राकेश भ्रमर की कहानी - कोल्हू का बैल

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रात के सन्‍नाटे में घर के अंदर से जब भी हंसने, खिलखिलाने की आवाजें आती, जगदीश का तन-मन जल भुनकर राख हो जाता․ मन ही मन एक भद्‌दी गाली देता औ...

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रात के सन्‍नाटे में घर के अंदर से जब भी हंसने, खिलखिलाने की आवाजें आती, जगदीश का तन-मन जल भुनकर राख हो जाता․ मन ही मन एक भद्‌दी गाली देता और सोचता- ये उसके बड़े भैया और भाभी हैं, जो जीवन का भरपूर आनंद उठा रहे हैं, किसकी बदौलत․․․․? सुबह से लेकर शाम तक खेत-खलिहान में तो वहीं खटता है, जानवरों को चारा-सानी करता है, खून-पसीना बहाकर खेतों में अन्‍न उपजाता है, जिसे बेचकर भैया अपनी जेबें गर्म करके मूंछों में ताव देते हुए गांव-गली और बाजार में घूमते फिरते हैं․ भाभी तो कभी भूलकर भी खेतों की तरफ नज़र नहीं करतीं कि उसे कलेवा ही दे आयें․ किसी को उसकी भावनाओं की चिंता नहीं है, न कोई उसकी खुशियों की परवाह करता है․ उसका मन करता है कि सब कुछ छोड़-छाड़कर कहीं भाग जाए․ इतनी मेहनत करने का क्‍या लाभ, जब उसके जीवन में खुशी का एक कतरा भी नहीं है․ किसके लिए मरे खपे․․․ उसका इस दुनिया में है ही कौन? भैया-भाभी केवल नाम के भैया-भाभी हैं, वरना तो इस घर में उसकी हैसियत एक नौकर से बढ़कर नहीं है․

वह लगभग 26-27 साल का हो चुका है और अभी तक उसकी शादी नहीं हुई है․ मां-बापू जिंदा होते, तो क्‍या अब तक उसकी शादी नहीं हो जाती․ अम्‍मा मरी, तब वो इतना छोटा था कि उसे आज अम्‍मा की सूरत भी याद नहीं है․ बापू की शक्‍ल याद है, तब वो लगभग 14 साल की उम्र का किशोरावस्‍था की तरफ कदम बढ़ाता हुआ एक समझदार लड़का था․ मिडिल स्‍कूल में पढ़ने भी जाने लगा था और इतना बड़ा तो था ही कि जीवन-मृत्‍यु के अर्थ को बखूबी समझ सकता․ उसे अच्‍छी तरह याद है, बापू अकसर बीमार रहते थे और घर की जिम्‍मेदारी भैया के ऊपर थी, जिनकी तब तक शादी हो चुकी थी․ भैया बाहर का काम देखते थे और भाभी घर में चौका संभालती थी․ बापू भले ही बीमार रहते हों, परन्‍तु घर-परिवार के हर काम की तरफ उनकी नज़र रहती थी और हर किसी की सुख-सुविधा का वह खयाल रखते थे․ उसे भी कोई तकलीफ नहीं थी․ सुबह स्‍कूल चला जाता था और शाम को आता था․ कुछ देर अपने बापू के पास बैठकर उनका मन बहलाता था और फिर खेलने-कूदने में लग जाता था․ तब उसके मन में ये खयाल तक नहीं आया था कि एक दिन जब बापू नहीं रहेंगे और वो बड़ा हो जाएगा, तब उसे कष्‍ट और दुःखों के अथाह दरिया में तैरना पड़ेगा․ काश, बापू जिंदा होते तो आज उसे न तो ये कष्‍ट सहने पड़ते, न उसे इस तरह सुनसान अंधेरे में करवटें बदलकर अकेले रात गुजारनी पड़ती․ उसकी शादी हो जाती, तो क्‍या कोई उसे एक गिलास पानी देने वाला न होता? क्‍या कोई उसकी बगल में बैठकर उसके साथ प्‍यार के दो शब्‍द नहीं बोलता? तब उसे भी लगता कि जीवन में उसका कोई अपना है, जो उसके लिए सोचता है और उसके लिए कुछ करता है․ यहां तो उसके बारे में किसी के पास सोचने की फुरसत ही नहीं है, कुछ करना तो बहुत दूर की बात है․

एक दिन बापू ये दुनिया छोड़कर चले गये․ वो अकेला रह गया․ भैया-भाभी के होते हुए वह अपने को अनाथ नहीं समझता था, परन्‍तु धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि भैया-भाभी का उसके प्रति रवैया कुछ-कुछ बदलने लगा था․ अब वह उसे पहले की तरह प्‍यार नहीं करते थे․ बात-बात पर डांटने लगे थे और घर के कामों के लिए उससे कहने लगे थे․ कुछ दिन तक वह स्‍कूल भी गया, परन्‍तु एक दिन उसकी भाभी ने उसका बस्‍ता उठाकर घर के भूसे-कंडे वाले घर में फेंक दिया और डांटकर बोली, ‘‘अब स्‍कूल जाने की कोई जरूरत नहीं है․ बड़े हो गए हो, कुछ काम-धाम करो; वरना तुम्‍हें कौन कमाकर खिलायेगा? पढ़-लिखकर खेती का ही काम करना है, तो अभी से क्‍यों नहीं?''

वह सहमा, रुआंसा खड़ा रहा․ भैया भी आंगन में खड़े थे․ उसने अपने भैया की तरफ कातर और निरीह दृष्‍टि से देखा कि शायद वे कुछ कहेंगे, परन्‍तु जगदीश की तरफ एक बार देखकर उन्‍होंने अपनी नजरें नीची कर लीं और घूमकर घर से बाहर चले गये․ जगदीश समझ गया कि भाभी के साथ-साथ भैया का मन भी बदल गया है और इसमें भैया और भाभी की पूरी सहमति है․ अब उसे स्‍कूल का मुंह देखना नसीब नहीं होगा․ उसने अपने आपको नियति के हवाले कर दिया․

