आईना एक डॉक्टर की डायरी से – डैथ डांसः अंतिम अरदास डॉ. श्रीगोपाल काबरा ( डॉ. श्री गोपाल काबरा वर्तमान में निदेशक, वैधानिक मामले एवं चिक...
आईना
एक डॉक्टर की डायरी से –
डैथ डांसः अंतिम अरदास
डॉ. श्रीगोपाल काबरा
( डॉ. श्री गोपाल काबरा वर्तमान में निदेशक, वैधानिक मामले एवं चिकित्सीय लेखा परीक्षण, एस.डी.. ओ; हास्पिटल के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने ६ वर्ष सर्जन, २५ वर्ष मेडिकल महाविद्यालयों तथा ११ वर्ष हास्पिटल मैनेजमेंट में अध्यापन कार्य किया है। उनके द्वारा लिखित ' एक डॉक्टर की डायरी ' के सत्य प्रमाणित प्रकरणों में प्रस्तुत एक प्रकरण। )
नारायण देवदासन ( २००३ ) और उनके साथियों ने चिकित्सा के एक नये हिंसक रुप को प्रतिपादित किया है जिसको उन्होंने आईट्रोजेनिक पॉवर्टी अर्थात चिकित्सा जनित गरीब। ' की संज्ञा दी है। हारी बीमारी में आपात खर्च को उन्होंने कैटाष्ट्रोफिक हैल्थ केयर एक्सपेंडिचर कहा है। जो गरीब आज महंगी चिकित्सा का खर्च वहन नहीं कर सकते वे चुपचाप मृत्यु का वरण करते हैं और जो घर बार गिरवी रखकर या बेचकर चिकित्सा करवाते हैं- खास कर रोजी-रोटी कमाने वाले परिवार के मुखिया के इलाज के लिए-वे ऋण के पंक में डूब जाते हैं, भूखे मरते हैं, आत्म हत्या करते हैं। चिकित्सा में आपात खर्च गांवों में सदा ही ऋण में डूबने का प्रमुख कारण रहा है जिसमें सर्वे और अनुमान के अनुसार करीब 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। उचित सामाजिक या सरकारी व्यवस्था के अभाव में चिकित्सा जनित गरीबी पारिवारिक हिंसा का रूप ले लेती है। विश्व के गरीब और विकासशील देशों में यह व्यापक रूप में विद्यमान है।
सामान्य आय वाले लोग, बीमार होने पर, जो थोड़ा बहुत पैसा जमा होता है उसे लेकर अस्पताल आते हैं, गंभीर अवस्था होने पर शहर के बड़े अस्पताल में सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के कारण निजी अस्पताल में ले जाते हैं। आधुनिक चिकित्सा वैसे ही काफी महंगी हो गई है। उस पर निजी अस्पताल की व्यवसायिक व्यवस्था में निदान, उपचार और औषधियों का बेतहाशा पैसा लिया जात। है किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है। जो जमा पैसा लेकर आते हैं वह तो भर्ती करवाने पर एडवांस में ही चला जाता है और मरीज के अभिभावकों के पास कोई और उपाय नहीं रहता सिवा इसके कि कर्ज लेकर संपत्ति बेच कर पैसा लायें। मरीज की माली-हालत के प्रति संवेदनहीनता कूर हिंसा का रूप ले लेती है। मरीज को लाभ हो या न हो परिवार उस हिंसा से नहीं बच पाता।
उस महिला को छ : महीने का गर्भ था। बुखार हो गया। दो-तीन दिन गांव में डाक्टर से इलाज करवाया। लाभ नहीं हुआ। फेफडों में संक्रमण हो गया। सांस में तकलीफ होने लगी। डाक्टर ने कह दिया शहर के बड़े अस्पताल ले जाओ। मां और गर्भ में पलते बजे दोनों के जीवन का सवाल। कोई कैसे यथासंभव न करे। पति स्कूल में साधारण मास्टर। बताया प्राईवेट अस्पताल में एडवांस पैसा जमा कराये बिना भर्ती नहीं करते अत : रकम नकद ले कर जायें। साथ ही दवायें भी काफी महंगी होती हैं जो स्वयं को खरीदकर लानी होंगी अत : उसके लिए भी नकद ले जायें, वर्ना परदेश में क्या करोगे। हठात इतनी रकम। किसी तरह व्यवस्था की और लाकर पली को शहर के नामी निजी अस्पताल में भर्ती करवाया। लोगों ने ठीक कहा था, २० हजार रू एडवांस दिये तब भर्ती का कार्ड बना।
