इतिहास इस तथ्य का सदैव गवाह रहा है कि जब-जब विशेषकर भारतीय समाज में सामाजिक संक्रमण एवं अत्याचार आघात, आपसी संघर्ष हुए हैं। तब-तब समाज म...
इतिहास इस तथ्य का सदैव गवाह रहा है कि जब-जब विशेषकर भारतीय समाज में सामाजिक संक्रमण एवं अत्याचार आघात, आपसी संघर्ष हुए हैं। तब-तब समाज में घटित इन हालातों से निजात दिलाने के लिए समय-समय पर महापुरुषों का जन्म हुआ है। और इन महापुरुषों ने समकालीन व्यवस्था में व्याप्त मानव विरोधी तत्वों की आलोचना के साथ उसका सटीक विकल्प भी सुझाया। तत्कालीन भारतीय समाज की सनातनी व्यवस्था जिसमें भारतीय दीन-दलित समाज अज्ञानांधकार में लिप्त तथा चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था में पिसने के साथ दरिद्रता की आग में जल रहा था इसका कारण यह था कि हमारी व्यवस्था के सिद्धान्त सदियों से ईश्वरकृत, अपौरूषेय एवं प्रश्नों से परे माने जाते रहे क्योंकि इन सिद्धान्तों की जड़ें इन लोगों के मस्तिष्क में इतनी गहरी कर दी गयीं थीं जिसका कोई अकाट्य प्रमाण तत्कालीन समय में नहीं था। ऐसे मृतवत्, अस्पृश्य समाज में गौतम बुद्ध के पश्चात कई सदियों तक कोई ऐसा सामाजिक चिंतक भारत में अवतरित नहीं हुआ, जिसने इन तथाकथित सिद्धान्तों का अपने तर्कों द्वारा खण्डन किया हो। हजारों वर्षों से शोषित, पीड़ित, दलित, अछूतजन, शासक-शोषक, परम्परावादियों के जघन्य एवं अमानवीय शोषण, दमन, अन्याय के विरुद्ध छोटे-मोटे संघर्ष को संगठित रूप से देने का कार्य सर्वप्रथम अद्भुत प्रतिभा, सराहनीय निष्ठा, न्यायशीलता, स्पष्टवादिता के धनी बाबासाहब युग पुरुष डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जी ने किया। आप ज्ञान के भण्डार दलितों एवं शोषितों के मसीहा बनकर भारतीय समाज में अवतरित हुए। आपने दीन दलित एवं पिछड़ों को समाज में सर ऊँचा कर बराबरी के साथ चलना सिखाया। आप ऐसे समाज की केवल कल्पना ही कर सकते हैं जब दीन दलितों के साथ इन्सान जैसी शक्ल-सूरत होने के बावजूद उन्हें परम्परावादी समाज इन्सान नहीं समझता था, ऐसे समाज के प्रति बाबासाहब ने स्वअस्तित्व की सामर्थ्य, अस्मिता एवं क्रांति की आग जलाई, जिससे सामाजिक न्याय प्राप्ति के लिए अनेक दलित-शोषित कार्यकर्ता आत्मबलिदान के लिये उनके साथ खड़े हो गये।
बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर के सामाजिक न्याय एवं दलित आन्दोलन के अलावा जो महत्वपूर्ण विरासत है उसे आज हम भूलते चले जा रहे हैं। क्योंकि डॉ0 भीमराव अम्बेडकर सिर्फ दलित समस्याओं पर ही नहीं सोचते थे अपितु वे तत्कालीन भारतीय समाज में घटित होने वाली लगभग हर समस्या की ओर उनकी पैनी दृष्टि थी जो आपको अंतर्राष्ट्रीय नेता बनाती है। यह सच है कि भारत विभाजन पर जितनी गहराई से आपने सोचा उतना शायद ही किसी ने सोचा हो। समाजवाद से तो आप लगातार मुठभेड़ करते ही रहे इसके साथ ही रुपये की समस्या पर भी डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जी ने लम्बे-लम्बे लेख लिखे एवं वक्तव्य दिये। वे एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे जिसमें सभी को न्याय मिलने के साथ-साथ सामाजिक विषमता भी न रहे। वैश्विक समस्याओं के प्रति आपकी दिव्य दृष्टि थी जिसकी परिणति यह हुई कि जब भारत के लिये संविधान निर्मित होने का प्रश्न आया तो ड्रॉफ्टिंग समिति