छोटी-सी उम्र से ही भैया-भाभी ने उसे खेती किसानी के जुए में जोत दिया और वह एक निरीह बैल की तरह जुटा रहा․ देखते-देखते वह जवान हो गया, फिर उसने खेती का सारा काम अकेले ही संभाल लिया․ उसके बड़े होते ही भैया ने घर-बाहर के कामों से अपने हाथ खींच लिए, जैसे वह जमींदार हो गये हों और जगदीश के रूप में उन्‍हें एक मेहनती मज़दूर मिल गया था․ अब झक सफेद कपड़े पहनकर घूमने के सिवाय उनके पास और कोई काम न रह गया था․ जगदीश सुबह से लेकर रात तक खेती का सारा काम करता, फिर भी उसे समय पर ढंग का खाना नसीब न होता․ यहां तक फिर भी ठीक था, लेकिन जब उसकी शादी की उम्र हुई तो भी भैया-भाभी ने उसकी शादी के बारे में न कुछ सोचा और न किया․ वे तो उसे एक निरीह बैल समझते थे जिसको जवानी के पहले ही बधिया कर दिया गया था․ भैया-भाभी समझते थे कि जवानी में भी उसकी कोई इच्‍छाएं नहीं है, न उसके मन में आकांक्षाओं के बादल उमडते हैं․ लेकिन वो निरीह बैल नहीं था․ उसके मन में भी कोमल भावनाओं का प्रष्‍फुटन होता था और जीवन के प्रति उसके मन में भी इच्‍छाएं और लालसाएं उपजती थीं․ वह सोचता था कि समय आने पर भैया-भाभी कहीं न कहीं उसका रिश्‍ता तय जरूर करेंगे और वो सेहरा बांधकर बैंड-बारात के साथ दुल्‍हन ब्‍याहकर घर लाएगा, पर उसके जीवन में ऐसा कुछ नहीं हुआ और वो 25 साल की उम्र पार कर गया जो कि एक गांव में जवान व्‍यक्ति की शादी करने की अधिकतम उम्र होती है․

ऐसा भी नहीं था कि उसके लिए किसी ने शादी की कोशिश नहीं की थी․ उसके लिए रिश्‍ते भी आये थे․ रिश्‍तेदारों और गांव के लोगों ने उसके लिए कई रिश्‍ते सुझाए थे․ कई लड़की वाले भी उसे देखने आये थे․ उसे देखते और पसंद करते, परंतु पता नहीं अंत में क्‍या होता कि उसके भैया और भाभी लड़की वालों को एक किनारे बुलाकर कुछ कहते और वे उसे मना करके चले जाते․ जगदीश की समझ में नहीं आता कि उसमें ऐसी क्‍या कमी थी, जो कोई लड़कीवाला उसे पसंद नहीं करता था․ साढे पांच फुट से ऊपर उठता हुआ उसका शरीर था, हट्टा-कट्टा और कसरती बदन था․ खेतों में मेहनत का काम करने से उसके बदन में एक कसावट सी आ गई थी और वो एक मंझा हुआ कसरती पहलवान लगता था․ इसके बावजूद भी उसकी शादी न होनी थी, न हुई․ इसमें उसका कम उसके भैया-भाभी का दोड्ढ अधिक था․ इस बात को अब वह महसूस करने लगा था․

उसके मन को बड़ा दुःख पहुंचता, जब राह चलते कोई उसे रोककर कहा, ‘‘अरे, जगदीश, कब करेगा तू शादी? सिर के बाल चांदी हुए जा रहे हैं और धीरे-धीरे बदन भी ढीला पड़ता जा रहा है․ फिर क्‍या कब्र पर बैठकर शादी करेगा?''

वह उदास स्‍वर में कहता, ‘‘मैं क्‍या करूं भाई․․․? न तो कोई अपने सिर के बाल बना सकता है न स्‍वयं शादी कर सकता है․ मैं कैसे अपनी शादी कर लूं?''

‘‘बात तो तुम्‍हारी जग की रीत के अनुसार है, परन्‍तु तुम अनाथ भी तो नहीं हो․ घर में बड़े भैया-भाभी हैं, क्‍या वे तुम्‍हारी शादी के लिए प्रयत्‍न नहीं करते?''

जगदीश का स्‍वर भीग कर और गीला हो जाता, ‘‘करते तो क्‍या आज मेरी ऐसी हालत होती और तुम इस तरह बीच रास्‍ते में रोककर मुझसे इस तरह सवाल करते․''

‘‘कैसे भैया-भाभी हैं तुम्‍हारे? क्‍या उनको तुम्‍हारी जवानी पर तरस नहीं आता है?''

जगदीश के पास इस प्रश्‍न का कोई उत्त्‍ार नहीं होता․

जीवन और जवानी की खुशियों से महरूम जगदीश मानसिक रूप से कमजोर होता जा रहा था․ अब वह बात-बात पर झल्‍ला उठता․ सबको तीखे स्‍वर में उत्त्‍ार देता और जब-तब मरखने बैल की तरह झनझनाने लगता․ वह लोगों के पास उठने-बैठने से कतराने लगा था․

गांव में कुछ दुष्‍ट और खुरापाती स्‍वभाव के व्‍यक्ति थे, जो जगदीश को गाहे-बगाहे उसके अकेलेपन और उसकी शादी न होने के कारण परेशान करते रहते थे․ उसे चिढ़ाते थे और सरेआम उसका मखौल उड़ाते थे․ उसे कोल्‍हू का बैल कहते और कोई-कोई बदमाश लड़का तो उसे हिजड़ा तक कह देता था․ इन सब बातों से उसके मन में हीनभावना अपने पैर पसारती जा रही थी और एकांत में वह दुःख के अथाह सागर में डूबने उतराने लगता था․ वह अपने जीवन की सार्थकता पर विचार करता और सोचता कि उसके जीवन का लक्ष्‍य क्‍या है? क्‍या रात-दिन मेहनत और मजदूरी ही करता रहेगा, फिर बेऔलाद इस दुनिया से बिदा हो जएगा․ भैया का परिवार तो कितना सुखी है․ उनकी पत्‍नी है और तीन बच्‍चे हैं․ वे लोग घर में कितने मजे और सुख से रहते हैं․ एक ही घर में रहते हुए भी वह अपने आप को भैया, भाभी और उनके बच्‍चों के साथ जुड़ा हुआ नहीं पाता था, क्‍योंकि उन सबका व्‍यवहार जगदीश के प्रति एक नौकर और मजदूर से ज्‍यादा नहीं था․ साल में शायद एक जोड़ी कपड़े उसके लिए खरीदे जाते हों, खाने के लिए भी उसे चौके पर नहीं बुलाया जाता था; बल्‍कि भाभी खाने की थाली बाहर ही चौपाल में रख जाती थीं․ वह अपने ही सगों के बीच पराया था और उनके इस तरह के व्‍यवहार से वह अक्‍सर क्षुब्‍ध हो जाता, लेकिन मन ही मन आक्रोशित होने के सिवा उसने कभी अपने गुस्‍से को किसी के ऊपर प्रकट नहीं किया था․ और भैया-भाभी उसके सीधेपन का लाभ उठाते हुए घर के सारे काम उससे करवाते रहे․ उन्‍होंने कभी यह नहीं समझा कि उनकी पुश्‍तैनी जमीन-जायदाद में जगदीश आधे का हकदार है और जब वो चाहेगा कानूनन आधी सम्‍पत्ति बांटकर अलग हो जाएगा․

गांव में भले आदमियों की भी कमी नहीं थी․ एक दिन शाम के वक्त जब वह खेत से उदास और थका हारा अपने घर की तरफ लौट रहा था तो रास्‍ते में उसका हमउम्र महेश मिल गया․ महेश बचपन में उसके साथ एक ही स्‍कूल में पढ़ा करता था․ जगदीश की पढ़ाई तो अधूरी रह गई, परन्‍तु महेश पढ़-लिखकर सिंचाई विभाग में क्‍लर्क हो गया था․ लखनऊ में उसकी तैनाती थी और लगभग हर रविवार को लखनऊ से अपने घर आ जाता था․ आज संयोग से दोनों की रास्‍ते में मुलाकात हो गई थी․ महेश बड़ी गर्मजोशी से उससे मिला और पूछा, ‘‘क्‍यों यार जगदीश, कैसे हो, कैसी कट रही है? मजे में तो हो?''

