प्रभाशंकर उपाध्याय का व्यंग्य संग्रह - ऊँट भी खरगोश था - अंतिम किश्त

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ऊँट भी खरगोश था व्‍यंग्‍य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्‍याय   (  पिछले अंक 9 से जारी...) तीक्ष्‍णक का बुखार      संस्‍कृति स...

ऊँट भी खरगोश था

व्‍यंग्‍य - संग्रह

-प्रभाशंकर उपाध्‍याय


 
(  पिछले अंक 9 से जारी...)

तीक्ष्‍णक का बुखार


     संस्‍कृति से सरोकार रखने वाली संस्‍था गुणपारखी द्वारा एक अवसर पर कुछेक समाज सेवकों एवं साहित्‍यकारों का सम्‍मान किया गया। अत्‍यन्‍त गरिमापूर्ण उस आयोजन के विशिष्‍ट अतिथि थे, राष्‍ट्राध्‍यक्ष डा․ समानधर्मा, हिन्‍दी-अंग्र्रेजी के उत्‍कट विद्वान। समारोह की अध्‍यक्षता लब्‍धप्रतिष्‍ठ साहित्‍यकार प्रोफेसर 'उपेक्षित' ने की। अनेक खबरनवीस उस आयोजन में उपस्‍थित थे। संस्‍था द्वारा प्रकाशनार्थ प्रेस-विज्ञप्‍तियां तथा फैक्‍स तत्‍क्षण प्रिंट तथा इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया तक पहुंचा दिए गए। न्‍यूज एजेसिंयों को भी विज्ञप्‍तियां भेजी गईं।     

सामान्‍यतया, समाचार जगत में ऐसी खबरों का कोई खास नोटिस नहीं लिया जाता। उस खबर को भी अधिक स्‍थान नहीं मिला। फौरी  तरीके से  अखबारों ने जगह दी। किन्‍तु श्रृव्‍य-दृश्‍य माध्‍यम तो चुप्‍पी मार गया।    
गुणपारखी का सचिव एक संवेदनशील किस्‍म का नौजवान था। वह मीडिया के नार्मल रवैये से बड़ा 'एबनार्मल' हुआ। सर्वप्रथम उसने न्‍यूज-एजेन्‍सियों से सम्‍पर्क साधा उन्‍होंने कुछ तकनीकी दिक्‍कतें गिना दीं। तदुपरांत , संस्‍था सचिव ने सरकारी दृश्‍य माध्‍यम को पकड़ा। वहां के समाचार सम्‍पादक से उनकी काफी जध्‍दोजहद हुई। वह वार्ता पाठकों के ज्ञानार्थ अविकल प्रस्‍तुत की जा रही है।   
  
स्‍थान है, सम्‍पादन कक्ष। संस्‍था के सचिव तथा समाचार सम्‍पादक परस्‍पर उन्‍मुख हैं - सचिव -''श्रीमान्‌ ! मैं गुणपारखी संस्‍था का सचिव हूँ। हमारी संस्‍था द्वारा आयोजित समारोह की एक विज्ञप्‍ति भेजी गयी थी, लेकिन वह समाचार ․․․․।

संपादक-(बीच में ही ) ''हां, वह समाचार । वह, हमें मिला था बट नेशनल इम्‍पोटेंर्स के     अन्‍य समाचारों की वजह से हमारे पास टाइम कम रहा और हम उसे दे नहीं पाये। ‘‘
सचिव-    '' कोई बात नहीं उसे आज लगा दीजिये। ''
संपादक-    '' क्‍या कह रहे हैं आप? यह इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया है, कोई वीकली पेपर नहीं। यूअर न्‍यूज बिकेम मच ओल्‍ड नाऊ। ''
सचिव-    (हैरत से) -''कमाल है, हमारा कल का समाचार आज इतना पुराना हो गया।आपको याद दिला दूं कि कुछ दिन पहले आपने एक प्रांत में स्‍वर्ण भण्‍डार मिलने का दो वर्ष पुराना समाचार नया मानकर प्रसारित किया था‘‘
संपादक-    (तेज स्‍वर से ) - '' आर यू अवर ऑफिसर? आप यहां खबर देने आये हैं या हमारी गलतियां गिनाने?''
सचिव-    (नरम होकर ) - '' आप बुरा नहीं मानें। मैं माफी मांगता हूं । आप इस समाचार को आज प्रसारित करवा दीजिये, यह पुराना नहीं हुआ है, मेरे कहने का अर्थ इतना ही था। ''( सचिव एक कागज आगे रखता है किन्‍तु समाचार सम्‍पादक उस ओर देखता भी नहीं । )

