पव्वा जब हम छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो गणित पढ़ाते समय हमें पहाडों के अलावा, पव्वा अद्धा, पौना, सवाया, डेवडा आदि भी पढ़ाया जाता है, ...
पव्वा
जब हम छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो गणित पढ़ाते समय हमें पहाडों के अलावा, पव्वा अद्धा, पौना, सवाया, डेवडा आदि भी पढ़ाया जाता है, अब तो यह सब स्कूलों में नहीं सिखाया जाता, क्योंकि अब सबके पास कैलकुलेटर आ गया है जिनके पास नहीं है उनके पास मोबाइल आ गया है, मोबाइल में भी कैलकुलेटर, तो फिर क्या जरूरत है इन सब पहाड़ों को याद करने की.............
अस्तु,......... लेकिन आज भी एक पहाड़ा समाज से गया नहीं हैं वह है पव्वा, मेरे एक मित्र के बेटे की नौकरी का मामला था लिखित मौखिक सब हो गया साक्षात्कार के समय बोले यार तेरा कोई पव्वा हैं, मैने कहा पव्वे से आपका तात्पर्य क्या है बोले कोई जान पहचान, कोई मेल मुलाकाती वगैरह वगैरह । मैने कहा जब तुम्हारे बेटे ने इतना सब कुछ अपने दम पर कर लिया है तो फिर पव्वे की जरूरत क्या हे वह सब भी हो जायेगा । बोले तू 1960 का पढा हुआ है तुझे पव्वा वही याद होगा जो गुरूजी पढ़ाया करते थे, लेकिन वो पव्वा अब नहीं चलता, अब पव्वे का अर्थ बदल गया है।
मैने अपने अल्प ज्ञान पर दृष्टि डाली तो समझ में आया कि वास्तव में अब भी पव्वा चल रहा है, एक दिन सब्जी मण्डी में गया उन दिनों टमाटर के भाव आसमान छू रहे थे, एक अजीब सी दहशत थी न जाने आज टमाटर क्या भाव मिलेगा, तभी मेरे कान में आवाज पड़ी टमाटर दस रूपये। मैं तुरन्त उस ठेली वाले के पास गया और कहा भाई एक किलो टमाटर देना, उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा मेरी अनाथों जैसी शक्ल पर दृष्टि डाली, फिर समझा शायद किसी बडे आदमी का नौकर होगा उसने तुरन्त एक किलो टमाटर तोल कर थैली मेरी ओर बढायी और कहा चालीस रूपये। मैंने कहा मैंने कोई चार किलो थोड़े ही लिया है मेरे एक किलो के 10 रूपये बनते हैं उसने कहा टमाटर चालीस रू0 किलो हैं 10 रूपये पाव । बोल कितने के दूं। मैंने कहा अभी तो तुम चिल्ला रहे थे कि टमाटर दस रूपये । उसने कहा 10 रूपये पाव । आ जाते हैं दिमाग खराब करने, हिसाब लगाना आता नहीं चले टमाटर खरीदने ।
उस दिन पव्वे की अहमियत मेरी समझ में आ गई। आजकल अप्रोच को भी पव्वा कहते हैं। मेरे बेटे ने मेरे विभाग में एक अधिकारी के पद के लिये आवेदन किया । परीक्षा देने के बाद जब घर आया तो बेाला आपका कोई पव्वा हैं अपने विभाग में अगर हो तो जरा पव्वा लगा देना मेरा काम हो जायेगा।
उस जमाने में पव्वा याद करते जो परेशानी आती थी, आज कदम कदम पर पव्वे का नाम सुनना पड़ता है और पव्वे ने अपनी अमरता को हमारे समाज में अभी भी जिन्दा रखा हुआ है। उस समय पव्वे का पहाड़ा जल्द याद हो जाता था, मुश्किल पड़ती थी पौना या सवाया के पहाडे पर, क्योंकि आधे के साथ पाव और जोडना पडता था, या पूरे के साथ पाव जोड़ना पड़ता था, जैसे आजकल तथाकथित नेताओं के चमचों के आगे.......या किसी उच्चअधिकारी के निजी सचिव के सामने......,परिवार के बुजुर्गो के लाख समझाने पर भी, लाख डॉट फटकार खाने के बाद भी मै पव्वे से ऊपर पहुंच ही नहीं सका ...शायद यह उस समय की भविष्यवाणी थी कि आगे चलकर पव्वा कितना काम आने वाला है, और मैं खुद पव्वा ही बना रहूंगा।
हमारे भारतीय समाज में भी भगवान को सवा रूपया, या सवा सेर का प्रसाद,सवा मीटर कपड़ा, सवा सेर अनाज, सवा किलो लडडू आदि ही चढाया जाता है, दुल्हे को भी सवा में ही लिया दिया जाता है, मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि देते लेते समय तो कम से कम पूरे का ख्याल रखना चाहिये, लेकिन पाव तो हमारा शाश्वत है अतः उसे कैसे नकारा जा सकता है। दो......., थोड़ा बढ़ाकर एक में थोडा बढ़ा दो सवा कर दो, वहीं हमारे पव्वे भाईसाइब खड़े हैं, किसी को शुभ काम में सवाया न दे कर एक दो, ये पाव ही आपके किये धरे पर पानी फेर देंगे।