‘‘कहां यार․․․ हम तो जैसे सूखे सावन वैसे भरे भादों․ तुम तो मजे से लखनऊ में नौकरी कर रहे हो․ मैं तो यहीं केंचुए की तरह मिट्‌टी खोदने में लगा हुआ हूं․'' महेश उसकी स्‍थिति से अवगत था और जानता था कि शादी न हो पाने के कारण वह उदास और परेशान रहता था․ उसे समझाते हुए बोला-

‘‘यार अब तो शादी कर लो और अपना अलग घर बसाओ․ भैया-भाभी के साथ कब तक रहोगे? उनका अपना घर-परिवार है․ शादी कर लोगे तो मजे से अपनी पत्‍नी और बच्‍चों के साथ रहोगे․ कोई खिटपिट नहीं रहेगी․''

जगदीश के मन में एक कसक उठी और उसने परकटे पंछी की तरह कातर दृष्‍टि से महेश के चेहरे की तरफ ताका․ महेश को उसके चेहरे पर छाई हुई हताशा की परछाई ने हिला दिया․ वह जगदीश के मन का दुःख समझ गया․ बोला, ‘‘क्‍या भैया-भाभी तुम्‍हारी शादी के लिए प्रयत्‍न नहीं करते?''

‘‘पता नहीं, लड़की वाले तो देखने आते हैं परंतु पता नहीं भैया-भाभी बाद में चुपके से उनसे क्‍या कहते हैं कि वे साफ मना करके चले जाते हैं․ आज तक पता नहीं कितने लड़की वाले देखने आये और देखकर चले गए․ कहीं बात पक्‍की नहीं हुई․''

महेश कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘मुझे तो लगता है तुम्‍हारी शादी न करने के पीछे तुम्‍हारे भैया-भाभी का कोई बहुत बड़ा कारण है․ किसी कारणवश ही वे तुम्‍हारी शादी नहीं होने दे रहे हैं․''

जगदीश चौंका और हैरानी से बोला, ‘‘भला भैया-भाभी मेरी शादी क्‍यों नहीं होने देना चाहते? मैं तो उनका सगा छोटा भाई हूं․ मुझसे उनकी क्‍या दुश्‍मनी?''

‘‘यही तो सबसे बड़ा कारण है․ देखो! मैं पक्‍का तो नहीं कह सकता, किन्‍तु यह मेरा अनुमान है और यह लगभग सत्‍य है․ तुम दोनों सगे भाई हो और लगभग 25-30 बीघा जमीन के काश्‍तकार․․․ इतनी जमीन कम नहीं होती है․ बेचने पर कम से कम 30-35 लाख की जायदाद है․ तुम सोचो अगर तुम्‍हारी शादी हो जाएगी तो निश्‍चित तौर पर तुम अपने भैया से अलग हो जाओगे․ तब तुम्‍हारे पूर्वजों की यही जमीन तुम दोनों भाइयों के बीच में आधी-आधी बंट जाएगी․''

‘‘लेकिन इससे क्‍या?''

‘‘तुम एकदम एकदम बुद्धू हो․ तुम्‍हारी इसी बेवकूफी का फायदा तुम्‍हारे भैया-भाभी उठा रहे हैं․ सोचो अगर तुम्‍हारी शादी नहीं होगी तो तुम्‍हारे बच्‍चे भी नहीं होंगे․ तुम जीवन भर अकेले रहोगे․ जब तुम अकेले रहोगे तो किस के साथ रहोगे․․․? अपने भैया-भाभी के साथ ही ना․ अकेले रहने पर तुम कभी भी अपने भैया से अलग होने के बारे में नहीं सोचोगे․ जब तुम अपने भैया से अलग नहीं होगे तो तुम्‍हारी और तुम्‍हारे भैया की जमीन का कभी बंटवारा भी नहीं होगा․ इस प्रकार इस पूरी जमीन और जायदाद का लाभ किसे मिलेगा? तुम्‍हारे भैया और उनके परिवार को․ तुम्‍हारे अकेले का कितना खर्च होगा, बस तन के दो कपड़े और सुबह-शाम दो रोटी․ बाकी आमदनी तो उन्‍हीं के पास जाती है․ मुझे तो लगता है तुम्‍हारे भैया तुम्‍हारी सम्‍पत्ति के लालच में ही तुम्‍हारी शादी नहीं होने दे रहे हैं․'' महेश ने साफ-साफ बताया․

जगदीश के दिल को एक गहरा धक्‍का लगा․ क्‍या यह सच हो सकता है? क्‍या उसकी जमीन-जायदाद के लालच में उसके भैया और भाभी इतने स्‍वार्थी हो गए हैं कि उसका जीवन बरबाद करने पर तुले हुए हैं․ फिर धीरे से बोला, ‘‘क्‍या यह सच हो सकता है''

‘‘शायद यही सच है, जिसे कोई भी आसानी से मानने को तैयार नहीं होगा; परन्‍तु स्‍वार्थ और लालच में अंधे होकर मनुष्‍य अपने जीवन में ऐसे-ऐसे कर्म करता है कि दूसरे भौंचक्‍के और हैरान रह जाते हैं․''

जगदीश को यह सोचकर अपार दुःख हुआ कि वह जीवन भर कुंआरा रहेगा․ उसका अपना कोई घर-परिवार नहीं होगा, न उसका वंश चलाने वाला कोई बेटा․ वह निरबंसी कहलायेगा․ एक सम्‍पूर्ण पुरुड्ढ के लिए इससे बड़ी दुखदायी बात और क्‍या हो सकती है कि शारीरिक रूप से सक्षम और आर्थिक रूप से सुदृढ़़ होते हुए भी उसकी शादी न हो और वह जीवनभर कुंआरा रहकर भैया-भाभी और उनके बच्‍चों के सहारे जीवन व्‍यतीत करे․ उसका अपना कोई अस्‍तित्‍व ही नहीं रहेगा तो उसके जीवन का अर्थ ही क्‍या रह जाएगा?

उसने महेश को एक याचक की तरह देखा और कहा, ‘‘महेश क्‍या तुम इस मामले में मेरी कोई मदद कर सकते हो?''

महेश ने पूछा, ‘‘कैसी मदद?''

