भूमंडलीकरण के दौरान जिस तरह आर्थिक नीतियों को उदारवादी जामा पहनाकर पूंजीवादी साम्राज्य खड़े कर दिए गए हैं, उन्हें दुनिया में नए सिरे से उ...
भूमंडलीकरण के दौरान जिस तरह आर्थिक नीतियों को उदारवादी जामा पहनाकर पूंजीवादी साम्राज्य खड़े कर दिए गए हैं, उन्हें दुनिया में नए सिरे से उभरता राष्ट्रवाद खतरा महसूस हो रहा है। लिहाजा नवउदारवाद के चंद बौद्धिक पैरोकार राष्ट्रीय सरोकारों को आक्रामक राष्ट्रवाद के नजरिए से देख रहे हैं। अन्ना आंदोलन से जो सांस्कृतिक क्रांति उपजी उसे भी इसी दायरे में समेटा जा रहा है। जबकि अन्ना हजारे ने राष्ट्रीय झण्डा, वंदे मातरम् और भारत माता के संयुक्त नारों के गुंजायमान से जो स्व-स्फूर्त लोगों की भीड़ जुटाई वह काल-चेतना की अभिव्यक्ति है। वह इस बात की भी प्रतीक है कि व्यक्तिगत प्रगति के समक्ष राष्ट्रीय, सांस्कृतिक व सामाजिक चेतनाएं नगण्य नहीं है। समृद्धि भयमुक्त, शांत व अहिंसक सामजिक चरित्र का निर्माण भी नहीं कर सकती। समृद्धि शासक और शाषितों के बीच भरोसे का पर्याय आधार भी नहीं होती। लिहाजा देश व दुनिया के शासक-प्रशासकों ने यह समझने में भूल की है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़ी पूंजी ‘अर्थ' (धन) नहीं ‘विश्वास' होता है। विश्वास खो देने की इसी परिणाति को हम अन्ना आंदोलन, नार्वे के विस्फोट और ब्रिटेन में राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में कराए गए एक सर्वेक्षण के विविध आयामों में देख सकते हैं।
भूमण्डलीकरण के लागू होने के बाद पूंजीवादी व्यवस्था का दबाव कुछ इस ढंग से पूरी दुनिया में बनाया गया कि हाशिए पर पहुंच चुकी औपनिवेशिक शक्तियों की नीतियों को एक बार फिर से आदर्श मान लिया जाए। गोया इन्हीं नीतियों के अनुरूप राजनीति, शिक्षा, बाजार और यहां तक की धर्म को भी ढाला जाने लगा। नतीजतन संसदीय दलों की भिन्नता के अर्थ पूंजीवाद की गटर गंगा में एक साथ डुबकी लगाने लग गए। परिणाम स्वरूप ऐसी आर्थिक नीतियां सप्रयास वजूद में लाई जाने लगीं जिनके फलित बमुश्किल एक तिहाई आबादी के लिए लाभकारी साबित हों। लिहाजा कथित औद्योगिक विकास की जल्दबाजी विनाश और अराजक आक्रोश के पर्याय के रूप में उभरने लगी। कैरियर के बहाने प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा में ऐसे प्रयोग किए गए जिससे विद्यार्थी राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरूकता से दूर होता चला जाए। वह केवल पैसा कमाने का जरिया भर ताजिंदगी बना रहे। राष्ट्रीय धारा का स्वतंत्र चिंतन उसमें विकसित होने ही न पाए। अन्ना ने खासतौर से युवाओं में सुप्त पड़ी इस चेतना को झकझोरा। उन्हें राष्ट्रीय समस्याओं से अवगत कराया और अधिकारों के प्रति सचेत किया। लिहाजा अब परिवर्तन की क्रांति की दिशा लोकहित की ओर बढ़ेगी जरूर, उसकी गति भले ही धीमी हो। वैसे भी इस स्थिति का आगाज पूरी दुनिया में सिलसिलेवार हो गया है। इसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है
