समीक्षा- रामवती ः बीमार देश की एक नदी का आख्यान - अवनीश सिंह चौहान काश! पूछता कोई मुझसे सुख-दुख में हूँ , कैसी हूँ ? जैसे पहले खुश रहत...
समीक्षा-
रामवती ः बीमार देश की एक नदी का आख्यान
- अवनीश सिंह चौहान
काश! पूछता कोई मुझसे
सुख-दुख में हूँ, कैसी हूँ?
जैसे पहले खुश रहती थी
क्या मैं अब भी वैसी हूँ।
- डा. शरद सिंह
रामवती की स्थिति भी काफी कुछ ऐसी ही है। समय से पहले बूढ़ी होने तथा सूखी नदी-सा चेहरा लिए दर-दर की ठोकरें खाने वाली ‘रामवती' का चरित्र गढ़ा है जाने-माने कवि एवं प्रेसमेन के पूर्व साहित्य-संपादक मयंक श्रीवास्तव जी ने अपनी कृति ‘रामवती' में। वह कहते हैं- ‘चेहरा लिए हुए फिरती है सूखी हुई नदी जैसा / कभी हज़ारों में लगती थी सबसे प्यारी रामवती।' लेकिन प्रश्न यह है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि रामवती अब पहले जैसी नहीं रही? कवि ने जब भी यह बात जाननी चाही तो ‘कहते-कहते रुक जाती है कुछ बेचारी रामवती।' ऐसी स्थिति में कवि अपने अनुभवों के माध्यम से इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि-
जिस दिन वह बीमार पुरुष से ब्याही गई, उसी दिन से
कर बैठी थी विधवा होने की तैयारी रामवती।
और
बूढ़े अनुशासन ने इतना सख़्त लगा डाला पहरा
अपने नये-पुराने सारे सपने हारी रामवती।
प्रसिद्ध कवयित्री मरीना त्स्वेवायेवा मानती हैं कि- ‘बहुत दूर की बात छेड़ता है कवि / बहुत दूर की बात खींच ले जाती है कवि को।' शायद इसीलिए कवि मयंक श्रीवास्तव अपने परिचयात्मक ज्ञान का प्रयोग कर सत्य को जान ही लेते हैं और शायद इसीलिए वह अपनी सांकेतिक भाषा में कह भी देते हैं कि रामवती का जीवन दुखमय हो गया है- ‘बीमार पुरुष' और ‘बूढ़े अनुशासन' के कारण। आख़िर यह बीमार पुरुष कौन है? चिकित्सा विज्ञान के अनुसार जो पुरुष शारीरिक या मानसिक स्तर पर अस्वस्थ हो, बीमार पुरुष कहलायेगा। ‘पुरुष' कौन कहलायेगा? यहाँ पुरुष या तो रामवती का पति है या हमारा पुरुष प्रधान समाज, जहाँ स्त्री को भोग की वस्तु माना जाता है और जो रूढ़िवादी विचारों का अनुयायी होने के कारण स्त्री की स्वतंत्रता और प्रसन्नता दोनों का हनन करता है। परिणामस्वरूप रामवती के न केवल सपने टूटते हैं, उम्मीदें टूटती हैं, बल्कि वह विक्षिप्तावस्था में पहुँचने के लिए बाध्य हो जाती है-
जब-जब भी गुज़री बस्ती से मन अपना विक्षिप्त लिए
मैंने देखा टेर रहे थे कई जुआरी रामवती।
कवि यहाँ पर सब कुछ देख रहा है- जुआरियों की नज़र भी और रामवती का जीवन-संघर्ष भी। रामवती का संघर्ष उन तमाम महिलाओं जैसा ही है जो भारतीय समाज में पुरानी पड़ चुकी व्यवस्थाओं-मान्यताओं से तो जूझ ही रही हैं, आधुनिक समय में अपने अधिकारों से भी कोसों दूर हैं। तिस पर भी उसका नैतिक पतन नहीं हुआ, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है- ‘मर्यादा की एक पुजारिन है यह नारी रामवती।' इसलिए भी कि जहाँ मयंक जी ने अपने इस संग्रह में आज की सड़ी-गली व्यवस्था और स्त्री दुर्दशा के तमाम पहलुओं को उजागर किया है, वहीं उन्होंने यह सकारात्मक संकेत भी दिया है कि जीवन तभी सुंदर है, जब यह मर्यादित होता है। और, यह मर्यादा या कहें जीवनमूल्य सिर्फ स्त्रियों के लिए ही नहीं है, बल्कि उन सभी के लिए ज़रूरी है जो जीवन को सुंदर बनाना चाहते हैं।