के अध्यक्ष के रूप में आपसे बेहतर कोई नाम नहीं आ सका। इस बात को हमें बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि आज हमारे दलित लेखन या नेतृत्व की सीमा बाबासाहब को दलित मामलों की मिथकीय लक्ष्मण रेखा से आगे ले ही नहीं जाना चाहती और बाबा साहब की सोच को वे केवल अपने ही आवरण में सीमाबद्ध कर लेना चाहते हैं। हम यहां पर निरपेक्ष भाव से कहना चाहेंगे कि संवैधानिक रूप से सम्मानित नागरिक होने के नाते सभी को अपने दायित्वों की व्यापक सोच एवं सरोकारों को विस्तृत करना होगा क्यों कि हम जितना ही अधिक अपने व्यक्तित्व का विस्तार करेंगे उतना ही समाज में अधिक से अधिक स्वीकार्य होंगे। तभी हम किसी संघर्ष का उचित कार्यान्वन कर सकते हैं। बाबा साहब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर भी सिर्फ दलित मामलों के ही विशेषज्ञ होते तो स्वतंत्र भारत में उन्हें कानून मंत्री का दर्जा भला कौन देता ? आज इस बात को शिद्दत के साथ सोचने की आवश्यकता है कि बाबासाहब की इस विरासत को हम केवल दलितों तक ही सीमित न रखकर उनकी छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर को ध्यान में रखकर ही अपनी दशा और दिशा तय करें क्योंकि डॉ0 अम्बेडकर ऐसे भारत के बारे में सोचते थे जिसमें सभी को न्याय मिले और विषमता कम से कम हो। युगपुरुष बाबासाहब भीमराव जी का संविधान सभा में दिया हुआ भाषण इस बात का साक्षी है- ‘हमने कानून द्वारा राजनीतिक समानता की नींव रख दी है पर यह समानता तभी पूरी तरह से चरितार्थ होगी जब आर्थिक समानता भी देश में स्थापित होगी। यह चुनौती न केवल बनी हुई है बल्कि और तीव्र हो रही है।'
इसमें कोई दो राय नहीं कि सामाजिक दर्शन एवं दलितोद्धार आन्दोलन की विहंगम यात्रा में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर हमारे समक्ष एक महानायक के रूप में सदैव याद किये जाते रहेंगे। आपने एक ऐसे समाज में जन्म लिया था जो तत्कालीन समाज में हेय की दृष्टि (महार) से देखा जाता था, इसके साथ ही छुआछूत जाति व्यवस्था का एक अविभाज्य अंग थी और हिन्दू समाज में इसको कड़ाई से पालन करवाया जाता था। स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में जाति के रहते हिन्दू धर्म अथवा समाज में कोई सुधार सम्भव नहीं हो सकता था क्योंकि इस छुआछूत का कारण घृणा थी और यही घृणा जातिवाद को जन्म दे रही थी। डॉ0 अम्बेडकर ने महसूस किया कि इस छुआछूत के विनाश के लिये अनिवार्य है कि जाति का विनाश हो, साथ ही वर्ण व्यवस्था जिस पर जातियां आधारित हैं का विनाश हो। चूंकि जाति हिन्दू धर्म का प्राण है। अतः जब तक हिन्दू धर्म इसके वर्तमान रूप में प्रचलित है तब तक जाति प्रथा रहना स्वाभाविक है। हमारे यहां जाति सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक जीवन का मूल स्रोत है अर्थात् जाति सामाजिक संस्कारों एवं रिश्तों की सीमा तय करती है।