जगदीश ने धीरे-धीरे बताया, ‘‘भाई मैं कमजोर नहीं हूं․ अभी तक रिश्‍तों ने मुझे कमजोर बना रखा था, लेकिन जब अपने सगे ही सांप बनकर मुझे डसने लगें और बिच्‍छू बनकर मेरी चारपाई से चिपककर जीवनभर मुझे डंक मारते रहें तो ऐसे रिश्‍तों को तोड़कर अलग रहने में ही भलाई है․ मैं अब अच्‍छी तरह समझ गया हूं कि सगा भाई होकर मैं अब सगे भाई की गुलामी नहीं करूंगा․ अब मैं अपना जीवन अपने तौर पर जीना चाहता हूं․ मेहनत-मजदूरी से मैं नहीं डरता․ बचपन से लेकर अभी तक मैंने यही किया है․ आप मेरी थोड़ी सी मदद करो, मेरे लिए कोई लड़की तलाश करो․ मैं स्‍वयं तो यह काम नहीं कर सकता․ कैसी भी लड़की हो, कुंआरी हो या विधवा, मैं किसी भी लड़की से शादी करने के लिए तैयार हूं․ एक बार रिश्‍ता तय हो जाए, फिर मैं भैया से बात करता हूं, अगर वो आसानी से मान गये तो ठीक है; वरना फिर बंटवारा होने के अलावा और कोई रास्‍ता मेरे पास नहीं रहेगा․''

‘‘बहुत अच्‍छे मेरे भाई जगदीश, अब मुझे पता चला कि तुम तन से ही नहीं मन से भी एक सच्‍चे मर्द हो․ आदमी को कभी भी दूसरों के साये में नहीं जीना चाहिए, वह बौना हो जाता है․ मैं जल्‍दी ही तुम्‍हारे लिए कोई लड़की तलाश करता हूं, तब तक तुम अपने मन की बात मन में ही रहने देना․''

उस दिन पहली बार जगदीश के मन में खुशी की एक लहर दौड़ी․ खेतों में लहलहाते पौधे उसे खुशी से झूमते हुए लगे․ आकाश में उड़ते हुए पंछी उसे मधुर गीत गाते हुए लगे․ उसने ऊपर आसमान की तरफ देखा․․․ स्‍वच्‍छ, साफ और निर्मल․․․ आसमान का नीला रंग उसने अपनी आंखों में भर लिया․ बड़ा अच्‍छा लगा․ ऐसा लगा जैसे प्‍यार के बहुत सारे रंग उसके मन में समा गए हों․ घर की तरफ बढ़ते हुए उसके कदमों में तेजी आ गई․

घर पहुंचकर उसने पहली बार खुशी-खुशी अपने सारे काम निपटाए और उसे थकान का लेड्ढमात्र भी अनुभव नहीं हुआ․ पहली बार उसकी समझ में आया कि जब मनुष्‍य के मन में प्‍यार के रंग भरते हैं तो एक खुशनुमा अहसास उसके मन में तैरने लगता है․ तब दुनिया के सारे कष्‍ट फूलों की तरह हल्‍के हो जाते हैं․

उस रात उसको सुख की नींद आई․

महेश ने जगदीश की बात रख ली और उसके लिए जल्‍द ही एक लड़की ढूंढ़ निकाली․ लड़की उसके ससुराल की थी और विधवा थी․ उम्र ज्‍यादा नहीं थी, बस बाईस-तेईस साल से ज्‍यादा की नहीं थी․ दुर्भाग्‍यशाली थी․ धूमधाम से शादी हुई थी, बाजे-गाजे के साथ विदा होकर ससुराल भी गई थी․ ससुराल में खुश थी, परन्‍तु शादी के एक साल बाद ही उसके पति की सांप काटने से मृत्‍यु हो गयी थी․ जवान विधवा का ससुराल में तभी गुजारा होता है, अगर उसकी शादी उसके किसी देवर से कर दी जाए, परन्‍तु उसका कोई देवर नहीं था․ ससुराल वाले उसे ताने देने लगे․ अन्‍ततः उसके बापू उसे विदा कराके वापस घर ले आए․ ऐसे जैसे वह कभी शादी करके विदा ही नहीं हुई थी․ तब से वह मायके में ही थी․

महेश यूं तो सरकारी मुलाजिम था․ उसके पास रविवार छोड़कर कोई छुट्‌टी नहीं थी, परन्‍तु जगदीश की दयनीय स्‍थिति और एकाकीपन देखकर वह द्रवित हो गया था․ उससे मिलने के बाद जब लखनऊ आया तो अपनी पत्‍नी से बात की․ उसकी पत्‍नी ने अपने मायके की कई लड़कियों के बारे में सोचा, फिर उसने रेवा के बारे में बताया․ महेश अगले रविवार के दिन ससुराल जा पहुंचा, सास-ससुर से बात की और फिर रेवा के मां-बाप तथा उसके अन्‍य घर वालों से मिलकर बात की․ सभी राजी हो गये․ वस्‍तुतः रेवा जैसी विधवा के लिए जगदीश सबसे उपयुक्‍त वर था․ पुश्‍तैनी जमीन-जायदाद थी, खाने-पीने का सुख था․ एक लड़की के घरवालों को और क्‍या चाहिए था․

महेश ने जब गांव जाकर जगदीश को रेवा के बारे में बताया और उसका मेले में खींचा गया एक फोटो भी दिखाया तो उसकी खुशी का पारावार न रहा․ उसके मुंह से कोई बोल न फूटा․ लज्‍जा और संकोच से उसका सिर झुक गया․

‘‘वाह! क्‍या बात है? ऐसे शरमा रहे हो, जैसे तुम्‍हारी दुल्‍हन तुम्‍हारे सामने खड़ी हो․ जब शादी के बाद सुहागरात में मुलाकात होगी, तब कैसे सामना करोगे?''

‘‘तुम भी न यार! कैसी बात करते हो?''

‘‘क्‍यों, इसी बात के लिए तो तुमने मुझसे कहा था․ अब लड़की ढूंढ़ दी है, जाकर अपने भैया-भाभी से बात करो․ मैं कल शाम तक रुकूंगा․ जैसा हो मुझे बताना, फिर आगे रेवा के घरवालों को भी तो खबर करनी है․''

‘‘ठीक है, मैं आज ही रात में बात करूंगा․''

जगदीश के भैया-भाभी से अपनी शादी की बात करना आसान न था․ वह शरीर से जितना मजबूत और बलवान था, मन से उतना ही कमजोर․․․ भैया उमर में भी उससे काफी बड़े थे․ उनके सामने कभी जुबान नहीं खोलता था․ अगर कभी बोलने का मौका मिला भी तो भाभी उसकी जुबान दबा देती थीं, परन्‍तु आज तो उसे बात करनी ही होगी․ नहीं करेगा, तो जीवन भर कुंआरा बैठा रहेगा․ शाम से ही वह हिम्‍मत बांध रहा था․ जानवरों को चारा-सानी करने के बाद वह दरवाजे पर बैठ गया․ भैया जब बाहर से आए तो उसने दबी जुबान में कहा, ‘‘भैया मुझे एक बात कहनी है․''

‘‘आंय,'' रजनीश ठिठककर खड़ा हो गया․ एक पल जगदीश के भोले और घबराए हुए चेहरे को देखा और पूछा, ‘‘क्‍या बात है?''