नार्वे के एक कट्टर दक्षिणपंथी युवक द्वारा किए लोमहर्षक हमलों ने दुनिया की सांस्कृतिक चेतना को झकझोरा है। आन्द्रेस बेहरिंग ब्रीविक युवक द्वारा किए ये हमले किसी जिहादी आतंकवाद का पर्याय नहीं हैं। ब्रीविक ईसाई कट्टरपंथी विचारधारा से जुड़ा है और ठेठ दक्षिणपंथी विचारों का निष्ठावान अनुयायी है। वह बहुलतावादी संस्कृति और आव्रजन कानून के भी खिलाफ है। मसलन वह राष्ट्रवादी होने के साथ मार्क्सवाद और इस्लाम का सख्त विरोधी है। ब्रिविक की मनस्थिति को समझना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि उसने अपने ही देश में किसी आतंकवादी क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप ओस्लो में किए धमाकों को अंजाम नहीं दिया। अलबत्ता ये हिंसक घटनाक्रम उसके लिए स्वप्रेरित और स्वस्फूर्त थे। क्योंकि वह इस बात को लेकर चिंतित और भयभीत था कि उत्त्ारी अफ्रीका के देशों में चल रही उथल-पुथल के कारण जिस तरह से मुस्लिम शरणार्थियों की संख्या में वृद्धि हो रही है, वह कहीं एक दिन ऐसी समस्या का आयाम न ले ले कि नार्वे के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहचान को ही खतरा उत्पन्न हो जाए ? ब्रीविक की यह मानसिकता निश्चित रूप से एक ऐसी बहस को जन्म देने वाली है जो धर्म, नस्ल, जाति और भाषा के जन्मजात संस्कारों के चलते अनायास उपजने वाले खतरों को रेखांकित करने के लिए बाध्य करती है। इस त्रासदी की बौद्धिक पड़ताल योरोपीय देशों में घटी आतंकवादी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वहां प्रवासी मुसलमानों को राजनीतिक बहस और चुनाव का मुद्दा भी बनाया जा रहा है।
वैश्वीकरण को हम इस रूप में गुणात्मक मानते हैं कि इसकी बिना पर दुनिया की विलक्षण संस्कृतियों के उत्कर्ष और महत्व को समझने में आसानी हुई। संस्कृतियों का विनिमय हुआ। लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद खासतौर से अमेरिका और उसके मित्र देशों की कोशिश रही कि विश्व एक ध्रुवीय हो जाए और उसका नाभिकेन्द्र अमेरिका हो। कमोबेश ये हालात निर्मित हुए भी। अमेरिका ने इसे एक अनुकूल अवसर माना और वह भूमण्डलीय आदर्शों के बहाने अपने सांस्कृतिक परचम को विश्व फलक पर फैलाने में लग गया। प्रजातांत्रिक मूल्यों और बाजारवाद की ओट में वास्तव में ईसाई कट्टरपंथी (फंडामेंटलिज्म) ने दुनिया के अनेक देशों के सांस्कृतिक वैविध्य को अपनी चपेट में ले लिया। दूसरी तरफ जेहादी इस्लामिक आतंकवाद का हस्तक्षेप कई देशों में बढ़ा। जिसकी प्रतिक्रिया में भारत में जहां ‘हिन्दू आतंकवाद' कहलें या ‘भगवा आतंकवाद' उभरा, वहीं नार्वे में दहशतगर्दी की इबारत वहीं के नागरिक ब्रीविक ने लिख डाली। ब्रीविक ने एक दक्षिणपंथी वेब ठिकाने पर फरवरी 2010 में अपनी मंशा भी स्पष्ट की थी, कि योरोपीय देशों की परंपरा, संस्कृति, संप्रभुता और राष्ट्र-राज्य की संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने की दृष्टि से सांस्कृतिक बहुलतावाद की विचारधारा को अस्तित्व में लाया गया है। इसका जल्दी अंत होना जरूरी है। इन देशों में स्थायी तौर से बस जाने वाले अप्रवासियों को भी उसने बेदखल करने की बात कही है। उसे ब्रिटेन में हुए उस सर्वेक्षण ने भी बेचैन किया हुआ था, जिसके निष्कर्ष में 15 से 25 वर्ष आयु समूह के अप्रवासी 13 प्रतिशत मुस्लिम युवा उग्रवादी संगठन अलकायदा की विचारधारा से सहमत थे। उसने 1500 पृष्ठों का एक घोषणा-पत्र भी अपने वेब ठिकाने पर डाल रखा है। जिसमें योरोप को 2083 तक बहु-संस्कृति, जाति और भाषा से आजाद करने की बात कही गई है। इस मुक्ति-संग्राम में विजयश्री हासिल करने के लिए उसने दावा किया कि आतंक और हिंसा के बिना इस लक्ष्य को पाना संभव ही नहीं है। इस नाते वह इस्लाम की बजाय हिंदू राष्ट्रवादियों की बौद्धिक वैचारिकता से प्रभावित है।
