गीत आस के घर जिन्दगी भर सँजोए रखना कठिन है; बहुत प्रतिरोधी हवायें चल रहीं। बन्द मुट्ठी रेत वाली नदी के भीतर; सामने से जा रहा है ...
गीत
आस के घर जिन्दगी भर
सँजोए रखना कठिन है;
बहुत प्रतिरोधी हवायें चल रहीं।
बन्द मुट्ठी रेत वाली
नदी के भीतर;
सामने से जा रहा है
समय का तीतर;
और गहराया अँधेरा
चेतना के पट्ट पर,
दिग्भ्रमित करती दिशायें छल रहीं।
वन समितियों को पता
वन कट रहे;
पता है जिसके लिये
पुल पट रहे;
विषैला काला धुँआ
परिवेश बनता जा रहा,
आस जिनसे थीं प्रभायें जल रहीं।
मुक्तक
घना अँधेरा उजाले की बात होने दो;
दिये में तेल‘औ बाती का साथ होने दो;
रहा हमारा ये वादा कि रोशनी देंगे,
जलेंगे दीप की तरह भी रात होने दो।
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संकल्प का हिमालय जो तुम खडा करोगे;
सारे भविष्य यात्री पद चिह्न गह चलेंगे।
संकल्प पथ प्रगति का निर्माण सुदृढ करना,
संकल्प के रथी बन शिखरों से जा मिलेंगे।
आकाश चूम लेंगी उपलब्धि की ध्वजायें,
सागर के घोर तूफाँ चरणों को फिर मलेंगे।
ऐसे विचार उन्नत, पाले अगर हृदय में,
कठिनाइयों के काँटे, तुमको नहीं छलेंगे।
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नवगीत
मन बसंत टेरे
ठिठुरते रहे सबेरे।
पतझर की अगवानी में
पाला की मार पड़ी;
खेतों की अरहर सब उकठी
रोए खड़ी-खड़ी;
बारिस बिन चौमास गया
पानी पाताल गया,
बन्द पड़े कूपों में पम्पे
द्वारे खड़े अँधेरे।
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बन्धु मिठाईलाल
बचाएँ कब तक मीठापन;
बौराए आमों से अबकी
आँधी की ठन-ठन;
बागों में अमिया असमय
पतझर की तरह झरीं,
नीचे बिछी सुगंध धरा पर
पेड़ खड़ा हेरे।
फगुनहटा पी गया दूध
गेहूँ की बालों का;
जाने क्या होगा
तलवों के दुखते छालों का;
रामसखी का इस बसंत में
गौना ठहरा है,
खेती के मत्थे क्या होगा
प्रश्न रहे घेरे।
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नवगीत
एक कनस्तर चार चादरें
लिए चंद भांड़े बर्तन,
घर छोड़ा आ गया शहर में
गाँव से भैया रामरतन।
चार दीवारें छत दरवाजा
लिया किराये से;
है ताकीद मकां मालिक की
निकलो बाँये से;
सिर पर सूरज,देह पसीना
मन पर मालिक की घुड़की,
खेत छोड़ आ गया शहर में
गाँव से भैया रामरतन।
काका,दाऊ,भाई,बउआ
सब संबोधन छूट गए;
मंगल कलश सुनहरे सपनों-
वाले दरके फूट गए;
ढूँढ़-ढूँढ़ कर हार गया मन
बेचैनी का रोग लगा,
अम्मा-बाबू झाँकें अक्सर
घाव से भैया रामरतन।
अक्सर जाम हुए चौराहे
सड़कें झण्डे लिए जुलूस;
ऊँची-ऊँची मीनारें
करतीं सन्नाटा-सा महसूस;
जड़ से उखड़े अस्थाई-से
पेड़ों वाला जंगल है,
नगरी लिपी-पुती है सिर तक
पाँव से भैया रामरतन।
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नवगीत
खेतों पर उन्नति के बादल
देखे-भाले हैं,
शहर गए मजदूर
खेत सब बैठे-ठाले हैं।
अम्मा दरती धान
कुनैता चावल नित उगले;
तंगी में भी पूरे घर को
खाने भात मिले;
अब तो अम्मा और कुनैता
दोनों नहीं रहे;
