गीत कविता का सबसे आद्य रूप है ( वरिष्ठ जनगीतकार नचिकेता के साथ अवनीश सिंह चौहान की बातचीत) प्रश्न- आपने किस अवस्था से और किन परिस्थिति...
गीत कविता का सबसे आद्य रूप है
(वरिष्ठ जनगीतकार नचिकेता के साथ अवनीश सिंह चौहान की बातचीत)
प्रश्न- आपने किस अवस्था से और किन परिस्थितियों में गीत-नवगीत लिखना प्रारम्भ किया?
उत्तर- गीत लिखने का आरम्भ मैंने बचपन में ही कर दिया था, बल्कि मेरे कवि-जीवन की शुरूआत ही गीत से हुई है और गीत मैं लिखता नहीं हूँ, वह स्वतःस्फूर्त ढंग से स्वयं लिख जाता है। हाँ, बचपन से ही लोकगीत की लय और धुनें रूपान्तरित होकर मेरे गीतों की लय और छन्दों का निर्माण करती रही हैं। पहले महादेवी वर्मा और रामेश्वर शुक्ल अंचल मेरे प्रिय गीतकार थे। मैं इन्हीं से प्रेरित होकर उत्तर छायावादी और मध्यवर्गीय परकीया प्रेम के रूमानी गीत लिखा करता था। दरअसल, तब तक मुझे आधुनिकता बोध की जानकारी तक नहीं थी और मेरा ज्ञान छायावाद-उत्तर छायावाद तक ही सीमित था। वर्ष 1967 में रामवृक्ष बनीपुरी के सुपुत्र के सौजन्य से मुझे केदारनाथ अग्रवाल की कविता-पुस्तक ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं' पढ़ने के लिए मिली। इस पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने बाज़ार में उपलब्ध मुक्त छंद की कविताओं और आलोचना की किताबें बारी-बारी से खरीदी और पढ़ डाली, जिससे मेरा कायाकल्प हो गया। मैं आधुनिक साहित्य से और नवगीत से भी परिचित हुआ। गीत तो मैं लिखता ही था, आधुनिकताबोध और नवगीत-चिन्तन को अपनी सीमाभर समझने के कारण और नवगीत की विशेषताओं और उपलब्धियों को आत्मसात करके मैं नवगीत लिखने लगा। मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि केदारनाथ अग्रवाल की कविता-पुस्तक ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं' को पढ़ना मेरे नवगीतकार-जीवन का ‘टर्निंग प्वाइंट' है तथा ओम प्रभाकर, रमेश रंजक, माहेश्वर तिवारी, देवेन्द्र कुमार, नईम, उमाकान्त मालवीय आदि नवगीतकारों के गीतों ने मेरे नवगीतकार के उदय और विकास में उत्प्रेरक का काम किया है, मेरे नवगीत-मानस का निर्माण भी इन्हीं नवगीतकारों की छाया तले हुआ है।
प्रश्न- और आप आलोचना से कैसे जुड़े?