सम्‍पादक- ''आज तो किसी भी हाल में नहीं लगेगा। (कलाई घड़ी दिखाते हुए) लुक हियर ․․․․․․․․․․․․․․ऑनली हॉफ एन ऑवर रिमेन इन नेशनल ब्रॉडकॉस्‍ट। आपको जल्‍दी आना चाहिए था। ''
सचिव-     ''मान्‍यवर जी, मैं आपके केन्‍द्र में डेढ घंटा पूर्व आ गया था। परन्‍तु प्रवेश  संबंधी औपचारिकता पूरी करने और आपका कक्ष खोजने में मेरा पौन घंटा व्‍यर्थ हो गया।''
सम्‍पादक-    (आधा मिनट तक सचिव को घूरता है ) - '' गिव मी यूअर प्रेसनोट। (प्रेस विज्ञप्‍ति को पढ़ता है ) ओ ․․․․․․․․․․․․․यह तो राजनीतिक समाचार है। इसे कैसे प्रसारित किया जा सकता है? यों भी हम पर राजनीतिक समाचार अधिक देने के आरोप लगते रहे हैं। ''
सचिव-    (विस्‍मयपूर्वक ) - '' यह क्‍या कर रहे हैं श्रीमान्‌ जी? यह सांस्‍कृतिक समाचार है। इसे राजनीतिक किस आधार पर करार दे रहे हैं? ''

सम्‍पादक-    '' इस खबर में एक राजनीतिज्ञ डॉ․ समानधर्मा दिखाई दे रहे हैं। ''
सचिव-    '' ताज्‍जुब की बात है कि मीडिया वाले एक सांस्‍कृतिक समारोह में महामहिम की उपस्‍थिति को राजनीतिक खबर बता रहे हैं। आपको पता है, डा․ समानधर्मा एक विद्वान पुरूष और विचारक हैं। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं, प्रख्‍यात लेखक हैं। उनकी मौजूदगी ही किसी समारोह की गरिमा बढाने के लिए पर्याप्‍त होती है। वस्‍तुतः इस समारोह का कवरेज आपको स्‍वयं ही आकर करना था। श्रोताओं- दर्शकों की आपत्‍ति ऐसे किसी साहित्‍यिक समाचार के प्रति नहीं है। आप रोज रोज राजनेताओं के गैर जिम्‍मेदाराना और फूहड़ वक्‍तत्‍व प्रसारित करते हैं, वे उसके प्रति अपना रोष जताते हैं। आप विगत तीन माह से एक नेता के हास्‍यापद व्‍यवहार को निरन्‍तर प्रसारित किये जा रहे हैं।दर्शकों की आपत्‍ति उनके प्रति है।
समाचार सं -  ‘‘ सॉरी․․․ मिस्‍टर․․․․ वैरी․․․ सॉरी․․․। न्‍यूज ब्रॉडकॉस्‍ट होने में सिर्फ
दस मिनट शेष हैं। न्‍यूज रूम भी पैक हो गया। आई कांट हैल्‍प यू।''
सचिव -    '' देखिये , मैं पन्‍द्रह मिनट से आपके सामने बैठा हूं और अब, आप मुझे समय की मजबूरी बता रहे हैं। ''