जगदीश का हृदय बेतहाशा धड़क रहा था․ वह समझ नहीं पा रहा था कि उसके दिल में यह भयंकर सांय-सांय क्‍यो हो रही थी․ फिर भी उसने अपनी सांसों को काबू में करते हुए कहा, ‘‘भैया, अब मैं बड़ा हो गया हूं․ मैं चाहता हूं कि मेरा भी घर-परिवार हो․ आप․․․''

रजनीश ने उसकी बात काट दी, ‘‘अच्‍छा, तुम शादी करोगे․ किसलिए․․․? बच्‍चे पैदा करने के लिए․․․ अजी सुनती हो, यह देखो जगदीश क्‍या कह रहा है?'' रजनीश ने जोर से पत्‍नी को आवाज दी․ वह उल्‍टे पैर भागती हुई दरवाजे के पास आकर देहरी से लगकर खड़ी हो गयी और उत्‍सुकता से दोनों भाइयों को देखने लगी․ रजनीश के चेहरे पर एक व्‍यंग्‍यात्‍मक और विदू्रप हंसी बिखरी थी, वही दूसरी तरफ जगदीश के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं जैसे उसने किसी की हत्‍या कर दी हो․ भाभी के आने से वह और ज्‍यादा घबरा गया था․

‘‘क्‍या हुआ?'' रजनीश की पत्‍नी ने पूछा․

‘‘यह मिट्‌टी का माधो शादी करेगा․'' रजनीश ने जैसे अपने छोटे भाई की खिल्‍ली उड़ाते हुए कहा․

‘‘आय हाय, यह मुंह और मसूर की दाल․․․ मेढकी को भी जुखाम होने लगा․ शकल-सूरत देख ले पहले अपनी आईने में, फिर शादी के बारे में सोच․ कोई लड़की वाला तैयार भी है कि किसी मिट्‌टी की मूरत से शादी करेगा․''

रजनीश जोर से हंस पड़ा․ साथ में उसकी पत्‍नी भी․․․ जगदीश के सीने में एक आग जल उठी․ अभी तक तो वह घबराया हुआ था, परन्‍तु अपने ही सगे भाई-भाभी के इस तरह के उपेक्षित और घृणित व्‍यवहार से उसका दिल जल उठा․ आदमी कितना भी मजबूर क्‍यों न हो, कभी न कभी परिस्‍थितियां उसे लड़ने पर अवश्‍य बाध्‍य कर देती हैं․ इतने दिनों का दबा आक्रोश धीरे-धीरे अपना फन उठाने लगा था․ उसके चेहरे के भाव बदलने लगे․ उसने अपना सिर ऊपर उठाया और आंखों में आग भरकर बोला, ‘‘भैया, आप मुझसे बड़े हैं․ मैं आपकी इज्‍जत करता हूं, परन्‍तु मैं देख रहा हूं कि जबसे मैं बड़ा हुआ हूं, आप लोगों ने कभी भी मुझे छोटे भाई का प्‍यार नहीं दिया․ सदा मुझसे नौकरों जैसा व्‍यवहार किया․ अपने ही घर में मैं इतनी बेइज्‍जती बर्दाश्‍त करता रहा, केवल यह सोचकर कि आप मेरे सगे बड़े भाई हैं․ एक दिन आपको अपनी गल्‍ती का एहसास होगा, परन्‍तु नहीं․ आप तो मेरी शादी तक नहीं होने दे रहे; ताकि मैं अपना हिस्‍सा लेकर अलग न हो जाऊं․ लेकिन अब मैं कुछ भी बर्दाश्‍त करने वाला नहीं हूं․ आप मेरा हिसाब कर दीजिए․ मैं आपके साथ नहीं रह सकता, अपना अलग घर बसाऊंगा․''

जगदीश पहली बार अपने भाई-भाभी के सामने इतना ज्‍यादा बोला था․ दोनों भौंचक रह गये․ एक दूसरे की तरफ देखा और सांकेतिक भाड्ढा में कोई बात की․ फिर उसकी भाभी ऐंठती हुई बोली, ‘‘तुम्‍हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है․ जाओ, शादी करना हो तो कर लो, परन्‍तु तुम्‍हारा इस घर में क्‍या है? सब कुछ हमारा है, इसमें तुम्‍हारा कोई हिस्‍सा नहीं है․ तुम इस घर में एक नौकर की हैसियत से काम करते हो और तुम्‍हें उसकी एवज में खाना-खुराक, रात में सोने के लिए छत और तीज-त्‍योहार में दो कपड़े मिल जाते हैं․ इसके अलावा तुम्‍हें और क्‍या चाहिए? अब इतने में तुम्‍हें संतोड्ढ नहीं है, तो जाओ जहां मन करे, रहो․'' और वह ऐंठती हुई घर के अंदर चली गयी․

रजनीश ने और आगे स्‍पष्‍ट करते हुए कहा, ‘‘अकल के कोल्‍हू, तेरी समझ में कुछ आया या नहीं․ इस घर में तेरा कोई हिस्‍सा नहीं है․ आज से तेरा खाना भी बंद․․․ रहना हो तो घर-बाहर के काम करो, वरना बाहर का रास्‍ता तुम जानते ही हो․''

‘‘तो तुम मेरा हिस्‍सा हड़प कर जाना चाहते हो?'' जगदीश ने दबी हुई चीखती सी आवाज में केवल इतना ही कहा․ इतनी बड़ी बात सुनकर तो उसके होश ही ठिकाने न रहे थे․ सोचने-समझने की शक्‍ति गायब हो गयी थी․

‘‘जो चाहे समझ लो, परन्‍तु इस घर में तुम्‍हारा कोई हिस्‍सा नहीं है․'' जोर से कहता हुआ वह घर के अंदर घुस गया और अंदर से दरवाजा बंद लिया․ जगदीश के लिए जैसे सारी दुनिया के दरवाजे बंद हो गये थे․ रास्‍तों के आगे दीवारें खड़ी हो गयी थीं․ सूरज दिन में ही अस्‍त हो गया था और रात के चांद को राहु ने ग्रस लिया था․ उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया और बड़ी मुश्‍किल से वह अपने आपको मूर्छित होने से बचा पाया․

आंखों में अंधेरा भरा था और पांवों में सैकड़ों मन के भारी पत्‍थर बंधे थे․ धरती में चारों तरफ कांटे बिखरे हुए थे और आसमान अंधेरे में भी आग उगल रहा था․ ऐसी स्‍थिति में एक बेचारा, बेसहारा और असहाय जगदीश करे तो क्‍या करे, कहां जाए? किससे फरियाद करे? कोई भी तो उसे अपना नजर नहीं आ रहा था․ जो उसके अपने सगे थे, उन्‍होंने ही उसकी पीठ पर घर के दरवाजे बंद कर दिए थे․ किसी तरह उसने अपने आपको संयत किया, कुछ सोचा-बिचारा और फिर भारी कदमों से महेश के घर की तरफ बढ़ गया․

महेश तब खा-पीकर आराम कर रहा था, परन्‍तु जगा हुआ था․ पास में ही उसके पिता दूसरी चारपाई पर लेटे हए थे․ जगदीश महेश की चारपाई के पास जाकर खड़ा हुआ तो महेश को अहसास हुआ कि वहां पर कोई खड़ा हुआ था․ वह अचकचाकर चारपाई पर बैठ गया और पूछा, ‘‘कौन․․․ जगदीश?''