बैठक अपने सूनेपन का
किससे दर्द कहे;
हिरण-चौकड़ी गाँव भरे
गलियों में छाले हैं।
अमरुदों का बाग
सख्त पहरे में जकड़ा है;
रखवाले ने गोबर को
परसों ही पकड़ा है;
आम,सिंघाड़े,केले
कबसे बाँटे नहीं गए;
बनियागिरी बहुत अपनाई
घाटे नहीं गए;
नेताओं का खेत गाँव
गायब रखवाले हैं।
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नवगीत
संबंधों के महल
प्यार के किस्से ही बाकी।
बेरौनक-सी चुप्पी
ठिठके हिस्से ही बाकी।
यदा-कदा दीवारें ही
इसकी रो लेती हैं;
धूल पलस्तर पर की
आँसू से धो लेती हैं;
विस्तृत गलियारे,घर
उजड़े हिस्से ही बाकी;
पसरे सन्नाटों का छाया
राज अकंटक है;
चहल-पहल को ओसारे ने
समझा झंझट है;
आवाजाही,पंगत, बैठक
किस्से ही बाकी।
शिखर विवश है,मुँह पर अपने
ताला डाल रखा;
अनियंत्रित झंझाड़-झाड़
छाती में पाल रखा;
बूढ़ी काया औलादों के
घिस्से ही बाकी।
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नवगीत
तुमने ही बिन पढ़े
जिन्हें कोने में डाल दिया,
वे तो सीधी-साधी लिपि में
लिखी इबारत हैं।
उनमें तेरा बचपन है
तेरा कैशोर्य भरा;
उनमें तेरा पढ़ना-लिखना
यौवन हरा-भरा;
झुकी कमर झुरियाये चेहरे
अम्मा-बापू के,
उम्मदों के सूखे सरवर
कितने आहत हैं।
अटकन-चटकन,दही चटोकन
चींटी-धप तेरी;
क्षण बाहर,क्षण भीतर
तेरी घर-घर की फेरी;
सिसक-सिसक कंधे पर रोती
बिट्टो हुई बिदा,
धीरज देने वाले
तेरे प्यार भरे खत हैं।
उम्मीदों का पेड़ आँख में
कब का मरा हुआ;
तेरी गुजरी बहना का
वह चेहरा डरा हुआ;
मंगलकामनाओं की खातिर
जुड़ते हाथ यहाँ,
चंदन,वंदन,पुष्प ईश को
अर्पित अक्षत हैं।
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नवगीत
हासिये पर आदमी ठहरा।
शहर में अब संस्कृति का
चेहरा उद्दण्ड है;
ख्यातिनामी सफे पर
पसरा हुआ पाखण्ड है;
प्रगति के सोपान का
बेसुर हुआ क्यों ककहरा।
मोर्चे दर मोर्चे हैं
उम्र भी बढ़ती रही;
ढाकने को हार अपनी
तर्क नित गढ़ती रही;
आँख में उम्मीद,
होगा बस्तियों का दिल हरा।
एक जिम्मेदार वारिस की
ललक बैचैन है;
छा गए दायित्वहीना-
ेसोच के दिन-रैन है ;
माँगने पर रोटियाँ देता नहीं
है पुत्र बहरा।
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नवगीत
जिन्दगी रचती नये आयाम
पतन के उन्नयन के जनग्राम।
टूटता तन सुबह
उबलन दोपहर;
पसीने की धार
श्रम पर बेअसर;
थकन को ले आस मिलती शाम।
मिश्र है,ट्यूनीशिया है,
लीबिया अफगान है;
धधकती जन-ज्वाल भू पर
न्याय का कोहराम है;
रक्त देकर भी बदलनी व्यवस्था नाकाम।
जिन्दगी का मृत्यु पर
अंकुर पुनः फूटा;
सृजन के उल्लास का
झरना झरा फूटा;
स्वप्न की गठरी लिए सिर,शहर जाता ग्राम।
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नवगीत
जब कभी होकर
पुराने गाँव से निकले
लबादे अभिजात्यता के
गिर गए फिसले।
हवा,पानी और माटी
प्रकृति,मानुष,दाल-बाटी
घुल गए तन में;
विविधवर्णी पुष्प-पर्णी
सौम्य-शुचि,शुभ गंध भरणी
खुल गए मन में;
वंदना के स्वर स्वतः ही
कंठ से निकले।
