंदा की जाती और दूसरों को दोष दिया जाता। जिस दोष की इतनी व्यापक निंदा हो, वह समाज में इतने बड़े पैमाने पर वस्तुतः चलता क्यों रहे ? परंतु निंदा करने वाले भी उन दोषों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अछूते थोड़े ही रहते थे! बहुतेरे जान-बूझकर या विवश होकर भ्रष्टाचार के सहायक बनते थे। केवल निंदा करने से किसी दोष का निराकरण नहीं हो सकता। दोष तो न करने से ही दूर हो सकता है।'' आज भी इस प्रकार की चर्चा करने वाले बहुत लोग हैं, परंतु चर्चा करने वाले स्वयं आरोपों से घिरे हुए हैं। यह बात भी उजागर है।
सर्वोदय समाज सम्मेलन
श्री जाजू लिखते हैं भ्रष्टाचार से निपटने के लिए शायद पहले-पहल श्री गुलजारीलाल नंदा ने यह सुझाया कि लोगों से प्रतिज्ञा-पत्रक भरवाये जाएं कि वे अमुक-अमुक प्रकार का भ्रष्टाचार नहीं करेंगे। सन् 1949 में राऊ के सर्वोदय समाज के सम्मेलन में उन्होंने अपना यह विचार रखा और चाहा कि सम्मेलन ऐसा आंदोलन चलाए। उनका विचार पसंद तो आया परंतु सर्वोदय-समाज कोई संगठित मंडल नहीं था कि वह खुद इस काम को उठाता और आज के जैसा ‘सर्व सेवा संघ' भी उस समय नहीं बना था। फिर भी बंबई के श्रीनाथजी महाराज के दिल में आया कि ऐसा कुछ काम होना चाहिए। राऊ सम्मेलन के थोड़े ही समय बाद उन्होंने बम्बई में ‘व्यवहार-शुद्धि मंडल' की स्थापना की।''
जनता तकलीफ में!
व्यवहार शुद्धि मंडल की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए श्रीनाथजी ने लिखा, ‘‘हम सब जानते हैं कि आज सर्वसाध् ाारण जनता कितनी तकलीफ और आपत्ति में अपने दिन बिता रही है। जीवन की आवश्यक वस्तुओं की महंगाई मध्यम वर्ग से लेकर गरीब तक सबको बहुत तंग कर रही है। अनेक प्रकार के सांसारिक संकटों, व्याधियों, आपसी कलह और द्वेष, आज की और भविष्य की चिंताओं आदि नाना कष्टों से जनता त्रस्त है। समाज की संस्कारिता, सभ्यता और नैतिकता खतरे में है। हमें यह खेदपूर्वक कबूल करना होगा कि इसमें हमारी दुष्ट बुद्धि भी एक बड़ा कारण है। जब तक वह नहीं बदलेगी, तब तक केवल सरकारी आर्डिनेंस, नियंत्रण या दंड-नीति विशेष परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसी दशा में भी मेरी और मेरे मित्रों की मनुष्य मात्र में रहने वाले दैवी अंश पर श्रद्धा है। इस श्रद्धा से हमने अपनी और दूसरों की जीवन-शुद्धि के हेतु से 29 मई 1949 से ‘व्यवहार-शुद्धि मंडल' की स्थापना की है।''
व्यवहार शुद्धि मंडल
यह बिलकुल समझी हुई बात है कि मनुष्य में नैतिक मूल्यों का प्रवेश हृदय परिवर्तन से ही कराया जा सकता है कानून अथवा जोर-जबर्दस्ती से नहीं। आज सारा जोर दंड-विधान बनाने पर है। श्रीनाथजी ने आगे लिखा है कि हरेक व्यक्ति को अपने-अपने व्यवहार में शुद्धि लानी चाहिए। यही व्यवहार-शुद्धि मंडल का प्रमुख हेतु है। उन्होंने तब आशा व्यक्त की थी कि इसीसे पाप चक्र की गति धीमी होते-होते हम सबके सामुदायिक प्रयत्न से वह एक दिन नष्ट हो जाएगी।'' इस मंडल के लिए उन्होंने दो प्रकार के सदस्य रखे थे। नंबर 1 वाला प्रतिज्ञा पत्र सब प्रकार का दुर्व्यवहार छोड़ देने वालों के लिए था और नंबर 2 वाला क्रमशः एक-एक, दो-दो दुर्व्यवहार छोड़ते हुए अंत में नंबर 1 पत्रक का पात्र होने की इच्छा रखने वाले प्रयत्नशील सदस्य के लिए था। नंबर 1 वाले को सदस्य और नंबर 2 वाले को सहायक सदस्य नाम दिया गया।
शुद्ध व्यवहार समिति
ऐसा ही प्रयत्न श्री किशोरलाल भाई मशरूवाला की प्रेरणा से वर्धा में हुआ। उनका जोर भी इस बात रहा कि जब व्यापक रूप में फेले हुए भ्रष्टाचार की दशा में अकेला आदमी अपने को उसे बचाने या रोकने में असमर्थ पाता है, तो समान उद्देश्य रखने वाले सज्जन इकट्ठे होकर एक-दूसरे की मदद करें और संगठित शक्ति से उसका मुकाबला करने का प्रयत्न करें। इसके लिए वर्धा में 1950 में ‘शुद्ध व्यवहार समिति' की स्थापना हुई। इसकी महत्व की बात यह थी कि जो इसमें शामिल होना चाहें, वे पहले अपने खुद के व्यवहार में शुद्धि लायें। इसमें स्थानीय संगठन बनाने पर ही जोर दिया गया। दूर-दूर के सदस्यों का संगठन करने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा।
