मानव स्वास्थ्य में अनुजीवियों ( प्रोबायोटिक्स ) की भूमिका - डॉ . अजय कुमार गोयल डॉ . परितोष मालवीय हमारे पर्यावरण में जीव-जंत...
मानव स्वास्थ्य में अनुजीवियों (प्रोबायोटिक्स) की भूमिका
- डॉ. अजय कुमार गोयल
डॉ. परितोष मालवीय
हमारे पर्यावरण में जीव-जंतुओं और सूक्ष्मजीवों का नजदीकी एवं अन्योन्याश्रित संबंध है। सूक्ष्मजीव भी हमारी खाद्य श्रृंखला में अंतिम चरण पर होते हैं। सामान्यतः सूक्ष्मजीवों यथा - जीवाणु (बैक्टीरिया) और विषाणु (वायरस) को बीमारी का पर्याय माना जाता है। परंतु आम प्रचलित धारणा के विपरीत कई मामलों में ये सूक्ष्मजीव लाभदायक भी सिद्ध होते हैं। ज्यादातर सूक्ष्मजीव मेजबान जंतु के शरीर में पूर्ण सामंजस्य के साथ रहते हैं और कोई हानि नहीं पहुँचाते। कभी-कभी यह सामंजस्य बिगड़ जाता है और ऐसी परिस्थिति में कुछ सूक्ष्मजीव, जिन्हें पैथोजन्स या रोगाणु कहते हैं, स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।
एक ग्राम मिट्टी में, लगभग दस करोड़ जीवाणु विद्वमान रहते हैं, और एक आंकलन के अनुसार इनकी लगभग 10000 प्रजातियाँ हैं। इस धरती पर जीवाणु या बैक्टीरिया पहली जैव इकाई थे। वे रेगिस्तानों, बर्फीले पहाड़ों, समुद्रों एवं गर्म जल के स्त्रोतों यानि लगभग सभी जगह मिलते हैं। दुनियाभर में बैक्टीरिया की एक हजार मिलियन से अधिक प्रजातियाँ होने का अनुमान है।
जीवाणु या बैक्टीरिया को हमेशा नकारात्मक भाव से देखा जाता है। |ÉɪÉ&हम बैक्टीरिया को तीन "डी" के रूप में देखते हैं - डर्ट (मैल या गंदगी), डिसीज़ (बीमारी) एवं डैथ (मृत्यु)। यह सामान्य धारणा है कि बैक्टीरिया हानिकारक होते हैं। यह सही है कि कुछ बैक्टीरिया अत्यन्त घातक होते हैं, पर सभी नहीं। ज्यादातर बैक्टीरिया हानिकारक नहीं होते। बल्कि कुछ बैक्टीरिया तो मानवों और पशुओं के लिये लाभदायक भी होते हैं। मनुष्य के शरीर में लाखों जीवित बैक्टीरिया रहते हैं।
मानव आहार एवं पाचन तंत्र एक ऐसा जटिल तंत्र है जिसमें विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीव बहुतायत से पाये जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव एक अच्छे मेहमान की तरह हमारे शरीर में रहते हैं और अपनी उपापचयी गतिविधियों से मानव स्वास्थ्य पर बेहतर प्रभाव डालते हैं, परंतु आधुनिक जीवन शैली में प्रतिजैविकों (ऐंटीबायोटिक्स) के अंधाधुध प्रयोग ने इस सूक्ष्मजैविक परिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत प्रभाव डाला है जिससे कई नई बीमारियाँ देखने में आ रहीं हैं।
हमारे स्वास्थ्य एवं आहार के मध्य महत्त्वपूर्ण संबंध हैं। आहार के द्वारा ही हमें ऊर्जा एवं अन्य पोषक तत्वों की प्राप्ति होती है। प्रख्यात चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स का कथन है - "आहार ही औषधि हो एवं औषधि आहार हो"। इस कथन द्वारा हमें स्वास्थ्य में आहार की भूमिका का एहसास होता है, हालांकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली लंबे समय तक केवल आहार के दवा के रूप में प्रयोग को उचित नहीं मानती। अब आहार के सामान्य पौष्टिक गुणों से परे इनकी विशिष्ट शारीरिक भूमिका को समझने का प्रयास हो रहा है। हाल ही में कुछ विशिष्ट खाद्य उत्पादों को स्वास्थ्यवर्धकों के रूप में देखा जा रहा है जो ऊर्जा, विटामिन, प्रोटीन आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के परे शरीर को कुछ अतिरिक्त लाभ प्रदान करते हैं। ये न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को उत्तम अवस्था में रखते हैं, अपितु बीमारियों की चपेट में आने की संभावना को भी कम करते हैं। इन खाद्य उत्पादों में अनुजीवी या अनुजैविकों (प्रोबायोटिक्स) का मुख्य स्थान है।
अनुजीवी (प्रोबायोटिक्स) क्या है?
