क्या कबाड़ में से भी खूबसूरत कलाकृतियाँ निकल सकती हैं? पुराने जमाने के पीतल के बर्तनों, काले, हरे पड़ गए जंग खाए औजारों और ऐसी ही कितनी अ...
क्या कबाड़ में से भी खूबसूरत कलाकृतियाँ निकल सकती हैं? पुराने जमाने के पीतल के बर्तनों, काले, हरे पड़ गए जंग खाए औजारों और ऐसी ही कितनी अनुपयोगी चीजों को हम बाजार में कबाड़ी के हवाले कर देते हैं. परंतु कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इन कबाड़ में बड़ी संभावनाएँ देखते हैं और उनके हाथों में कबाड़ का एक टुकड़ा जाते ही जैसे जीवंत हो जाता है बहुमूल्य कलकृति में ढलने को. प्रदीप गुबरेले ऐसे ही कलाकार हैं जिनके हाथों में पहुंच कर भद्दा से भद्दा कबाड़ भी बेहद खूबसूरत, बहुमूल्य और काम की वस्तु या कलाकृति में देखते ही देखते बदल जाती है. ऊपर चित्र में दर्शित खूबसूरत कलाकृति को गुबरेले जी ने तांबे के जंग खाए कबाड़ में फेंक दिए गए पत्तर व ऐसी ही चंद दीगर वस्तुओं से बनाया है.
मध्यप्रदेश के खजुराहो क्षेत्र में कार्यरत धातुशिल्पियों ने शिल्प निर्माण की अपनी भिन्न प्रविधि का विकास कर लिया है। परम्परागत धातु शिल्प की यदि चर्चा करें तो प्राचीन काल से शिल्प निर्माण में मोम क्षय विधि के प्रमाण हमें सिन्धु सभ्यता से ही प्राप्त हो जाते हैं। कालान्तर में धातु पात्रों, आभूषणों, राज मुद्राओं इत्यादि के प्रमाण इतिहास में सहज ही उपलब्ध होते हैं। भारत के भिन्न भिन्न क्षेत्रों में इस प्रविधि विशेष द्वारा शिल्प निर्माण के उदाहरण क्षेत्रीय विशिष्टताओं के साथ देखे जा सकते है। जिसे क्षेत्रीय आदिवासियों और गैरआदिवासियों द्वारा आज भी जीवंत बनाए हुए हैं। बस्तर के घड़वा, बैतूल के भरेवा, टीकमगढ़ के स्वर्णकार, रायगढ़ के झारा, सरगुजा के मलार आज तक अपनी परम्परा को अक्षुण्ण रखा है। इन शल्पियों द्वारा सौन्दर्यपरक, आनुष्ठानिक और उपयोगी कलाकृतियां आंचलिक आवश्यकता और सौन्दर्यपरक शिल्पों के रूप में निर्माण सहज रूप से करते आ रहें हैं।
रचनात्मक शिल्प निर्माण के इसी क्षेत्र में खजुराहो के श्री प्रदीप गुबरेले का नाम भी वैश्विक परिदृश्य में उभर रहा है। जिन्होंने टूटे शिल्पों, अनुपयोगी पात्रों, आनुष्ठानिक अनुपयोगी चीजों को अपनी कल्पनाओं के अनुरूप साकार रूप प्रदान कर आकर्षक आधुनिक सौन्दर्यपरक शिल्पों के रूपाकारों का सृजन कर लोगों को आकर्षित करते हैं। वे वेक्स लॉस प्रोसेस की परम्परागत रचनाप्रकिृया में पारंगत हैं, लेकिन गुबरेले जी ने गढ़ कर सृजन करने वाले शिल्पयों से भिन्न रचनाप्रकिृया में स्वयं को अन्य शिल्पियों से अलग अपनी पहचान बनाई है। उनकी कल्पनाशीलता अद्भुत है, उनकी साकार कल्पनाओं को अन्य शिल्पयों ने अपना कर उसकी नवीन प्रतिकृतियां ढाल कर बनाने लगे हैं। गुबरेले की प्रत्येक कृति मौलिक होती है।
शिल्पनिर्माण संबंधी इतिहास के संदर्भ में जब गुबरेले जी से चर्चा की तो उन्होने बताया कि शिल्प निर्माण पिछले दो-तीन पीढ़ियों से ही प्रारंभ हुआ है। प्रारंभ में तो आभूषणों और आवश्यक औजार, संग्रहण पात्र, के रूप में ही धातु की ढलाई की जाती थी। इस हेतु कांसा, ताबां, लोहा, स्वर्ण, रजत धातु का प्रयोग किया जाता था। साक्षात्कार में गुबरेले जी ने बताया कि संक्रांति के अवसर पर बुआ द्वारा नये जन्में बालक या बालिका को उपहार स्वरूप बैलगाड़ी, हाथी, घोड़े, झुनझुने, गाय इत्यादि दिया जाता था। इस उपहार देने का भी मनोवैज्ञिन