उस दिन एक नये मिल मिलने आये। 'नये' इसलिए कहता हूं कि मेरी वय इतनी हो गयी है कि पुराने मित्र दिनोंदिन कम! होते जा रहे हैं। जो थोड़े-बह...
उस दिन एक नये मिल मिलने आये। 'नये' इसलिए कहता हूं कि मेरी वय इतनी हो गयी है कि पुराने मित्र दिनोंदिन कम! होते जा रहे हैं। जो थोड़े-बहुत रह भी गये हैं, वे या तो अशक्त हैं या अन्य प्रकार से आने में असमर्थ हैं-जैसे जो लोग तीन मील पैदल चलकर आ नहीं सकते, उनसे एक ओर का किराया रिक्शावाला तीन रुपया मांगता है। अतएव अब अधिकतर नये मिल ही यदा-कदा आ जाने की कृपा करते हैं।
पुराने मित्र मेरी तरह ही दकियानूसी हैं। वे पत्नी को लेकर 'काल करने नहीं आते। नये युग में 'बेहतर अंग' के बिना व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। मेरे अधिकांश नये मित्र भी, जो मेरी 'सनकों' और दकियानूसीपन को जान गये हैं, वे प्राय: अकेले ही आ जाते हैं, किंतु जिन व्यक्तियों से नया परिचय या मिलता हो जाती है, वे आधु- निक रीति से 'पूर्णांग' होकर आते हैं, विशेषकर यदि पत्नी आधुनिक, सोसायटीप्रिय और साहित्यिक अभिरुचि की हुई।
जैसाकि मैंने कहा, एक नये मित्र मिलने आये। वे पूर्णांग' थे। उनकी सहचरी विदुषी, शिष्ट, आधुनिक अभिजात परिधान से वेष्टित और दर्शनीय थीं। वाणी मधुर और सुसंस्कृत थी। नमस्कार करके मेरे मिल ने कहा, ' 'ये मेरी धर्मपत्नी हैं। इनका नाम...है। सोशियालाजी में एम० ए० हैं। इनके पिता अमुक विभाग में डिप्टी डायरेक्टर और भाई एलाइड सर्विसेज में आ गये हैं। इन्हें हिंदी 'साहित्य में विशेष रुचि है। हिंदी में कविता भी करती हैं।' फिर श्रीमती जी से कहा, ' 'पंडित जी को प्रणाम' करो।'' वे मेरे चरण स्पर्श करने को झुकीं। मैंने मना करते हुए कहा, ''बेटी, मैं पुराने ढंग का आदमी हूं। हम' लोग तो बेटियों के पैर पूजते हैं, उनसे चरण स्पर्श नहीं कराते। भगवान तुम्हारा मंगल करें।''
मेरे नये मित्र की भी हिंदी और साहित्य में रुचि है। आधुनिक हिंदी उपन्यासकारों की तरह मैं 'मनोविज्ञानी' नहीं हूं, इसलिए कह नहीं सकता कि उस समय क्यों पंडित श्री विनोद शर्मा (पं ० श्रीनारायण चतुर्वेदी अपने हास्य-व्यंग्य लेख श्री विनोद शर्मा नाम! से लिखते हैं-सं ० ) मेरे मस्तिष्क पर हावी हो गये। मैंने उनसे बड़े सहज भाव, किंतु बनावटी गांभीर्य से एक बेहूदा बात कह दी, ' 'अच्छा! ये आप की धर्मपत्नी हैं। इनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। किंतु आपने अपनी पत्नी के दर्शन कभी नहीं कराये।''
वे मेरी बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गये। एकाएक उनकी समझ में नहीं आया कि मैं क्या कह गया। कुछ लोग तो साठ वर्ष के होने पर ही बुढभस के शिकार हो जाते हैं। मैं तो नवां दशक पूरा करने के निकट हूं। उन्होंने समझा कि यह प्रश्न मेरे आसन्न बुढभस का लक्षण है। किन्तु वे इतने शिष्ट हैं कि यह बात कह नहीं सकते थे। कुछ देर चुप रहकर बोले, ' 'धर्मपत्नी से मेरा तात्पर्य 'वाइफ' से ही है।''
मैंने कहा, ' 'भाई, हिंदी में लोग कहते हैं-ये मेरे. धर्मपिता हैं, अर्थात् पिता नहीं हैं, किन्तु मैंने इन्हें धर्मवश पिता मान लिया है। मैंने सुना था कि :
जनिता चोपनीता च यस्तु विद्या प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पंचैते पितर: स्मृता।।
पैदा करनेवाला तो पिता है, शेष 'पितर: स्मृता:' अर्थात् पितातुल्य मान लिये गये हैं। इसी तरह से कुछ लोग किसी शिष्य या बालक को पालते-पोसते हैं, या उससे अत्यंत स्नेह करते हैं। उसे वे अपना 'धर्मपुत्र' कहते हैं। आप अपने पिता को केवल 'पिता' कहते है, 'धर्म- पिता' तो नहीं कहते और न अपने पुत्र को 'धर्मपुत्र' कहेंगे। 'धर्मपिता' या 'धर्मपुत्र' कहने से यह अर्थ निकलता है कि वास्तव में वे मेरे पिता या पुत्र नहीं हैं, मैंने धर्म से इन्हें पिता या पुत्र मान लिया है। वास्तविक पिता या पुत्र के आगे 'धर्म' शब्द लगाते हुए किसी को सुना है?”
