‘‘शिक्षा का माध्यम तुरन्त बदल दिया जाना चाहिए और किसी भी कीमत पर उनको प्रान्तीय भाषाओं को उनका उचित स्थान मिलना चाहिए। यदि उच्चतर शिक्...
‘‘शिक्षा का माध्यम तुरन्त बदल दिया जाना चाहिए और किसी भी कीमत पर उनको प्रान्तीय भाषाओं को उनका उचित स्थान मिलना चाहिए। यदि उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ काल के लिए अव्यवस्था भी हो जाये तो हो जाय मैं प्रतिदिन की जाने वाली इस बेतहाशा फिजूल खर्ची और बरवादी से उसे पसन्द करूंगा उक्त कथन है हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का वे राष्ट्रभाषा के लिए फिजूल खर्ची को भी स्वीकार करते थे क्योंकि जब तक राष्ट्रभाषा अपनी मातृभाषा न हो जब मातृभूमि और स्वदेश से प्रेम की कल्पना ही कठिन है।
हमारे देश को आजाद हुये छैः दशक से भी अधिक समय हो गया है लेकिन संविधान द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान किया जा चुका है। क्या वास्तव में हिन्दी राष्ट्रभाषा बन पाई है? देश की कुल जनसंख्या में सर्वाधिक प्रयोग होने वाली हिन्दी को वह गौरव कब मिलेगा? आज भी हम अच्छे ज्ञान के लिए अंग्रेजी का सहारा क्यों लेते है? यह प्रश्न 1875 के अप्रैल अंक ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका' में भारतेंदु द्वारा एवं विधिपत्रिका ‘नीतिप्रकाश ' के प्रकाशन के पूर्व छापा गया विज्ञापन ‘हिन्दी में बहुत से अखबार है पर हमारे हिन्दुस्तानी लोगों को उनसे कानूनी खबर कुछ नही मिलती है आर न हिंदी में से स्पष्ट होता है जो हालत आज से 114 वर्ष पूर्व थी वह आज है।
सिर्फ हिन्दी दिवस मनाने से क्या होता है? जब तक राष्ट्रभाषा हिन्दी को व्यावहारिक रूप से अपनाया नही जायेगा तब तक हमारा जनतंत्र मजबूत नही हो सकता। जब हमारा देश अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ था तब 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने बी.बी.सी. के द्वारा सारे संसार को यह सन्देश दिया था ‘‘गांधी अंग्रेजी नही जानता लेकिन आज गांधी के नाम का चोला धारण करने वाले लोग सिर्फ अपनी संकुचित मानसिकता के कारण अंग्रेजी के प्रभाव को खत्म करने की जगह बड़ा रहे है दोष अंग्रेजी का नही है बल्कि सत्ता की कोठरियों में अतिक्रमण करने वाले लोग जिनके हाथ में र्दुभाग्य से नीति-निर्धारण का दायित्व है वे नही चाहते उनके हाथ से सत्ता की डोर न खिसक कर उन हाथों में पहुंच जाये जो सच्चे भारतीय है। अंग्रेजी के प्रचार प्रसार के पक्षधर कहते है कि अंग्रेजी के द्वारा भारत में एकता की जा सकती है उनका उक्त कथन उस (अंग्रेजी) दास-भाव के ग्रस्त अंग्रेजी की श्रेष्ठता और समृद्धि से आतंकित अभिजात श्रेणी के बौद्धिक वर्ग की सतही एकता है जो चिरकाल तक पराधीन रहने के कारण पराधीनता को ही अपनी स्वतन्त्रता मान लेता है।
