प्रमोद भार्गव का आलेख - प्रतिनिधि को खारिज करने का अधिकार

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अनशन तोड़ने के साथ अन्‍ना हजारे ने चुनाव सुधारों को लेकर संघर्ष छेड़ने की बात कही है। उनकी मंशा निर्वाचन प्रणाणी में व्‍यापक फेरबदल की है। ...

अनशन तोड़ने के साथ अन्‍ना हजारे ने चुनाव सुधारों को लेकर संघर्ष छेड़ने की बात कही है। उनकी मंशा निर्वाचन प्रणाणी में व्‍यापक फेरबदल की है। अन्‍ना के अनुसार मतदाता को मतपत्र पर दर्ज उम्‍मीदवारों को खारिज करने का हक मिलना चाहिए। यदि दस प्रत्‍याशी मतपत्र में दर्ज हैं तो ग्‍यारहवां अथवा अंतिम खाना प्रत्‍याशी को नकारने का भी शामिल होना चाहिए। मतदाता को जब लगेगा कि चुनाव लड़ रहे उम्‍मीदवारों में से कोई भी उनकी उम्‍मीदों पर खरा उतरने वाला नहीं है तो वह नापंसदगी को तरजीह देगा। इस तरह यदि खारिज करने वाले खाने में वोट ज्‍यादा पडे़ तो चुनाव रद्‌द हो जाएगा। तब फिर से चुनाव होगा। ऐसे में उम्‍मीदवार कहां तक धन खर्च करके चुनाव लड़ेंगे ? एक चुनाव में पांच-दस करोड़ रूपयों पर पानी फिरेगा तो उम्‍मीदवारों का दिमाग ठिकाने आ जाएगा। अन्‍ना की इस घोषणा को लेकर राजनीतिक दल असमंजस में हैं। कांग्रेस इसे जहां अव्‍यावहारिक बताकर खारिज कर रही है, वहीं भाजपा ने इस पर विचार -विमर्श करने को कहा है। तय है जनलोकपाल पर अन्‍ना को मिले अपार व अटूट जन समर्थन के बाद लगता है, कालांतर में राजनीतिकों को समाज सुधार की कानूनी मुश्‍किलों से जुझते रहना होगा।

प्रतिनिधि को खारिज करने अथवा वापस बुलाने का मुद्‌दा कोई नया नहीं है। चुनाव आयोग कई मर्तवा इसकी पैरवी कर चुका है। मध्‍यप्रदेश व छत्तीसगढ़ समेत कुछ अन्‍य राज्‍यों में पहले से ही पंचायती राज व्‍यवस्‍था में प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को मिला हुआ है। किंतु सांसद और विधायक पर यह नियम लागू नहीं होता। छत्तीसगढ़ में तो सीधे लोकतंत्र को पुख्‍ता करने के लिहाज से तीन शहरी निकायों के चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार शामिल किया गया है। किसी भी राज्‍य में जवाबदेही सुनिश्‍चित करने के नजरिए से जनमत संग्रह और प्रतिनिधि को वापस बुलाने अथवा खारिज करने के घटकों का भय व्‍याप्‍त होना जरूरी है। अमेरिका में तो यह अधिकार 1903 से लागू है। वहां दो राज्‍यपालों तक को इस अधिकार के चलते पदच्‍युत होना पड़ा। कनाडा में तो प्रधानमंत्री को वापस बुलाने का हक जनता को मिला है वेनेजुएला में इसी हक के चलते राष्‍ट्रपति ह्‌यूगो चावेज को जनमत संग्रह करके राष्‍ट्रपति जैसे महत्‍वपूर्ण पद से हटा दिया गया था। इसलिए जो दल इस मांग से असहमत हैं, उन्‍हें राजनीतिक सहमति की ओर बढ़ना लाजिमी होगा। चुनाव सुधार के पहलुओं में एक ही प्रत्‍याशी को एक से अधिक क्षेत्रों से चुनाव नहीं लड़ने और वित्तीय व्‍यवस्‍था जैसे मुद्‌दों को भी शामिल करना जरूरी है।

