भा षा नदी की अविरल धारा के समान है जो सभी की ज्ञान पिपासा, जिज्ञासा आदि को शीतल-शांत करती हुई एक से दूसरे तक पहुंचती रहती है। इसी कारण भाषा ...
भाषा नदी की अविरल धारा के समान है जो सभी की ज्ञान पिपासा, जिज्ञासा आदि को शीतल-शांत करती हुई एक से दूसरे तक पहुंचती रहती है। इसी कारण भाषा को बहता नीर कहा जाता है। न जाने कितनी विकास-सरणियों में बहती हुई, कितनी बाधाओं को सहती हुई हिंदी आज वैश्विक भाषा बनी है। समूचे दक्षिण-पूर्व और मध्य एशिया में हिंदी एक महत्वपूर्ण संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार की गई है। हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। बाजार ने हिंदी जाननेवालों को बाकी दुनिया से जुड़ने के नये विकल्प खोल दिये हैं। फिल्म, टी.वी., विज्ञापन और समाचार हर जगह हिंदी का वर्चस्व है। इंटरनेट और मोबाइल ने हिंदी को और विस्तार दिया। हिंदी लगातार फैल रही है। बाजार फैलेगा तो हिन्दी भी फैलेगी और जब तक बाजार है तब तक हिंदी मौजूद रहेगी, भले ही वह विकृत स्वरूप में क्यों न हो।
जिस भाषा को अनेक संघर्षों के भीतर अपना रास्ता निकालना पड़ा है, उसकी शक्ति निस्संदेह अद्भुत है। हिंदी आज बाजार की भाषा बन गयी है। एक ऐसी भाषा जिसके सहारे साठ करोड़ लोगों को बाजार द्वारा रोज नये सपने दिखाये जाते हैं। उदारीकरण के बाद जब बाजार का विस्तार हुआ तो विदेशी कंपनियां और विदेशी निवेशक अपने-अपने उत्पादों के साथ भारत पहुंचे। यहां के बाजार के सर्वे और शोध के बाद उन्हें यह महसूस हुआ कि भारतीय उपभोक्ताओं तक पहुंचने के लिए उनकी भाषा का उपयोग करना फायदेमंद हो सकता है। हिंदी बोलने, और समझने वालों की संख्या सर्वाधिक है। इस संख्या के कारण हिंदी पर बाजार की निगाह पड़ी। हिंदी को अपनाना बाजार की मजबूरी भी है। भूमंडलीकरण और बाजार के प्रभाव में जहां हिंदी भाषा अधिक लोकप्रिय, विकसित एवं प्रचलित हो रही है, वहीं यह अपने मूल स्वरूप को भी पीछे छोड़ती जा रही है। बाजार की हिंदी बोलचाल की हिंदी है।
बाजार अपने हिसाब से चीजों को तोड़ता और जोड़ता है। बाजार के लिए भाषा अपवाद नहीं है। बाजार द्वारा परोसी जानेवाली हिंदी का स्वरूप विकृत है। बाजार की हिंदी में कई भाषाओं का अजीब घालमेल नजर आता है। भाषा जब बाजार द्वारा संचालित होगी तो उसमें बाजार के हिसाब से शब्द भी आयेंगे। यह भ्रांति अब टूटने लगी है कि भाषा का निर्माण समाज के द्वारा होता है। भाषा लोक बनाता है, विशिष्टजन उसे विशिष्ट स्वरूप प्रदान करते हैं। इस दौर में बाजार की शक्तियां अपने फायदे के हिसाब से चीजों को तोड़तीं और बिगाड़ती हैं। बाजार न व्याकरण की फिक्र करता हैं, न हिंदी की परंपरा की। बाजार का तर्क है कि वह ऐसी भाषा परोसने की कोशिश कर रहा है जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग समझ सकें।
बाजार की हिंदी में दूसरी भाषाओं के शब्दों की घुसपैठ बढ़ी है। इस घुसपैठ ने हिंदी को हिंग्रेजी (हिंगलिस) बना दिया। भाषा में शब्दों का घुसपैठ स्वाभाविक है। यह तब तक सहज है जबतक कि उससे भाषा के वास्तविक स्वरूप में छेड़छाड़ न हो, उसका शीलहरण न हो। बाजार के घुसपैठ से हिंदी तो फैली लेकिन इससे भाषा को भारी नुकसान हुआ। हिंदी के विकास और प्रचार-प्रसार के नाम पर बाजार द्वारा जो हिंदी परोसी जा रही है वह चाहे-अनचाहे पूरे भारत में स्वीकार्य है। डॉ रामविलास शर्मा ने इसे हिन्दी के प्रति अपमानजक स्थिति माना था।