हमारे देश की कुल आबादी के 8 प्रतिशत अंग्रेजीदां 92 प्रतिशत गैर अंग्रेजी बोलने वालों पर अपना हुकुम चला कर हिन्दी की चेरी अंग्रेजी केा राष्ट्रभाषा रूप में अपनाने को विवश किये और हम, हमारे शासक मूक दर्शक बनकर देशवासियों को स्वभाषा की जगह विदेशी भाषा का भक्त पुरोधा बनने दे रहे है। आश्चर्य की बात है कि हमारे संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा दर्ज तो प्रदान कर दिया गया लेकिन सिर्फ हिन्दी दिवस मनाकर अपनी इतिश्री मानना है।
इन्दौर (म.प्र.) में आयोजित अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन में पूर्व राष्ट्रपति स्व0 ज्ञानी जैल सिंह द्वारा व्यक्त यह कथन अंग्रेजी ने राम को रामा और कृष्ण को कृष्णा बना दिया सिर्फ शब्द उच्चारण भेद को ही इंगित नही करता बल्कि हमारे नैतिक पतन को भी इंगित करता है। कितने शर्म की बात है हमारे मार्गदर्शक भगवान राम और भगवान कृष्ण को अंग्रेजी ने कितना उपभ्रंश रूप में प्रस्तुत किया जबकि हम स्वर उच्चारण को ही ईश्वर आराधना एवं मंत्र विज्ञान में महत्वपूर्ण मानते ह। यदि समय रहते राष्ट्रभाषा के विकास के लिए कारगर कदम नही उठाया गया तो आने वाला कल हमें कभी माफ नही करेगा। मनोविज्ञान-वेत्ता कहते है कि जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा से प्रेंम नही कर सकता वह अपनी मातृभूमि से प्रेम नही कर सकता। हम यदि इतनी गहराई से विवेचन न भी करें तो यह तो स्पष्ट है अंग्रेजी अनेकता में एकता के सिद्धान्त को मूर्तरूप देने में सफल नही हो सकती बल्कि एकता के लिए हमें समस्त भारतीय भाषाओं के साथ चलना होगा जो हमारी संस्कृति में पली-पुसी है और वर्तमान में रची-बसी है केरल का नम्बूदिरीपाद ब्राह्मण यदि बद्रीनाथ मन्दिर में पुरोहित बनता है तो क्या अंग्रेजी के कारण? कहा केरल कहा बद्रीनाथ? यदि दक्षिण के रामानुजाचार्य का शिष्यत्व उत्तर भारत के कबीर, तुलसी जैसे सन्त स्वीकार करते है तो क्या अंग्रेजी के कारण? आश्चर्य की बात है कि शैव मत केग सिद्धान्त प्रतिपादक प्रमाणिक ग्रन्थ तमिल में मिलते है या काश्मीरी में मिलते है, क्या काश्मीरी और तमिल में निकटता अंग्रेजी के कारण निष्पन्न हुई थी?
सच्चाई तो यह है कि आज जितना धन,श्रम और समय अंग्रेजी सीखने में लगता है उतने ही धन,श्रम और समय के उपयोग से समस्त भारतीय भाषा सीख सीते है क्योंकि भारतीय भाषाओं के विकास का श्रोत्र एक ही है संस्कृति। अतः अंग्रेजी की अपेक्षा अन्य भारतीय भाषायें सरल और सुगम है। दक्षिण भारतीय कुछ स्वार्थी तत्व जो कभी अंग्रेजों की चिलम भरते थे आज दम भरते है तमिल भाषियों को हिन्दी सीखने में अधिक श्रम का उपयोग करना पड़ता है जबकि अंग्रेजी सरल है यह कथन उनके दिवालियापन का परिचायक है।
अंग्रेजों के आगमन के पूर्व के इतिहास पर दृष्टि डाली जाये तो ज्ञात होता है फारसी की कुछ जड़ें भारत में थी जो हिन्दी के साथ मिलकर उर्दू के रूप में विकसित हुई किन्तु अंग्रेजी की तो सारी जड़ें सात समुन्दर पार से भारत में कुष्ठ रोग के रूप में फैली और हमें इस भाषा ने विकास के नाम पर सिवाय दास भाव के अलावा क्या दिया?
