तुम मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं. 1 पर दिखे थे। मैं सांची सुपर फास्ट एक्सप्रेस के तेरहवें डिब्बे की खिड़की के पास एक ब...
तुम मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं. 1 पर दिखे थे। मैं सांची सुपर फास्ट एक्सप्रेस के तेरहवें डिब्बे की खिड़की के पास एक बर्थ पर बैठा था। गाड़ी 7 बजकर 25 मिनिट पर चलने वाली थी और उस समय 7.5 हुआ था। यानी गाड़ी चलने में बीस मिनिट की देरी थी। यह गाड़ी दिल्ली से ही बनती है, इसलिये समय से एक घंटा पहले आकर खड़ी थी। मैं प्लेटफार्म पर दौड़ लगाती हुई उस तमाम भीड़ को देख रहा था और उस अनाकर्षक दृश्य में से कुछ आकर्षण ढूंढने की कोशिश कर रहा था। अगला डिब्बा यानी कि 14वां डिब्बा एक पुल के नीचे पड़ता था और मेरे सामने पीने के पानी के दो तीन नल लगे थे, जिस पर कुछ लोग आ जा रहे थे और पानी भर रहे थे। उस भीड़ में तुम मुझे अचानक दिखाई दिये।
तुम्हें वर्षों बाद यूं अचानक, अप्रत्याशित और एक अचिंतनीय स्थान पर देखकर मेरे मन में हर्ष और उत्साह की एक विचित्रा सी लहर दौड़ गई। इतने वर्षों के अंतराल में तुम मुझे जरा भी बदले हुए नहीं लगे। तुम्हारा लाल सुर्ख चेहरा और उस पर चमकते लहराते चांदी जैसे बाल तुम्हें एक अजीब शख्सियत प्रदान करते हैं, जिसके मालिक तुम आज भी थे, जैसा मैंने तुम्हें वर्षों पहले देखा था। इस भागती हुई भीड़ में तुम कहीं खो न जाओ, इसलिये मैंने सीधे से तुम्हारा नाम लेकर जोर से दो आवाज दीं . . .
रामूजन. . ., रामपूजन. . .। तुमने सुन ली, तुमने मुझे देख लिया और तुम तपाक से दौड़ते हुए आए। तुम्हारे चेहरे पर हंसी खेल रही थी। ऐसी हंसी जिसे लाने के लिए तुम्हें किसी तरह से अभ्यास या प्रयत्न की जरूरत नहीं थी। वहीं दिल को मोह लेने वाली हंसी. . .पहाड़ी झरने की तरह या खिले हुए गुलाब की तरह या उड़ते नीलकंठ की तरह। मुझे बहुत खुशी हुई जो तुमने अपनी इस मन मोहक हंसी को बरकरार रखा था, जो समय की चट्टान से टकराकर चूर-चूर नहीं हुई थी।
हंसते-हंसते तुमने मेरा हाथ थाम लिया. . . ‘हलो, पार्टनर! कैसे हो?' तुमने उसी अंदाज में पूछा जैसे तुम वर्षों पहले पूछा करते थे।
‘बहुत ही बढ़िया'।
मैंने भी उसी अंदाज में जवाब दिया जैसे जवाब देने की मेरी आदत है, गोया मुझे अपनी आवाज पर यकीन नहीं हुआ और मैं अपनी खुद की आवाज को अजीब अविश्वसनीयता से सुनता रहा जैसे मेरी आवाज कहीं दूर किसी अंधेरी गुफा से चली आ रही हो।
मैंने ही बात आगे बढ़ाई,. . .‘माफ कर देना यार, वर्षों बीत गये। तुम न जाने कहं से कहां चले गये और एक मैं हूं जो इस नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर तुम्हें सीधे रामपूजन कहकर आवाज लगा रहा हूं। न साहब, न जनाब, और न मिस्टर। बुरा मत मानना। यदि ऐसा कुछ लगाता तो मैं जैसा ज कर चिल्लाया वैसा चिल्ला नहीं पाता और तुम इस भीड़ में खो जाते।
तुम जोर से हंसे। ऐसी निश्छल और बुलंद हंसी जो अजनबी पन की मजबूत दीवारों को तोड़ने में समर्थ थी। तुमने कहा� ठीक ही तो किया। मुझे ऐसा पुकारा जाना बहुत अच्छा लगा। मैं रात दिन. . .सर. . .सर' की गुहार से घिरा रहता हूं। डरता हूं कहीं अपना नाम न भूल जाउं। ऐसे में जब कोई ‘रामपूजन' कहकर मुझे टेरता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। यह सुख तो अर्से बाद मिला।' ‘अजीब मजबूरी है। हम दोनों भोपाल में रहते हैं। वहां नहीं मिलते। कोशिश ही नहीं करते और मिलने के लिए 700 किलोमीटर दूर दिल्ली आना पड़ता है।
‘हां, अजीब मजाक है।' तुमने हामी भर दी। गोया सच यह था कि हम लोग दो अलग दुनियाओं के प्राणी थे। अपने-अपने वृत्त में घूमते रहते थे। मिलने का सवाल ही नहीं था।
‘बच्चे कैसे हैं?' मैंने पूछा।
‘अच्छे हैं, बल्कि बच्चे न कहो। बड़े हो गये हैं। एक लड़का मेडिकल कॉलेज में है, दूसरा इंजीनियरिंग कॉलेज में और लड़की की शादी हो गयी है।' तुमने बताया।
‘भाभी कैसी है?'