हिंदी बढ़ रही है लेकिन इसके सरोकार लगातार घट रहे हैं। हिंदी बोलनेवालों का वर्चस्व घट रहा है। अंग्रेजी बोलना-लिखना-पढ़ना समाज में बेहतर स्थिति और रोजगार की बहुत बड़ी योग्यता है, इसलिए हिंदी को वह जगह नहीं मिल रही है, जिसकी वह हकदार है। घर से लेकर रोजगार और शिक्षा हर जगह हिन्दी की उपेक्षा की जा रही है। हर क्षेत्र में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व है। प्रशासन और न्यायालय हिंदी में नहीं चलते। शासन, प्रशासन, शिक्षा, रोजगार सभी जगहों पर अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। हिंदी आमलोगों की भाषा है जबकि अंग्रेजी अभिजात्य वर्ग की भाषा समझी जाती है। देश की संसद में अभी तक हिंदी को वो दरजा नहीं मिल सका है जो एक राजभाषा को मिलना चाहिये। संसद में हिंदीभाषियों का दबदबा कम हो रहा है। संसद में अधिकतर सदस्य अंगरेजी में ही प्रश्न पूछते हैं व बहस करते हैं। मैकाले ने भारतीय भाषाओं को दीन-हीन और दरिद्र कह कर अंग्रेजी की स्थापना की थी। उनका मंतव्य यह था कि इसके आगे चलकर एक ऐसा वर्ग तैयार होगा जो रंग और खून से तो हिन्दुस्तानी होगा, किंतु उसकी रूचि, मति, बुद्धि और भाषा अंग्रेज की होगी। मैकाले की इस नीति का असर स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। अंग्रेजी के वर्चस्व से भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ जो भारतीय होते हुए भी अभारतीय रहा।
स्वतंत्रता के बाद हिंदी के प्रति व्यापक उपेक्षा और तिरस्कार का भाव विकसित हुआ है। राजनैतिक दृष्टि से इसके कारण जो भी हो पर इस स्थिति के मूल में हमारी बदलती हुई चिंतन पद्धति का कम योगदान नहीं है। अंग्रेजी सदैव वर्ग-विभेद का एक माध्यम रही। अनेक बाधाओं, विवादों और झगड़ों के बाद हिंदी राजभाषा के रूप में स्वीकार कर ली गयी और वह समूचे संसार की समृद्ध भाषाओं की खुली प्रतिद्वंदिता में आ गयी। साधनविहीन जन की भाषा न तो अंग्रेजी पहले थी और न अब है। करोड़ों लोगों के देश में अंग्रेजी न जनभाषा हो सकती है और न राजभाषा। विभिन्न रूपों में यह स्थान हिंदी को ही लेना है। राजनीतिज्ञ और नीति निर्माता हिन्दी के जिस महत्व को नहीं समझ पाये, बाजार ने फौरन समझ लिया।
हिंदी की दुर्दशा के लिए बाजार और मीडिया के साथ-साथ हिन्दी समाज भी बहुद हद तक जिम्मेवार है। हिंदी की दुर्दशा का कारण यह है कि सार्वजनिक मंचों पर हिंदी भाषी अपनी भाषा बोलने में संकोच करते हैं। यह संकोच का भाव ही अंग्रेजी को पनपने और अपना साम्राज्य स्थापित करने का मौका देता है। कोई भी भाषा सीखना और समझना बुरा नहीं है लेकिन अपनी मातृभाषा को हेय दृष्टि से देखना ठीक नहीं है। हिंदी सिनेमा के अधिकतर कलाकार जिस भाषा की कमाई खाते हैं उसके सार्वजनिक में इस्तेमाल से उन्हें हिचक होती है। महानायक अमिताभ इस मामले में अपवाद हैं। अमिताभ बेहद सहजता और शान से हिंदी का प्रयोग करते हैं। दूसरी ओर दुनिया के अनेक देशों के राजनेता अंतराष्ट्रीय मंचों पर अपनी मातृभाषा का ही इस्तेमाल करते हैं। जापानियों, चीनियों, कोरियनों का अपनी भाषा के प्रति गजब का सम्मान और लगाव है। बिना अँग्रेजी के इस्तेमाल के ऐसे देश विकास के दौड़ में कई देशों से काफी आगे हैं। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाओं ने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया। हिंदी समाज को इनसे सीख लेने की जरूरत है।