अँधेरे अंतःकरण के
हठ,हठीले आचरण के
दहकते जलते;
वेदना के शिखर कबके
राग ठिठके हुए दुबके
युगों से पलते;
गुनगुनी अनुभूतियों की
छुअन पा पिघले।
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नवगीत
बाल्मीक की प्रथा निभाई
हमसे नहीं गई।
जप-जप उल्टा नाम कहाँ तक
ब्रह्म समान बनें;
सोच-समझ अनुभव के जाए
तीर कमान तनें;
रामायण की सीता गाई
हमसे नहीं गई।
दुनिया दारी बाहर यारी
के झण्डे बाँधे;
भीतर-भीतर शातिर चालें
चलते दम साधे;
उनकी गठरी और उठाई
हमसे नहीं गई।
गाँव की गलियों में अब
बारुद पनपता है;
अंधी जाग्रति वाला अंधा
नाग सनकता है;
दौड़ भयंकर यह रुकवाई
हमसे नहीं गई।
चम्पा भी अब चीन्ह रही है
किस्मत के काले अक्षर;
पूँछ रही है भाग हमारे
किसने ये डाले अक्षर;
उत्तर वाली पंक्ति पढ़ाई
हमसे नहीं गई।
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नवगीत
कितनी चिन्ताओं ने
मन में फन फैलाए,
तन को छूकर निकली
जब-जब बरसात।
कितनी चिप-चिप -चिप औ
उमस भरे मौसम में
बहती खपरैलों में
जमा हुई गंदगी;
टिपिर-टिपिर सारा घर
शीलन में डूब गया
गाँव में घर-घर की
ऐेसी ही जिन्दगी;
मन तो अनुरागी है
राग पिए,राग जिए
बारिस ही जनती है
अपना परभात।
स्मृतियों ने मन में
चित्र उकेरे कितने
चहल-पहल के उत्सव
निशदिन की बात;
बँट-बँट छोटे-छोटे
खेत हुए अनबन में
खाली होते जाते
दोनो ही हाथ;
बिजली की लप-लप-लप
छाती को चीर रही
पूरी निर्दयता से
करती संघात।
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नवगीत
छाँव की नदी
आग लिए बैठी है छाँव की नदी।
नर भक्षी सिंह हुए
सिंहासन के सारे;
किससे फरियाद करें
राजा जी के मारे;
धर्मराज चौसर का शौक पुनःपाले हैं,
कंठ से प्रवाहमान दाँव की नदी।
जंगल सब खत्म
राज में जंगल व्याप गया;
आतंकित ऋतुयें सब
मौसम तक काँप गया;
रेत बढ़ी सूख गया पानी संवेदन का,
बैठी है घाट तके नाव की नदी।
पाँव की प्रबलतम गति
अवरोधों की मारी;
हाथ नहीं आया कुछ
बनिये से की यारी;
मोल हमारा उसकी नजरों मे ग्राहक भर
उमड़ाई बाढ़ भरी साव की नदी।
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नवगीत
सपनों का संसार खोजने
अब सुधियों के देश चलेंगे
महानगर में सपने अपने
धू-घू करते रोज जलेंगे
शापों का संत्रास झेलते
पूरा का पूरा युग बीता;
शुभाशीष का एक कटोरा
अब तक है रीता का रीता;
पीड़ाओं के शिलाखण्ड ये
जाने किस युग में पिघलेंगे।
यहाँ रहे तो कट जाएगी
स्ुधियों की यह डोर एक दिन;
खो देंगे पतंग हम अपनी
नहीं दिखेगा छोर एक दिन;
नदी नहीं रेत ही रेत है
तेज धूप है पाँव जलेंगे।
खेतों की मेंड़ों पर दहके-
होंगे स्वागत में पलास भी;
छाँव लिए द्वारे पर अपने
बैठा होगा अमलतास भी;
धूल,धुँए,धूप के नगाड़े
हमें देखते हाथ मलेंगे।
हाथों का दम ले आएगा
पर्वत से झरना निकाल कर;
सीख लिया है जीना हमनें
संत्रासों को भी उछालकर;
मुस्कानों के झोंके होंगे
जिन गलियों से हम निकलेंगे।
अपने मन के महानगर में
तुलसी के चौरे हरियाए;