दलित समाज (अस्पृश्य) में पैदा होने के कारण बाबा साहब ने यह शिद्दत के साथ महसूस किया था कि जब वह बाजार में कपड़ा खरीदने जाते हैं तो ‘दुकानदार दूर से ही कपड़ा फेंका करता था, भैंसों का भी मुंडन करने वाला नाई अम्बेडकर के बाल काटने से धर्म डूबने की बात करता था, स्कूल के सहपाठी भी उन्हें नहीं छूते थे, इतना ही नहीं विदेशी विद्या से विभूषित होकर वे जब दफ्तर में अफसर बने तो वहां का चपरासी भी अस्पृश्यता के भय से उनकी ओर दूर से ही फाइलें फेंका करता था।' अपमान की दास्तां यहीं समाप्त नहीं हो जाती वरन् अस्पृश्य समाज की हालत को व्यक्त करते हुए डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं कि ‘पहले तो हम यह देखें कि हमारे अस्पृश्य माने जाने मात्र से हम पर क्या-क्या जुल्म ढ़ाये जाते हैं। हम बच्चों को पढ़ा नहीं सकते, कुंओं से पानी नहीं खींच सकते, अपने दूल्हे को घोड़े पर बैठा नहीं सकते, यदि हम अधिकारपूर्वक ऐसा करना चाहते हैं तो हमें मारा पीटा जाता है। अच्छी पोशाकें पहनने, सोने चांदी के जेवर पहनने, पानी के लिए तांबे-पीतल के बर्तनों का उपयोग करने, जमीन जायदाद खरीदने, मरे जानवरों का मांस न खाने, हिन्दुओं को जुहार न करने, शौच के लिये लोटे में पानी ले जाने आदि का विरोध पाता देखकर तो विदेशी दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं।'' पीड़ा एवं व्यथा की यह चरम परिणति कितनी करुण है इसको बयाँ करना सरल नहीं है फिर जिस व्यक्ति ने उसे भोगा होगा उसकी कल्पना मात्र से तन-बदन का सिहर उठना स्वाभाविक है।
डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने इस सड़ांध व्यवस्था को बदलने के लिये सतत् संघर्ष किया और अपने क्रांतिकारी विचारों द्वारा दलितों के दिल हिलाने वाले भाषणों द्वारा तत्कालीन समय में एक क्रांति खड़ी कर दी और आपने अपने जीवन का प्रथम और अन्तिम उद्देश्य घोषित करते हुए कहा- ‘जिस दलित जाति में मैं पैदा हुआ उसे मुक्ति दिलाना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है, और यदि मैं इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकता तो गोली मारकर अपना जीवन समाप्त कर लूंगा।' बाबा साहेब को विश्वास था कि दलित शोषितों के छिने हुए अधिकार को प्राप्त करने के लिये सतत् संघर्ष जारी रखना होगा, अपनी क्रांतिकारी सोच को व्यक्त करते हुए डॉ0 अम्बेडकर साहब ने लिखा था कि जहां मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा, वहां मैं देशहित को प्राथमिकता दूंगा। अछूत वास्तव में गुलाम हैं। इसी तरह सामाजिक असमानता एवं अन्याय पर अपने विचार प्रकट करते हुऐ आपने कहा था ‘सामाजिक अन्याय कोई परम्परा नहीं, जिसे नियमों के साथ पालन किया जाना आवश्यक हो। डॉ0 अम्बेडकर ने छुआछूत के भयानक दानव के बारे में कहा था कि ‘छुआछूत सामाजिक बुराई एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जो दासता से भी बुरी है। गुलामी की प्रथा में मालिक किसी हद तक गुलाम के रख-रखाव, भोजन, कपड़े की जिम्मेदारी इसलिए लेता है कि कहीं गुलाम का बाजार मूल्य कम न हो जाये। परन्तु छुआछूत की प्रणाली में हिन्दू अछूत के रख-रखाव की कोई जिम्मेदारी भी नहीं लेता। यह एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जो बिना किसी अनुग्रह अथवा बंधन के शोषण की अनुमति देती है।'