मीडिया के क्षेत्र में हिंदी ने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की है। प्रिंट मीडिया को ही लें, आइआरएस रिपोर्ट देखें तो उसमें ऊपर के पांच अखबार हिंदी के हैं। हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं का प्रसार लगातार बढ़ रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिन्दी न्यूज चैनलों की भरमार है। भारत में 182 से ज्यादा हिंदी न्यूज चैनल हैं। इन सबके बावजूद इनकी पहुंच नीतियां बनानेवाले और उच्च व्यवसाय करनेवालों तक नहीं है। यहां अंग्रेजी का वर्चस्व है। हिंदी अखबारों और मीडिया में नौकरी की पहली प्राथमिकता अंग्रेजी है, हिंदी नहीं। बाजार हमारे हृदय में, हमारे जीवन की प्रत्येक दिशा में, हमारी संस्कृति में, हमारे आसपास इस प्रकार रम गया है कि इससे अलग होकर हम अपना अस्तित्व सुरक्षित नहीं रख सकते। बाजार ने हिंदी को बिगाड़ा है तो उसे बचाया भी है। हिंदी के प्रचार-प्रसार में बाजार के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है।
भाषा मानवजीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यदि भाषा न होती तो निश्चित ही विचारों के आदान-प्रदान के अभाव में वह प्रगति संभव न हो सकती कि जिसके सर्वसुलभ परिवेश में आज मानव सभ्यता निवास कर रही है। भाषा वह साधन है जिसके द्वारा एक प्राणी दूसरे प्राणी पर अपने किसी भी शारीरिक अवयव द्वारा अपने विचार, भाव या इच्छा प्रकट करता है। भाषा देश और समाज की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक होती है। वैदिक संस्कृत, फिर लौकिक संस्कृत, फिर पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट भाषाओं से निकल कर हिंदी ने अपनी अलग पहचान बनायी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना था कि अपने देश, अपनी जाति का उपकार एवं कल्याण अपनी भाषा के साहित्य की उन्नति से ही संभव है। विडंबना है कि हिंदी बाजार, संचार और संपर्क की भाषा बन कर रह गयी है। हिन्दी समाज को अपनी जिम्मेवारियों को समझना होगा।
हिंदी सबको अपनाती रही है, सबका यथोचित स्वागत करती रही है। किसी भी भाषा के शब्द को अपने अंदर समाहित करने में गुरेज नहीं किया। अंग्रेजी, अरबी, फारसी, तुर्की, फ्रांसीसी, पोर्चुगीज आदि विदेशी शब्द हिंदी की शब्दकोश में मिल जायेंगे। जो भी इसके समीप आया सबको गले से लगाया। हिंदी ने कभी किसी का तिरस्कार नहीं किया। बाजारू हिंदी गढ़ने वालों और हिंदी की आड़ में अपना हित साधने वालों को चाहिए की वे हिंदी का सम्मान करें। वे हिंदी को बिगाड़े नहीं, बल्कि उसके निरंतर विकास में अपना योगदान दें। अंग्रेजियत के दबदबे से इसे मुक्त करायें। हिंदी को सिर्फ पैसा कमाने का जरिया न बनाये।
हिंदी वह समर्थ भाषा है, जो पूरे देश को एक प्रेम के धागे से जोड़ सकती है। हिंदी के संस्कारों और उसकी समृद्ध परंपरा को बचाए रखना बड़ी चुनौती है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में हिंदी की जड़ें काफी गहरी हैं। हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। यह दर्जा भी केवल कागजों में मिला है। सरकार इस मामले में गंभीर नहीं है। सरकारी दफ्तरों में अधिकतर कार्य अंग्रेजी में ही किया जाता है व केवल हिंदी सप्ताह व हिंदी पखवाड़ा मनाने का दिखावा किया जाता है। हिंदी को गरीबों, लाचार-बेबसों की भाषा मान लिया गया है। हम हिंदी को भी सम्मान की भाषा नहीं मानेंगे तब तक कुछ नहीं होगा।
हिमकर श्याम
द्वारा ः एन. पी. श्रीवास्तव
5, टैगोर हिल रोड, मोराबादी,
रांची, 8, झारखंड।
अच्छा। कुछ असहमति कुछ सहमति।
जवाब देंहटाएं