सीधा आईसीयू में भर्ती किया गया। गहन चिकित्सा इकाई के माहौल को देखकर पति को लगा पली को अच्छी चिकित्सा मिलेगी। उसे नहीं मालूम था कि वहां के केवल बिस्तर के ही प्रति दिन के चार्जेज 4 हजार रुपये हैं। अगर मालूम भी होता तो क्या, ये तो लगेंगे ही। थोड़ी देर में नर्स ने दवाओं की फेहरिस्त लाकर दी। खरीद कर लाये, डिब्बा भर दवाइयां, हजारों की। जेब में थोडे से रुपये बचे। मरीजों के लिए खाना आया। मरीजों को खाना अस्पताल से दिया जाता है। महिला कुछ भी खाने की स्थिति में नहीं थी लेकिन उसके ३५० रुपये दिन के तो अस्पताल लेगा ही।
उधर पति यह विचार कर खाना खाने भी नहीं गया कि थोड़े से रुपये बचे हैं कहीं और दवाओं के लिए कम न पड़ जायें। डाक्टर ने आकर बताया स्थिति गंभीर है। दोनों ओर के फेफड़े संक्रमित हैं, सांस नहीं ले पा रही है अत: वेंटीलेटर लगाना पडेगा। उन्होंने फार्म दिया कि उस पर अनुमति के हस्ताक्षर कर दें। गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती है, जो गहन चिकित्सा आवश्यक और उचित हो वह करें, मुससे अनुमति किसलिए? नहीं इसके अलग से १००० रु. प्रति दिन के चार्जेज लगेंगे अतः अनुमति आवश्यक है। नहीं तो लिख दीजिये हमें नहीं लगवाना, जो हो उसकी जिम्मेवारी आपकी। थोडी देर में मरीज की बैड हेड टिकट ले कर आये। बताया इलाज से पेट के बच्चे को काफी खतरा है। वह बच नहीं पायेगा। आप लिख कर दीजिये कि आप यह जानकर भी इलाज की अनुमति देते हैं।
मरीज के फेफड़ों की हालत और खराब हो गई। शक हुआ स्वाइन फ्लू न हो। टेस्ट करवाया। पोजीटिव निकला। सरकारी निर्देश और व्यवस्था अनुरुप मरीज को स्वाइन फ्लू के लिए निर्धारित कमरे में शिष्ट कर दिया। सरकारी आदेश के अनुसार कमरे के चार्जेज ८०० रु. प्रतिदिन लेने थे लेकिन मरीज से आईसीयू के ही चार्जेज वसूल किये गये। पेट का बच्चा मर गया। स्वत : गर्भपात हो गया। महिला डाक्टर ने ४००० रुपये। डिलेवरी करवाने के और ३००० रुपये लेबर रूम चार्जेज लगाये जब कि न मरीज की। डिलेवरी करवाई गई थी न ही वह लेबर रूम में ले जाई गई थी। हर बार देखने आने के 250 रुपए महिला चिकित्सक ने अलग से लिए।
स्वाइन फ्लू के संक्रमण काल के सात दिन गुजरने पर मरीज को वापस आईसीयू में शिफ्ट कर दिया जब कि यह आवश्यक नहीं था। स्वाइन फ्लू की कॉम्प्लीकेशन का इलाज यथावत वहां चल सकता था, वेन्टीलेटर, मोनीटर आदि सब वहां थे । स्वाइन फ्लू की जगह अब फेफडों के अस्पताली संक्रमण ने ले ली थी । बदल-बदल कर महंगी एन्टीबायोटिक दवायें मंगा रहे थे लेकिन सुधार नहीं हो रहा था । रोज जब-तब कहते हालत गंभीर है, फेफडे बिलकुल काम नहीं कर रहे । ' प्रोग्नोसिस वेरी ग्रेव '-बचने की संभावना बहुत कम है । दवाओं की फिर पर्ची दी । लेने गया । दुकानदार ने बताया हजारों रुपये की हैं । इतने पैसे नहीं थे । आकर डाक्टर को बताया तो कहा लिख दीजिये दवा नहीं ला सकते, मरीज की