‘अरे! उसे क्या होना है। बहुत मजबूत ढांचा पाया है उसने। भोपाल में इतनी बीमारियां फैलीं और खत्म हो गईं पर मजाल है उसका कान भी गर्म हुआ हो।' तुमने जवाब देकर ठहाका लगाया।
‘मैंने कहा, अखबारों में पढ़ लेता हूं। तुम तो वाकई बहुत बड़े आदमी हो गये हो। अक्सर तुम्हारा नाम छपता रहता है।'
‘चलता है. . .चलता है।' तुम फिर ठहाका मार कर हंसे। तुम्हारी वह उन्मुक्त और बेबाक हंसी।
‘तुम्हारा क्या हाल है?' तुमने मुझसे पूछा।
‘खूब बढ़िया यानी कि फर्स्ट क्लास, मैंने कहा।
‘हुआ तुम्हारा प्रमोशन?' तुमने पूछा।
‘कौन देगा मुझे प्रमोशन और क्यों देगा?
‘क्यों?' ‘ऐसे ही। नौकरी के चौखटे में फिट नहीं होते और नौकरी कर रहे हैं। नौकरी आदमी को टैक्टफुल होना पड़ता है। फैक्टफुल नहीं।
‘क्या तुम्हारे अफसर तुम से नाराज हैं?'
‘नहीं तो क्या खुश होंगे? समझो प्रमोशन तो दरकिनार, अस्तित्व का संकट है। तुमने मेरा वह लेख पड़ा था, आम भारतीय बालक की जन्मपत्री' क्या लिखा था उसमें मैंने. . .यहीं कि आम भारतीय उसी पोस्ट पर रिटायर होगा, जिस पर उसने ड्यूटी ज्वाईन की थी।'
‘अपना भी वही हाल है वो शेर सुना है तुमने?' शेर बताए बिना मैंने उससे पूछा। उत्सुकता जागृत करने की अपनी वही पुरानी स्टाइल।
तुमने पूछा। ‘कौन सा?' मतलब तुमने वही संभावित प्रश्न पूछ लिया जो कि मैं पुछवाना चाहता था। और जैसा कि मैंने अध्यापकी की टे्निंग यानी बी.एड. में सीखा था।
‘वो शेर है न साला। क्या है यार. . . हां. . . ‘हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो रोकर अपनी बात कहे की आदत नहीं रही।'
‘किस पोस्ट पर हो?' तुम पूछते हो।
‘वही मिडिल स्कूल की मास्टरी अर्थात यू.डी.टी.।'
‘तो कोई प्रमोशन नहीं मिला तुम्हें।' तुम्हें सच ही में तआज्जुब हो गया।
‘उफं हूं।' मैंने सिर हिला दिया।'
‘बोलो यार। किसी से कहना सुनना हो तो बता दो। एजुकेशन मिनिस्टर अपने हाथ में है।
‘हो गई यार जिंदगी। बचे हैं 5 साल रिटायर होने में। सात साल से मेक्सिमम पर स्टैगनेट हो रहे हैं। निकल जायेंगे ये पांच साल भी।' कहकर मैंने हंसने की कोशिश की, पर एक शाम सी घिर आई हमारे तुम्हारे बीच। लगा कि, मैं कहां का रोना लेकर बैठ गया।
तुम मेरी हंसी से प्रभावित नहीं हुए। तुम्हें यकीन नहीं हुआ। तुमने भाप लिया कि ये वो हंसी है जो मैं अपने आंसुओं को छिपाने के लिये इस्तेमाल करता हूं। तुम्हें तकलीफ पहुंची। तुम काफी हक्के बक्के सरह गये। नौकरी में मुझे ऐसी घोर असफलता मिलेगी ऐसी तो शायद तुम्हें भी उम्मीद न थी। तुम सोच में पड़ गये। तुम सोचने लगे. . .क्या मैंने जिंदगी से हार मान ली है? क्या मैं टूट गया हूं और अगर हां तो किस हद तक?' मैंने तुम्हारे विचारों को ताड़ लिया है, पर मैं जाहिर नहीं होने देना चाहता। अगर मैं मान लूं तो यह मेरी हार होगी। पर शायद तुम मेरा इम्तहान लेने पर तुल गये हो।