कारण था। चूंकि प्रारम्भ में परिवहन हेतु इन्ही संसाधनों का प्रयोग किया जाता था, यदि ये साधन बालक के पास बचपन से होंगें तो वह इन पशुओं के साथ मित्रवत व्यवहार करेगा और उससे स्वयं का जुड़ाव भी महसूस कर उसके सुख में सुखी और उसके दुख में दुखी होगा। इसी तरह बालिका गाय की सेवा कर उसके सानिध्य से सेवाभाव स्वत: ही जागृत हो जायेगा जिसका प्रभाव उसके परिवार में सुख समृद्धि का सूचक होगा। उसके अर्न्तमन में इससे सेवाभाव, सुख-दुख की सहभागिता करने की मनोवृत्ति सहज ही जागृत होती चली जाती है। वक्त के साथ बदलते संसाधनों ने उपहार का स्वरूप के रूप में शिल्पों ने ले लिया। वर्तमान समय में संस्कार तो वही है उपहार के स्वरूप में परिवर्तन आ गया। अब जीवंत उपहार ने धातु शिल्पों का रूप ग्रहण कर लिया। संक्रांति पर लड़के के खेलने के लिये चक्के वाले हाथी या घोड़े और लड़कियों के लिये चक्के वाले बैलगाड़ी बनवाई जाने लगी। इस तरह शिल्प निर्माण की ओर धातुशिल्पीयों का रूझान बढ़ने लगा।
प्राचीन धातुशिल्पों में सुप्पा(बारूद फोड़ने वाला यंत्र जो तोप की तरह दिखाई देता है), बारूद रखने का पात्र, काजल या सूरमा की डिब्बियां, युद्ध में प्रयुक्त सैनिक के रक्षा कवच, औजार, कलात्मक हुक्का, तम्बाखू-चूने की डिब्बियां, दीपक, दीप स्तम्भ, चिमनी, कंदिल, पिचकारी, छड़ी की मूठ, दवात-कलम रखने के पात्र, कलात्मक नापने वाले पात्र, घी निकलने वाले करछुल, आकर्षक घंटियां इत्यादि प्राप्त होते हैं। गुबरेले की कलात्मक शिल्पों में इन्ही सब पुराने, टूटे हुए और अधूरे शिल्पों से निर्मित नवीन रूपाकारों के दर्शन होते हैं। अपनी कल्पनाओं को पूर्ण करने के लिये वे इन सबके अतिरिक्त पीतल के पतले-मोटे चादरों का प्रयोग करते हैं। आवश्यकतानुसार शिल्प के सौन्दर्य वृद्धि हेतु छोटे छोटे अंग-प्रत्यंगों को ढलाई करते हैं, और उन्हें शिल्प में जोड़ कर शिल्प पूर्ण करते हैं।
कलात्मक डिब्बियों में हाथी के युग्म को आकर्षक रूप से जोड़ कर उपयोगी स्क्रबर की कल्पना रोमांचित करती है। डिब्बी के नीचली सतह खुरदुरी कर हाथी का हैंडल लगा ऐसे शिल्प का निर्माण जो न केवल उपयोगी वरन स्नानागार की शोभा भी बढ़ाये एक रचनात्मक कल्पना ही है। इसी तरह
पुराने हुक्के से दीपमाला बरबस ही कला प्रेमियों को आकर्षित करती है। हुक्का बेस में पीतल धातु की मोटी चादर से दीप समूह बनाकर तथा पुरानी घंटी को उल्टा जोड़कर दीपमाला का शीर्ष बनाया गया है जिस पर मोर वेल्ड कर शिल्प के सौंदर्य में वृद्धि की गई है। शिल्प के कलात्मक हैण्डल और उस पर हाथी का छोटा शिल्प सम्पूर्ण शिल्प को रोमांचक बना देते हैं। चित्र में दिखाया गये शिल्प में अभी सिर्फ पुरानी नई चीजों को जोड़कर पूर्ण किया गया है इसके बाद शुरू होती है शिल्प की सफाई और आवश्यकतानुसार नक्काशी की जो शिल्प के सौंदर्य को तो बढ़ाती है साथ ही मूल्य वृद्धि में भी सहायक होती है।
एक अन्य शिल्प में छोटी घंटी को उल्टा रख कर उस के आधार पर पीतल की चादर से किनारा बनाने के लिये एक इंच चौड़ी पट्टी का आघार जोड़ा गया उस पर कलात्मक डिब्बी को एक मध्यम आकार की छड़ से जोड़ कर घंटी के साथ जोड़ दिया गया, उस पर आनुष्ठानिक भाव को समृद्ध करने हेतु गणेश की छोटी मूर्ति ढालकर जोड़ दिया गया। अब पतले धातु की चादर से 16 दीपक अलग अलग तैयार कर डिब्बी के चारों ओर वेल्ड कर अच्छी तरह जोड़ दिया गया।