तय है भूमण्डलीय जिन नमूनों को आदर्श मानकर दुनिया को एक ध्रुवीय बनाने की जो संरचना की जा रही है, वह खतरों से खाली नहीं है। एक तरफ लोगों में अपनी मूल अथवा पुरातन संस्कृति बचाने की जद्दोजहद है तो दूसरी तरफ पश्चिमी संस्कृति में ढल जाने की होड़ है। लिहाजा नूतन और पुरातन संस्कृतियों के बीच कश्मकश है। जो अपने जन्मजात जातीय संस्कारों से गहरे जुड़े हैं, वे पुरातन मूल्यों और जड़ों से जुड़ने में कहीं ज्यादा जातीय, नस्लीय, भाषाई और धार्मिक होने की कवायद में लगे हैं। सनातन धर्मग्रथों के मिथक और बिंबों की चकाचौंध व सम्मोहन उन्हें एक मायावी दुनिया से जुड़ने को विवश करता है। ऐसे में वैश्विक बाजारवाद का हिस्सा बन चुकी और मीडिया द्वारा परवान चढ़ाई गई धर्मों की कर्मकाण्डी संस्कृति भी उकसाने के काम में लगी है। फलस्वरूप धर्म के जो प्रेरक और बुनियादी तत्व हैं, उन्हें तो नेपथ्य में डालकर छिपाया जा रहा है, इसके विपरीत उनके आडंबरी पक्ष को प्रदर्शित कर पाखंड को बढ़ावा दिया जा रहा है। ये स्थितियां व्यक्ति के जीवन-दर्शन और सिद्धांत को विकृत करने वाली साबित हो रही हैं। जबकि धर्मों में वर्णित ध्यान, साधना, प्रार्थना और इबादत व्यक्ति में उदार भावों की स्थापना के साथ, निरंतर वैचारिक समन्वय और चेतना के विकास की अभिप्रेरणा होनी चाहिए। क्योंकि एक बहु-सांस्कृतिक सरंचना में ढला व्यक्ति सांस्कृतिक संतुलन बनाता हुआ अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ किसी भी देश में आसानी से जी लेता है। जैसे की दुनिया के तमाम देशों में भारतीय अपना गौरवशाली भविष्य बनाने के साथ उसे देश को भी समृद्ध बना रहे हैं।
पश्चिम की समूची दुनिया में इस समय ‘राष्ट्रवाद' और ‘बहु-संकृतिवाद' विमर्श के विरोधाभासी रूप चर्चा में हैं। जब से विश्व के एक वैश्विक गांव होने का विचार पनपा है, राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को किसी न किसी रूप में चुनौती मिलती रही है। कुछ समय पूर्व ब्रिटेन के शिक्षकों का एक देशव्यापी सर्वेक्षण कराया गया था। जिसमें तीन-चौथाई शिक्षक बालकों को राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाए जाने को गलत मानने वाले थे। इनका मानना था कि पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को रखना बच्चों के मौलिक विचारों को जबरन बदलने (ब्रेन वाशिंग) का पर्याय है। लंदन विश्वविद्यालय द्वारा कराए इस सर्वेक्षण में 74 फीसदी शिक्षकों की राय थी कि उनका कर्त्त्ाव्य बच्चों को ‘राष्ट्रभक्ति' अर्थात ‘राष्ट्रवाद' के खतरों से अवगत कराना भी है। सर्वेक्षण में शामिल कुछ शिक्षकों ने मशविरा दिया कि देशभक्ति की बजाय ‘विश्व-बंधुत्व' का पाठ पढ़ाया जाना ज्यादा उचित है। देशभक्ति के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले अनेक शिक्षकों ने भी दबी जुबान में विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाए जाने में रजामंदी जताई। एक शिक्षक ने तो शोधकर्ताओं से यहां तक कहा, कि देशभक्ति को बढ़ावा देने का अर्थ गैर-ब्रिटिश छात्रों से दूरी बनाना भी है। जब हम बच्चों को उन मूल्यों के बारे में बताते हैं, जो असमानता और विषंगतियों को दूर करने वाले हैं, तब इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रभक्ति की बात करना, क्या छात्रों को जातीय, नस्लीय और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने का काम नहीं करेगी ? हम यहां यह कल्पना कर सकते हैं कि यदि राष्ट्रभक्ति की शिक्षा का पाठ्यक्रम पाठशालाओं में लागू न होता तो शायद आन्द्रेस बेहरिंग ब्रीविक और अजमल कसाव जैसे व्यक्ति-चरित्रों का निर्माण होता ही नहीं ?