उन्हें कहना पड़ा, ''नहीं।''
''तब'',मैंने कहा, ''पत्नी वही है, जिससे आपका विधिवत् विवाह हुआ है। वह विवाह संस्कार द्वारा या अदालत में रजिस्ट्री द्वारा हो सकता है। उसके बाद वह आपकी पत्नी हो गयी। अंग्रेजी में भी 'फादर-इन-ला, ब्रदर-इन-ला, सिस्टर-इन-ला' शब्द चलते हैं, पर 'वाइफ-इन-ला' तो मैंने सुना नहीं। उन लोगों में तलाक के बाद कानून से विवाह संबंध विच्छेद हो जाता है, किन्तु जब तक तलाक नहीं होता तब तक वह केवल 'वाइफ' है न कि 'वाइफ-इन-ला ?''
वे मेरी ऊटपटांग बाते अवाक् हो सुनते रहे। तब मैंने कहा, ''जिस प्रकार धर्मपिता के तात्पर्य हैं कि वह व्यक्ति जिसे हम धर्म- पिता कहते हैं, वास्तव में मेरा पिता नहीं है, मैंने इसे केवल धर्मवश पिता मान लिया है और वह भी मुझे पुत्र की तरह मानता है, उसी प्रकार 'धर्मपत्नी' शब्द से मेरी मोटी अक्ल में यह बात आती है कि वह मेरी वास्तव में पत्नी नहीं है, किंतु मैंने उसे धर्म या कर्मवश या व्यावहारिक रूप से अपनी पत्नी मान लिया है। 'कर्मवश' या 'व्यावहारिक' पत्नी कहना कुछ अच्छा नहीं लगता! प्रतिष्ठित शब्द 'धर्म' का उपयोग अच्छा लगता है। धर्म के अर्थ अनेक हैं। प्रेम' भी तो मनुष्य के मन का नैसर्गिक धर्म है। वह किसीसे भी हो सकता है। आवश्यक नहीं कि वह ब्याहता स्त्री अर्थात् पत्नी से ही हो। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। आप समझ गये होंगे कि मैं 'धर्म- पत्नी' किसे समझता हूं और क्यों पत्नी और धर्मपत्नी में भेद करता हूं। आप मुझे गलत न समझें, आप इन्हें भले ही अपनी 'धर्मपत्नी' कहें, किंतु मैं इन्हें आपकी पत्नी ही मानता हूं। मुझे कोई भ्रम नहीं है।''
मैंने आगे कहा, ''शायद आप भी ऐसे प्रकरण जानते हों और मैं तो ऐसे कई प्रकरण जानता हूं, जिनमें बिना किसी प्रकार के विवाह- बंधन में पड़े स्त्री और पुरुष पति-पत्नी की तरह रहते हैं। मैं एक जोड़े को जानता हूं जो बीस वर्ष से अधिक समय से इसी प्रकार रह रहा है। दोनों आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, क्योंकि दोनों ही सरकारी नौकरी में हैं। वे इतने स्वतंत्र हैं कि घरवाले चाहते या न चाहते, वे पारंपरिक प्रथा से विवाह कर सकते थे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। यदि वह उन्हें स्वीकार न होता तो मजिस्ट्रेट के सामने कानूनी विवाह कर सकते थे किंतु उन्होंने इसकी आवश्यकता नहीं समझी। जो लोग असली बात नहीं जानते, वे उन्हें ब्याहता पति-पत्नी ही समझते हैं। मैं यह रहस्य जानता हूं और उनकी श्रीमती जी को सदा उनकी धर्मपत्नी कहता हूं, क्योंकि पत्नी न होते हुए भी वे पत्नी का धर्म निर्वाह कर रही हैं। वे स्वयं उन्हें धर्मपत्नी नहीं कहते। औरों से उनका परिचय 'मेरी वाइफ' या 'मेरी श्रीमती' कहकर कराते हैं।''
मेरे नवीन मित्र ने पूछा, ''क्या 'श्रीमती' में पत्नी का भाव नहीं आता? ''
मैंने कहा, '' 'श्रीमती' वह है जो आपकी 'श्री' की वृद्धि करे, या जिसकी श्रीवृ द्धि आपके कारण होती हो। यह काम! पत्नी और धर्म- पत्नी समान रूप से कर सकती हैं। अतएव यह शब्द दौनों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।'
मैंने अनुभव किया कि श्री विनोद शर्मा ने 'अति' कर दी है। अब उन्हें विदा कर देना चाहिए। अतएव मैं उस देवी की ओर मुड़ा जो न मालूम क्या आशा लेकर मुझसे मिलने आयी थी और मेरी अप्रत्या- शित ऊलजलूल बातों को सुनकर यदि खीज न रही होगी तो बोर तो अवश्य ही हो रही होगी। मैंने उससे कहा, ' 'तुम्हारे पति ने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हें एक साहित्यिक से मिलाने ले चल रहा हूं। तुम स्वयं साहित्य में रुचि लेती हो। मेरे बारे में तुम्हारे पति का विचार कितना गलत है, यह तो तुम्हें मेरी बातों से मालूम हो ही गया होगा। किंतु शायद मेरी ऊलजलूल बातों से तुम्हारा कुछ मनोरंजन हुआ हो। लो, अब मेरे हाथ की बनाई चाय पियो। आशा है कि वह इतनी मीठी न होगी, जितनी मेरी बातें। मुझे कविता सुनने का शौक है और तुम! कविता करती हो। चाय पीने के बाद अपने कुछ गीत सुनाकर एक बूढ़े का मनोरंजन करने का पुण्य लो। आशा है कि तुम मेरी बातों को एक बूढ़े की बकवास समझकर उसपर अधिक ध्यान न दोगी। किंतु इन्हें कह देना कि भविष्य में तुम्हें अपनी पत्नी कहें, धर्मपत्नी नहीं.
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(श्रीनारायण चतुर्वेदी के व्यंग्य संग्रह से साभार)
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Sri Narayan chaturvedi ji ka vyang lekh padh ek bar pun: unki yaad taza ho gai.. lekh ke liye aabhar
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