इसी प्रकार पैजन, श्रृंगार पेटी, घंटी, चिड़िया से धूपदानी की कल्पना भी अनोखी है। इस शिल्प में पैजन को हैण्डल के रूप में प्रयोग शिल्प की मौलिक सृजनात्मकता को दर्शाती है। धातु के पतले एवं मोटे चादरों को फोल्ड कर, उकेरकर, इनग्रेव कर पेपेरवेट के रूप में चिड़िया न केवल उपयोगी अपितु आकर्षक शोपीस भी बन जाता है। गुबरेले जी ने न जाने कितनी कल्पनाओं को इसी तरह उपयोगी और खूबसूरत शिल्पों में साकार किया है।
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया हेतु गुबरेले जी सर्वप्रथम पुराने शिल्पों का संग्रहण करते हैं। उन पुराने अनुपयोगी संग्रहित अवशेषों में नवीन शिल्प रचना हेतु मनन करते है और कल्पनानुसार शिल्प सृजन में जुट जाते हैं। पुराने टुकड़ों को जोड़कर, धातु की चादरों से आवश्यक रूपाकारों का सृजन कर जोड़कर नवीन रूप देते हैं, इसके दूसरे चरण में उसकी अच्छी तरह घिसाई कर अतिरिक्त धातु के अवशेषों को निकाल कर सम्पूर्ण शिल्प को तेजाब से आक्सीडाइज की प्रक्रिया कर या तो उसे वैसे ही छोड़ देते है या उस पर नक्काशी कर उसके सौन्दर्य में चार चांद लगा देते हैं। इस तरह निर्मित उनका प्रत्येक शिल्प मौलिक हो जाता है।
सर्वेक्षण दौरान मैने यह महसूस किया कि इस क्षेत्र के शिल्पियों का पारम्परिक शिल्प प्रविधि में परिवर्तन का कारण मुख्य रूप से खजुराहों का पर्यटन स्थल के रूप में वैश्विक परिदृश्य में प्रसिद्धि हो सकता है। यहां चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित विश्व प्रसिद्ध महादेव मंदिर समूह का होना ही पर्याप्त है जो अपने आकर्षक पाषाण शिल्पों के लिये जाना जाता है। यहां विदेशी पर्यटको को आनाजाना वर्ष भर जारी होता है। अत: स्थानीय शिल्पियों का उनके सम्पर्क में आना स्वाभाविक है। ये शिल्पी उनकी रूचियों, कम वजन के शिल्पों, और यथोचित मूल्यों के शिल्प निर्माण हेतु इस तरह प्रविधि विशेष में परिवर्तन कर आजीविका के रूप में अपनाने लगे हैं। वही टीकमगढ़ क्षेत्र के शिल्पियों ने अभी भी परम्परागत शिल्प प्रविधि में ही अपनी कल्पनाओं को साकार रूप दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश हस्त शिल्प विकास निगम के प्रयासों से स्थानीय शिल्पियों को भारत के विभिन्न स्थानों पर आयोजित मेलों प्रदर्शिनियों में शिरकत करने का अवसर प्राप्त हो रहा है जिससे इन शिल्पियों का सम्पर्क महानगरों के कलाप्रेमियों और कलाओं से होने लगा है। शिल्पियों का उनकी प्रविधि, संसाधनों, से परिचय होना लाजमी है, साथ ही प्रभावित और प्रेरित भी हुए है। परिणामस्वरूप उन्होंने अपने शिल्प निर्माण में परिवर्तन कर स्वयं को मध्यप्रदेश के शिल्पियों से भिन्न पहचान बनाई है।
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डॉ. रेखा श्रीवास्तव
सहायक प्राध्यापक चित्रकला
शास. कन्या म.ल.बा. महाविद्यालय, भोपाल मप्र
इस तरह से कल्पना को आकार देने वाले ही वास्तविक कलाकार हैं... कबाड़ समझी जाने वाली वस्तुओं को कमाल की वस्तु बना देना उसी के बस का है जो प्रकृति के कण-कण में कुछ न कुछ रूप ढूँढ लेता है.... नतमस्तक हो जाता हूँ ऐसे शिल्पकारों/कलाकारों के सम्मुख ... इनकी आँखों में हर कबाड़ अपना जुगाड़ कर ही लेता है...
जवाब देंहटाएंकबाड़ में कुछ कला शेष है ..
वृद्धों में कुछ शक्ति शेष है ...
जो समझे, वह अतिविशेष है...
प्रदीप गुबरेले जी को मेरा साधुवाद... डॉ. रेखा श्रीवास्तव जी को इस जानकारी देने के लिये आभार.