एक पत्नी की कथा-व्यथा के साथ ही मयंक जी एक माँ की तस्वीर भी खींचते हैं अपने इस संग्रह में। माँ, जिसे चिंता है अपने बच्चें के भावी जीवन की- ‘बच्चों के भावी जीवन से डरी हुई है मेरी माँ / ज़िंदा होकर भी लगती है मरी हुई है मेरी माँ।' क्योंकि उसे पता है कि बच्चे होते हैं राष्ट्र का भविष्य और बनेंगे वे ही कभी राष्ट्र निर्माता। किंतु माँ को उनका भविष्य सुरक्षित नहीं दिख रहा है, क्योंकि देश में अराजकता एवं कुशासन का बोलबाला है और अंधों-बहरों की जमात बढ़ती चली जा रही है- ‘कोई नहीं सुनेगा तेरी अब मत और पुकार नदी' और ‘मौसम का दिल तो पत्थर से और अधिक हो गया कड़ा / इसके आगे अश्रु बहाना है तेरा बेकार नदी।' यह तो संवेदनहीनता का प्रत्यक्ष प्रमाण है- प्रत्यक्ष इसलिए कि हम सभी ऐसी स्थितियों से अक्सर दो-चार होते हैं। कवि को यह भी लगता है कि अब एक ही रास्ता बचा है- वह है सशस्त्र क्रांति का, क्योंकि बात से बात बनने की संभावना बहुत कम रह गयी है और नदी और नारी दोनों की अस्मिता बचाए रखने के लिए यह बेहद ज़रूरी है। इसीलिए वह नारी शक्ति का आवाहन करता है-
तुझको अपनी इज़्ज़त की रक्षा खुद ही करनी होगी
इसके लिए थामने होंगे हाथों में हथियार नदी।
सशस्त्र क्रांति कितनी सही होगी, यह तो समय की बात है। लेकिन यह संकेत तो कवि दे ही रहा है कि अब महिलाओं को स्वयं ही आगे आना होगा, उन्हें स्वयं ही लड़नी होगी अपनी लड़ाई। नारी शक्ति में अटूट विश्वास रखते हुए कवि उसे बड़े आदर एवं श्रद्धा के साथ देखता है-
यह लहर है यह भँवर है यह किनारा है
नाव है लेकिन कहीं मँझधार है औरत।
+ + +
एक मंदिर एक पूजा एक श्रद्धा है
एक प्रतिमा का लिए आकार है औरत
+ + +
एक पर्वत एक चोटी एक तिनका है
एक आँगन एक देहरी द्वार है औरत।
(नदी की धर है औरत)
शायद कवि कहना चाहता है कि नारी शक्ति को आशा और विश्वास बनाये रखना और प्रयास करते रहना होगा। निराश तो क़तई नहीं होना है। यहाँ पर मुझे वरिष्ठ कवि राम सेंगर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
छुप-छुपकर रोना मत
ओ रे क़ंदील
पिघलेगी दुख की यह जमी हुई झील।
मयंक जी ने कैलाश गौतम की तरह ही कई जीवंत चरित्रों को गढ़ा है अपने इस संकलन में। रामरतन, नीलकंठ, चंपा, चौधरी, रामवती हमारे समाज के ही प्रतिनिधि है और हमारे बारे में ही बहुत कुछ कह रहे हैं। और, कवि का यह चित्रण चंपा के बीमार होने से लेकर देश की बीमारी तक को व्यंजित करता है, और भी कहता है बहुत कुछ-
हो गया है देश ही बीमार जब अपना