उन सूक्ष्मजीवों के समूह को, जो अपने सकारात्मक प्रभाव द्वारा पाचन तंत्र में विद्यमान लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि को उत्तेजित करते हैं एवं हानिकारक जीवाणुओं का दमन करते हैं, अनुजीवी या प्रोबायोटिक्स कहलाते हैं। सदियों से मनुष्य इन अनुजीवियों को आहार के रूप में ग्रहण करता रहा है। प्रायः ये खमीर युक्त दुग्ध उत्पादों, दही आदि में बहुतायत से पाये जाते हैं। हालांकि शरीर सौष्ठव को बनाये रखने एवं बीमारी प्रतिरोधक के रूप में इनका प्रयोग कुछ ही वर्षों से प्रारंभ हुआ है। इन अनुजीवियों ने अपने सकारात्मक गुणों के कारण बड़ी मात्रा में पोषण वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। "प्रोबायोटिक" शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है जिसका तात्पर्य - "जीवन के लिये"। प्रोबायोटिक्स शब्द एंटीबायोटिक के विलोम के रूप में प्रयोग होता है। सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग वैज्ञानिक लिली एवं स्टिलवैल ने एक प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न उस पदार्थ के लिये किया था जो अन्य पदार्थों को उत्तेजित करता है। यह कोई नया सिद्धांत नहीं है। इसके विवरण बहुतायत से देखने को मिलते हैं। ओल्ड टेस्टामेंट के पारसी संस्करण (जेनेसिस 18-8) में उल्लेख है कि अब्राहम ने खट्टे दूध, लस्सी के उपयोग द्वारा दीर्घजीवन प्राप्त किया। प्रोबायोटिक्स या अनुजीवी की कार्यप्रणाली की जानकारी के बिना ही शताब्दियों से मानव द्वारा लेक्टोबेसिलस (दही में पाये जाने वाले जीवाणु) और बाईफिडाबैक्टीरियम का उपयोग किया जाता है। 76 ई. में प्लिनी नामक रोमन इतिहासकार ने जठर शोध (गेस्ट्रोइन्टीराईटिस) के उपचार के लिये खमीर उठे दूध के उपयोग को लाभप्रद बताया था।
अनुजीवी या प्रोबायोटिक्स की कार्यप्रणाली को समझने के प्रयास का आरंभ 1907 में मैक्नीकॉक के "नशा सिद्धांत (इन्टॉक्सीकेशन थ्योरी)" से हुआ है। एफ. ए.ओ. एवं डब्ल्यु. एच. ओ. (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के संयुक्त कार्यदल ने वर्ष 2006 में अनुजीवी की परिभाषा इस प्रकार की है कि "ये वे जीवित सूक्ष्मजीव है जिन्हे प्रचुर परिणाम में सेवन करने से व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ होता है।"
आहार नाल में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव -
मानव आहार नाल एक जटिल पारिस्थतिकी तंत्र है जिसमें विभिन्न एवं जटिल प्रकार के जीवाणु रहते हैं। आहार नाल, मुख से प्रारंभ होकर गुदा द्वार तक जाती है एवं हमारा शरीर इस आहार नाल का कवच मात्र है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य की आहार नाल लगभग 30 फुट लंबी होती है और यह इतनी जटिल होती है कि इसमें लगभग 1012 जीवाणु होते हैं। मनुष्य द्वारा उत्सर्जित मल पदार्थ का 75 प्रतिशत भाग जीवाणु होते हैं एवं शुष्क मल में लगभग 1011 खरब सूक्ष्मजीव होते हैं जो 50 विभिन्न संघों एवं 500 विभिन्न प्रजातियों के होते हैं। आहार नाल में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव हैं - मीथेनोजेंस, बैक्टीरोआइडस, बायाफिडा बैक्टीरिया, एसचेरिसिया कोलाई, यूबैक्टीरिया स्ट्रेप्टोकोक्की, लेक्टोबैसीलस, बैसिली इत्यादि। ये जीवाणु आहार नाल में समान रूप से नही फैले होते। शरीर के भीतर रहने वाले ये जीवाणु आपस में इस प्रकार क्रिया करते हैं कि मेजबान शरीर स्वस्थ रहता है। हमारा शरीर महत्त्वपूर्ण विटामिनों के निर्माण, पोषकों को हजम करने तथा वितरित करने एवं पैथोजनिक (रोग जनक) जीवाणु को नष्ट करने के लिये सूक्ष्मजीवों पर ही निर्भर रहता है।
अनुजीवों (प्रोबायोटिक्स) से होने वाला स्वास्थ्य लाभ -