उत्तर- अवनीश जी, एक गाँठ बाँध लीजिए कि मैं आलोचक नहीं हूँ, शुद्ध रूप से गीतकार हूँ, केवल गीतकार। विज्ञान का विद्यार्थी रहने के कारण किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसे बिना आँखें मूँदकर चुपचाप मान लेना मेरी फितरत में नहीं है, कहने वाला व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा विद्वान व्यक्ति क्यों न हो। एक बात और जान लें कि नवगीत के प्रति हिन्दी साहित्य की उपेक्षा और अवमानना की वजह से वर्ष 1970 के अन्त में मैंने पहली बार हिन्दी में ‘नवगीत से आद्यान्त प्रतिबद्ध' पत्रिका, जिसके चार विशेषांक आठवें दशक में छपे, ‘अन्तराल' का सम्पादन-प्रकाशन किया। आठवें दशक में मृतप्राय नवगीत-चर्चा में नया रक्त-संचार इसी ‘अन्तराल' ने ही किया। चूँकि मेरा रुझान नवगीत से जनगीत की ओर हो गया और मुझे जनगीत का प्रवक्ता गीतकार मान लिया गया, इसलिए मेरे साथ ‘अन्तराल' को नवगीत-चर्चा से दरकिनाकर कर दिया गया, मुझे तो नवगीत की दुनिया से बाहर करना संभव नहीं हुआ, लेकिन ‘अन्तराल' को लोगों ने लगभग भुला दिया। मेरी दृष्टि में यह नवगीत चिन्तकों की ओर से की गयी परले दर्जे की बेईमानी है।
‘अन्तराल' के सम्पादन-क्रम में और गीत-नवगीत सम्बन्धी आलोचनाओें से गुजरते हुए मुझे हमेशा अहसास हुआ कि आलोचकों ने गीत-नवगीत के साथ न्याय नहीं किया है तथा गीत-नवगीत पर मनगढ़न्त आरोप मढ़े गये हैं। नवगीत के उदय से लेकर उसकी पहचान और परख के प्रतिमान गलत गढ़े गये हैं। मैंने हिन्दी आलोचना की संकीर्णताओं, गलत व्याख्याओं और मनगढ़न्त अरोपों का उत्तर कुछ अधिक तल्ख भाषा में दिया है, जब भी देता हूँ, संभव है कि इस प्रकार का मेरा लेखन आलोचना-कर्म दायरे में ही आता हो। हाँ, मैंने विधिवत और योजनाबद्ध तरीके से आलोचना-कर्म नहीं किया है।
प्रश्न- गीत-नवगीत क्या हैं और उसे व्यापक पहचान दिलाने में किन महत्वपूर्ण संकलनों/सम्पादकों का अब तक विशेष योगदान रहा है?
उत्तर- कविता अगर मनुष्यता की मातृभाषा है तो गीत मानवीय सम्वेदनाओं का अर्थसम्पृक्त अन्तः संगीत है। गीत एक आत्मपरक संरचना है, रागात्मकता, सहजता, सामूहिकता और लोकप्रिय गीत-रचना के अनिवार्य गुण हैं। इसमें सामाजिक अनुभव भी वैयक्तिक अनुभव के सांचे में ढलकर व्यक्त होता है, इसमें वस्तु से चेतना का और समाज से व्यक्ति के ऐतिहासिक सम्बन्धें को अभिव्यक्ति मिलती है, इसलिए इसमें विचारधारा इसकी मूल्य-दृष्टि में अन्तर्निहित होती है और इसके रूपाकार में असीम व्यंजना और समग्रता का बोध होता है। चूँकि गीत तत्वतः सामाजिक होता है इसलिए गीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि एक अच्छा और उदात्त गीत वह होता है जिसमें कवि अपनी भाषा में स्वयं को इस कदर विलीन कर देता है कि उसकी उपस्थिति का आभास नहीं होता और भाषा का अपना स्वर गीत में गूँजने लगता है। यह एक अति संक्षिप्त संरचना होती है जिसमें वस्तुगत दुनिया और स्थितियों के विवरण और विश्लेषण में जाने की गुंजाइश बहुत कम होती है।