यदि इस तरह के प्रस्‍तावों पर भविष्‍य में कानून बनाकर अमल किया जाता है तो राजनीति में अपराधीकरण और भ्रष्‍ट प्रत्‍याशियों को टिकट दिए जाने पर अंकुश लगेगा। जवाबदेही से निश्‍चिंत रहने वाले और सरकारी सुविधाओं का उपभोग करने वाले प्रतिनिधि भी प्रभावित होंगे। इससे राजनीतिक दलों को सबक मिलेगा और इस तरह का अधिकार मतदाताओं को मिलने से देश में एक नये युग का सूत्रपात संभव होगा। भारतीय लोकतंत्र और राजनीति के वर्तमान परिदृश्‍य में जो अनिश्‍चिय, असमंजस और हो-हल्‍ला का कोहरा छाया हुआ है, इतना गहरा और अपारदर्शी इससे पहले कभी देखने में नहीं आया। शेर-गीदड़ और कुत्‍ते- बिल्‍ली एक ही घाट पर पानी पीने में लगे हैं। राष्‍ट्रीय हित व क्षेत्रीय समस्‍याओं को हाशिए पर छोड़ जन प्रतिनिधियों ने जिस बेशर्मी से सत्‍ता को स्‍वंय की समृद्धि का साधन बना लिया है उससे लोकतंत्र का लज्‍जित होना स्‍वाभाविक है। इन स्‍थितियों में मतदाता को नकारात्‍मक मतदान का अधिकार यह सोचने के लिए बाध्‍य करेगा कि लोकतंत्र का प्रतिनिधि ईमानदार, नैतिक दृष्‍टि से मजबूत और जनता के प्रति जवाबदेह हो। इसलिए अब संविधान में संशोधन कर प्रत्‍याशियों को अस्‍वीकार करने अथवा वापिस बुलाने का अधिकार दे ही दिया जाना चाहिए। अन्‍ना के ऐलान से जहां जनता में आशा की उम्‍मीद जगी है, वहीं राजनीतिक हलकों में हड़कंप है।

हालांकि 1996 में लोकसभा के आम चुनावों के दौरान एक बड़े जनसमूह ने आन्‍दोलित हो रही इस मंशा से तमिलनाडु और आन्‍ध्रप्रदेश की दो लोकसभा व एक विधानसभा सीट पर ज्‍यादा उम्‍मीदवार खड़े किए थे। उम्‍मीदवारों की भीड़ को लेकर चुनाव आयोग भी विवश हो गया और अन्‍ततः आयोग को चुनाव कार्रवाई स्‍थगित करनी पड़ी थी। जनता द्वारा की गई यह कार्रवाई उम्‍मीदवारों को नकारने की दिशा में एक शुरूआत थी। तीन चुनाव क्षेत्रों में उम्‍मीदवारों की एक भीड़ का उभरना सहज घटना नहीं थी। क्षेत्रीय मतदाताओं की यह एक सोची-समझी रणनीति थी, जिससे पूरी चुनाव प्रक्रिया को असहज व असंभव बनाकर उम्‍मीदवारों के विरूद्ध जनता द्वारा उन्‍हें नकारने की अभिव्‍यक्‍ति को धरातल पर लाने के लिए मोदाकरीची विधानसभा क्षेत्र में अकेले तमिलनाडू कृषक संघ ने 1028 प्रत्‍याशी खड़े किए थे। आन्‍ध्रप्रदेश ने नलगोंडा और तमिलनाडू के बेलगाम संसदीय क्षेत्रों में क्रमशः 480 और 446 प्रत्‍याशी मैदान में उतारे थे। इस सिलसिले में नलगोंडा किसान संघ ने नेता इनुगु नरिसिम्‍हा रेड्‌डी का कहना था, हमारा मकसद चुनाव जीतना नहीं बल्‍कि उन राजनेताओं के मुंह पर चपत लगाना है, जो पिछले 15 सालों से हमारे संघ द्वारा उठाई जा रही सिंचाई समस्‍याओं के प्रति उदासीन, लापरवाह व निष्‍क्रिय रहे। बेलगाम की समस्‍या भी इसी तरह की थी। लिहाजा तय है कि चुने प्रतिनिधियों द्वारा चुनावी वादे डेढ़ दशक में भी पूरे नहीं किए जाने के कारण कृषक संघों ने जनप्रतिनिधियों के प्रति विरोध जताने व उन्‍हें नकारने की दृष्‍टि से चुनाव प्रक्रिया को खारिज करने के लिए बड़ी संख्‍या में उम्‍मीदवारों को खड़ा किया था। यदि मतदाता के पास वर्तमान उम्‍मीदवारों को नकारने का अधिकार मतपत्र में मिला होता तो वह चुनाव प्रक्रिया को नामुमकिन बनाने की बजाए मतपत्र में उल्‍लेखित प्रतिनिधियों को नकारने के खाने में मोहर लगाकर अपने आक्रोश को वैधानिक अभिव्‍यक्‍ति देते।