जगदीश बिना कुछ बोले चारपाई पर धम्‌ से बैठ गया․ महेश ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा, ‘‘क्‍या हुआ जगदीश?'' उसे कुछ अनहोनी की आशंका हो रही थी․ उसके दिल में भी घबराहट पैदा हो गयी थी․

जगदीश काफी देर तक कुछ नहीं बोला․ बस धीरे-धीरे सुबकने लगा․ महेश ने उसे पानी पिलाया और सांत्‍वना दी․ उसे कुछ देर तक वैसे ही रहने दिया․ जब वह कुछ सामान्‍य हुआ तो फिर उसने पूछा, ‘‘अब बताओ, क्‍या हुआ है? यूं तो मैं कुछ-कुछ समझ सकता हूं, परन्‍तु तुम अपने मुंह से बताओगे तो सारी बातें साफ हो जाएंगी․''

जगदीश ने आपबीती कह सुनाई․ सुनकर महेश ने एक निःश्‍वास भरा, ‘‘मुझे इसकी आशंका थी․ तुम्‍हारे भैया बहुत चतुर और चालाक हैं․ तिस पर तुम्‍हारी भाभी तो और भी विड्ढ की बेल है․ मुझे लगता है, किसी तरह उन्‍होंने सारी जमीन-जायदाद अपने नाम कर ली है․ इसीलिए खुलकर तुमसे कह दिया है कि उस घर में तुम्‍हारा कोई हिस्‍सा नहीं है․ समय कम है․ मुझे भी कल शाम लखनऊ जाना है․ तुम एक काम करो․ अच्‍छा, मैं भी तुम्‍हारे साथ चलता हूं․ चलो उठो, अब देर करना उचित नहीं है․''

जगदीश की समझ में कुछ न आया, परन्‍तु वह उठकर खड़ा हो गया․ महेश ने तुरत-फुरत पायजामे के ऊपर कुर्ता डाल लिया और दोनों अंधेरे में ही गांव के अन्‍दर की तरफ चल पड़े․ सौभाग्‍य से सभी लोग जागते हुए मिल गये․ सबसे पहले ग्राम प्रधान को बताया गया और फिर गांव के सभी संभ्रात और बुजुगोंर् को इस बात से अवगत कराया गया कि कल सुबह जगदीश के घर के सामने पंचायत है․ दोनों भाइयों के बीच संपत्ति को लेकर कुछ विवाद है, उसी के बारे में पंचायत करनी है․

दूसरे दिन पंचायत जुटी․ सारे पंच यथा स्‍थान बैठ गए थे․ गांव के लोग भी पंचायत का फैसला सुनने के लिए वहां इकट्‌ठा हो गए थे․ जगदीश महेश के पास बैठा था․ रजनीश बुलाने पर भी काफी देर से आया था․ इस बात पर पंच काफी खफा थे, परन्‍तु उन्‍होंने कहा कुछ नहीं․ सभी जानते थे कि मुफ्‍त का माल मिलने पर आदमी घमंडी हो जाता है․

पंचायत की काररवाई शुरू हुई․ ग्राम एवं पंच प्रधान रामधारी सिंह ने कहा, ‘‘यह पंचायत रजनीश के भाई जगदीश ने बुलाई है․ उसका कहना है कि उसके और उसके बड़े भाई के बीच जमीन-जायदाद को लेकर कुछ विवाद है․ अब वह अपने मुंह से कहेगा कि असल बात क्‍या है?''

महेश ने जगदीश को हौसला दिया और वह उठकर सारे पंचों की तरफ हाथ जोड़कर बोला, ‘‘पंचों, आप देख ही रहे हैं कि मैं अब सत्‍ताइस-अठ्‌ठाइस बरस का हो गया हूं, दिन रात खेतों में काम करता हूं․ भैया कभी भूलकर भी खेतों की तरफ नहीं जाते, परन्‍तु सारी पैदावार खुद बेच डालते हैं․ उसका पैसा वह क्‍या करते हैं, मुझे नहीं मालूम․ अभी तक मेरी शादी नहीं की․ मैं दिनों-दिन बूढ़ा हो रहा हूं․ आप ही बताइए, क्‍या मेरा घर-परिवार नहीं होना चाहिए? कल शाम मैंने भैया से शादी की बात की, तो उन्‍होंने भाभी के साथ मिलकर मेरी खिल्‍ली उड़ाई और जब मैंने कहा कि मेरा हिस्‍सा देकर मुझे अलग कर दें, जिससे मैं अपना घर बसा सकूं तो उन्‍होंने साफ इंकार कर दिया कि पुश्‍तैनी घर और जायदाद में मेरा कोई हिस्‍सा है․''

पंचों के लिए ही नहीं, गांव वालों के लिए भी यह नई बात थी․ सब हैरानी से एक दूसरे का मंह देखने लगे․ पंचों ने कुछ पल सोचा, फिर एक दूसरे से सलाह करते हुए रामधारी सिंह ने रजनीश ने कहा, ‘‘तुम बताओ, रज्‍जू, ऐसा तुमने क्‍यों कहा? बाप की संपत्ति में तो बेटों को बराबर का हक होता है․''

रजनीश जैसे पूरी तैयारी करके आया था․ उसके मन में कोई संकोच और दुविधा नहीं थी․ वह उठकर खड़ा हुआ और चारों तरफ गर्व भरी निगाह से देखता हुआ बोला, ‘‘पंचों, आपका कहना सत्‍य है कि बाप की संपत्ति में बेटों को बराबर का हक होता है, परन्‍तु हमारे बापू के नाम पर कोई जमीन नहीं है․ जो भी जमीन जायदाद है, वह मेरे नाम है․ जब हमारे पिता के नाम कोई जायदाद ही नहीं तो उसमें जगदीश का हिस्‍सा कैसे हो सकता है?''