बाबा साहब ने अपने जीवन के प्रथम चालीस वर्षों में पग-पग पर घोर अपमान ,अमानवीय व्यवहार भरी यन्त्रणा की स्थिति भोगी थी, इसलिए आपने इस बात पर बल दिया कि चार वर्गों पर आधारित सामाजिक ढ़ांचे की हिन्दू योजना ने ही जाति व्यवस्था को जन्म दिया है जो वास्तविक रूप से असमानता का एक अमानवीय और चरम रूप है। अपनी पुस्तक ‘जातिभेद का विनाश' में डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं- ‘मैं संतुष्ट होउंगा यदि मैं हिन्दुओं को यह महसूस करा सकूं कि वे भारत के बीमार लोग हैं और यह उनकी बीमारी दूसरे भारतीयों की सेहत एवं खुशी के लिए एक खतरा पैदा कर रही है।' अपने क्रांतिकारी विचारों को आगे बढ़ाते हुए आप लिखते हैं कि ‘हिन्दू धर्म के लोगों को एक दूसरे के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ये बातें हिन्दू धर्म में बताई गई हैं लेकिन जो धर्म एक व्यक्ति को साक्षर और दूसरे को निरक्षर बनाना चाहता है वह धर्म नहीं बल्कि लोगों को मूर्ख बनाने का षड़यंत्र है। जो धर्म एक हाथ में शास्त्र देकर दूसरे के हाथ को खाली रखता है वह धर्म इस देश के लोगों को पराधीन रखने की शिक्षा दे रहा है जबकि यह उस धर्म का कर्तव्य नहीं है। मुझे ऐसा धर्म कतई स्वीकार नहीं है जो एक वर्ण को शिक्षित और दूसरे वर्ग को शस्त्रधारी और तीसरे वर्ण को व्यापारी तथा चौथे वर्ग के लोगों को उक्त तीनों वर्गों की सेवा करने को कहता है। इस असमान एवं पक्षपातपूर्ण समस्या के लिए क्रांतिकारी सामाजिक हल आवश्यक है जो वर्तमान की सड़ांध सामाजिक व्यवस्था को सम्पूर्ण रूप से अस्वीकार करने से ही हो सकती है।'
डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के अनुसार ‘जाति प्रथा को नष्ट करने का एक मार्ग है अंतर्जातीय विवाह न कि सहभोज। खून का मिलना ही अपनेपन की भावना ला सकता है।' बाबा साहेब इसके लिए भारतीय संहिता ‘मनुस्मृति' को दोषी ठहराते हैं और उसे ही अन्याय की जड़ मानते हैं इसके लिए आपके नेतृत्व में अनेक बार ‘मनुस्मृति' को नष्ट (जलाने का कार्य) किया गया। डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जातिप्रथा को समूल नष्ट करना चाहते थे इसलिए आपने सुझाव दिया था कि मंदिरों में पुजारी पद पर किसी एक जाति का एकाधिकार नहीं होना चाहिए, वरन् पुजारी पद को प्रजातांत्रिक बनाया जाना चाहिए। डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जानते थे कि अपनी गिरी हुई स्थिति के लिये अछूत वर्ग स्वयं ही उत्तरदायी है। अतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अछूत वर्ग को अपनी आदतें छोड़ आत्म सम्मानपूर्वक जीवन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। बाबा साहेब ने कहा था कि ‘यदि महार अपने बच्चों को स्वयं के मुकाबले में अच्छी दशा में देखने की इच्छा नहीं रखते तो एक मनुष्य व एक जानवर में कोई अन्तर नहींं होगा।' अपने इस वर्ग को महिलाओं के प्रति उत्साहपूर्व उदबोधन में डॉ0 अम्बेडकर का कहना है कि आप लोग कभी मत सोचें कि तुम अछूत हो। साफ सुथरी रहो। जिस प्रकार के वस्त्र सवर्ण स्त्रियां पहनतीं हैं तुम भी पहनो। यह देखो कि वे साफ हैं।' इसके आगे एक बार बाबा साहेब ने कहा था कि ‘यदि तुम्हारे पति और लड़के शराब पीते हैं तो उन्हें खाना न दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। शिक्षा जितनी पुरुषों के लिये है उतनी ही स्त्रियों के लिये भी आवश्यक है। यदि तुम लिखना पढ़ना जान जाओ तो बहुत जल्दी उन्नति होगी। वैसे ही तुम्हारे बच्चे बनेंगे। अच्छे कार्यों की ओर अपना जीवन मोड़ दो। तभी तुम्हारे बच्चे इस संसार में चमकते हुए हो सकते हैं।'