आधुनिक समाज की बदलती खाद्य आदतों एवं पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण विभिन्न एलर्जी एवं आहार संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ा है। हालांकि हमारे शरीर में इन बाह्य हानिकारक जीवाणुओं से मुकाबला करने के लिये आवश्यक प्रतिरक्षा प्रणाली मौजूद होती है परंतु समुचित उत्तेजन या पोषण न होने के कारण हमारा शरीर बीमारी ग्रस्त हो जाता है। आहार एवं सूक्ष्मजीवीय एंटीजन इस प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। पिछले दशक में अनुजीवी ग्रहण द्वारा स्वास्थ्य लाभ पर वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हुआ है। अनुजीवी (प्रोबायोटिक्स) के रूप में कई सूक्ष्मजीवों प्रयोग किया जाता है। ये प्रायः छोटी आंत में कार्य करते हैं। विभिन्न अनुसंधानों में अनुजीवियों से होने वाले लाभों की पुष्टि हुई है।
निम्नलिखित बीमारियों में अनुजीवियों के प्रयोग को लाभप्रद पाया गया है -
· आहार नाल संबंधी संक्रमण जैसे गहन डायरिया, पर्यटक डायरिया, एंटीबायोटिक संबंधी डायरिया, नवजातों को होने वाला डायरिया
· मूत्रीय नाल संक्रमण (यू टी आई)
· जीवाणु जनित यौन संक्रमण
· एक्जीमा
· रक्त कोलेट्राल एवं उच्च रक्त चाप
· कैंसर
अनुजीवियों की क्रियाविधि -
अनुजीवियों की क्रियाविधि को अभी तक ठीक प्रकार से समझा नहीं गया है। एक सामान्य धारणा है कि अनुजीवी को आहार के रूप में ग्रहण करने से ये आंतों में पाये जाने वाले लाभप्रद सूक्ष्मजीवों के संतुलन को बेहतर करते है तथा हानिकारक सूक्ष्मजीवों से लड़कर उनका दमन करते हैं, लेकिन यह एक साधारण व्याख्या ही है। ऐसे कई कारक हैं जो आहार नाल के संतुलन को बिगाड़ सकते हैं। कुछ मुख्य कारक हैं - हानिकारक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि, गंदगी या अस्वच्छ वातावरण, मिठाइयों का अत्यधिक सेवन, स्टार्च युक्त खाद्य, मदिरापान, एंटीबायोटिक्स का प्रायः इस्तेमाल, विकिरण प्रभाव, शल्य चिकित्सा, अत्यधिक तनाव एवं पर्यावरण में फैले विषैले पदार्थ आदि। लाभप्रद सूक्ष्म जीव आंत में किण्वन या खमीर की प्रक्रिया द्वारा आवश्यक पोषकों को उत्पन्न करते हैं।
सुरक्षित अनुजीवी -
अनुजीवियों का सुरक्षित होना अत्यावश्यक है क्योंकि इनका संबंध आहार या औषधि के रूप में इस्तेमाल से है। लैक्टोबैसिलस जैसे कुछ अनुजीवियों का काफी प्राचीन समय से प्रयोग होता रहा है एवं आज तक इनके पूर्ण सुरक्षित होने पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा है। आज लैक्टोबैसिलस एवं लैक्टोकोक्कस जैसे कुछ अनुजीवियों ने पूर्ण सुरक्षित होने का दर्जा प्राप्त कर लिया है। सामान्यतः सूक्ष्मजीवों को तीन समूहों में वितरित किया जा सकता है - अहानिकर, अनुकूलित हानिकर, एवं पूर्ण हानिकर। कभी-कभी अहानिकर सूक्ष्मजीव भी विशेष परिस्थितियों में हानिकर हो सकते हैं।
आज कल अधिक लाभप्रद अनुजीवी औषधियों का विकास हो रहा है। अतः उनका पूर्ण सुरक्षित होना अत्यावश्यक है। सुरक्षा के कुछ मानक हैं -
· अनुजीवियों के वंश की पहचान
· अहानिकर होने के सबूत
· विषालुता जांच
· एंटीबायोटिक प्रतिरोधी चरित्र
· संक्रामक न होना आदि
उपर्युक्त मानकों पर खरे उतरने के उपरांत ही किसी अनुजीवी का औषधि के रूप में सेवन किया जा सकता है।
बाजार में उपलब्ध कुछ प्रमुख प्रोबायोटिक्स और उनकी उत्पादक कंपनियां निम्नवत हैं -
निष्कर्ष –
सामान्यतः देखा गया है कि डॉक्टर जब मरीज को एंटिबायोटिक औषधि देते हैं तो विटामिन बी (B Complex) दिया जाता है। क्योंकि एंटीबायोटिक्स अच्छे और बुरे जीवाणुओं में भेदभाव नहीं करते हैं और सभी को नष्ट करने का कार्य करते हैं। इससे विटामिन बी पैदा करने वाले जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं और शरीर में इन विटामिनों की कमी हो जाती है। अक्सर आजकल दस्त या पैचिस होने पर प्रोबायोटिक्स की गोली या bÅMÉ भी दिया जाता है ताकि लाभदायक जीवाणु भरपूर मात्रा में शरीर के अंदर जाकर अपनी जगह बना सके।