हालांकि ब्रिटेन में सर्व-समावेशी शिक्षा संभव है, क्योंकि वह वैसे भी योरोपीय संघ का अग्रणी देश है। वहां सदस्य देशों के बीच सरहदों को पहले ही लचीला बनाया जा चुका है। आज जब भूमण्डलीय आदर्श और वैश्विक बाजार की जरूरतों के चलते विभिन्न देशों और संस्कृतियों के बीच अंतर और दूरियां कम हुए हैं तो जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रवाद को अपने-अपने देशों के संदर्भ में नए सिरे से परिभाषित किया जाए। लेकिन क्या यह संभव है ? नहीं, क्योंकि इन मसलों पर बौद्धिक बहसें तो संभव हैं, लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक देश के राजनीतिक अजेंडे में ऐसे मसलों को शामिल किया जाना नमुमकिन है। इसीलिए ब्रिटिश के तब के प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन ने इस सर्वेक्षण को नजरअंदाज कर सार्वजनिक घोषणा की कि पाठशालाओं के पाठ्यक्रमों में ‘ब्रिटिशनेस' को बढ़ावा देने पर जोर दिया जाए।
विश्व-बंधुत्व की अवधारणा जिस तरह राष्ट्रवाद के विरूद्ध है, ठीक उसी तरह सांस्कृतिक बहुलतावाद की अवधारणा भी राष्ट्रवाद के खिलाफ है। क्योंकि संस्कृति के रीति-रिवाज, खान-पान, वेष-भूसा और लोक भाषाओं जैसे तत्वों के साथ धर्म की पैठ व्यक्ति में कहीं इन सबसे गहरी है। यही वजह है कि धर्म में विज्ञान-सम्मत तार्किक हस्तक्षेप से सत्ताएं बचती हैं। इसीलिए धर्मों में हिंसा का कोई स्थान नहीं होने के बावजूद मुस्लिम आतंकवाद इस्लाम का, भगवा उग्रवाद हिंदू धर्म का और ब्रीविक कमोबेश इन्हीं तर्जों पर ईसाइयत की ओट ले रहा है। कश्मीर में कथित बुद्धिजीवियों को जो आंदकवाद व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के रूप में दिखाई दे रहा है वास्तव में वह धर्म का फासी वादी रूप ही है। दरअसल ये स्थितियां आध्यात्मिक फासीवाद को बढ़ावा देने वाली हैं। जो खतरनाक है। मिली-जुली संस्कृति का प्रचलन मुस्लिम राष्ट्रों में भी संभव नहीं है। क्योंकि ज्यादातर इन राष्ट्रों में न तो प्रजातांत्रिक सरकारें हैं और न ही धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था। एक मर्तबा पश्चिमी समाज तो अपनी रूढि़यों को उदार बनाने को तैयार है, लेकिन मुस्लिमों में यह नजरिया दिखाई नहीं देता। भारतीयों की तरह सहिष्णु और सर्व समावेशी अवधारणाएं उनके लिए गौण हैं। इस परिप्रेक्ष्य में ब्रीविक की आशंकाओं को नरपिचाश की क्रूरता कहकर नकारे जाने के प्रयत्न होंगे। लेकिन क्या ये आशंकाएं वाकई बेवजह और बेबुनियाद हैं ?
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pramod.bhargava15@gmail.com
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
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