बाबासाहेब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के व्यक्तिगत प्रयासों से अछूतों ने मुुर्दा मांस खाना, मुर्दा जानवरों की खाल उतारना तथा खाना मांगना छोड़ दिया। आपने इस बात पर विशेष बल दिया कि मंदिर, कुंए और तालाब आदि मनुष्य मात्र के लिये सुलभ होने चाहिए। इसके लिये आपके द्वारा सन् 1927 ई0 में तालाब सत्याग्रह, नमक आन्दोलन भी चलाया गया और इसमें आपको सफलता भी मिली। इसी तरह से बाबा साहब ने मंदिर प्रवेश, कानून में सबको समता, हिन्दू धर्म में परिवर्तन की बात उठाकर एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा कर दिया ' और इन सबमें आपको सफलता भी मिली। अपने ओजस्वी एवं जान फूंकने वाले भाषणों के द्वारा आप समाज के दलित एवं अस्पृश्य लोगों के बीच क्रांतिकारी समझे जाते थे। दलित शोषित वर्ग के लोगों को जागृति करते हुए बाबा साहेब ने कहा था कि- ‘ऐ भारत के गरीबो, दलितों! तुम्हारा उद्धार इस बात में है कि तुम अपने हितों की रक्षा करने वाले काम करो न कि इस बात में है कि तुम तीर्थयात्रा करते रहो या व्रत और पूजा में अपना समय गंवाते रहो। धर्म ग्रन्थों के समक्ष माथा टेकने से या उनके अखण्ड पाठ करने से तुम्हारे बन्धन, तुम्हारी आवश्यकताऐं तथा तुम्हारी निर्धनता कभी दूर नहीं हो सकती। तुम्हारे बुजुर्ग इन कामों को सदियों से करते चले आ रहे हैं पर क्या तुम्हारी निर्धनता पर इसका कुछ भी असर पड़ा ? अपने पुरखों की तरह तुम भी चिथड़े न लपेटो, उनके तरह ही सड़े-गले अनाज को खाकर जीवन न बिताओ, उनकी तरह ही दड़वे जैसे घरों में मत रहो। दवाईयों के अभाव में तुम्हारे बच्चे तड़प-तड़प कर जान गवां देते हैं। तुम्हारी धार्मिक व्रत पूजाएं और तपस्याएं तुम्हें भुखमरी से नहीं बचा सकतीं।' स्पष्ट है कि बाबा साहब की दृष्टि इतनी पैनी थी कि वे छोटे-छोटे संसाधनों को एवं कार्यों की ओर लोगों को सदैव सत्यप्रेरणा की ओर प्रेरित करते रहते थे।
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जी का सामाजिक दर्शन समानता एवं विश्वबन्धुत्व के संवैधानिक मूल्यों की जमीन तलाश करने की ओर था। साथ ही यह दर्शन दलितों के लिए विशुद्ध मनुष्यता की मांग करता है। बाबा साहब ने दलितों के लिए ऐसी जमीन तैयार की जिसमें जागरण, रोमानी, क्रांतिकारिता, संघर्ष चेतना के साथ-साथ मानवीय भावों और एहसासों का जीवन संस्पर्श गहराई से मिलता है। डॉ0 अम्बेडकर के सम्बन्ध में मराठी के महान चरित्र लेखक धनंजय कीर का कथन विशिष्ट स्थान रखता है ‘‘विश्व भूषण डॉ0 अम्बेडकर ने युगों-युगों से अस्पृश्य, अत्यंज, अतिशूद्र कहलाने वाले समाज में आत्म प्रश्रय और आत्मतेज, आत्म विश्वास और स्वाभिमान एवं इंसानियत की नई चेतना निर्माण की। डॉ0 अम्बेडकर जी का उदय आधुनिक भारत के इतिहास में एक तेजस्वी और शाश्वत मूल्यों का दर्शन कराने वाली महान घटना है।'' स्पष्ट है कि बाबा साहब डॉ0 भीमराव अम्बेडकर वर्तमानकाल में महात्मा गौतम बुद्ध के उत्तराधिकारी कहलाने योग्य हैं क्योंकि महात्मा गौतम बुद्ध ने समाज में फैली रूढ़ियों की मात्र प्रखर आलोचना की थी, परन्तु डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जी ने समाज के दीन, दुखियों, शोषितों, पीड़ितों, पद्दलितों, उपेक्षितों तथा ऐसे नर-नारियों को नया जीवन दिया जिन पर सदियों से अत्याचार ढ़ाये जाते रहे। इसलिए बाबा साहब यह अवतार धारण न करते तो जुल्मों का यह अन्तहीन सिलसिला शायद ही रुकने का नाम लेता ?