अपने लाभप्रद गुणों के कारण ही अनुजीवियों से बनी औषधि ने अद्भुत औषधि का दर्जा प्राप्त कर लिया है। लेकिन इनके प्रयोग के पूर्व या बाजार में औषधि के रूप में उतारने के पूर्व सुरक्षा मानकों का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। अपने अद्भुत गुणों के कारण ही अनुजीवी भविष्य में बेहतर विकल्प सिद्ध हो सकते हैं। हालांकि इस क्षेत्र में अभी विज्ञान को लंबा सफर तय करना है।
*****
संक्षिप्त परिचय - डॉ. अजय कुमार गोयल
डॉ. अजय कुमार गोयल विगत 10 वर्षों से डी.आर.डी.ओ. की ग्वालियर स्थित एक प्रयोगशाला रक्षा अनुसंधान एवं विकास स्थापना में वैज्ञानिक के रूप में पदस्थ हैं। उन्होंने सी.सी.एस. .षि विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा से एम.एससी. एवं पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की। एग्रीकल्चर माइक्रोबायोलॉजी के क्षेत्र में उन्हें वर्ष 1999 में यंग साइंटिस्ट पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2001 में आपको विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग से यंग साइंटिस्ट रिसर्च फैलोशिप प्राप्त हुई।
डी.आर.डी.ओ. में आप पर्यावरणीय सूक्ष्मजीव विज्ञान के क्षेत्र में शोधरत हैं। आपको वर्ष 2004 व 2005 में डी.आर.डी.ओ. सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशाला वैज्ञानिक के पुरस्कार से एवं वर्ष 2005 में ए.एम.आई. यंग साइंटिस्ट पुरस्कार से भी सम्मानित किए जा चुके हैं। वर्ष 2007 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा आपका चयन कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, इरविन, यू.एस.ए. में शोधकार्य हेतु किया गया।
वर्तमान ने डॉ. गोयल भारत में हैजा, ऐन्थ्रैक्स और अन्य संक्रामक बीमारियों के फैलने के कारणों के बारे में शोधकार्य के अतिरिक्त जन स्वास्थ्य महत्व के रोगाणुओं की पहचान हेतु जैव संवेदकों व आणविक प्रणालियों के विकास पर कार्य कर रहे हैं। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय जनरलों में आपके 50 से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही आपने राष्ट्रीय उवं अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में दर्जनों शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं।
संपर्क - akgoel73@yahoo.co.uk
संक्षिप्त परिचय - डॉ. परितोष मालवीय
डॉ. परितोष मालवीय विगत 12 वर्षों से डी.आर.डी.ओ. की ग्वालियर स्थित एक प्रयोगशाला रक्षा अनुसंधान एवं विकास स्थापना में वरिष्ठ हिंदी अनुवादक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ. मालवीय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी एवं हिंदी साहित्य में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के उपरांत बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी से हिंदी एवं अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की उपाधि एवं जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से हिंदी विषय में पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की।
विगत 12 वर्षों से आप प्रमुखतः वैज्ञानिक एवं तकनीकी साहित्य के हिंदी अनुवाद के साथ - साथ अन्य विषयों से संबंधित लेखों के हिंदी अनुवाद कार्य से जुड़े रहे हैं। वर्ष 2011 में आपके द्वारा लिखी गई पुस्तक विष विज्ञान एवं मानव जीवन को डी.आर.डी.ओ. द्वारा द्वितीय सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के पुरस्कार से सम्मानित किया है। विभिन्न साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं/पुस्तकों में आपके अनेक समीक्षा लेख व कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं।