श्री जाजू ने लिखा है कि बम्बई व्यवहार शुद्धि मण्डल के 100 सदस्य बने और सहायक सदस्य उसके आधे। वर्धा समिति के करीब 100 सदस्य बने। सन् 1951 में बम्बई मण्डल ने व्यवहार शुद्धि सप्ताह मनाया। इनके अलावा जैन श्वेताम्बर तेरापंथी समाज के आचार्य श्री तुलसी महाराज ने भी इसी प्रकार का जैन परंपरा के अनुसार अणुव्रत नाम से एक आंदोलन चलाया। बम्बई के व्यवहार शुद्धि मण्डल को उस समय ऐसे अनेक पत्र मिलें, जिसमें लोगों ने दोषों को छोड़ने का जिक्र किया। ‘हरिजन' में प्रकाशित लेख पढ़कर एक सज्जन ने अपने व्यवहार को बदला और लिखा कि पहले मैं राशन कार्ड पर से जो लोग गैरहाजिर थे, उनका राशन ले लिया करता था। अब मैंने वैसा न करने का निश्चय किया है। चार पांच माह हो गए, मेरा ठीक निभ रहा है। यह भाई पहले बहानेबाजी करके छुट्टी लेता था, बाद में व्यवहार में सुधार किया और सही कारण लिखने लगा।
सर्व सेवा संघ का प्रस्ताव
सर्व सेवा संघ ने 7 जुलाई 1951 को व्यवहार-शुद्धि के बारे में प्रस्ताव पारित करते हुए लिखा, ‘‘देश में बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार कैसे रोका जाय, इसके बारे में ‘सर्व सेवा संघ की तारीख 15 जुलाई 1950 की बैठक में चर्चा हुई। शिवरामपल्ली के सर्वोदय-समाज के सम्मेलन में भी शुद्ध-व्यवहार का आंदोलन कैसे चलाया जाय, इस पर विचार हुआ था। सर्व सेवा संघ इस आंदोलन को पसंद करता है और देश की जनता से, विशेषकर सब रचनात्मक कार्यकर्ताओं से और सर्वोदय-समाज के सेवकों से अनुरोध करता है कि वे खुद शुद्ध व्यवहारी बनकर दूसरों को भी व्यक्तिगत तथा सामुदायिक सहारी के रूप से शुद्ध व्यवहार अपनाने की प्रेरणा दें। ‘‘सर्व सेवा संघ यह भी महसूस करता है कि इस काम में सरकारी कर्मचारियों के सहयोग के बिना सफलता मिलना संभव नहीं है। सामान्य जनता की शुद्धि बहुत कुछ अंश में सरकारी कर्मचारियों की शुद्धि पर अवलंबित है। आज की विषम परिस्थिति मेें तो सरकारी कर्मचारियों का शुद्धिकरण अपना खास महत्व रखता है। इसलिए राज्यों के मंत्री-मण्डलों का फर्ज है कि वे अपने कर्मचारियों के शुद्धिकरण की ओर विशेष ध्यान दें।'' वास्तव में सर्वोदय समाज का गठन नयी समाज रचना के लिए हुआ। इसमें अनेक त्यागी-तपस्वी सज्जनों ने अपना जीवन खपाया। इसके चिंतन की गहराई और व्यवहार की उंचाई को देखकर किसी का भी मस्तक स्वतः उनको नमन करने के लिए झुक सकता है। सर्वोदय समाज ने यह भी बताया है कि त्याग-तपस्या से पत्थर दिल डाकुओं का हृदय बदल सकता है तो दूसरी ओर लोग स्वेच्छा से अपनी जमीन का दान भी कर सकते हैं। सर्वोदय समाज वास्वत में नये प्रकार की जीवन शैली है।
हृदय परिवर्तन पर भरोसा
कहने का तात्पर्य यह है कि समस्याएं किस युग में नहीं रही हैं। सवाल है उनके हल करने का तरीका क्या हो? प्रातिभ दर्शन प्राप्त संत कठिन से कठिन समस्या का समाधान अहिंसक तरीके से ही करने में विश्वास रखते थे। उसीसे समाज गतिशील और परिवर्तनशील बना है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए ऐसा कहना भयंकर भूल होगी कि आज इसे जितनी तीव्रता से महसूस किया जा रहा है, वैसा पहले कभी नहीं थी, या इस मुद्दे को आज जैसे उठाया गया है, वैसा पहले किसी ने नहीं किया। या फिर इससे निपटने के लिए किसी संगठन विशेष ने जो उपाय बताए हैं वह अंतिम सत्य हैं। भ्रष्टाचार निर्मूलन वास्तव में समाज सुधार का ही क्षेत्र है। और समाज सुधार सत्ता सापेक्ष नहीं बल्कि सत्ता निरपेक्ष दृष्टि से ही हुआ करते हैं। हृदय परिवर्तन और जीवन की ओर देखने की दृष्टि बदलने से बढ़कर भ्रष्टाचार मिटाने की और कोई औषधि नहीं है।
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