वैसे तो गीत कविता का सबसे आद्य रूप है और समयसापेक्ष, युगसापेक्ष और समाजसापेक्ष ढंग से गीत की मजबूत उपस्थिति मानव-सभ्यता के हर चरण में स्पष्ट दिखलाई देती है, लेकिन स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय समाज और हिन्दी साहित्य में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त ही तीव्र हो गयी थी, जिससे साहित्य की प्रायः सभी विधाओं की प्रभावी और वैचारिक अर्न्तवस्तुओं में गुणात्मक तब्दीलियां आयीं। परिणामतः गीत की धरती पर भी परिवर्तन की लहर आई। इसलिए आधुनिकतावादी-अस्तित्ववादी जीवन-दृष्टि के प्रभाव और प्रवाह में लिखे गये गीत ही नवगीत है। नवगीत का उदय राजेन्द्र प्रसाद सिंह के सम्पादन में निकली पत्रिका ‘गीतांगिनी' के द्वारा हुआ, जिसे ओम प्रभाकर और भगीरथ भार्गव द्वारा सम्पादित ‘कविता-64' के जरिए स्थायित्व मिला। इसके बाद लहर, वासत्ती, कल्पना, वातायन (हरीश भदानी), रश्मि (मैथिलीवल्लभ परिमल और गोपीवल्लभ सहाय), गीत (धूपेन्द्र कुमार स्नेहरी), अन्तराल (नचिकेता), अंकन (लक्ष्मीकान्त सरस), अथवा (शान्ति सुमन), आईना (राजेन्द्रप्रसाद सिंह), समग्र-चेतना (राधेश्याम बन्धु, सान्ध्यमित्र (वीरेन्द्र मिश्र), नये पुराने (दिनेश सिंह) आदि पत्रिकाओं के नवगीत-विशेषांकों तथा पाँच जोड़ बाँसुरी (चन्द्रदेव सिंह), नवगीत-दशक (तीन खण्ड) और नवगीत-अर्धशती (शंभुनाथ सिंह), सातवें दशक के उभरते नवगीकार के तीन खण्ड (लक्ष्मीकान्त सरस), नवगीत एकादश (भारतेन्दु मिश्र), नवगीत अर्धशती (राजेन्द्र प्रसाद सिंह), धर पर हम-दो भाग (वीरेन्द्र आस्तिक), नवगीतः नई दस्तकें (निर्मल शुक्ल), गीत-नवान्तर पाँच भाग (मधुकर गौड़), गीत-संचयन (कन्हैयालाल नन्दन) आदि गीत-नवगीत-संकलनों ने समकालीन गीत के विकास में अपूर्व योगदान किया है। अन्य कई पत्रा-पत्रिकाओं ने भी समय-समय पर गीत विशेषांक निकाल कर गीत-नवगीत की विकास-यात्रा में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है।
प्रश्न- आपने विपुल साहित्य रचा है, क्या आप अपनी सृजन-यात्रा से संतुष्ट हैं, यदि नहीं तो क्यों?
उत्तर- कोई रचनाकार अपनी सृजन-यात्रा से संतुष्ट हो गया तो समझिए कि उसके रचनाकार की मौत हो चुकी है। क्या आपको लगता है कि मेरे रचनाकार की मृत्यु हो चुकी है और मैं जीवित होने का केवल भ्रम पाले हुए हूँ? दरअसल इतना लिखने के बावजूद ईमानदारी से पूछें तो मैं कहूँगा कि जिस मुक्म्मल गीत की अवधरणा मेेरे मन-मस्तिष्क में है, वह तो अभी लिखा ही नहीं गया है, ये सारी रचनाएँ तो उसी तक पहुँचने की सीढ़ियाँ भर हैं।
प्रश्न- गीत-नवगीत को समर्पित संस्थान (ई-पत्रिकाएँ भी) एवं पत्रा-पत्रिकाएँ कौन-सी हैं और वे अपने आप में कितने निष्पक्ष और पारदर्शी हैं?
उत्तर- मौजूदा समय में बिलकुल अनियमित रूप से निकलनेवाली पत्रिकाएँ नये-पुराने, उत्तरायण और समग्र-चेतना को गीत-नवगीत की पत्रिकाएँ माना जा सकता है, लेकिन इनसे भी ऐतिहासिक रूप से कोई बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि गीत-नवगीत के सम्पादक और रचनाकार निष्पक्ष और ईमानदार होते तो गीत-नवगीत की यह दुर्दशा नहीं होती। हिन्दी के अधिकांश नवगीतकार पिछलग्गू, दब्बू, मुँहदूबर, आत्मनिष्ठ, व्यक्तिवादी, अपने मुँह मियां मिट्ठू, डरपोक, टाँगखींचू और ग़ैर ईमानदार हैं, तभी तो उनके किये का अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ता। मैं निम्न मध्यवर्ग का आदमी हूँ, मुझे ‘इन्टरनेट हैण्डिल' करना नहीं आता, इसलिए ई-पत्रिकाओं से मैं पूरी तरह नावाकिफ़ हूँ, इसलिए उनकी पारदर्शिता और निष्पक्षता के मूल्यांकन के लिए मैं अधिकारी व्यक्ति नहीं हूँ।
प्रश्न- परिवर्तन और नवाचार दोनों ही साहित्य पर प्रभाव डालते हैं और साहित्य द्वारा प्रभावित भी होते हैं, उक्त सन्दर्भ में गीत-नवगीत की क्या भूमिका है?