सम्‍पादक-    (खीजते हुए ) - '' नो ․․․․․․नो ․․․․․बाबा․․․․․ टाइम इज ओवर। न्‍यूज रीडर को किसी भी हाल में डिस्‍टर्ब नहीं किया जा सकता है। ''
        तभी टेलीफोन की घंटी घनघनाती है। समाचार सम्‍पादक चोगा उठाकर कान से लगाते हैं। दूसरी ओर की आवाज सुनकर सर्तक हो कहते हैं - ''यस सर ․․․․․․ लग जायेगा। सर ․․․․․सर्टेनली लगेगा․․․․․․हां․․․․․हां․․․․․․ नेशनल न्‍यूज में ही लगेगा (ही ही करते हुए घड़ी देखता है ) कैसी बात करते हैं ․․․․․․․सर ․․․․․ अभी तो ब्रॉडकास्‍ट में पांच मिनट बाकी हैं। प्रसारण के बीच भी आपका आदेश आता तब भी लगा देते। फैक्‍स भेजा है․․․․․ जी ठीक है, मैं उसे मंगवा लेता हूं। सम्‍पादक चोगा रखकर, घंटी बजाता है। चपरासी से फैक्‍स मंगवा कर, कहता है '' मिनिस्‍टर तीक्ष्‍णक के पर्सनल सैकेट्री का फोन था। मंत्री साहब को वॉयरल फीवर हो गया है, इसलिए भूसा - घोटाले की सुनवाई हेतु अदालत में उपस्‍थित नहीं हो सकेंगे। इस समाचार को हेड लाइन के साथ आज की नेशनल न्‍यूज में प्रसारित होना है। इसे न्‍यूज रूम में दे आओ, हरी․․․․․․․अप․․․․․। ''
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पियत तमाकू लाल 


बस दौड़ रही थी। मेरे पास बैठे यात्रियों में  आठ-नौ साल का एक गोल-मटोल बालक भी बैठा था। वह अपने शरारती नयन तथा चेहरे की मासूमियत से मुझे बार-बार आकृष्‍ट कर लेता था। बालक के बाजू में बैठा अधेड़, कदाचित उस बालक का पिता  झपकी लेने में तल्‍लीन था।      बस  एक जगह पर ठहरी। बालक बड़े झपाटे से नीचे उतरा। कुछ मिनट बाद वह लौटा तो उसके हाथ में गुटखा के दो पाउच थे। उसने एक पाउच अर्द्ध- निद्रित अधेड़ को दिया। उस आदमी  ने उसी अवस्‍था में पाउच फाड़ा और हलक में उलेड़ा। दो बार पीक थूक कर वह पुनः झपकीलीन हो गया। अब, बालक ने दूसरे पाउच को फाड़ा और उसे अपने मुँह में फांक लिया।  
  
मैं दंग था। उस  मासूम उम्र में गुटखों की घातकता के प्रति आशंकित होकर मैंने उनींदे अधेड़ को झिंझोडा, ''भाई साहब ․․․․․․․․․․․․․․भाई साहब। ''     '' हूँ ․․․․․․․․․․․․․․․। '' उसने बमुश्‍किल आंखें खोलीं।     '' आप जानते हैं, यह गुटखा कितना खतरनाक है? आप खुद भी खाते हैं और यह बच्‍चा भी । कम से कम इस अबोध बच्‍चे को तो रोकिये। ''  
 
अधेड़ ने मुँह की पीक को खिड़की के बाहर खर्च किया और बोले, ''क्‍या करूं, यह नालायक मानता ही नहीं। '' यह कहकर, एक हल्‍का सा तमाचा उसने बेटे के सर पर जड़ा और ऊंघने लगा।      तिरछी नजरों से घूर कर वह बालक खी-खी कर हंस दिया। सहसा, मुझे याद हो आया बिहारी का यह दोहा -
'' ओठ ऊंचेहांसी भरी, दृग भौंहन की चाल।
मो मन कहा न पी लियो, पियत तमाकू लाल॥ ''

     दोहे में वर्णित छवि तम्‍बाकू पीते छबीले नायक की है, जिसने अपने चुलबुले अंदाज से तम्‍बाकू पीने के साथ नायिका का मन पी लिया था। गनीमत है कि किसी कम्‍पनी की निगाह अभी तक इस दोहे पर नहीं पड़ी वरना वह अपने किसी तम्‍बाकू उत्‍पादों के विज्ञापन के साथ इसे जोड़ देता। यों भी इन उत्‍पादों के विज्ञापन जगत पर दृष्‍टि डालें तो इनके अधिकांश पात्र हष्‍ट -पुष्‍ट , बाकें और जवां मर्द ही नजर आयेगे। बीड़ी जैसी नाचीज चीज के विज्ञापन में भी हाथ बांधे पहलवान अथवा गलमुच्‍छों वाला गबरू जवान नजर आयेगा। सिगार और सिगरेट को लें तो उसमें माशूका को बाजू में समेटे, कोई कारनामा अंजाम देते '' ही-मैन'' होंगे।

