जौली अंकल की रचना - कसक कलम की

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मिश्रा जी की कलम से तराशी पहली चंद पुस्‍तकों की भारी सफलता और मुनाफे के मद्दे्‌नजर जैसे ही प्रकाशक महोदय को उनकी नई पुस्‍तक के बारे में माल...

मिश्रा जी की कलम से तराशी पहली चंद पुस्‍तकों की भारी सफलता और मुनाफे के मद्दे्‌नजर जैसे ही प्रकाशक महोदय को उनकी नई पुस्‍तक के बारे में मालूम हुआ तो वो अपने सभी जरूरी कामों को भूलकर मिश्रा जी के घर के चक्‍कर लगाने लगे। किसी न किसी बहाने कभी थोड़ी बहुत मिठाई एवं फल लेकर यह महाशय उनके घर जा धमकते। यह दौर तब तक जारी रहा जब तक मिश्रा जी ने अपनी नई पुस्‍तक को छापने की अनुमति और पांडुलिपि प्रकाशक को नहीं थमा दी। एक अच्‍छे शिकारी की तरह प्रकाशक अच्‍छी तरह से समझता था कि पाठकगण इस महान लेखक की कलम से निकले हुए हर मोती की मुंह मांगी कीमत खुशी-खुशी चुका सकते हैं।

जैसे ही प्रकाशक महाशय को मालूम हुआ कि जल्‍द ही विश्‍व पुस्‍तक मेला शुरू हो रहा है तो इन्‍होंने मिश्रा जी की नई पुस्‍तक को जल्‍द से जल्‍द छपवाने के लिए दिन-रात एक कर डाला। साहित्‍य के कद्रदान से अधिक एक व्‍यापारी होने के नाते इस पुस्‍तक मेले में अधिक से अधिक बिक्री करने का मौका यह अपने हाथ से नहीं खोना चाहते थे। एक और जहां जल्‍द ही इस नई पुस्‍तक के बड़े-बड़े बोर्ड सारे शहर की शोभा बढ़ा रहे थे वहीं दूसरी और समाचार पत्रों में शिक्षा मंत्री द्वारा पुस्‍तक के विमोचन के समाचार भी धडल्‍ले से छपने लगे। बाकी सारी जनता को न्‍योता भेजने के बाद प्रकाशक साहब को इस मशहूर परंतु सीधे-साधे लेखक की भी याद आ ही गई। अपनी पुस्‍तक के विमोचन का समाचार पाते ही मिश्रा जी की खुशी सातवें आसमान को छूने लगी। बधाई देने आए हुए मित्रगणों के सामने मिश्रा जी छोटे बच्‍चो की तरह इतरा रहे थे। यह सब कुछ देख उनकी पत्‍नी को मेहमानों को चाय-पानी पिलाना भारी लग रहा था। पहले से ही बुरी तरह से तंगी के कारण बिलबिलाते मिश्रा जी के परिवार को बिजली, पानी और दूसरे जरूरी बिल तिलमिलाने को मजबूर कर रहे है।

इंतजार की घडि़यां जल्‍दी ही खत्‍म होकर पुस्‍तक विमोचन का दिन आ गया। मिश्रा जी सुबह से ही अपने सफेद बालों में खिजाब लगा कर और शादी के मौके पर पहनी हुई शेरवानी पहन कर मेले में जाने के लिये तैयार हो गये। जब जूते पहनने की बारी आई तो बरसों पुराने जूतों ने इस मौके पर मिश्रा जी का साथ निभाने से इंकार कर दिया। न चाहते हुए भी इतने बड़े लेखक को अपने पड़ोसी से जूते मांगने पड़े। सुबह से घंटों राह देखने पर भी जब प्रकाशक महोदय की गाड़ी इन्‍हें लेने नहीं आई तो इन्होंने खुद ही आटो रिक्‍शा से जाने का मन बना लिया। परंतु जब जेब में हाथ डाला तो लक्ष्‍मी देवी का दूर-दूर तक कोई पता नहीं था। किसी तरह हिम्‍मत जुटा कर लेखक महोदय ने अपनी बीवी से चंद रूप्‍यो की फरमाईश कर डाली। पत्‍नी ने तपाक्‌ से कह दिया कि मुन्‍नी कल से बुखार में तप रही है, अब यदि यह पैसे भी आप ले जाओगे तो उसकी दवा कैसे ला पाऊंगी? मिश्रा जी ने उसे तसल्ली देते हुए कहा कि तुम किसी तरह आज ठंडे पानी की पट्टियां लगा कर काम चला लो। भगवान ने चाहा तो इस पुस्‍तक के बाजार में आते ही सारे दुख दर्द दूर हो जायेंगे।