एक मित्र की सेवानिवृत्ति थी, स्टाफ के लोगों ने एक होटल में पार्टी का प्रबन्ध किया पुरूषों के मनपसन्द पेय एवं खाद्य पदार्थों का भी उपयोग किया जाना था , प्रतिबन्ध यह था कि कोई भी अपने परिवार के किसी भी सदस्य को पार्टी में नहीं लायेगा । लेकिन हमारे एक छोटे से साथी उस दिन अपने बच्चे को भी साथ ले आये बस तभी फिकरे सुनने पड गये कि खुद तो आया साथ में पव्वा भी लेकर आया ।
बाजार में जिस चीज के दाम पहले किलो में बताये जाते थे, अब उसे पव्वे में बताया जाता है, यह बाजार का एक समीकरण है कि दाम छोटे बोलेागे तो खरीददार अपने आप आ जायेगा, फिर किलो नहीं लेगा तो पव्वा तो लेगा ही ।
उस दिन घर पर कुछ मेहमान आ गये, पुत्रवधु का हुक्म हुआ कि जरा मावा, पनीर ला देना, अब संख्या तो बतायी नहीं गयी थी मैंने दाम पूछे और पव्वे के हिसाब से सामान लाकर दे दिया, अब सब सामान पव्वे के आधार पर था, क्योंकि हमें तो अब तक सामान पव्वे में खरीदने की आदत पड़ गयी थी, 1 पाव मावा, एक पाव पनीर,एक पाव मटर, । 10-12 आदमियों के खाने में किसके हिस्से में क्या आयेगा, इसकी एफ0आई0आर0(प्राथमिकी) हमारी श्रीमती जी को दर्ज करायी गई, और थानेदारनी ने हमें वह सजा सुनाई कि हम खुद उस दिन पव्वे की तरह एक कोने में पडे रहें।
रद्दी खरीदने वाले भी, अखबार, मैगजीन, बोतल, लोहा, पीतल आदि ,खरीदते है। रददी वाला बोतल एक रू0, अद्धा पचास पैसे पव्वा 25 पैसे, लम्बी गर्दन वाला पव्वा नहीं चलेगा, वह बिकता नहीं हैं, यानि यदि पव्वा है तो उसे भी अपनी औकात में रहना होगा।
लडाई में, झगडे में, नाते रिस्तेदारी में, कद में, काठी में, पहनने में, चलने में, बोलचाल में, गुस्से में सब में आप पव्वा शब्द का प्रयोग निधडक होकर कर सकते हैं,। मान लीजिये कोई आदमी अपने किसी ठेके को लेने में पूरी तरह आश्वस्त था लेकिन दुर्भाग्यवश ठेका नहीं मिला तो ठेकेदार यही कहता पाया जायेगा...भाई आजकल तो पव्वों वालों की पहुंच है। किसी का बच्चा बोर्ड की परीक्षा में कोई पेपर गलत कर आता है तो घरवाले परीक्षक का पता पूछने के लिये पव्वे के जुगाड में रहते हैं, अच्छे स्क्ूल में तो आपने हमने सबने अपने बच्चेां का दाखिला कराने के लिये कहीं न कहीं पव्वे का जुगाड जरूर किया होगा । रेलवे के आरक्षण में, सरकारी अस्पताल की लम्बी कतार में से, गैस लेने के लिये लगी कतार में सबकी निगाह सम्बन्धित विभाग में अपने अपने पव्वों की तलाश कर रही होती है। मैं तो लम्बी कतार में खडे लोगो को देखकर बता सकता हूॅ कि कौन आदमी इस समय किस तरह के पव्वे की तलाश में है । और मुझे यह अनुभव ऐसे ही नहीं हो गया इसके लिये मुझे बचपन से पव्वे की महत्वपूर्णता समझायी गयी थी तब इतने वर्षो के बाद मैं इस पव्वा प्रकरण में पारंगत हुआ हूं। आपने किसी को मकान किराये पर दे दिया, खाली कराने में अगर पव्वा हैं तो समझो मकान आपका, वर्ना किरायेदार का पव्वा इतना भारी पडेगा कि आप खुद पव्वे बन कर रह जायेगें।
पिछले 50-60 साल के इतिहास में पव्वे ने अपनी महत्ता, सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक क्षेत्रों में अपना गौरव बनाया हुआ है, लेकिन एक बात जहॉ पर पव्वा नहीं चलता वह है रचनाकार, जहॉ सभी की रचनायें बिना पव्वा लगाये छप जाती है। रचनाकार के सम्पादक भाई रवि रतलामी जी को इसके लिये अनेक अनेक साघुवाद, हार्दिक बधाई, कि कैसे वह बिना पव्वे के इतना बडा संगठन सभाले है।
RK Bhardwaj
151/1 Teachers" Colony, Govind Marg,
Dehradun (Uttarakhand)
E mail: rkantbhardwaj@gmail.com
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