     गुटखों के विज्ञापन में, ऊंचे लोग-ऊंची पंसद वाले नवीन निश्‍चल अथवा आसमां में लटकी ,मटकी फोड़ते गिरीश कर्नाड होंगे । कहीं, समधीजन बरातियों का स्‍वागत दूध- लस्‍सी से नहीं बल्‍कि पान-मसाला से करना चाहेंगे।

     अगर ,आज '' पीटर द ग्रेट '' जिन्‍दा होते तो उन्‍हें यह देखकर बड़ा सुकून हासिल होता कि तम्‍बाकू के तमाम प्रतिबन्‍धों के बाद भी दुनियां में इसका सेवन निरन्‍तर बढ रहा है। ( एक सर्वे के मुताबिक इसके सेवन में 21 प्रतिशत वृद्धि तथा उत्‍पादक कम्‍पनियों के मुनाफे में 67 प्रतिशत वृद्धि हुई )। सम्राट पीटर ने पन्‍द्रहवीं शती में तम्‍बाकू का सेवन अनिवार्य किया था। मगर अब, तो निषेध के बावजूद , बाल-अबाल, नर-नारियां इसके दीवाने हुए जा रहे हैं। इसे निरखकर निश्‍चय ही पीटर जी की प्रसन्‍नता का पारावार नहीं रहता।     
बहरहाल, भारत सरकार ने 1965 में एक परिपत्र प्रकाशित कर तम्‍बाकू के चौबीस घातक विष गिनाये और इससे होने वाले रोगों का राग अलापा  था। यथा -फेफड़ों की क्षति, कुंचित-आहारनाल, शुक्राणुओं की कमी , कैंसर , मोतियाबिन्‍द, हृदयरोग आदि-इत्‍यादि। विश्‍व में हर दिन ग्‍यारह हजार मौतें होने का ढिढोंरा भी खूब पीटा गया। लेकिन लोग बेहिचक तम्‍बाकू पदार्थों का सेवन कर रहे है। और तो और, समाज का दर्पण कहा जाने वाला साहित्‍य भी सुरती-प्रेमियों की हौंसला अफजाई में पीछे नहीं रहा-

'' कृष्‍ण चले बैकुंठ, राधा पकड़ी बांह।
इहां तम्‍बाकू खाई लो, उहां तम्‍बाकू नांह ॥''                                             -(हिन्‍दी)   



''हुक्‍के को पीना खलल आबरू है।
सुबह होते ही आग ही जुस्‍तजू है॥
मगर इससे बड़ी नेक खू है।
खींचो तो अल्‍लाह, फूंको तो बू है। ''                                             -(उर्दू)



''विट्‌जापुरे पद्यनाभे न प्रष्‍टं।
धृतिंतले सारभूता किमस्‍ति॥
चुतुर्भिमुखैः उत्‍तरम्‌ प्रदत्‍तं।
तमालः तमालः तमालः तमालं ॥ ''                                             -(संस्‍कृत)




     सहसा, मेरी विचारधारा को विराम लगा। झटके से बस रूक गयी। मंजिल आ चुकी थी, अतः मैं उतरने लगा। उसी समय मुझे धकियाता सा, वह बालक बस से उतरा और सामने की थड़ी से गुटखा के पाउच खरीदने लगा ।

     मेरा मन भारी हो गया। मैं थके कदमों से घर की ओर बढने लगा। घर पहुँचकर निढाल पड़ गया। कुछ मिनट बाद मित्र ठेपीलाल ने प्रवेश किया। ठेपीलाल विद्वान व्‍यक्‍ति हैं। अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं, किन्‍तु उन्‍हें नशे की बुरी लत है। गांजा- भांग- तम्‍बाकू उनके प्रिय व्‍यसन हैं। वार्ता के दौर में 'आयी समझ में 'तकिया-कलाम का इस्‍तेमाल  करते हैं।

     मेरे सामने वाली कुर्सी पर पसरते हुए ठेपी बोले, ''दोस्‍त, तुम्‍हें बस स्‍टैंड  से यहां आते देखा था। चाल सुस्‍त थी। मैंने सोचा जरूर कोई बात है, ‘आयी समझ में '। और  मैं वहीं से तुम्‍हारे पीछे -पीछे हो लिया। बताओ क्‍या बात है?''