हालत की जिम्मेवारी आपकी होगी । वेन्टीलेटर से भी लाभ नहीं हो रहा था । फेफडों की हालत इतनी खराब थी कि आक्सीजन रक्त में पूरी मात्रा में पहुंच ही नहीं पा रही था । रक्त में आक्सीजन की कमी के कारण अन्य अंग प्रभावित हो रहे थे। वेन्टीलेटर लगाया तब बेहोशी की दवा दी थी। रक्तचाप दवायें देने के बावजूद स्थिर नहीं हो पा रहा था। रह-रह कर काफी गिर जाता। अंगों में यथेष्ट रक्त संचार नहीं होने से अंग क्षतिग्रस्त हो जाते। ' प्रोग्नोसिस वेरी वेरी ग्रेव '। अस्पताल ने अंतरिम बिल थमाया-! ५५००० रू. का। लाखों रुपये दवाओं पर खर्च हुए वे अलग।
कर्ज लेकर गहने बेच का, व्यवस्था की थी, और कहां से लाता? अस्पताल ने कहा बिल के पैसे जमा कराइये वरना आगे इलाज नहीं चलेगा। महिला के लाचार पति ने दुखी मन डाक्टर से कहा कि जब आप ' कह रहे हैं इलाज कारगर नहीं हो रहा है, रोगी के बचने की संभावना नहीं है तो फिर वह वेन्टीलेटर हटा दीजिये, हम मरीज को अपनी जिम्मेवारी पर ले जाते हैं। डाक्टर ने मना कर दिया। फेफडे बिलकुल काम नहीं कर रहे मरीज सांस अपने आप नहीं ले सकती, हम वेन्टीलेटर नहीं हटा सकते। वेन्टीलेटर हटाने का मतलब होगा मर्सी किलिंग और इसके लिए उच्चतम न्यायालय ने मना किया है।
मरीज की किडनी ने काम करना बंद कर दिया। अस्पताल के दूसरे विशेषज्ञ को दिखाया। उन्होंने डायलिसिस की सलाह दी। क्या इससे फेफडे ठीक हो जायेंगे? मरीज बच जायेगी? नहीं करवानी तो लिख दीजिये जिम्मेवारी आपकी। प्रभारी डाक्टर रात को देखने को आये तीन गुना से ज्यादा ५०० रुपये विजिट चार्ज लगाया। बताया,' प्रोग्नोसिस इज वेरी वेरी ग्रेव। ' बेहोशी और गहरा गई। न्यूरो फिजिशियन को रेफर किया। उन्होंने जांच कर जो, लिखा और बताया उससे साफ था कि मरीज बेन डेड हो चुकी है। अन्य डाक्टर का भी! यही आंकलन था। लेकिन इलाज चालू रहा। वेन्टीलेटर लगा रहा, दवायें चलती रहीं।; डाक्टर ने कहा जब तक दिल धड़क रहा है हम वेन्टीलेटर नहीं हटा सकते।
उन्होंने तो ' डू नॉट रिसेसिटेट आर्डर ( डी एन आर ) ' लिखने से भी मना कर दिया, जिसका मतलब होता है कि चूंकि मरीज ब्रेन डेड है अतः जब हदय धडकना बंद करे तो सी पी आर कर व्यर्थ उसे वापस चालू करने का प्रयत्न न किया जाय। इसके विपरीत दो दिन बाद जब हृदय गति रुकी तब विधिवत सी पी आर का ' डेथ डांस ' करने के पश्चात् मरीज को मृत घोषित कर ९० हजार रू. का बिल अदा करने को कहा ताकि मृत देह उन्हें सोंपी जा सके।
वरिष्ठ विशेषज्ञ, जिनके अंतर्गत भर्ती की गई थी, जो सारे शरीर के विशेषज्ञ थे, उन्होंने उसी समय बता दिया कि स्थिति गंभीर है और दूसरे रोज कह दिया था प्रोग्नोसिस ग्रेव है, महिला रोग विशेषज्ञ जिसने कहा कि पेट का बच्चा नहीं बचेगा, और नहीं बचा, एनेस्थेटिस जिसने उच्चस्तरीय मोनिटरिंग के लिए सैन्ट्रल वेनस लाइन डाली, डाईबेटोलोजिष्ट जिसने हर दो घंटे शुगर मोनिटर कर कंट्रोल की, नाक से पेट में राइल्स ट्यूब डाली गई जिससे क्या तरल खाना, किस मात्रा में और कब डालना है, डाईटीशियन ने बताया, नेफ्रोलोजिष्ट जिसने बताया कि गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया है, युरोलोजिष्ट जिसने पेशाब की