दलित बोध की मारक पीड़ा और उससे मुक्ति की छटपटाहट। इसी चेतना के बरक्स आधुनिक भारत की दो महान हस्तियों को आमने-सामने देखा जा सकता है। समस्या के एक छोर पर हैं गाँधी जी और दूसरे छोर पर डॉ0 अम्बेडकर जी , दोनों का जीवन भारतीय जनता की मुक्ति को समर्पित है किन्तु एक की मुक्ति राष्ट्रीयता के बहाने समग्र मानवता की मुक्ति है तो दूसरे की मुक्ति दलित-मुक्ति के बहाने विश्व मानवता की मुक्ति है। दलित मुक्ति गांधी की मजबूरी है तो राष्ट्रीयता अम्बेडकर की। देश की दोनों विभूतियाँ जीवन पर्यन्त मुक्ति के संघषोंर् से ही घिरी हुई है।
डॉ0 अम्बेडकर पर प्रश्न चिन्हृ उठाने वाले लोगों को जबाब देते हुए कृष्ण कुमार रत्तू कहते हैं कि डॉ0 अम्बेडकर के विरोध का मुख्य कारण यह है कि वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने दलितों को हिन्दुत्व से विद्रोह सिखाया है, जाति और वर्ण की व्यवस्था को चुनौती दी है तथा देवता और भगवानों की पुरानी अवधारणाओं को ध्वस्त किया है। उन्होंने दलितों को स्वतंन्त्रता, समता और बन्धुत्व की शिक्षा दी, जो हिन्दुत्व के खिलाफ ही है। उन्होंने कहा कि देवता और भगवान वह है, जो प्राणी मात्र के कल्याण के लिए जन्म लेते हैं। वह भगवान या देवता पूज्यनीय कैसे हो सकता है, जो केवल गुरूओं और विप्र जनों की रक्षार्थ जन्म लेते हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने धर्म-शास्त्रों को भी चुनौती दी। उन्होंने कहा कि वे धर्म शास्त्र पवित्र कैसे हो सकते हैं, जो न्याय को सीमित और मनुष्यता को विभाजित करते हैं।'' (रत्तू कृष्ण कुमार-समकालीन भारतीय दलित समाज, बुक एन क्लेव, जयपुर 2003,पृ0-152)
डॉ0 अम्बेडकर पर एक आरोप अक्सर यह लगता है कि उन्होंने देश के स्वाधीनता संग्राम में कोई भूमिका नहीं निभाई थी, इस आरोप का आधार यह है कि वह गॉधी ओर कांग्रेस के राष्ट्रीय आन्दोलन में नहीं हुए थे और वह ठीक ही था, जो उस आन्दोलन से वह अलग रहे थे। इसका कारण बताते हुए डॉ0 अम्बेडकर ने यह स्पष्ट किया कि गाँधी और कांग्रेस के पास स्वराज की कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं थी। उनके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था कि आजादी मिलने के बाद उनके स्वराज में अछूतों की स्थिति क्या होगी ? डॉ0 अम्बडेकर देश की आजादी से पहले दलितों की आजादी का सवाल हल करना चाहते थे।( रत्तू कृष्णकुमार-समकालीन भारतीय दलित समाज, बुक एन क्लेव, जयपुर 2003,पृ0-152)