तुमने अपनी जेब पर हाथ मारा और मुझे तोलते हुए कहा. . . ‘यार तुम्हारे जेब में सौ रुपये का नोट पड़ा है।'
‘होगा।'
‘दे दो।'
मैंने दे दिया। मुझे मालूम है। तुम्हें कतई जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ मेरा इम्तहान ले रहे हो। तुम यकीन कर लेना चाहते हो कि लगातार मुसीबतों और गरीबी ने मुझे कहां तक तोड़ दिया है। मैंने दोस्तों पर विश्वास करना छोड़ा या नहीं। तुम शायद मन में वह शेर भी दोहरा रहे हो. . . ‘दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं है, दोस्तों की मेहरबानी चाहिए। तुमने सौ का नोट जेब में रख लिया। गाड़ी ने सीटी दी। तुमने कहा ‘मैं ए. सी. कंपार्टमेंट में बैठा हूं। भोपाल में मिलूंगा।'
‘मिलेंगे।'
मैंने हामी भर दी। दूसरे दिन सुबह ट्रेन भोपाल पहुंची। तुमने स्टेशन पर मुझे काफी पिलाई। फिर तुम्हारी कार तुम्हें लेने आयी। और तुम चले गये।
एक हफ्ते बाद आज तुम मेरे घर आये हो। स्कूल से कर्ज लेकर मैंने दो कमरे और एक किचन बना लिया है। अभी बहुत सारा काम बाकी है। मेरा घर देखकर दोस्त कहते हैं कि तुमने प्लाट का सत्यानाश कर डाला है। मकान का रंग रोगन नहीं हो पाया है। यहां तक कि छह साल से प्रॉपर्टी टैक्स भी नहीं भरा है।
तुमने दूर से ही मेरी पत्नी की बकझक सुन ली है। उसने तुम्हें अभी कुत्ता कहा है। और वह भी तुम सुन चुके हो। वह मुझे डांट रही है। तुम नहीं सुधरोगे। बच्चों के मुंह से छीन कर तुमने सौ रुपये का नोट उस कुत्ते को दे दिया।' मैं बिलकुल चुप हूं। तभी तुमने आवाज दी. . .‘माथुर. . .ओ माथुर'
‘आओ. . .आओ।'
मैं दौड़कर तुम्हें लेने गया। ड्राइंग रूम की हालत देखकर तुम हैरान रह गये हो। बिलकुल खाली पड़ा है। एक टूटी सी मेज है जिसे मैंने इंदौर में श्रीकृष्ण टॉकीज के सामने फुटपाथ से पचास रुपये में खरीदा था और बुकब्रांड चाय के प्लाई वुड के एक खोखे पर दरी बिछाकर एक कुर्सी सी बना ली है बस यही कुल सजावट है। मैं खोखे पर बैठकर एक लेख लिख रहा हूं। ‘अरे वाह. . .इसे कहते हैं, plain living and high thinking कहते हुए तुम मेरे ड्राइंग रूम में घुसे हो। ‘आश्रम है, घर मत समझ लेना।' मैंने ठहाका लगाया। तुम खोखे की बनी कुर्सी पर बैठे हो, और मेरा लड़का अंदर से स्टूल ले आया है जिस पर मैं बैठा हूं।
‘क्या कर रहे हो?' एक लेख लिख रहा हूं।'
‘यार रेडियों के लिये लिखो। आजकल पेमेंट बहुत ठीक करते हैं।'