जनसाधारण से लेकर नेता तक सभी यही उम्‍मीद करते हैं कि देश में फिर से यदि प्‍यार, भाईचारा व शांति कायम करनी है तो यह काम केवल कलम के माध्‍यम से ही किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि समाज में सभी जरूरी बदलाव लेखक की बदौलत ही मुमकिन हुए है। ऐसे में हम सभी इस बात को क्‍यूं भूल जाते हैं कि जो लेखक अपने परिवार के लिए दो वक्‍त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर सकता। जिसका अपना जीवन अंधकार में है वो समाज को किस प्रकार रोशनी की राह पर ला सकता है?

जब कभी भी हिन्‍दी लेखक की कोई पुस्‍तक प्रकाशित होती है तो चंद समाचार पत्रों में अपनी दो-चार फोटो देख कर ही उसकी बांछें खिल जाती है। हिन्‍दी का आम लेखक तो कभी किसी उत्‍सव में फूल माला पहनकर, कभी कोई छोटा-मोटा सम्‍मान पाकर ही खुद को महान समझने लगता है। इसका एक मात्र कारण यही समझ आता है कि आमतौर पर कोई भी हिन्‍दी लेखक को भाव नहीं देता। कहने वालों ने तो तुलसीदास जी तक को कह दिया था कि क्‍या दो कौड़ी का लिखते हो? दूसरे देशों की बात को यदि छोड़ भी दे तो अपने ही देश में हिन्‍दी बोलने वालों को हीन भावना से देखा जाता है। हिन्‍दी लेखक को अपनी कलम से निकले हुए अल्‍फाजों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए अपने स्‍वाभिमान तक को तिलांजलि देकर संपादकों और इस धंधे से जुड़े व्‍यापारियों की चापलूसी करनी पड़ती है।

लेखक तो उस वृक्ष की तरह है तो अपना सब कुछ केवल दूसरों को देना जानता है। जब कभी किसी वृक्ष की उम्र पूरी हो जाती है तो भी वो ढेरों लकड़ी हमें दे जाता है। लेकिन यह सब कुछ तभी मुमकिन हो पाता है जब हम उस वृक्ष की ठीक से देख भाल करे। हमारे यहां लेखकों को अक्‍सर बड़े-बड़े समारोहों में अनमोल रत्‍न और न जानें कैसी बड़ी उपाधियों से नवाजा जाता है। लेकिन चंद दिन बाद किसी को लेखक की सुध लेने का ध्‍यान तक नहीं रहता। प्रकाशक और संपादक वर्ग लेखक की भावनाओं का जमकर दुरुपयोग करते हुए उन्‍हें अंधकार की और धकेल रहे हैं। हर समाचार पत्र और पत्रिकाएं विज्ञापनों के माध्‍यम से लाखों रूपए कमा रहे हैं। ऐसे में क्‍या हमारे इतने बड़े लोकतंत्र में लेखकों के हितों की सुरक्षा के लिये कोई व्‍यवस्‍था नहीं हो सकती? इस बात को असानी से समझा जा सकता है कि कुदरत के बाद यदि कोई बड़ा विश्‍वविद्यालय है तो वो है हमारे समाज का लेखक। मूर्ख आदमी तो ज्ञान का एक ही अंग देखता है और लेखक ज्ञान के सौ अंगों को देखता है। इसी से वो समाज को आत्‍मनिर्भर बनाने का काम कर सकता है। जौली अंकल भी एक लेखक होने के नाते कलम की कसक को समझते हुए इतना ही लिखना चाहते हैं कि असली ज्ञान वही है, जो अपने ज्ञान से दूसरों को लाभान्‍वित करें।

'' जौली अंकल ''

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