डॉ0 अम्बेडकर की दृष्टि में देश की आजादी से भी बड़ी समस्या अपने समाज के उपेक्षित लोगों को आजादी दिलाना था। जहाँ तक गाँधी जी की बात है तो वह वास्तविक लड़ाई आजादी की लड़ रहे थे किन्तु बाबा साहब गुलाम की तरह जिन्दगी बिताने वाले करोड़ों नागरिकों की लड़ाई लड़ रहे थे जिन्हें अन्न खाने पीने का अभाव था और वास्तव में यह कार्य अधिक बड़ा एवं महान था। वास्तविकता यह है कि दलितों ने डॉ0 अम्बेडकर को अपना मुक्तिदाता ही नहीं वरन् उन्हें महामानव के रूप में मसीहा स्वीकार किया और इसके पीछे उनके पर्याप्त आधार एवं प्रमाण भी देखने को मिलते हैं। इस तथ्य को डॉ0 कृष्णकुमार रत्तू भी स्वीकार करते हैं कि ‘‘दलित मुक्ति की जो लड़ाई डॉ0 अम्बेडकर ने लड़ी वह चार हजार वषोेंर् के ज्ञात इतिहास में किसी ने नहीं लड़ी, किन्तु यदि वह दलित चिंतन तक सीमित है तो इसलिए कि राष्ट्र चिंतन ने उन्हें महत्व ही नहीं दिया। राष्ट्र चिंतन ने तुलसी को आकाश में बैठा दिया, पर कबीर, रैदास, चोखामल, दादू आदि दलित चेतना के संत कवियों को अपने पास तक नहीं फटकने दिया। राष्ट्र चिंतन ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर बड़े-बड़े महाकाव्य रच डाले, पर अपने प्राण देकर रानी की जान बचाने वाली दलित बीरांगना झलकारी बाई को स्मरण तक नहीं किया। राष्ट्र चिंतन ने मंगलदेव पाण्डे को अंग्रेजी सत्ता का पहला विद्रोही घोषित कर दिया, पर पाण्डे को विद्रोही बनाने वाले दलित सिपाही मातादीन भंगी को यह राष्ट्र चिंतन भूल गया। इस राष्ट्र चिंतन में अंग्रेज मिल जायेगें, तिलक, गोखले, मालवीय, गाँधी, नेहरू यहॉ तक कि कल के राजीव गॉधी तक मिल जायेगें, पर यह राष्ट्र चिन्तन ज्योतिवा फुले को नहीं जानता, सावित्री बाई को नहीं जानता, पेरियार नायकर को नहीं जानता, स्वामी अछूता नंद को नहीं जानता। फिर इस राष्ट्र चिंतन में डॉ0 अम्बेडकर कैसे आते? डॉ0 अम्बेडकर को न समझने और जाति के दायरे में रखने का मुख्य काम दलित चिंतन ने किया या राष्ट्र चिंतन ने? यह आज एकवार पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।''
दरअसल शासक वर्ग की कभी कोई जाति नहीं होती है और उसी के वे शुभ चिंतक होते है अगर ऐसा न होता तो 413 ई.पू. से 322 ई.पू. तक रहे नन्द वंशों के शासककाल में (नन्द लोग शूद्र थे) उनके अन्तिम यशस्वी सम्राट महापद्यनन्द के मंत्री और प्रधान सेना पति दोनों बाह्मण न होते। अम्बेडकर के जीते जी भी उन्हें कुछ लोग जातिवाद करार देते थे, इस आरोप से वे बहुत व्यथित रहते थे। एक बार उन्होंने एक सभा में कहा था कि मेरी प्रत्यक्ष गतिविधियाँ चूॅकि दलितों के उद्धार से जुड़ी हैं। इसलिए मुझे दलितवादी ठहराने की कोशिश की जा रही है। (डॉ0 कृष्णकुमार रत्तू- समकालीन भारतीय समाज, बदलता स्वरूप और संघर्ष, बुक एन क्लेव, जयपुर पृृ0 164,165)