संपर्क - malviyaparitosh@rediffmail.com
- डॉ. अजय कुमार गोयल
डॉ. परितोष मालवीय
हमारे पर्यावरण में जीव-जंतुओं और सूक्ष्मजीवों का नजदीकी एवं अन्योन्याश्रित संबंध है। सूक्ष्मजीव भी हमारी खाद्य श्रृंखला में अंतिम चरण पर होते हैं। सामान्यतः सूक्ष्मजीवों यथा - जीवाणु (बैक्टीरिया) और विषाणु (वायरस) को बीमारी का पर्याय माना जाता है। परंतु आम प्रचलित धारणा के विपरीत कई मामलों में ये सूक्ष्मजीव लाभदायक भी सिद्ध होते हैं। ज्यादातर सूक्ष्मजीव मेजबान जंतु के शरीर में पूर्ण सामंजस्य के साथ रहते हैं और कोई हानि नहीं पहुँचाते। कभी-कभी यह सामंजस्य बिगड़ जाता है और ऐसी परिस्थिति में कुछ सूक्ष्मजीव, जिन्हें पैथोजन्स या रोगाणु कहते हैं, स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।
एक ग्राम मिट्टी में, लगभग दस करोड़ जीवाणु विद्वमान रहते हैं, और एक आंकलन के अनुसार इनकी लगभग 10000 प्रजातियाँ हैं। इस धरती पर जीवाणु या बैक्टीरिया पहली जैव इकाई थे। वे रेगिस्तानों, बर्फीले पहाड़ों, समुद्रों एवं गर्म जल के स्त्रोतों यानि लगभग सभी जगह मिलते हैं। दुनियाभर में बैक्टीरिया की एक हजार मिलियन से अधिक प्रजातियाँ होने का अनुमान है।
जीवाणु या बैक्टीरिया को हमेशा नकारात्मक भाव से देखा जाता है। |ÉɪÉ&हम बैक्टीरिया को तीन "डी" के रूप में देखते हैं - डर्ट (मैल या गंदगी), डिसीज़ (बीमारी) एवं डैथ (मृत्यु)। यह सामान्य धारणा है कि बैक्टीरिया हानिकारक होते हैं। यह सही है कि कुछ बैक्टीरिया अत्यन्त घातक होते हैं, पर सभी नहीं। ज्यादातर बैक्टीरिया हानिकारक नहीं होते। बल्कि कुछ बैक्टीरिया तो मानवों और पशुओं के लिये लाभदायक भी होते हैं। मनुष्य के शरीर में लाखों जीवित बैक्टीरिया रहते हैं।
मानव आहार एवं पाचन तंत्र एक ऐसा जटिल तंत्र है जिसमें विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीव बहुतायत से पाये जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव एक अच्छे मेहमान की तरह हमारे शरीर में रहते हैं और अपनी उपापचयी गतिविधियों से मानव स्वास्थ्य पर बेहतर प्रभाव डालते हैं, परंतु आधुनिक जीवन शैली में प्रतिजैविकों (ऐंटीबायोटिक्स) के अंधाधुध प्रयोग ने इस सूक्ष्मजैविक परिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत प्रभाव डाला है जिससे कई नई बीमारियाँ देखने में आ रहीं हैं।
हमारे स्वास्थ्य एवं आहार के मध्य महत्त्वपूर्ण संबंध हैं। आहार के द्वारा ही हमें ऊर्जा एवं अन्य पोषक तत्वों की प्राप्ति होती है। प्रख्यात चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स का कथन है - "आहार ही औषधि हो एवं औषधि आहार हो"। इस कथन द्वारा हमें स्वास्थ्य में आहार की भूमिका का एहसास होता है, हालांकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली लंबे समय तक केवल आहार के दवा के रूप में प्रयोग को उचित नहीं मानती। अब आहार के सामान्य पौष्टिक गुणों से परे इनकी विशिष्ट शारीरिक भूमिका को समझने का प्रयास हो रहा है। हाल ही में कुछ विशिष्ट खाद्य उत्पादों को स्वास्थ्यवर्धकों के रूप में देखा जा रहा है जो ऊर्जा, विटामिन, प्रोटीन आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के परे शरीर को कुछ अतिरिक्त लाभ प्रदान करते हैं। ये न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को उत्तम अवस्था में रखते हैं, अपितु बीमारियों की चपेट में आने की संभावना को भी कम करते हैं। इन खाद्य उत्पादों में अनुजीवी या अनुजैविकों (प्रोबायोटिक्स) का मुख्य स्थान है।
अनुजीवी (प्रोबायोटिक्स) क्या है?