उत्तर- आपकी यह बात सोलहों आने सच है कि सामाजिक परिवर्तन और नवाचार दोनों का साहित्य पर कमोबेश असर ज़रूर होता है। अब आप ही बताइए कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय समाज में आये आधुनिकीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न नवगीत का ‘नव' विशेषण का आज इक्कीसवीं सदी के गीतों को पहचानने-परखने के लिए औचित्य क्या है? ‘नव' विशेषण को एक विशेष काल-खण्ड की एक विशेष प्रवृत्ति और प्रकृति के गीतों को पूर्ववर्ती गीतों से अलग कर पहचानने और परखने के लिए लगाया गया था। क्या नवगीत के समर्थक और पैरोकार यह मानते हैं कि छठे दशक के बाद भारतीय समाज और उसकी सामाजिक चेतना में कोई परिवर्तन और नवाचार नहीं आया है? वैसे नवगीत का सम्पूर्ण रचना-संसार विकल्पहीन प्रतिपक्ष का संसार है, जिससे यह यथास्थितिवादी भी है। सामाजिक क्रान्ति और परिवर्तनकामी संघर्षधर्मिता का नाम सुनते ही इसे जुड़ी बुखार आ जाता है और जो गीत सामाजिक क्रान्ति में भाग लेने को कृतसंकल्प हैं, परिवर्तनकामी जन-आकांक्षा की अभिव्यक्ति करते हैं, वे नवगीत नहीं जनगीत हैं, चाहे उसके रचनाकार घोषित रूप से नवगीतकार ही क्यों न हों, साथ ही यथास्थितिवाद की पोषक चेतना को व्यक्त करने वाली रचना नवगीत ही कहलायेगी, चाहे उसका रचनाकार घोषित रूप से जनगीतकार ही क्यों न हो।
नामवर सिंह के अनुसार गीत समाज को बदलने में क्रान्तिकारी भूमिका निभाते हैं। लेकिन यह काम व्यापक जन-जीवन में घुल-मिलकर ही सम्पन्न किया जा सकता है, प्रयोगधर्मिता तथा अमूर्त्त बिम्ब, दुरूह प्रतीक एवं अबूझ संकेतों की ऊँची चहारदीवारी खड़ी करके हरगिज नहीं। अगर नवगीत को सामाजिक परिवर्तन में क्रान्तिकारी भूमिका निभानी है तो उसे अपनी कलात्मकता की रक्षा करते हुए भी सहजता, रागात्मकता, सामूहिकता और लोकप्रियता को अपनी कला-दृष्टि में, हर हाल में, शामिल करना होगा और व्यापक जन-साधारण में अपनी पैठ बनानी होगी।
प्रश्न- यदि गीत-नवगीत सामाजिक या वैयक्तिक अन्तःक्रिया सम्बन्धी उद्देश्य को ध्यान में रखकर रचे जा रहे हैं, तो वे कितना सफल हुए हैं, जबकि आज का आदमी अपनी भागमभाग की जिन्दगी में ‘अर्थ' से परे सार्थक चिंतन करने का समय ही नहीं निकाल पा रहा है और कभी-कभी तो रचनाएँ ही उस तक नहीं पहुँच पाती हैं?