सुबह-शाम आरती हुई है
सबने घी के दीप जलाए;
मानदण्ड शुभ सुन्दरता के
मेरी बस्ती से निकलेंगे।
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नवगीत
झेल रहे बेटों के
चले हुए दाव,
खुरच-खुरच घाव।
व्यसनों की खाल पहन
कर आया स्वत्व रहन;
खुशबू इन गलियों की
लपटों में हुई दहन;
नेह-नदी में डाली
जहरीली नाव।
कंक्रीटी जंगल की
नब्ज नहीं मिलती तो;
चौके चौबारों की
गंध कली खिलती तो;
ग्रसता न सुविधा का
हिंसक अलगाव।
करता विकलांग गया
यंत्रों का उन्नति पथ;
छूमंतर प्रज्ञा है
जड़ता का सिर उन्नत;
यन्त्रों-सा उन्नत बस
होता अलगाव।
एक परायेपन की
टाठी है अब खनकी;
स्वीकारेंगे कैसे
गाँठ पड़ी उलझन की;
स्वागत में नहीं रहा
अब वैसा भाव।
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नवगीत
हृदय की सुकमार काया के लिए विरचित
इस सदी की ओर से बस घाव हैं।
समय के आयुध निगोउे़
हुए आक्रामक हमीं पर;
दहकते नासूर छोउे़
सृजन की शीतल जमीं पर;
वर्ण कंपित,शब्द विचलित,अर्थ बदले से
नई पीढ़ी को कई भटकाव हैं।
स्वार्थ ने कारण तलासे
नेह बंधन मुक्ति के;
हृदय पर थोपे दिलासे
तर्क पोषित युक्ति के;
चंद सिक्के,चंद सुविधायें जुटाने के लिए
ओढ़ बैठे रक्त से अलगाव हैं।
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नवगीत
कुछ तेरी,कुछ मेरी
हो जाए बात,आ बैठें साथ।
कितने दिन से बीड़ी साथ नहीं पी;
बंद पड़ी सुख-दुख की मन में सीपी;
अनुभव का सारा ही,
खारा गुजरात,आ बैठें साथ।
मालुम भी हैं कुछ,घर-गाँव के हाल;
सुनते हैं लड़कों ने बदली है चाल;
गाली मुँह में बसती,
छुरियों पर हाथ,आ बैठें साथ।
संबंधों का संगम लुप्त हो चला;
वैयक्तिकता में सौहार्द खो चला;
घर का घरवालों को,
हाल नहीं ज्ञात,आ बैठें साथ।
---
परिचय
नाम-राजा अवस्थी
पिता-स्व.श्री दर्शरुप अवस्थी
माता-स्व.श्रीमती गंगा
जन्म-04 अप्रैल सन् 1966 को कटनी (म.प्र.) के एक ग्रामीण किसान
परिवार में।
शिक्षा-एम.ए.(हिन्दी साहित्य), बी.एड.
लेखन-गीत-नवगीत,कहानी,समीक्षात्मक आलेख।
प्रकाशन-सन्1986 से महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं एवं गीत संकलनों में गीत-
नवगीत प्रकाशित।“नवगीत नई दस्तकें” (संपादक-निर्मल शुक्ल)
में सहयोगी कवि के रुप में नवगीत संकलित।
प्रसारण-आकाशवाणी केन्द्र जबलपुर एवं दूरदर्शन केन्द्र भोपाल द्वारा
नवगीतों का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तक-”जिस जगह यह नाव है“(नवगीत संग्रह) 2006
अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद,दिल्ली।
प्राप्त पुरस्कार-कादम्बरी साहित्य परिषद,जबलपुर द्वारा नवगीत के लिए
” निमेष“सम्मान2006
सम्प्रति-अध्यापन,म.प्र. स्कूल शिक्षा विभाग।
पता- गाटर घाट,राम मंदिर रोड,आजाद चौक कटनी-483501,म.प्र.
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चित्र - अमरेन्द्र aryanartist@gmail.com फतुहा, पटना की कलाकृति.
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