उन सूक्ष्मजीवों के समूह को, जो अपने सकारात्मक प्रभाव द्वारा पाचन तंत्र में विद्यमान लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि को उत्तेजित करते हैं एवं हानिकारक जीवाणुओं का दमन करते हैं, अनुजीवी या प्रोबायोटिक्स कहलाते हैं। सदियों से मनुष्य इन अनुजीवियों को आहार के रूप में ग्रहण करता रहा है। प्रायः ये खमीर युक्त दुग्ध उत्पादों, दही आदि में बहुतायत से पाये जाते हैं। हालांकि शरीर सौष्ठव को बनाये रखने एवं बीमारी प्रतिरोधक के रूप में इनका प्रयोग कुछ ही वर्षों से प्रारंभ हुआ है। इन अनुजीवियों ने अपने सकारात्मक गुणों के कारण बड़ी मात्रा में पोषण वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। "प्रोबायोटिक" शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है जिसका तात्पर्य - "जीवन के लिये"। प्रोबायोटिक्स शब्द एंटीबायोटिक के विलोम के रूप में प्रयोग होता है। सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग वैज्ञानिक लिली एवं स्टिलवैल ने एक प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न उस पदार्थ के लिये किया था जो अन्य पदार्थों को उत्तेजित करता है। यह कोई नया सिद्धांत नहीं है। इसके विवरण बहुतायत से देखने को मिलते हैं। ओल्ड टेस्टामेंट के पारसी संस्करण (जेनेसिस 18-8) में उल्लेख है कि अब्राहम ने खट्टे दूध, लस्सी के उपयोग द्वारा दीर्घजीवन प्राप्त किया। प्रोबायोटिक्स या अनुजीवी की कार्यप्रणाली की जानकारी के बिना ही शताब्दियों से मानव द्वारा लेक्टोबेसिलस (दही में पाये जाने वाले जीवाणु) और बाईफिडाबैक्टीरियम का उपयोग किया जाता है। 76 ई. में प्लिनी नामक रोमन इतिहासकार ने जठर शोध (गेस्ट्रोइन्टीराईटिस) के उपचार के लिये खमीर उठे दूध के उपयोग को लाभप्रद बताया था।
अनुजीवी या प्रोबायोटिक्स की कार्यप्रणाली को समझने के प्रयास का आरंभ 1907 में मैक्नीकॉक के "नशा सिद्धांत (इन्टॉक्सीकेशन थ्योरी)" से हुआ है। एफ. ए.ओ. एवं डब्ल्यु. एच. ओ. (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के संयुक्त कार्यदल ने वर्ष 2006 में अनुजीवी की परिभाषा इस प्रकार की है कि "ये वे जीवित सूक्ष्मजीव है जिन्हे प्रचुर परिणाम में सेवन करने से व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ होता है।"
आहार नाल में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव -
मानव आहार नाल एक जटिल पारिस्थतिकी तंत्र है जिसमें विभिन्न एवं जटिल प्रकार के जीवाणु रहते हैं। आहार नाल, मुख से प्रारंभ होकर गुदा द्वार तक जाती है एवं हमारा शरीर इस आहार नाल का कवच मात्र है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य की आहार नाल लगभग 30 फुट लंबी होती है और यह इतनी जटिल होती है कि इसमें लगभग 1012 जीवाणु होते हैं। मनुष्य द्वारा उत्सर्जित मल पदार्थ का 75 प्रतिशत भाग जीवाणु होते हैं एवं शुष्क मल में लगभग 1011 खरब सूक्ष्मजीव होते हैं जो 50 विभिन्न संघों एवं 500 विभिन्न प्रजातियों के होते हैं। आहार नाल में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव हैं - मीथेनोजेंस, बैक्टीरोआइडस, बायाफिडा बैक्टीरिया, एसचेरिसिया कोलाई, यूबैक्टीरिया स्ट्रेप्टोकोक्की, लेक्टोबैसीलस, बैसिली इत्यादि। ये जीवाणु आहार नाल में समान रूप से नही फैले होते। शरीर के भीतर रहने वाले ये जीवाणु आपस में इस प्रकार क्रिया करते हैं कि मेजबान शरीर स्वस्थ रहता है। हमारा शरीर महत्त्वपूर्ण विटामिनों के निर्माण, पोषकों को हजम करने तथा वितरित करने एवं पैथोजनिक (रोग जनक) जीवाणु को नष्ट करने के लिये सूक्ष्मजीवों पर ही निर्भर रहता है।
अनुजीवों (प्रोबायोटिक्स) से होने वाला स्वास्थ्य लाभ -