     मैंने बस में घटित गुटखे वाली घटना सुनाकर आगे कहा, '' इस जहर ने तो किसी को नहीं बख्‍शा। इसने बच्‍चों तक में जड़ें जमा ली हैं। ''

     ठेपी ने बड़े इत्‍मीनान से एक बीड़ी सुलगाई। सुट्‌टा खींचा और धुंआ मेरी ओर पेलकर बोले, '' बस, तुम साहित्‍यकार लोग, चाहे जिस बात पर परेशान हो जाते हो । यह बुरी आदत है। अरे तम्‍बाकू की तलब तुम क्‍या जानो? ' आयी समझ में'। लो इसी विषय पर हिमाचल की एक पुरानी लोक कथा सुनाता हूँ- एक चरवाहा था। मवेशी चरा रहा था। तम्‍बाकू की तलब लगी तो अंटी टटोली । हैरान हुआ कि पोटली तो घर रह गयी। अब जंगल में तामाकू कहाँ मिलती ? थोड़ी देर में व्‍याकुलता बढ गई । हे भगवान! कोई राहगीर भेज दे । निगाहें दौड़ाई। घुमावदार रास्‍तों पर दो मोड़ आगे जाकर देखा। वहां चट्‌टान पर श्‍वेतवस्‍त्रधारी एक वृद्व पुरूष दिखा। उसकी सफेद दाढी हवा में लहरा रही थी। उसकी पलकें बहुत बड़ी थीं। वह अपनी एक पलक को हाथ से ऊँचा कर किसी लम्‍बे कागज को पढ रहा था। चारवाहे ने पूछा, '' यह क्‍या पढते हो?''

     बाबा बोला, '' दुनियां की कुंडली पढता हूँ। बोल तुझे क्‍या चाहिए? राजपाट, मकान, दौलत? मांगले जो चाहे। ''
     चरवाहा कहने लगा, '' नहीं मुझे यह नहीं चाहिए। बस थोड़ी तमाकू चाहिए।
     बाबा ने उसे तम्‍बाकू भरी एक चिलम दी और चला गया। यह थी तमाकू की दीवानगी। चरवाहे ने उसके सम्‍मुख सारे वैभव ठुकरा दिये। ‘आयी समझ में‘।''

      मैं मुस्‍कराया , '' दंतकथाओं द्वारा महिमा मंडन से  किसी वस्‍तु की बुराई खत्‍म नहीं होती। किसी ने कहा है -
''मेहर गयी, मोहब्‍बत गयी, गयी आन और बान।               
धुएं से मुंह झुलसा कर, विदा किया मेहमान॥    

ठेपी कहां मानने वाले थे। अपनी विदृता झाड़ते बोले, '' दंत कथा छोड़ो । मैं तुम्‍हें देवभाषा में एक श्‍लोक सुनाता हूँ-
'' क्‍वचित्‍धुक्‍का, क्‍वचित्‍थुक्‍का, क्‍वचत्‍नासाग्रवर्तिनी।
अहा, त्रिपथगा तमालम्‌ , गंगा पुनाति भुवन त्रयम्‌॥



('' अहा․․․․․․․․ हा․․․․․․․․․․․․․त्रिपथगामिनी तम्‍बाकू, कभी गुड़गुडाहट, कभी थूकने  और कभी सूंघने से गंगा की भांति त्रिलोक को पवित्र बनाये हुए है। )
     मैं कम नहीं था। बोला, '' मित्र, अब मैं तुम्‍हें भी एक श्‍लोक सुनाता हूँ। '' मैंने अपनी डायरी पलटी -
'' रूधिरंच पपातोर्ष्‍या त्रीणी वस्‍तुनि चाभवान।
कर्णेभ्‍यशच तमालंच पुच्‍छाद्‌गोभी बभू वह ॥ ''



