पिछले कुछ वर्षों में शान्ति व्यवस्था और कानून के मामलों को लेकर काफी बहसें हुई हैं। अक्सर कहीं पर घटी घटना को लेकर पुलिस, प्रेस, जनता और पा...
पिछले कुछ वर्षों में शान्ति व्यवस्था और कानून के मामलों को लेकर काफी बहसें हुई हैं। अक्सर कहीं पर घटी घटना को लेकर पुलिस, प्रेस, जनता और पार्टियां एक दूसरे पर दोषारोपण करती हैं। कहीं पुलिस को दोषी बताया जाता है, कहीं पुलिस प्रेस को जिम्मेदार ठहराती है, तो अक्सर जनता और राजनीतिक पार्टियां अपने स्वार्थों के कारण प्रशासन और पुलिस पर बरसती रहती है, मगर कोई ठोस नतीजे नहीं आते हैं और ये चारों एक दूसरे की टांग खींचते रहते हैं।
अपराधों की रोकथाम में पुलिस की असफलता उस पर लगने वाला एक बड़ा आरोप है। पुलिस की संरचना, इतिहास और वर्तमान वातावरण का इसमें बहुत बड़ा हाथ है। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में पुलिस प्रशासन का वर्णन किया है। रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में भी नगर रक्षकों गुप्तचरों का वर्णन है। कोटपाल नामक शब्द बाद में कोतवाल हो गया। आईने अकबरी में भी गुप्तचर व्यवस्था का वर्णन है। पुलिस व्यवस्था मराठों ने भी बना रखी थीं, लेकिन हमारी आज की पुलिस व्यवस्था अंग्रेजों की देन है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपनी सुरक्षा और प्रशासन के लिए पुलिस का गठन किया। 1860 में पहला पुलिस आयोग बना। 1861 में भारतीय दण्ड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय पुलिस संहिता लागू की गई। 1902 में दूसरा पुलिस आयोग बना। अँग्रेज़ों ने पुलिस प्रणाली को मजबूत बनाया, ताकि देसी लोगों पर नियंत्रण किया जा सके। भय और डर का एक माहौल पैदा किया। इसी परम्परा पर पुलिस आज भी चल रही है। स्वाधीनता के बाद भी हमने उसे स्थानीय राजनीति और समस्याओं का एक मोहरा ही बनाए रखा।
हमारी राजनीतिक पार्टियों ने अपने निहित स्वार्थों के कारण कार्यपालिका के इस महत्वपूर्ण स्तम्भ का पूरा राजनीतिक उपयोग किया। पब्लिक बेचारी पिसती रही और प्रेस ने जब भी आवाज उठाई, उसे गैर जिम्मेदार करार दिया गया। पुलिस अत्याचारों से समाचार पत्र भरने लगे। विधान सभाओं और संसद में लगातार पुलिस के बारे में बहसें होने लगीं। नतीजतन यह रिश्ता लगातार विवादास्पद होता चला गया। 1970 में गौरे आयोग ने पुलिस प्रशिक्षण की दिशा में सुझाव दिए, मगर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था ही ऐसी है कि इसमें निहित स्वार्थ सहज ही पलते हैं और कानून का पालन करने वाले कष्ट पाते हैं। राजनीतिक दल हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था के आवश्यक अंग हैं। ये जनता के हितों के लिए चिल्लाते तो हैं, मगर करते कुछ भी नहीं। ये दल अपने कार्यकर्ता जनता में से चुनते हैं और ये कार्यकर्ता उम्मीद करते हैं कि उन्हें अतिरिक्त लाभ मिलेगा। इन कार्यकर्ताओं का सीधा सम्पर्क बड़े नेताओं से होता है, वे साधिकार पुलिस से अपना कार्य कराते हैं। यही पर प्रेस अपना रोष प्रकट करती है। वह अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती है, मगर क्या एक छोटे कस्बे में रह कर वहां के थानेदार या स्थानीय नेता से बैर मोल लिया जा सकता है?