आधुनिक समाज की बदलती खाद्य आदतों एवं पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण विभिन्न एलर्जी एवं आहार संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ा है। हालांकि हमारे शरीर में इन बाह्य हानिकारक जीवाणुओं से मुकाबला करने के लिये आवश्यक प्रतिरक्षा प्रणाली मौजूद होती है परंतु समुचित उत्तेजन या पोषण न होने के कारण हमारा शरीर बीमारी ग्रस्त हो जाता है। आहार एवं सूक्ष्मजीवीय एंटीजन इस प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। पिछले दशक में अनुजीवी ग्रहण द्वारा स्वास्थ्य लाभ पर वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हुआ है। अनुजीवी (प्रोबायोटिक्स) के रूप में कई सूक्ष्मजीवों प्रयोग किया जाता है। ये प्रायः छोटी आंत में कार्य करते हैं। विभिन्न अनुसंधानों में अनुजीवियों से होने वाले लाभों की पुष्टि हुई है।
निम्नलिखित बीमारियों में अनुजीवियों के प्रयोग को लाभप्रद पाया गया है -
· आहार नाल संबंधी संक्रमण जैसे गहन डायरिया, पर्यटक डायरिया, एंटीबायोटिक संबंधी डायरिया, नवजातों को होने वाला डायरिया
· मूत्रीय नाल संक्रमण (यू टी आई)
· जीवाणु जनित यौन संक्रमण
· एक्जीमा
· रक्त कोलेट्राल एवं उच्च रक्त चाप
· कैंसर
अनुजीवियों की क्रियाविधि -
अनुजीवियों की क्रियाविधि को अभी तक ठीक प्रकार से समझा नहीं गया है। एक सामान्य धारणा है कि अनुजीवी को आहार के रूप में ग्रहण करने से ये आंतों में पाये जाने वाले लाभप्रद सूक्ष्मजीवों के संतुलन को बेहतर करते है तथा हानिकारक सूक्ष्मजीवों से लड़कर उनका दमन करते हैं, लेकिन यह एक साधारण व्याख्या ही है। ऐसे कई कारक हैं जो आहार नाल के संतुलन को बिगाड़ सकते हैं। कुछ मुख्य कारक हैं - हानिकारक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि, गंदगी या अस्वच्छ वातावरण, मिठाइयों का अत्यधिक सेवन, स्टार्च युक्त खाद्य, मदिरापान, एंटीबायोटिक्स का प्रायः इस्तेमाल, विकिरण प्रभाव, शल्य चिकित्सा, अत्यधिक तनाव एवं पर्यावरण में फैले विषैले पदार्थ आदि। लाभप्रद सूक्ष्म जीव आंत में किण्वन या खमीर की प्रक्रिया द्वारा आवश्यक पोषकों को उत्पन्न करते हैं।
सुरक्षित अनुजीवी -
अनुजीवियों का सुरक्षित होना अत्यावश्यक है क्योंकि इनका संबंध आहार या औषधि के रूप में इस्तेमाल से है। लैक्टोबैसिलस जैसे कुछ अनुजीवियों का काफी प्राचीन समय से प्रयोग होता रहा है एवं आज तक इनके पूर्ण सुरक्षित होने पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा है। आज लैक्टोबैसिलस एवं लैक्टोकोक्कस जैसे कुछ अनुजीवियों ने पूर्ण सुरक्षित होने का दर्जा प्राप्त कर लिया है। सामान्यतः सूक्ष्मजीवों को तीन समूहों में वितरित किया जा सकता है - अहानिकर, अनुकूलित हानिकर, एवं पूर्ण हानिकर। कभी-कभी अहानिकर सूक्ष्मजीव भी विशेष परिस्थितियों में हानिकर हो सकते हैं।
आज कल अधिक लाभप्रद अनुजीवी औषधियों का विकास हो रहा है। अतः उनका पूर्ण सुरक्षित होना अत्यावश्यक है। सुरक्षा के कुछ मानक हैं -
· अनुजीवियों के वंश की पहचान
· अहानिकर होने के सबूत
· विषालुता जांच
· एंटीबायोटिक प्रतिरोधी चरित्र
· संक्रामक न होना आदि
उपर्युक्त मानकों पर खरे उतरने के उपरांत ही किसी अनुजीवी का औषधि के रूप में सेवन किया जा सकता है।
बाजार में उपलब्ध कुछ प्रमुख प्रोबायोटिक्स और उनकी उत्पादक कंपनियां निम्नवत हैं -
प्रोबायोटिक | निर्माता कंपनी |
Bifilac Capsules/Sachet | Tablets India Ltd. |
ViBact Capsules/Sachet | USV |
Binifit Capsules/Sachet | Ranbaxy |
Becelac PB Capsules | Dr. Reddy’s lab |
Vizyl Capsules/Sachet | Unichem |
Gutpro Capsules/Sachet | JBCPL |
Ecoflora Capsules/Sachet | Tablets India Ltd. |
Econova Capsules | Glenmark |
Biors Sachet | Tablets India Ltd. |
निष्कर्ष –
सामान्यतः देखा गया है कि डॉक्टर जब मरीज को एंटिबायोटिक औषधि देते हैं तो विटामिन बी (B Complex) दिया जाता है। क्योंकि एंटीबायोटिक्स अच्छे और बुरे जीवाणुओं में भेदभाव नहीं करते हैं और सभी को नष्ट करने का कार्य करते हैं। इससे विटामिन बी पैदा करने वाले जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं और शरीर में इन विटामिनों की कमी हो जाती है। अक्सर आजकल दस्त या पैचिस होने पर प्रोबायोटिक्स की गोली या bÅMÉ भी दिया जाता है ताकि लाभदायक जीवाणु भरपूर मात्रा में शरीर के अंदर जाकर अपनी जगह बना सके।