‘पांच साल से कोई कांट्रेक्ट नहीं आया। वहां भी बड़ा give and take वाला मामला है। यदि प्रोड्यूसर का आपसे कुछ काम निकल सकता है तो घर बैठे कांट्रेक्ट आएंगे वर्ना वहीं Out of signt, out of Mind वाली बात है।' ‘चलता है। लिख दो तुम। बुक करवा देंगे।'
‘लिख देंगे।' लड़की चाय ले आई।
‘कौन पद्मश्री। बहुत बड़ी हो गई है।'
‘याद है तुम्हें इसका नाम पद्मश्री क्यों रखा था?' तुम्हें याद था। तुमने मेरा वह प्लान बताया कि इसके नाम से लेख लिखेंगे तो स्वयं के नाम के आगे पद्मश्री लगेगा और रौब पड़ेगा। तुमने बताया तो हम दोनों खुल कर हंसे। तुम चाय पी रहे हो। पर जाने कैसे पी रहे हो? चाय में दूध कम है। और पत्ती भी वही जनता ब्रांड खुली चाय है जिसके बारे में लोग कहते हैं कि कत्थे से रंग कर लकड़ी का बुरादा मिलाते हैं पर तुम अपनी नापसंदगी जाहिर नहीं होने देते।
‘कप की डंडी टूटी है। शायद तुम्हें परेशानी होती होगी।
‘मैं झेंपकर अपनी सफाई दे रहा हूं।'
‘नहीं बिलकुल नहीं।'
‘तमाम कप प्याले लाता हूं और मेरे ये बच्चे तोड़ देते हैं। ‘मैं सरासर झूठ बोल रहा हूं।
‘मेरे घर का भी यही हाल है।' तुम भी सरासर झूठ बोल रहे हो। तुमने चाय पी ली और मैं सोच रहा हूं कि तुम जल्दी चले जाओ। मेरी पत्नी का कोई ठिकाना नहीं। कहीं ड्राइंग रूम में आकर तुमसे सौ रुपये ही वापस न मांग बैठे। और तुम जाने के लिये उठ गये। तुमने फिर जेब पर हाथ मारा . . . ‘हां यार। वो सौ रुपये ले लो। उस दिन किसी ने मेरी जेब साफ कर दी थी। गनीमत हुई तुम मिल गये। वर्ना फजीहत हे जाती।'
‘पैसों की क्या जल्दी थी?'
‘होती है और हिसाब साफ होना चाहिए।' तुमने कहा।
मैंने सौ का नोट हाथ में लिया और लड़की को देकर कहा ‘दे दो अपनी मम्मी को, तमाशा खड़ा कर के रख दिया था।' तुम हंस रहे हो। वहीं तुम्हारी उन्मुक्त हंसी।
मेरी पत्नी, मेरा लड़का और मेरी लड़की एक साथ ड्राइंग रूम में आकर तुम्हें नमस्ते कह रहे हैं। तुमने तीनों पर एक भरपूर नजर डाली और उनकी दुर्दशा देखकर तुम सकते में आ गये हो। तुम्हारी उन्मुक्त हंसी गायब है और तुम्हें जोर से रुलाई छूट रही है। तुम एकदम पलटते हो जाने के लिए। मैं सोच रहा हूं तुम जो एक पराये आदमी हो। तुमने मेरे परिवार को देखा और तुम्हें सदमा लगा। उनकी हालत पर तुम्हें तरस आ गया और मैं जो इन बच्चों का बाप हूं और मैं जो इस औरत का पति हूं मुझे क्यों नहीं सदमा लगता। क्यों नहीं खाता मैं तरस अपने ही परिवार पर? क्या मैं बिलकुल अनुभूति शून्य हो गया हूं। जिसके घर में तुम अपनी उन्मुक्त हंसी बिखेरने आये और रुआंसे होकर चले गए।
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(व्यंग्य यात्रा - संपादक प्रेम जनमेजय, अक्तूबर 2010 से साभार)
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