हालांकि राजनीतिक दल आसानी से मतदाता को नकारने अथवा कार्यकाल के बीच में वापस बुलाने का हक नहीं देंगे, क्‍योंकि इससे प्रत्‍येक राजनेता के भविष्‍य पर हर चुनाव में नकारने अथवा वापस बुलाने की तलवार लटकी रहेगी, वैसे भी वर्तमान राजनीतिक परिदृश्‍य में राजनीति दल मुद्‌दाविहीन हैं और नकारात्‍मक वोट प्राप्‍ति के लिए गठजोड़ बिठाते रहते हैं। ऐसी मनस्‍थिति में मतदाता सत्‍ता परिवर्तन से ज्‍यादा आचरणहीन सत्ताधारियों को अस्‍वीकार करने की इच्‍छा पाले हुए हैं, जिससे व्‍यवस्‍था की जड़ता दूर हो और उसमें गतिशीलता आए।

मतदाता को निर्वाचित प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार देने से बचने के लिए हमारे नीति निर्माता अपने हितों पर आघात न पहुंचे इसलिए चाहेंगे कि चुनाव क्षेत्रों में प्रत्‍याशियों की या तो एक निश्‍चित संख्‍या तय कर दी जाए अथवा निर्दलीय उम्‍मीदवार को प्रदत्‍त चुनाव लड़ने का अधिकार समाप्‍त कर दिया जाए? वैसे भी संविधान में राजनीतिक संरचना की बुनियाद पार्टी है। चुनाव परिणाम आने के बाद केन्‍द्र में

राष्‍ट्रपति तथा प्रदेशों में राज्‍यपाल जीत कर बड़ी पार्टी के रूप में आने वाली पार्टी के संसदीय और विधायक दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं। किंतु निर्वाचन संपन्‍न कराने आधार में नागरिक के बुनियादी अधिकार शामिल हैं। जिसमें प्रत्‍येक भारतीय नागरिक को मतदान करने व चुनाव लड़ने के अधिकार प्रदत्त हैं।

वर्तमान परिदृश्‍य में आपराधिक, सत्ता व धनलोलुप मानसिकता के जो प्रतिनिधि लोकसभा व विधानसभा में पहुंचते हैं वे वैधानिक अवैधानिक तरीके से सत्ता की दलाली कर अपने आर्थिक स्‍त्रोत मतबूत करने में जुटे जाते हैं और आमजन व इलाके की समस्‍याओं को एकदम भूल जाते हैं। इसी कारण जनता का विश्‍वास खो देते हैं। अब ऐसे में दोबारा कमोवेश एक जैसी ही मानसिकता वाले उम्‍मीदवारों में से मतदाता किसे चुने। किसी -किसी चुनाव क्षेत्रों में दलबदलू उम्‍मीदवार बेहद हास्‍यास्‍पद व गंभीर स्‍थिति पैदा कर देते हैं, ऐसे उम्‍मीदवार पिछले चुनाव में जिस पार्टी से चुनाव लड़ रहे होते हैं, अगली बार दल बदलकर और हवा का रूख भांपकर किसी अन्‍य पार्टी से चुनाव लड़ते हैं। ये तथाकथित तिकड़मबाज चुनाव लहर का फायदा उठाकर लगातार सत्ता का दोहन करते रहते हैं। राजनीति में दलबदल का यह सिंद्धात किस किस्‍म की नैतिकता है ?लिहाजा भारत की केन्‍द्र और राज्‍यों की लोकतांत्रिक सरकारें डॉ. अम्‍बेडकर के इस कथन से दूर जात दिखाई देती हैं, जिसमें उन्‍होंने कहा था कि हमे कम से कम दो शर्ते तो पूरी करनी चाहिए, एक तो वह स्‍थिर सरकार हो दूसरे वह उत्‍तरदायी सरकार हो ? वर्तमान राजनीति के परिदृश्‍य में जो प्रतिनिधि चुनकर आ रहे हैं उनमें ऐसे प्रतिनिधियों की संख्‍या ज्‍यादा होती है जो पद व धन लोलुप होने के साथ दायित्‍वहीन होते हैं। इसलिए स्‍थिर व उत्‍तरदायी सरकारों की शर्ते पूरी नहीं हो रही हैं। 1989 से 1991 के बीच हम केन्‍द्र में वीपी सिंह व चन्‍द्रशेखर सरकारों की अस्‍थिरता देख चुके हैं। ये स्‍थितियां गैर जिम्‍मेदार व लालची प्रतिनिधियों के चुने जाने के कारण ही पैदा हुइंर् थीं। ऐसे हालातों के चलते यह अनिवार्य लगने लगा है कि मतदाता को प्रतिनिधि को नकारने वैधानिक अधिकार अथवा बीच में वापस बुलाने का अधिकार मिले ?