     अर्थात्‌ देवराज की गौशाला की गायों को गरूड ने घायल कर दिया था। तब पृथ्‍वीलोक पर उनके तीन अंश गिरे। गायों के रक्‍त से मेहंदी, कानों से तमाल, तथा पूंछ से गोभी पैदा हुई। जरा सोचो ठेपी भाई हिन्‍दुओं हेतु तो यह तीनों पदार्थ तयाज्‍य ही हुए। ऋषि याज्ञवल्‍क्‍य ने भी आठ प्रकार की मदिरा का वर्णन किया है, उनमें तमाल भी एक पदार्थ है। और तुम इसे गंगा के समान, त्रिभुवन को पावन करने वाली बता रहे हो। ''

     ठेपी चुप रहे। पानमसाला का एक पाउच फाड़ने और फांकने में तल्‍लीन थे।

     मैं आगे बोला, ''वैज्ञानिक प्रयोग में निकोटिन की एक बूंद ने एक कुत्‍ते को मार डाला। दूसरे प्रयोग में इसके धुएं से बनाये गये काजल का लेप चूहों पर किया  तो कुछ ही दिन में वे भी अल्‍लाह को प्‍यारे हो गये। ''

     अब ठेपी को मुद्‌दा मिल गया था। वाशबेसिन में पीक थूककर कहने लगे, ''बड़े भोले हो दोस्‍त। कुत्‍तों -चूहों की तुलना इंसान से कर रहे हो। गुटका तो बंदर भी खा रहा है, भिलाई का एक बंदर इसका प्रमाण है और आदमी तो ''साइनाइड'' तक को पचा गया। रामचन्‍द्र पठानिया का नाम सुना है कैसे सुनोगें? अपनी सोच के संकुचित दायरे से तो बाहर निकलो। देखो मानव क्‍या-क्‍या खा रहा है। सांप, टिड्‌डे, छिपकली, ट्रक, साईकिल, कंकड, मिट्‌टी, गोबर, रसोईगैस, कांच-कील कीटनाशक युक्‍त सब्‍जियां और न जाने क्‍या क्‍या? देखो शहरी वायु में कितना जहर है? और तुम निकोटिन का रोना रो रहे हो।''

      ''मित्र, तम्‍बाकू में मात्र निकोटिन ही नहीं और भी विष तथा गैस हैं। कोलीडीन, कार्बोलिक एसिड, परफेरोल, अमोनिया, एजालिन, सायनोजन, कार्बन मोनोक्‍साइड, मार्श इत्‍यादि। ये सभी शरीर के समूचे तंत्र को कहीं न कहीं प्रभावित करती हैं।'' मैंने प्रतिवाद किया।

     पर, ठेपी चिकने घड़े थे। मेरी बात से अप्रभावित रहकर, एक सिगरेट सुलगा ली। कश मारकर बोले, '' यार! तुम हर नशे से दूर हो। चाय तक नहीं पीते। और आये दिन बीमार रहते हो। कभी सर दुखता है, कभी पेट। कभी सर्दी-जुकाम से ग्रस्‍त मिलते हो। हमें देखो इतने जहरी हैं कि जहर भी हमसे घबरा जाये। मजाल जो कभी बुखार आया हो। अरे, हमें छूकर वायरस क्‍या पायेगा? मच्‍छर काटे तो उसे भी नशा छा जाये ।'' ठेपी ने धुंए का गुबार छत की ओर छोड़ा।

     मित्रवर सत्‍य फरमा रहे थे। मुझे जब देखो तब  कोई न कोई मर्ज घेरे रहता था। मेरी खामोशी  देख ठेपी ने ठहाका लगाया। वह ठहाका कुछ लम्‍बा हो गया।  यकायक मित्र को खांसी उठी। उन्‍होंने पेट थाम लिया। एक बलगम का लोथड़ा फर्श पर आ गिरा। मुझे उसमें रक्‍त का थक्‍का नजर आया, पूछा , '' यह क्‍या? ''
    खांसी थम गई थी। ठेपी लाल सफाई देने लगे, '' बलगम में गुटखे का रंग होगा; आयी समझ में।''
     मगर, मैं इतना भोला भी नहीं था। ठेपी  को जबरन डॉक्‍टर के पास ले गया। चिकित्‍सक ने परीक्षण करके बताया कि इन्‍हें टी․बी․ हो गई है। दवाई पूर्णरूप से लेंगे और परहेज करेंगे तो स्‍थिति काबू में आ जायेगी।''
     अब, ठेपीलाल मायूस और खामोश थे।

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भागो․․․रे ․․भागो․․․!