अंग्रेजी के द्वारा भारत की जिस एकता की बात की जाती है वह इसी वर्ग की दास-भाव से ग्रस्त अंग्रेजी की श्रेष्ठता और समृद्धि से आतंकित अभिजात श्रेणी का बौद्धिक वर्ग की सत ही एकता है चिरकाल तक पराधीन रहने वाली सभी जातियों में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है, परन्तु यह चिरस्थाई नही होती है।
-ःगांधी और विनोबा के विचारः-
हमारे राष्ट्रपिता अभिजात वर्ग की चालों से भारतीय जनमानस को सचेत करना चाहते थे उनका दृढ़ विश्वास था भारत को एक सूत्र में पिरोने के लिए आवश्यक है राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा साथ ही साथ प्रादेशिक भाषाओं को भी शिक्षा का माध्यम बनाने के प्रबल पक्षधर थे आपका विचार था सत्ता (सुराज) को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मजदूर से उसी की भाषा में बात करती होगी इसलिए महात्मा गांधी ने कहा था- ‘‘शिक्षा का माध्यम तुरन्त बदल दिया जाना चाहिए और किसी भी कीमत पर उनको प्रान्तीय भाषाओं को उनका उचित स्थान मिलना ही चाहिए। यदि उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ काल के लिए अव्यवस्था भी हो जाये तो हो जाय मैं प्रतिदिन की जाने वाली इस बेतहाशा फिजूल खर्ची और बरबादी से उसे पसन्द करूंगा।'' जिस गांधी ने 15 अगस्त 1947 को बी.बी.सी. को दिये अपने साक्षात्कार में सारे संसार को यह संदेश दिया था ‘गांधी अंग्रेजी नही जानता' उन्ही के दिखायें मार्ग पर चलने वाले यदि अंग्रेजी की वकालत करे तो हमारे लिए यह राष्ट्रीय शर्म की बात है क्या हम भारतीयों में अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के प्रति कोई दायित्व नहीं?
भारत रतन आचार्य विनोबा राष्ट्रभाषा के पक्के हिमायती थे उनका यह विश्लेषण विचारनीय है-
‘‘जिस प्रकार मनुष्य को देखने के लिये दो आंखों की आवश्यकता होती है उसी तरह राष्ट्र के लिए दो भाषा में प्रान्तीय भाषा और राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी भाषा चश्मे के रूप में काम आयेगी। चश्मे की जरूरत सबको नही पड़ती। कभी-कभी कुछ लोगों को उसकी जरूरत पड़ सकती है। बस इतना ही अंग्रेजी का स्थान है इससे अधिक नही है।
उत्तर प्रदेश में द्वारा जिस दृढ़ता के साथ प्रदेश सरकार, प्रतियोगी परीक्षाओं एवं न्यायालय में कामकाज राष्ट्रभाषा में करने का आदेश देकर वह सार्थक किया जिसके लिए कभी म.प्र. में पं. द्वारका प्रसाद मिश्र ने शुरूवात की थी लेकिन प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण म.प्र. के युवक जब पिछड़ने लगे तो विवश होकर अंग्रेजी में शिक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठाना पड़ा लेकिन आज समय रहते हिन्दी प्रदेशों के मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार पर दबाओ डाले कि केन्द्र सरकार के द्वारा दोनों सदनों में तथा विभिन्न मंत्रालयों में राष्ट्रभाषा का प्रयोग सुनिश्चित करे तथा राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करे साथ ही साथ देशवासियों को भी हिन्दी के साथ प्रादेशिक भाषाओं के प्रति उचित सम्मान प्रदान करे तथा अंग्रेजी से अनूदित समाचार पत्र पत्रिकाओं को महत्व न दे क्योंकि अंग्रेजी के समर्थक पैसों के खातिर अंग्रेजी खबरों को अनुवाद कर हिन्दी पाठकों को परोसकर लूट रहे है जबकि यही कार्य हिन्दी में किया जाय तो ज्यादा प्रमाणिक रहेगा।
आज हम हिन्दी दिवस के अवसर पर शपथ लेना होगा हम अंग्रेजी रूपी चेरी को राष्ट्रभाषा सिंहासन से उतार कर हिन्दी को उसकी जगह प्रतिष्ठित करके गांधी और विनोबा के स्वप्न को साकार करेगी।
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-सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन- 120/132
बेलदारी लेन, लालाबाग,
लखनऊ
aapka aalekh to bahut achchha hai, lekin jinhe samajhna chahiye we nahi samajhte.. roman me likhne ke liye maafi..
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