थैली में कैथेटर डाला ताकि पेशाब की मात्रा नापी जा सके, कार्डियोलोजिष्ट जिसने भारीभरकम मशीन से जांच कर लिखा कि इस मृतप्राय : मरीज का हृदय.. भी प्रभावित हो रहा है, न्यूरोलोजिष्ट जिन्होंने बताया कि मरीज ब्रेन डेड है और गहन चिकित्सा इकाई के डाक्टर जिन्होंने मृत मरीज को जिलाने की भरसक कोशिश की, सबने अपनी अपनी फीस ली, कार्य करने के चार्जेज लिए, अस्पताल के चार्जेज लिए और यह सब मरीज के पति की लिखित अनुमति और उसकी जिम्मेवारी पर।
यही है आज की तथाकथित' जीवन रक्षक गहन चिकित्सा की कार्यप्रणाली। मरीज एक सामूहिक सहकारी इकाई है जिसमें हर अंग विशेषज्ञ की अस्पताल की सहभागिता में अपनी एक गुमटी आरक्षित है। इस सामूहिक उपचार ( या अपचार? ) में कितनी चिकित्सा है कितना व्यवसाय? कितना प्रपंच और कितना पाखंड? कौन देखेगा, कोई व्यवस्था नहीं है न किसी प्रकार का नियंत्रण है।
बेचारा पति, चिकित्सकीय व्यवस्था के हाथों लुट गया, बिक गया बरबाद हो गया। अस्पताल मालिक का कहना है कि यह सशुल्क-सेवा अस्पताल है जिसका ४० प्रतिशत रेवेन्यू ऐसे ही मरीजों से आता है, अगर इसे नहीं वसूलेंगे तो वे लुट जायेंगे, अस्पताल कैसे चलेगा। जो कुछ किया गया सब कानून संगत है, लिखित सहमति से किया गया है।
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आपका क्या कहना है? चिकित्सा के इस नए हिंसक रूप के आपके व आपके मित्रों-परिचितों-रिश्तेदारों के अनुभव क्या हैं?
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(प्रेरणा, समकालीन लेखन के लिए – त्रैमासिक, संपादक अरूण तिवारी, संयुक्तांक अप्रैल-जून 11 व जुलाई-सितम्बर 11 से साभार.)
चिकित्सा के पेशे से सेवा भावना तिरोहित होती जा रही है, इसके कई कारण हैं। चिकित्सा शिक्षा मंहगी हो गयी है, एक साधारण आदमी अपने बच्चों को डॉक्टर बनाने के सपने देखना ही छोड़ दे। नर्सिंग होम चलाने के खर्च बहुत अधिक होते हैं। इसकी भरपाई के लिए डॉक्टर धड़ल्ले से मॉल प्रैक्टिस करते हैं। प्रत्येक डॉक्टर किसी न किसी नेता या उच्चाधिकारी का रिश्तेदार या मुंह लगा होता है। इससे शिकायत पर भी कार्यवाही नहीं होती। मृत देह पर भी वेंटीलेटर लगा कर दो दिन का चार्ज वसुलने का मामला कुछ दिनों पहले प्रकाश में आया था।
जवाब देंहटाएंगरीब की मौत तो वैसे भी होनी ही है, पर सर्टीफ़िकेट धारी लूटेरे कोई कसर नहीं छोड़ते मरीज को उपर पहुंचाने में।
शर्मनाक स्थिति का खुलासा करती इस सच्ची कहानी के लिये बधाई स्वीकारें। चिकित्सा व्यवस्था के महंगे और व्यवसायिक होने के दुष्परिणाम - आम आदमी बेमौत मर रहा है। विकसित देशों की अच्छाइयाँ तो कभी सीखी नहीं, हमारी व्यवस्था और प्रशासन उनकी बुराइयाँ अवश्य अपना रहे है। पश्चिम में चिकित्सा महंगी भले ही हो परंतु सरकारी नियमों द्वारा प्रत्येक ज़रूरतमन्द को उसकी उपलब्धता निश्चित की गयी है। हमारे यहाँ तो प्रशासनिक और नियामक संस्थायें स्वयं राम-भरोसे चल रही हैं। जो देश आज़ादी के 6 दशक बाद भी ग़रीब के बच्चे को प्राथमिक शिक्षा तक सुनिश्चित नहीं करा सका उसके चिकित्सा रेगुलेशन तो महिषासुर-भरोसे ही होने हैं।
जवाब देंहटाएंदर्दनाक...