अपने लाभप्रद गुणों के कारण ही अनुजीवियों से बनी औषधि ने अद्भुत औषधि का दर्जा प्राप्त कर लिया है। लेकिन इनके प्रयोग के पूर्व या बाजार में औषधि के रूप में उतारने के पूर्व सुरक्षा मानकों का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। अपने अद्भुत गुणों के कारण ही अनुजीवी भविष्य में बेहतर विकल्प सिद्ध हो सकते हैं। हालांकि इस क्षेत्र में अभी विज्ञान को लंबा सफर तय करना है।
*****
संक्षिप्त परिचय - डॉ. अजय कुमार गोयल
डॉ. अजय कुमार गोयल विगत 10 वर्षों से डी.आर.डी.ओ. की ग्वालियर स्थित एक प्रयोगशाला रक्षा अनुसंधान एवं विकास स्थापना में वैज्ञानिक के रूप में पदस्थ हैं। उन्होंने सी.सी.एस. .षि विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा से एम.एससी. एवं पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की। एग्रीकल्चर माइक्रोबायोलॉजी के क्षेत्र में उन्हें वर्ष 1999 में यंग साइंटिस्ट पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2001 में आपको विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग से यंग साइंटिस्ट रिसर्च फैलोशिप प्राप्त हुई।
डी.आर.डी.ओ. में आप पर्यावरणीय सूक्ष्मजीव विज्ञान के क्षेत्र में शोधरत हैं। आपको वर्ष 2004 व 2005 में डी.आर.डी.ओ. सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशाला वैज्ञानिक के पुरस्कार से एवं वर्ष 2005 में ए.एम.आई. यंग साइंटिस्ट पुरस्कार से भी सम्मानित किए जा चुके हैं। वर्ष 2007 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा आपका चयन कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, इरविन, यू.एस.ए. में शोधकार्य हेतु किया गया।
वर्तमान ने डॉ. गोयल भारत में हैजा, ऐन्थ्रैक्स और अन्य संक्रामक बीमारियों के फैलने के कारणों के बारे में शोधकार्य के अतिरिक्त जन स्वास्थ्य महत्व के रोगाणुओं की पहचान हेतु जैव संवेदकों व आणविक प्रणालियों के विकास पर कार्य कर रहे हैं। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय जनरलों में आपके 50 से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही आपने राष्ट्रीय उवं अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में दर्जनों शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं।
संपर्क - akgoel73@yahoo.co.uk
संक्षिप्त परिचय - डॉ. परितोष मालवीय
डॉ. परितोष मालवीय विगत 12 वर्षों से डी.आर.डी.ओ. की ग्वालियर स्थित एक प्रयोगशाला रक्षा अनुसंधान एवं विकास स्थापना में वरिष्ठ हिंदी अनुवादक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ. मालवीय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी एवं हिंदी साहित्य में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के उपरांत बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी से हिंदी एवं अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की उपाधि एवं जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर से हिंदी विषय में पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की।
विगत 12 वर्षों से आप प्रमुखतः वैज्ञानिक एवं तकनीकी साहित्य के हिंदी अनुवाद के साथ - साथ अन्य विषयों से संबंधित लेखों के हिंदी अनुवाद कार्य से जुड़े रहे हैं। वर्ष 2011 में आपके द्वारा लिखी गई पुस्तक विष विज्ञान एवं मानव जीवन को डी.आर.डी.ओ. द्वारा द्वितीय सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के पुरस्कार से सम्मानित किया है। विभिन्न साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं/पुस्तकों में आपके अनेक समीक्षा लेख व कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं।
संपर्क - malviyaparitosh@rediffmail.com
COMMENTS