कौन आये देखने बीमार चंपा को।
इस संग्रह में कवि ने न केवल देश और समाज की वर्तमान स्थिति का चित्रण किया है, बल्कि उसने इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए भी संकेत दिये हैं अपनी भाषा में- ‘इन हाथों ने पेड़ बहुत काटे / पेड़ लगाने की कुछ बातें हों।' और ‘प्यार बहुत है मान लिया लेकिन / प्यार जताने की कुछ बातें हों।' पेड़ लगाने और प्यार जताने के कई अर्थ हैं- समझना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त कवि ने कई मुद्दों पर बात की है- घर-द्वार, गाँव-खेत-खलिहान, पीपल-आम-बबूल, लड़की-खिड़की, नगर-डगर, बेटा-बेटी, भूख, बेबसी, बोरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी, धर्म, दर्शन, राजनीति, इतिहास, भूगोल आदि के माध्यम से। क्योंकि वह द्रष्टा है अपने समय का, अपने समाज का, इस पीपल के पेड़ की तरह ही-
कोमल और हरे पत्तों का गिरना बंद नहीं होता
देख चुका है अब तक लेकर हर करवट पीपल का पेड़।
मयंक श्रीवास्तव जी अपने समय के साक्षी तो बने ही, उन्होंने एक सुंदर पहल भी की है सन्नाटे को तोड़ने की, चुप्पी को तोड़ने की। सैयद रियाज़ रहीम अपनी ग़ज़ल में जिस सन्नाटे को तोड़ने की बात करते रहे हैं, उससे आगे की बात मयंक जी करते लगते हैं। सैयद रियाज़ साहब कहते हैं-
कब तक एक ही मंज़र देखें, कब बदलेगा मंज़र यार
सन्नाटों के इस सागर में, कोई तो फेंके कंकर यार।
जबकि मयंक जी कहते हैं-
ज़िंदगी का तुम्हें असली पता मिल जाएगा
मेरी ग़ज़लों को तरन्नुम में तो गाकर देखो।
+ + +
मुझमें लहरा रहे सागर का संग चाहो तो
दिल में एक प्यार का पौध तो उगाकर देखो।
ख्यातिलब्ध कवि-गीतकार मयंक श्रीवास्तव की ये गीतिकाएँ सुंदर एवं मंगलमय जीवन जीने के लिए प्यार और सहकार की भावनाओं को उकसाती-जगाती हैं पाठकों के मन में। क्योंकि यह कवि भारतीय जीवन-मूल्यों को अनुप्राणित करने के साथ-साथ देश-दुनिया के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए सजगता, जागरूकता एवं पुरुषार्थ का अद्भुत संदेश देता है बाबा रामदेव की तरह ही, जो कहा करते हैं- ‘जिस देश के लोगों में इतिहास के प्रति गौरव व स्वाभिमान और पुरुषार्थ व भविष्य के प्रति आशा नहीं होती, वह देश नष्ट हो जाता है।' कहा जा सकता है कि मयंक श्रीवास्तव जी जैसे साहित्यकार-विचारक बीमार देश को नष्ट होने से बचा सकते हैं, बचाने की कोशिश कर रहे हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह संग्रहणीय एवं बेहद पठनीय है।
संपर्क-
चंदपुरा (निहाल सिंह)
जनपद इटावा-206127 (उ.प्र.)
मोबाइल ः 94560-11560
रामवती- मयंक श्रीवास्तव, पहले पहल प्रकाशन
भोपाल, वर्ष 2011, मूल्य 120 रुपये, पृ. 72
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Bahut badhiya sameeksha.Is sangrah ko padhne kee jigyasa jaag uthee hai.
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