उत्तर- सच्चा साहित्य केवल प्रतिपक्ष की भूमिका नहीं निभाता, वरन् प्रतिरोध की भूमिका निभाता है, समाज को अधिक मानवीय बनाने के संघर्ष की भूमि के निर्माण में संघर्षशील जनता का साथ देता है, यथास्थितिवाद का प्रतिरोध करता है। नवगीत का पूरा रचना-संसार यथास्थितिवाद का ही संसार है। तात्पर्य है कि नवगीत अपनी सामाजिक अन्तःक्रिया के बनिस्पत वैयक्तिक अन्तःक्रिया पर अधिक केन्द्रित है, सामाजिकता उसका नकाब भर है। गौरतलव है कि पूँजीवाद जब विकास की एक खास मंजिल पर पहुँच जाता है तो कला, साहित्य और संस्कृति को भी एक बिकाऊ वस्तु में तब्दील कर देता है, समाज के सारे काव्यात्मक सम्बन्धें को, घर-परिवार के बेहद आत्मीय रिश्तों को भी एक जिन्स में बदल देता है ताकि उसका उपयोग भी आवश्यकता अनुसार खरीद-बिक्री के लिए किया जा सके। यह सही है कि आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के लगातार बढ़ते दबाव की वजह से मनुष्य के पास कला संस्कृति के लिए अवकाश कम हो गया है। साहित्य पर बाजारवाद का बहुत ही खूँख़्वार आक्रमण हुआ है, जिसकी गिरफ्त में गीत-नवगीत भी आ गया है। अगर इसे बाज़ारवाद के आक्रमण के आक्रमण से बचने और खुद को बिकाऊ बनने से बचाना है तो उसे अपनी जड़ों अर्थात्जन-जीवन और जन-संस्कृति की ओर लौटना ही होगा। क्योंकि दुनिया से कई संस्कृतियाँ केवल इसलिए लुप्त हो गयी हैं कि उसने वर्चस्ववादी विदेशी संस्कृति और उसके जीवन मूल्य को अपनी संस्कृति और जीवन-मूल्य बना लिया था। यदि गीत-नवगीत को जन-जीवन से गहरा ताल्लुक बनाना है तो उसे उन्हीं के पास जाना होगा।
प्रश्न- गीत-नवगीत में शब्द-योजना, बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग रचनाकार अपने मन-मुताबिक करता है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि पाठक भी रचनाकार जैसी ही समझ रखता हो। ऐसी स्थिति में कई बार रचनाएँ आम पाठक की समझ से परे होती हैं आपकी टिप्पणी?
उत्तर- पहली बात तो यह कि कोई भी रचनाकार व्यापक जनता और पाठक-समुदाय को नासमझ, बेवकूफ़ और असंवेदनशील समझने की भूल कदापि न करे। जनता का जीवन और उसकी भाषा वह कच्चा माल है जो लेखकों से तराश पाकर निखर उठता और कला-संस्कृति के निर्माण में आधर-सामग्री की भूमिका निभाता है। अगर रचनाकार अपनी आत्माभिव्यक्ति के लिए व्यापक जन-जीवन के सान्निध्य से प्राप्त अनुभावों को आधार बनाता है तथा कलात्मकता के लिए अपने बिम्ब, प्रतीक, संकेत और मुहावरे का चुनाव व्यापक जन-जीवन और जन-भाषा के बीच से करता है तो उसकी रचनाएँ जन-साधारण को समझ में न आयें, ऐसा अमूमन नहीं होता है। रचना पाठक के लिए अबूझ तभी होती जब रचनाएँ अति बौद्धिकता और कलावाद के शिकंजे में फँसकर अमूर्त्त और दुरूह हो जाती है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जिस रचना का सम्प्रेषण साधारण पाठकों में सहजता से हो जाता है, वही रचनाएँ दिग्गज आलोचकों को लोहे के चने चबा देती हैं। हाँ, गीतकारों को हमेशा सावधान रहना चाहिए कि उसकी रचना कहीं अत्यधिक बौद्धिक और दुरूह तो नहीं हो रही हैं।
प्रश्न - आज जनता का रुझान मंचीय कविता की ओर होने का एक कारण यह भी है कि मंच-कविता को समझने के लिए जनता को मानसिक कसरत नहीं पड़ती। क्या आज गीत-नवगीत को भी सहज भाषा और चिरपरिचित बिम्ब-विधान को पूरी तरह से आत्मसात नहीं करना चाहिए?