      ताजा आंकड़े तो विदित नहीं, परन्‍तु प्राचीन रिकार्ड के अनुसार देवों और देवियों की संख्‍या तैंतीस करोड़ है। यह पौराणिक आंकड़ा उस समय का है, जब पृथ्‍वी पर मानवों की संख्‍या कम थी। इंसानों से अधिसंख्‍य होने के बावजूद देवगण आपस में, शायद ही झगड़े हों? इनके सारे फ़साद, आदमों और दानवों से हुए।
   
कदाचित, इसी वजह से देवियों और देवताओं ने अपने वाहनों के तौर पर पशुओं तथा पक्षियों का वरण किया। साथ ही उन्‍हें अपने अंगों पर अंगीकार भी किया। मगर, मुआ मानुष, प्रण-प्राण से जप- तप करने के पश्‍चात्‌ भी उतनी नजदीकी नहीं पा सका। जबकि, मानवाधिकार जैसा पंगा भी उन दिनों नहीं था। अलबत्‍ता, एक बार राजा नहुष्‍ ने इन्‍द्रासन हासिल करने पश्‍चात्‌ मानवी ऋष्‍यिों को पालकी में जोतने का हौसला जुटाया था, तो उसे भी श्रापवश इन्‍द्रासन से च्‍युत होना पड़ा था। बहरहाल, देवताओं के  सभी वाहन  ' इको-फ्रेंड ' यानि प्रदूषण रहित हैं। यह भी विस्‍मयपूर्ण है कि प्रकृतितः शत्रु अर्थात्‌ खाद्य-श्रृंखलाबद्ध पशु-पक्षी भी देवों- देवियों के सानिध्‍य में मित्र-भाव से रहे।

    और इसका पुख्‍ता प्रमाण हैं, ' शिव -परिवार ' के वाहन। इस परिवार के मुखिया महेश्‍वर ने वृषभ पर सवारी गांठी और कंठ पर सर्पधारण किया। देवि दुर्गा, शेर पर आसीन हुई। गणेशजी, मूषक पर मोहित हुए तथा कार्तिकेय का मन मयूर पर आ गया। सिंह ने नंदी का भक्षण नहीं किया तथा विषधर ने कभी चूहे को नहीं हड़पा और मोर ने सर्प पर चंचु -प्रहार कदापि नहीं किया।

    शिव परिवार की विशिष्‍टताएं और भी हैं। भोलेनाथ, शमशान की भस्‍म रमाकर, भांग- धतूरा एवं आंक के सेवन में निमग्‍न हैं। मातेश्‍वरी को फल-फूल के साथ मदिरा और रक्‍त भी अर्पित होते हैं। गजानन लड्‌डुओं पर लट्‌टू हैं। किन्‍तु कार्तिकेय की कोई विशेष पंसद नहीं। जैसा भोग मिले उसी में सन्‍तुष्‍ट हैं। गणों और प्रेतों से घिरा, भगीरथी की पावनता तथा चन्‍द्रमा की शीतलता सहेजे और  कैलाश शिखर पर विराजित, शिव परिवार इतनी विचित्रताओं के बावजूद अलमस्‍त और प्रसन्‍न प्रतीत होता हैै। इस खुशहाली का एक राज ' हम दो- हमारे दो ' में भी निहित है अर्थात्‌ आदर्श नियोजित परिवार। यहां तक कि बुद्धि के देव गणेशजी ने दो पत्‍नियों के बावजूद, एक एक पुत्र यानि लाभ और शुभ उत्‍पन्‍न किये।
   