धर्म के विषय में डॉ0 अम्बेडकर ने कहा कि ‘‘कुछ लोग सोचते है कि धर्म समाज के लिए अनिवार्य नहीं है। मैं इस दृष्टिकोण को नहीं मानता। मैं धर्म की नींव को समाज के जीवन तथा व्यवहारों के लिए अनिवार्य मानता हूँ।'' इस दृष्टि से देखा जाये तो डॉ0 अम्बेडकर कार्ल मार्क्स तथा अन्य मार्क्सवादी चिंतकों से इस बात पर बिल्कुल सहमत नहीं हुए हैं कि धर्म का मानव जीवन में कोई महत्व नहीं है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार- ‘‘मनुष्य मात्र रोटी के सहारे जीवित नहीं रहता उसका एक मस्तिष्क भी होता है, जिसे विचार रूपी खुराक की जरूरत होती है। धर्म मनुष्य में आशा का संचयन करता है और उसे कर्म के लिए प्रेरित करता है।'' इसे अपवाद ही कहा जा सकता है या यह एक भिन्न विषय भी हो सकता है कि डॉ0 अम्बेडकर ने धर्म के रूप् में हिंदू धर्म की आलोचना की तथा उसे अस्वीकार कर दिया।
सन्दर्भ-
इस लेख के लिए अनेक विद्वतजनों की पुस्तकों की सहायता ली गयी है। प्रमुख रूप से,एम. सी. जोशी की गाँधी, नेहरू, टैगोर और अम्बेडकर , गुप्त, दिव्यप्रकाश, गुप्ता मोहिनी की भीमराव अम्बेडकर; व्यक्ति और विचार, कीर, धनंजनय,की डा0 अम्बेडकर, लाइफ एण्ड मिशन,मल, पूरण की अस्पृश्यता ओर दलित चेतना,सिंह, आर जी की डॉ0 अम्बेडकर के सामाजिक विचार, कीर्ति डॉ0 विमल, की दलित साहित्य और अम्बेडकरवाद, सिंह, राम गोपाल की सामाजिक न्याय एवं दलित संघर्ष, डॉ0 राजेन्द्र की डॉ0 अम्बेडकरः व्यक्तित्व और कृतित्व, धुर्ये, जी0एस0 की कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया , पासवान प्रज्ञा चक्ष,ु डॉ0 सुकुन, की भारतरत्न डॉ0 भीमराव अम्बेडकरः सृष्टि और दृष्टि, डॉ दलवीर की अम्बेडकर चिन्तन ,भीमराव अम्बेडकर, सम्पूर्ण वाड्मय (सम्पूर्ण भाग) इसके साथ ही पत्र-पत्रिकाओं, प्रतिवेदनों, शोध-पत्रों , साक्षात्कारों से, इण्टरनेट से तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहायता ली गई है। मैं विशेष रूप से अपने पूर्व इस विषय पर लिखे गये सभी पूर्व विद्वत, मनीषी लेखकों, सहयोगियों सहायक ग्रन्थों तथा पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों, धर्मगुरूओं और पवित्र ग्रन्थों के व्यवस्थापकों के भी आभारी हैं।
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डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
रीडर-हिन्दी विभाग
उ.प्र. विकलांग उद्धार डॉ. शकुन्तला मिश्रा विश्वविद्यालय
लखनऊ , 226017 उ. प्र.
लेखक परिचय-
शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके एक हजार से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम् प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवम् पर्यावरण में साठ से अधिक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्यों को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट भी रह चुके हैं। वर्तमान में आप डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव,रीडर-हिन्दी विभाग,उ.प्र. विकलांग उद्धार डॉ. शकुन्तला मिश्रा विश्वविद्यालय,लखनऊ , 226017 उ. प्र.में अध्यायपनरत हैं।
good article .
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