पुलिस और प्रशासन को किस प्रकार राजनीतिक दबाव से मुक्त किया जा सकता है और प्रेस व पुलिस की इसमें क्या भूमिका हो सकती है? क्या विरोध की खुली छूट दी जानी चाहिए? हर विवाद के दो पहलू होते हैं और दोनों ही पहलू शायद अपनी जगह सही होते है। शान्ति और व्यवस्था के लिए पुलिस को पूरे अधिकार दिये जाने चाहिए, मगर पुलिस इन अधिकारों का कार्यपालिका के साथ मिलकर अवैधता की सीमा तक दुरूपयोग करती है। पुलिस की भूमिका के सन्दर्भ में एक सवाल और उठता है, पुलिस का मूल काम कानून की रक्षा करना है। कानूनों के संदर्भ में पुलिस की भूमिका का प्रश्न जटिल है। क्या सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पार्टियों को पुलिस का मनमाना उपयोग करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए? ये सभी जानते है कि दहेज, नशा, वेश्यावृत्ति, तस्करी, अश्लील साहित्य, बाल विवाह, मृत्यु भोज जैसी सामाजिक बुराइयों के लिए कानून हैं, मगर इन कानूनों की पालना कितनी हो पाती है? जनता का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि सामाजिक बुराइयों से लड़ने में पुलिस का महत्व गौण रहा है।
प्रेस प्रजातंत्र का आधार है। शासन और जनता को सतर्क करना उसका कर्तव्य है। पर प्रेस की दृष्टि एकांगी नहीं होनी चाहिए। पुलिस की अपनी सीमांए हैं, तो प्रेस को अपनी। औसतन 60-70 पुलिस वालों की संख्या एक लाख लोगों की रक्षा के लिए होती है। 20.25 लाख की आबादी पर एक एस.पी. होता है। पुलिस के सिपाही की जिंदगी बोझ और तनाव की जिंदगी है। पुलिस जवान किन परिस्थितियों में रहते हैं, उनके रहने, खाने, सोने की स्थितियां क्या हैं, आवास सुविधाएं कैसी है, क्यों उन्हें 8 घंटे के बजाए 15-20 घंटे काम करना पड़ता है? प्रेस को इन बातों की ओर भी ध्यान देना चाहिए। पुलिस प्रेस की संरचना और दोनों के आपसी रिश्तों की विस्तृत जांच पड़ताल की आवश्यकता है।
प्रेस सच्चाई को ढूंढने की कोशिश करती है, उसे प्रकाश में लाती है और यहीं से संघर्ष शुरू होता है। फिर टकराते हैं राजनीतिक स्वार्थ, पनपता है अविश्वास और कानून व्यवस्था के नाम पर जुल्म ढाया जाता है। फर्जी मुठभेड़ें दिखाई जाती हैं। पुलिस का काम संविधान के अनुरूप कार्य करना है। मगर आज पुलिस एक स्वतंत्र इकाई के रूप में काम करने में असमर्थ है। बड़े लोगों की आवभगत, भीड़ और ट्रेफिक नियंत्रण, आंदोलनों को कुचलना पुलिस के कार्य हो गए हैं। बदलते हुए समाज में पुरानी व्यवस्थाओं, मान्यताओं और परिभाषाओं को भी बदलने की आवश्यकता है। आज समाज का एक बड़ा तबका भूखा और नंगा व शोषण अत्याचार के खिलाफ खड़ा है। आंदोलन होते हैं, पुलिस कुचलती है और संघर्ष शुरू हो जाते हैं। इस देश की प्रमुख समस्या अपराधों का राजनीतिक स्वरूप है और राजनीतिक स्वरूप है और राजनीति के अपराधीकरण से और ज्यादा मुसीबत होती है। हिंसा, आरक्षण, धर्म परिवर्तन, आंदोलन, साम्प्रदायिकता, आदिवासी असंतोष, नक्सलवाद आदि मुद्दे पुलिस और प्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। वास्तव में स्वयं प्रेस रक्षक की भूमिका निभा सकती है। हमारे यहां कानूनों की कमी नहीं है। प्रस्तावित सजाएं भी कम नहीं है, मगर कानूनी प्रक्रियाएं इतनी जटिल हैं कि उसका कार्यान्वयन नहीं हो पाते है। परिणाम पुलिस की तमाम भागदौड़ बेकार और अपराधी रिहा। यहां राजनीतिक दबाव सर्वोपरि है, जो मामलों को ले-देकर निपटा देता है। यह बात सत्य है कि पुलिस को जनता का विश्वास और सक्रिय सहयोग मिलना चाहिए। प्रेस को पुलिस के साथ जनता के रिश्तों को समझना चाहिए।
पुलिस की दंडात्मक छवि को बदलने की कोशिश की जानी चाहिए। पुलिस के साथ बिगड़ते रिश्तों की जिम्मेदारी सिर्फ पुलिस पर ही नहीं, राजनीति और प्रेस पर भी है, जो सही सामाजिक व्यवस्था के बदले तात्कालिक हल निकालने के लिए काम करते रहते हैं। एक दूसरे के सहयोग से ही व्यवस्था सुधारी जा सकती है।
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-यशवन्त कोठारी
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ek vishlekshnatmak lekh sandharbho sahit varnan
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