उत्तर- मंचीय कविता से आपका तात्पर्य, अगर बड़े-बड़े पूँजीपति-घरानों, सरकारी संस्थानों और प्रतिगामी सांस्कृतिक संगठनों द्वारा नगरों, महानगरों और कस्बों में आयोजित कवि-सम्मेलनों से है, जिसमें कविता के अर्थ से अधिक महत्वपूर्ण गलेबाज़ी और भड़ैंती (तथाकथित हास्य-व्यंग्य की कविताएँ) होती है से है तो वहाँ किसी रचना का लोकप्रिय होना किस काम का है। गीत-नवगीत की भाषा को तो सहज होना ही चाहिए लेकिन उसके बिम्ब-विधान चिरपरिचित नहीं, बल्कि स्वस्थ, ताजे, ऐन्द्रिक और बोधगम्य अवश्य होने चाहिए। मैनेजर पाण्डेय भी मानते हैं कि सहजता, रागात्मकता, सामूहिकता और लोकप्रियता का निषेध करके गीत अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकते।
प्रश्न- युवा (गीतकार) रचनाशीलता की प्रवृत्तियाँ क्या हैं? क्या वह अपने समय और समाज का प्रतिनिधित्व कर पा रही हैं?
उत्तर- हिन्दी गीत, खासकर नवगीत की दुनिया में युवा गीतकारों की रचनाशीलता की प्रवृत्ति नवगीत के प्रचलित रूपाकार, रचना दृष्टि, जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि से अलहदा नहीं दिखलाई देती, बल्कि युवा गीतकार भी अस्तित्ववादी-आधुनिकतावादी विचार-दृष्टि से अनुशासित और अनुकूलित हैं। सुनने में कड़वी लग सकती हैं कि युवा पीढ़ी के गीत सातवें और आठवें दशक के गीतकारों, मसलन माहेश्वर तिवारी, नईम, रमेश रंजक, शान्ति सुमन, यश मालवीय, सुधांशु उपाध्याय आदि के गीत पिछड़े हुए दृष्टिगोचर होते हैं। यह चिंताजनक बात है। युवा गीतकारों को समकालीन जीवन की वस्तुगत दुनिया के नितान्त नये अनुभवों को नितान्त नये रूपाकार और शिल्प में व्यक्त करना चाहिए, तभी वह गीत-साहित्य को नया जीवन दे सकेंगे, उसमें नया रंग भर सकेंगे। इसकी अभी प्रतीक्षा है।
प्रश्न- बिहार में गीत-नवगीत की स्थिति क्या है और उसका योगदान कैसे आंका जाना चाहिए?
उत्तर- मेरी दृष्टि में साहित्य को प्रान्तीयता की सीमा से अलग रखना चाहिए। जिन समस्याओं से आज की पूरी गीत विधा दो-चार हो रही है, बिहार के गीत-नवगीतकार भी उन्हीं से संघर्ष कर रहे हैं। वैसे गीत-नवगीत के विकास में छायावादी-उत्तरछायावादी दौर के जानकीवल्लभ शास्त्री, रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली आदि तथा नवगीत दौर के राजेन्द्र प्रसाद सिंह, शान्ति सुमन, सत्यनारायण, हृदयेश्वर, गोपीवल्लभ सहाय, यशोधरा राठौर आदि के गीत गीत-नवगीत की विकास-यात्रा को गतिशील करने में अपना अपूर्व योगदान देते रहे हैं। इनके दाय को सम्पूर्ण गीत-नवगीत की विकास-यात्रा के परिप्रेक्ष्य में जाँचा-परखा जाना चाहिए, उनका मूल्यांकन किसी पूर्वाग्रह और दुराग्रह का शिकार हुए बगैर तटस्थ ढंग से किया जाना चाहिए।
प्रश्न- आपका संदेश?