‘‘क्‍या कहते हो तुम?'' सभी लोग हैरान थे․

‘‘हां, मरने के पहले ही बापू ने सारी जमीन-जायदाद और घर मेरे नाम कर दिया था․ उसमें जगदीश का एक पैसे का भी हिस्‍सा नहीं है․ वह तो भाई के नाते मैं अपने पास रखे हुए थे, वरना कभी का उसे घर से निकाल देता․'' उसके चेहरे पर एक कुटिल मुसकान तैर रही थी․ उसने गर्व और विजय के भाव से सारे गांव वालों की तरफ फिर एक निगाह फेरी जैसे ललकार रहा हो कि है कोई माई का लाल जो मेरी बात का जवाब दे․

सभी हैरान थे․ रजनीश का बाप इतना निष्‍ठुर नहीं हो सकता था कि छोटे बेटे का हिस्‍सा भी बड़े भाई के नाम कर जाए․ छोटा लड़का तो बहुत प्‍यारा था उसे․ फिर उसने अपने जीते-जी ऐसा क्‍यों किया? छोटे भाई के पेट में लात मारकर बड़े भाई के नाम सब कुछ कर दिया․ उसे जीवन भर के लिए भिखारी बना दिया․ किसी की समझ में यह बात नहीं आ रही थी․ फिर पंचों ने पूछा-

‘‘गोवर्धन तो अपने दोनों बेटों को बहुत चाहता था, फिर ऐसा कैसे कर गया वह? क्‍या तुम्‍हारे पास कोई कागजात हैं जिससे यह साबित हो कि वह अपनी सारी संपत्त्‍ति तुम्‍हारे नाम कर गया था?'' पंचों ने रजनीश से पूछा․ जगदीश से अब कुछ पूछने का सवाल ही नहीं था․ वह तो लुटा हुआ मुसाफिर था․

‘‘हां, हां, क्‍यों नहीं?'' उसने मुस्‍तैदी से जेब में रखे कुछ कागज निकाले और पंचों के सामने फैलाकर रख दिए, ‘‘देखिए, जमीन मेरे नाम है कि नहीं․''

पंचों ने गौर से सारे कागजातों का निरीक्षण किया․ फिर प्रधानजी बोले, ‘‘परन्‍तु यह तो खसरा-खतौनी हैं․ इसके मुताबिक तो जमीन तुम्‍हारे नाम है, परन्‍तु इससे यह कहां साबित होता है कि तुम्‍हारे पिताजी यह सारी जमीन तुम्‍हारे नाम लिखा गये थे․''

‘‘उन्‍होंने कोई वसीयत नहीं की थी, परन्‍तु मरते समय मुझसे कह गये थे कि मैं सारी जमीन अपने नाम करवा लूं, क्‍योंकि जगदीश तब नाबालिग था․ वह मेरे साथ रहकर अपना जीवन गुजार लेगा․''

रजनीश बिना किसी संकोच और शर्म के इतना बड़ा झूठ बोल रहा था․ सभी की आंखें उसकी बेगैरती और झूठ पर फटी जा रही थीं․ पंच भी उसकी चालाकी समझ रहे थे, परन्‍तु क्‍या कर सकते थे․ बोले, ‘‘हमें तो नहीं लगता कि तुमने अपने बापू के कहने पर सारी पुश्‍तैनी जमीन अपने नाम करवा ली है․ तुमने जगदीश के भोलेपन का फायदा उठाया और लेखपाल से मिलकर सारी जमीन अपने नाम करवा ली․ इस तरह छोटे भाई का हक मारकर तुमने अच्‍छा नहीं किया, रजनीश!''

‘‘मैंने किसी का हक नहीं मारा․'' रजनीश उसी बेशर्मी से बोला, ‘‘आज के बाद जगदीश का मेरे घर से कोई वास्‍ता नहीं है․ भरी पंचायत में उसने मेरी पगड़ी उछाली है․ मैं अब उसे अपने घर में नहीं रख सकता․ वह चाहे जहां चला जाए, मेरा उससे कोई रिश्‍ता नहीं है․'' उसने कागजात उठाकर अपनी जेब में रख लिए․

इतना सब सुनने के बाद जगदीश के सारे हौसले पस्‍त हो गए थे․ तन-बदन की जान निकल गयी थी और उसकी जुबान पर ताले पड़ गये थे․

पंचों ने कहा, ‘‘रजनीश हम सब समझ रहे हैं․ तुमने अपने भाई से बेईमानी की है और छल-कपट करके उसके हिस्‍से को मारा है․ कागजात देखने से ही पता चलता है कि अपने बाप के मरने के तुरन्‍त बाद तुमने जमीन अपने नाम नहीं करवाई है․ तुम्‍हारे बाप को मरे लगभग चौदह-पन्‍द्रह साल हो चुके हैं, जबकि जमीन तुमने अपने नाम केवल पांच साल पहले करवाई है․ इसका मतलब है कि बाप मुंहजबानी भी तुम्‍हारे नाम कोई वसीयत नहीं कर गया था․ तुम्‍हारे मन में बेईमानी और छल-कपट का भाव तब आया होगा, जब जगदीश जवान हो गया और उसके लिए शादी के रिश्‍ते आने लगे․ तब तुम्‍हें लगा होगा कि इसकी शादी हो जाएगी तो यह जमीन में अपना हिस्‍सा लेकर अलग हो जाएगा․ तभी तुम उसकी शादी में अडंगे लगाते रहे और उसकी शादी नहीं होने दे रहे थे․ इसी बीच तुमने लेखपाल से सांठ-गांठ करके सारी जमीन अपने नाम करवा ली․''

लोग जानते थे, यही सच था․ परन्‍तु रजनीश इसे मानने को तैयार नहीं था․ पंचों ने समझाया कि अगर वह अभी भी जगदीश का हिस्‍सा उसे दे दे तो कुछ नहीं बिगड़ा, वरना कचहरी के दरवाजे उसके लिए खुले हैं․ उन्‍होंने जगदीश की तरफ देखा और उससे पूछा कि वह क्‍या चाहता है?

जगदीश ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘पंचों, मैं कुछ नहीं चाहता․ भैया की नीयत जैसी है, वैसी उन्‍हें बरक्‍कत मिलेगी․ अब जब सब कुछ साफ हो चुका है․ भैया ने पिता की सारी सम्‍पत्ति अपने नाम करवा ली है․ किसी भी तरह से मुझे उसमें कोई हिस्‍सा नहीं देना चाहते हैं, तो मैं भी किसी कोर्ट-कचहरी के चक्‍कर में नहीं पड़ूंगा․ मेरे पास अपनी तकदीर है, मेहनत और मजदूरी है․ काम करूंगा तो भूखा नहीं मरूंगा․ भैया और उनका परिवार सुखी रहे, यही मेरी कामना है․''

‘‘क्‍या कह रहे हो जगदीश, तुम इस तरह अपने को अकेला मत समझो․ मैं तुम्‍हारे साथ हूं․ इतनी बड़ी बेईमानी को हम कोर्ट में चुनौती देंगे․ इतनी आसानी से तुम्‍हारे भैया तुम्‍हारा हक नहीं मार सकते․'' महेश ने जोर देकर कहा․