जवाब देंहटाएंसिर्फ़ मानवता के लोप होने का प्रश्न है यह और कुछ नहीं --न चिकित्सकीय सेवा का, न अस्पतालों का, न दवाओं का...सभी स्थानों पर वही मनुष्य ही तो होता है ....अनाचारी मानव ही सब की जड है...
जवाब देंहटाएंगलती -१---वह रोगी का तीमारदार जो सरकारी अस्पताल की सस्ती चिकित्सा की बज़ाय ..अप्ने को सिद्ध करने के लिये ...बडों की नकल में बडे से बडे प्राइवेट अस्पताल में जाना चाहता है..सिर्फ़ सुख-सुविधा हेतु.... और जरा सी भी रोग होने पर एलोपेथिक-अस्पताल की और दोड्ता है...
गलती-२-- सरकारी -राजनतिक अमला जो सस्ते अस्पतालों की बजाय बडे बडे अस्पतालों को खोलने देता है ....प्रारम्भिक स्थानों पर उच्च सुविधा देने से कतराता है व अपने राजनैतिक लाभ की योज्नायें बनात है...( शासन)
---तीन---वह सरकारी कार्यान्वन मशीन के लोग....जो गांव में अस्पतालों की सुविधायें डकार जते हैं...(प्रशासन)
---चार---वे ठेाकेदार जो तकनीकी सन्स्थाओं---इन्जेनियर, डाक्टर ,प्रशासन, शासन आदि से मिलकर ...अपना घर भरते हैं..
---पान्च---वे चिकित्सक ...जो छोटे अस्पतालों की बज़ाय बडी-बडी तन्खा हेतु ..बडॆ अस्पतालों में बन्धुआ मज़्दूर की तरह कार्य करते हैं....एवं रोगी का विश्वास जीतने की बज़ाय पैसे कमाने में व्यस्त रहते हैं...
--छह-----वे चिकित्सा कर्म्चारी जो बिना लिये -दिये कार्य नहीं करते ..व दुर्व्यवहार करते हैं..
---सात-- हमारी आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था जो विदेशी है और सब्कुछ विदेश से आयात होता है ..जिसमें कोई कुछ नही कर पाता
----------- जब तक स्वदेशी चिकित्सा-पद्दति नहीं अपनायी जायेगी / चिकित्सक लोग प्रेक्टीकल-चिकित्सकीय ग्यान की बज़ाय जान्चों पर आधारित रहेंगे/ ...अस्पतालों के बज़ट को कम से कम १० गुना नहीं बढाया जायगा / रोगी दिखावे की अपेक्षा इलाज़ पर व चिकित्सक पर विश्व करना नही सीखेगा/ समाज में स्व-सन्स्क्रिति -सदाचरण का चलन नहीं होगा ... इस सबका कोई इलाज़ नहीं है ...कुछ भी चिल्लाते रहिये ..
aaj ki rajniti ne deshwasiyo ko patan ke us gart mai dhakel diya hai jahan se vapsi ki sambhavnayen lagbhag shoonya ho chukin hai.ab to vayvastha badna nihayat jaroori ho gaya hai.ab anna ka sath dena hi hoga.
जवाब देंहटाएंjab medical college mai admission ke lieye lakhon rupai dekar padhai karenge to un doctors se janseva ki sochna hi bhool hogi.aise hi rishwat dekar nokari pane wale bhala kyon kam karenge,aur kiya bhi to ghoons lenge hi.sarkai nitiyan hi to yeh sab kara rahin hai.in neetiyon ne hi to ghar tore, pariwar tore, mohalle tore, gaon aur nagar tore,tehsheelen aur jile tore,piradesh tore,bus toora hi shesh hai uske bhi beej boye ja rahe hai,bhagwan hi malik haii yahan ka.
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