उत्तर- सभी नवगीतकारों को गोलबन्द होकर गीत-नवगीत के खिलाफ रचे जा रहे सारे षड़यंत्रों के विरुद्ध जमकर लोहा लेना चाहिए, गीत के मूल्यांकन के लिए अपने प्रतिमान और सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण करना चाहिए और यह तभी संभव है जब हमारे गीतकार आलोचकों का मुखापेक्षी न होकर अपनी यानी गीत की आलोचना स्वयं लिखेंगे शर्त है कि सिर्फ एक-दूसरे की विरूदावली गाने के बजाय उनके अन्तर्विराधों और सीमाओं की भी खोज करें। उन्हें हर हाल में ‘पहल' और ‘पाँचजन्य' का अन्तर समझना होगा तथा व्यापक जन-समुदाय के परिवर्तनकामी संघर्ष में अपनी सक्रिय साझेदारी अर्पित करनी चाहिए। गीत को व्यापक जन-सामान्य के अंतरंग में रच-बस जाना चाहिए, वहीं उसका वास्तविक वास-स्थान है।
माननीय जनमेजय जी के वेबाक उत्तर और खरे खरे वक्तव्य ध्यातव्य हैन.गीत /नवगीत की चर्चा विमर्श में उनके रूपाकार आदि के साथसाथ उनके बीच भेद -विभेद को उभारा जाता था लेकिन स्री जनमेजय जी ने जनगीत का सन्दःर्भ जोड़क र तथा नवगीत को पूर्णतः यथासिटीत बादी बताकर उसके साथ अन्याय नहीं कियांएरे द्रष्टिकोण से जनवादी विचारधारा नवगीत की एक मुख्य आधारशिला है्आन नवगीत में दुरूहता के तत्वों का समावेश निशचितरूप से उसे जान जीवन और पाठकों से डूर ले जाएगा .मेरे मत में जनगीत /नवगीत यमज हैं.
जवाब देंहटाएंमाननीय जनमेजय जी ने जो नवगीतकारों को ,'सारे शनयंत्रों के विरुद्ध जम कर लोहा लेने 'बात कर जो संदेश दिया पूरा कॅया पूरा महत्व पूर्ण है और श्री वीरेन्द्र आस्तिक के विचारों की पुष्टि करता है .यह गीत नवगीत की विकास यात्रा में मील के पत्थर कॅया काम खाऱेघाआ. पूरेजनमेजय जी के विचारों को सबके लिए प्रष्टुत कार बातचीत का भार उठाने बेल की जितनी पीठ ठोकी जाय कम है .शत शत वधाई.
डाक्टर जयजयराम आनंद
सैंट जॉन कनाडा
माननीय नचिकेता जी के वेबाक उत्तर और खरे खरे वक्तव्य ध्यातव्य हैन.गीत /नवगीत की चर्चा विमर्श में उनके रूपाकार आदि के साथसाथ उनके बीच भेद -विभेद को उभारा जाता था लेकिन स्री नचिकेता जी ने जनगीत का सन्दःर्भ जोड़क र तथा नवगीत को पूर्णतः यथासिटीत बादी बताकर उसके साथ अन्याय नहीं कियांएरे द्रष्टिकोण से जनवादी विचारधारा नवगीत की एक मुख्य आधारशिला है्आन नवगीत में दुरूहता के तत्वों का समावेश निशचितरूप से उसे जान जीवन और पाठकों से डूर ले जाएगा .मेरे मत में जनगीत /नवगीत यमज हैं.
जवाब देंहटाएंमाननीय नचिकेता जी ने जो नवगीतकारों को ,'सारे शनयंत्रों के विरुद्ध जम कर लोहा लेने 'बात कर जो संदेश दिया पूरा कॅया पूरा महत्व पूर्ण है और श्री वीरेन्द्र आस्तिक के विचारों की पुष्टि करता है .यह गीत नवगीत की विकास यात्रा में मील के पत्थर कॅया काम खाऱेघाआ. पूरेनचिकेता जी के विचारों को सबके लिए प्रष्टुत कार बातचीत का भार उठाने बेल की जितनी पीठ ठोकी जाय कम है .शत शत वधाई.
डाक्टर जयजयराम आनंद
सैंट जॉन कनाडा