‘‘नहीं महेश, मैं जानता हूं, तुम मेरे लिए कुछ भी कर सकते हो, परन्‍तु मेरा मन ही नहीं मानता कि मैं अपने भाई के खिलाफ मुकदमा लड़ूं․ वह अगर बेईमानी करके खुश हैं, तो मैं मुकदमा लड़कर कभी सुखी नहीं रह सकता․''

‘‘देख लिया रजनीश तुमने अपने भाई को․․․ एक तुम हो कि बड़े होकर छोटे का हक मारते हुए भी तुम्‍हें एक पल के लिए भी संकोच और लज्‍जा नहीं आई․ और एक वह है, जो अब भी तुम्‍हारा बुरा नहीं चाहता․ सोच लो, बुराई का अंत भलाई में कभी नहीं होता․ आज नहीं तो कल तुम्‍हें इस बेईमानी का फल भुगतना पड़ेगा․'' पंच परमेश्‍वर ने अंत में कहा․ परन्‍तु रजनीश के ऊपर कोई असर नहीं हुआ. वह हिकारत से सबको देखता हुआ अपने घर की तरफ रवाना हो गया․ पंचायत के पास भी अब करने के लिए कुछ नहीं बचा था․ सब उठ खड़े हुए और अपने-अपने घर जाने के लिए उद्यत हुए․ कुछ ने रजनीश को भला-बुरा कहा, कुछ ने जगदीश को सांत्‍वना दी․

पंचायत समाप्‍त हो गयी․

दिन चढ़ आया था․ सूरज की तेज रोशनी से सब कुछ जगमग हो रहा था․ प्रकृति की हर शै पर जीवन के रंग अपनी छटा बिखेर रहे थे, परन्‍तु जगदीश के जीवन के सारे रंग धुंधले हो चुके थे․ सारे रिश्‍ते बेमानी हो गये थे․ उसके दिल पर बर्फ जमा हो गयी थी․

लोग अपने-अपने घर चले गये․ पंचायत की जगह पर केवल वह बचा था और उसकी बगल में महेश खड़ा था जो स्‍वयं कुछ कह पाने की स्‍थिति में नहीं था․ वह जगदीश के हृदय के अंन्‍दर मचल रहे तूफान को महसूस कर सकता था, परन्‍तु उससे किसी को बचा नहीं सकता था․

जगदीश उठा और धीरे-धीरे कदमों से गांव के बाहर की तरफ चला तो महेश भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा․ ऐसी हालत में वह जगदीश को अकेला नहीं छोड़ सकता था․ कुछ देर बाद जगदीश ने कहा, ‘‘महेश भाई, मुझे बहुत दुःख है कि मैं अपनी बात नहीं रख सका․ मेरे कहने पर तुमने मेरे लिए एक लड़की ढूंढ़ी और मैं अपना कहा पूरा न कर सका․''

‘‘ऐसा क्‍यों कहते हो, जगदीश! जीवन में धन-सम्‍पत्ति चले जाने से मुनष्‍य खत्‍म नहीं हो जाता․ तुम गांव से बाहर जाकर देखो, दुनिया में एक से एक गरीब आदमी हैं․ उनके जीवन में कष्‍ट ही कष्‍ट हैं, परन्‍तु हंसी-खुशी जीवन गुजार रहे हैं․''

‘‘हो, सकता है, ऐसा हो, परन्‍तु अब मैं शादी नहीं कर सकता․ जब मेरा ही कोई सहारा न हो तो एक लड़की को जीवन में क्‍या सुख दूंगा․ तुम लड़की वालों को मना कर दो․ अब मैं अकेले अपना जीवन गुजारना चाहता हूं․''

‘‘इतनी जल्‍दी हिम्‍मत मत हारो, जगदीश․ तुम अभी रेवा से मिले नहीं हो․ वह बहुत ही अच्‍छी और सुशील लड़की है․ वह पति के दुःख और सुख के साथ जीना जानती है․ अकेले तुम जीवन से हार जाओगे․ रेवा का साथ रहेगा तो तुम्‍हारे जीवन में खुशियों के रंग बिखर जाएंगे․ तुम स्‍वस्‍थ हो, मेहनती हो․ मुझे पूर्ण विश्‍वास है कि रेवा का साथ पाकर उसकी पे्ररणा से तुम अपने जीवन को खुशमय बना सकते हो․ मेहनती आदमी न तो कभी भूखा सोता है, न भूखा मरता है․''

‘‘मैं मेहनत तो कर सकता हूं, दो वक्‍त की रोटी भी जुटा सकता हूं, परन्‍तु एक पत्‍नी की भोजन के अलावा अपनी कुछ इच्‍छाएं और लालसाएं होती होंगी․ मेरे साथ रूखे-सूखे जीवन से उसे क्‍या प्राप्‍त होगा․ मैं बहुत सारी खुशियां उसे कहां से लाकर दूंगा․''

‘‘बेवकूफ, जीवन में बहुत सारी चीजों से ही खुशियां नहीं आती हैं․ प्‍यार और मोहब्‍बत से भी खुशियां प्राप्‍त होती हैं․ बस जीवन में खाने का अभाव न रहे․''

‘‘क्‍या इतने में रेवा मेरे साथ खुश रह सकती है?'' जगदीश के मन में आशा और उत्‍साह का संचार हुआ․

‘‘हां, मैंने उससे मिलकर उससे सारी बातें जान ली हैं․ अब तुम मेरा कहा मान जाओ, और चलो, आज मेरे घर पर रुको․ कल मैं तुम्‍हें साथ लेकर अपनी ससुराल चलूंगा․ वहां सारी बातें तय करने के बाद तुम्‍हारे लिए एक छोटे से मकान का भी इंतजाम करना है․ चलो अब हंस दो․'' महेश ने मुस्‍कराते हुए उसे मीठी नज़रों से देखा․

जगदीश का मन भर आया․ उसने डबडबायी आंखों से महेश को देखा और उसके सीने से लगकर रो पड़ा, ‘‘मैंने अपना एक भाई खोया है, परन्‍तु तुम्‍हारे रूप में एक दूसरा भाई पा लिया है․ तुम्‍हीं मेरे असली भाई हो, सगे भाई से भी बढ़कर․'' वह भावुक हो गया था․

महेश ने कुछ नहीं कहा, बस उसके सिर पर हाथ फेरकर आश्‍वासन दिया कि जीवन में वह अकेला नहीं है․

---

(राकेश भ्रमर)

24, जगदीशपुरम्‌, लखनऊ मार्ग,

निकट त्रिपुला चौराहा, रायबरेली-229001

--

(चित्र - अमरेन्द्र aryanartist@gmail.com फतुहा, पटना की कलाकृति )

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रचनाकार: राकेश भ्रमर की कहानी - कोल्हू का बैल
राकेश भ्रमर की कहानी - कोल्हू का बैल
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