किसी भी प्रत्‍याशी को न चुनने का अर्थ यह कदापि नहीं लगना चाहिए कि संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया या प्रजातांत्रिक व्‍यवस्‍था को अस्‍वीकार किया जा रहा हैं, बल्‍कि अस्‍वीकार के अधिकार के हक से तात्‍पर्य यह होना चाहिए कि मतदाता अथवा क्षेत्र का बहुमत व्‍यवस्‍था को चलाने वाले ऐसे प्रतिनिधियों को नकार रहा है जो अपनी निष्‍क्रियता, लापरवाही और स्‍वार्थपरता के जनमानस के समक्ष उदाहरण बन चुके हैं। अस्‍वीकार किए गए उम्‍मीदवारों को दोबारा से चुनाव लड़ने के अधिकार से भी वंचित रखा जाना चाहिए। वैसे भी संविधान के अनुच्‍छेद 19 के भाग ‘क' में नागरिक को बोलने व अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का अधिकार प्राप्‍त है, लेकिन निर्वाचन के समय मतदाता के पास जो मतपत्र होता है, उसमें केवल मौजूदा उम्‍मीदवारों में से किसी एक को चुनने का प्रावधान है, न चुनने का नहीं ? ऐसे में यदि मतदाता किसी को भी नहीं चुनना चाहता तो उसके पास कोई विकल्‍प नहीं है।

यदि कालांतर में संविधान में संशोधन कर नागरिक को नकारात्‍मक मत और निर्वाचित प्रतिनिधि को वापिस बुलाने का अधिकार दिए जाने की व्‍यवस्‍था की जाती है तो चुनाव सुधार की दिशा में यह बहुत महत्‍वपूर्ण निर्णय होगा। इससे बुराई अपने आप हाशिए पर आती जाएगी। भ्रष्‍टाचार पर अंकुश लगेगा। समाज सुधार की दिशा में संकल्‍पित व अग्रणी व्‍यक्‍ति आगे आएंगे। जनकल्‍याण के कामों के लिए होड़ चलेगी। प्रतिनिधि अपने दायित्‍वों के प्रति सचेत व क्षेत्रीय विकास के लिए प्रयत्‍नशील रहेेंगे। राष्‍ट्र के समग्र विकास की दिशा में यह एक शुभ शुरूआत होगी। अन्‍यथा भारतीय लोकतंत्र पर निराशा तथा अनिश्‍चय के बादल घने होगें। नागरिक व प्रतिनिधि के बीच अविश्‍वास की दूरियां उत्तरोत्‍तर और बढ़ती जाएंगी। प्रतिनिधि मीडिया में छाने के लिए लोकसभा और विधानसभाओं में अवरोध पैदा करने के लिए बेवजह हुड़दगं मचाते रहेंगे।

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 pramodsvp997@rediffmail.com

pramod.bhargava15@gmail.com

प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार है ।

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - प्रतिनिधि को खारिज करने का अधिकार
प्रमोद भार्गव का आलेख - प्रतिनिधि को खारिज करने का अधिकार
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