अब, एक देव-त्रयी पर विचार करते हैं। यह तिकड़ी है, ब्रहा्र-विष्‍णु- महेश की। इनके पास संसार के संचालन का चार्ज है। यह तीन विभागों द्वारा संचालित होता है। सृष्‍टि के प्रभारी ब्रहा्रजी हैं। विष्‍णुजी, सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण महकमे, पोषाहार के इंचार्ज हैं। ये बड़े मायावान हैं। इन्‍होंने मृत्‍युलोक में सर्वाधिक अवतार लेकर लीलाएं रचाईं। लक्ष्‍मीजी इनके चरण दबाती हैं। यूं भी रसद विभाग वालों पर लक्ष्‍मीजी की कृपा सदैव बनी रहती है। शंकरजी संहार विभाग के प्रमुख हैं। भूत-प्रेत उनके दरबारी हैं।
   
बहरहाल, दीगर बात यह कि महकमों  के महत्‍व अथवा उनके बंटवारे को लेकर तीनों देवों में कभी कोई असंतोष या  विवाद नहीं उपजा अपितु इन्‍होंने सदा एक दूसरे का जयघोष ही किया।  सामंजस्‍य और समझ की बेहतर मिसाल इस त्रयी ने  प्रस्‍तुत की हैः- जिसने जन्‍म लिया, उसका पालन- पोषण अवश्‍य होगा और उसे मृत्‍यु भी जरूर मिलेगी । जैसा भाग्‍यांकन ब्रहा्राजी करेंगे, शेष दोनों देव, यथा संभव,  उस प्राणी को अपनी अनुकंपा प्रदान करेंगे। दूसरे महकमे के मुखिया द्वारा अधिकारों के अतिक्रमण पर भी ये देवगण खुश ही रहते हैं। यथा- विष्‍णुजी किसी जीव का 'सुर्दशन' से संहार करें तो शंकरजी नाराज नहीं होंगे और भोलेनाथ अपने किसी भक्‍त को समृद्ध कर दें तो विष्‍णु भगवान को कोई एतराज नहीं होगा।
   
ब्रहा्राजी ने हंस को वाहन के रूप में चुना, साथ ही जीवात्‍मा को हंस की भांति उज्‍जवल और निर्मल काया प्रदान की। किन्‍तु मानव ने प्रायः उसे कलुषित ही किया। विष्‍णुजी के पास अत्‍यत्‍न वेगवान गरूड है। यह संकटमोचन हेतु तत्‍क्षण घटना स्‍थल पर पहुंचा देने में समर्थ है। ऐसे पालनहारा के होते हुए भी मनुष्‍य की बुभुक्षा निरत बढती रही।
   
सर्वस्‍व भस्‍म कर देने की क्षमता, त्रिपुरांतक में है। इनके पास इहलोक से तार देने वाली गंगा मां भी हैं। वीतरागी नांदिया उनका वाहन है। नाश्‍वान जगत की प्रतीति होते हुए भी, इंसान नंदी जैसा विरागी भाव नहीं पा सका बल्‍कि कोल्‍हू के बैल की भांति माया-मोह के फेरे में फिरा करता  है। हंस, गरूड, शेषनाग और वृषभ ने परस्‍पर वैमनस्‍य कभी नहीं पाला जबकि मानव इन प्रवृतियों का पालतू हो गया।
   
एक विख्‍यात त्रयी और है- गणेश-लक्ष्‍मी-सरस्‍वती की। यह बुद्धि, वैभव और विद्या की दाता है। लेकिन इनके विभाग स्‍वतंत्र हैं। प्रायः एक दूसरे के कार्यो में दखलंदाजी नहीं देते। प्राणी को अपनी मर्जी से 'वर' देते है, किसी को अल्‍प और किसी को बेतहाशा। लुब्‍बेलुबाब, यह कि जिसके पास बुद्धि हो उसका धनवान होना आवश्‍यक नहीं और हरेक धनपति का विद्वान होना जरूरी नहीं है। बिरले व्‍यक्‍ति ही ऐसे हैं, जिन पर गणेश लक्ष्‍मी और सरस्‍वती की त्रयी ने संयुक्‍ततः  निवेश किया हो।
   
चुनांचे , इनके वाहनों पर दृष्‍टि डालें। महाकाय गजानन ने नन्‍हें मूषक का वरण किया। सौंदर्यवती महालक्ष्‍मी ने कुरूप उल्‍लू को चुना। वीणावादिनी को हंस भा गया। तात्‍पर्य यह कि बुद्धि को स्‍थूल और भोथरा नहीं होना चाहिए। वह चूहे की भांति सूक्ष्‍म तथा तीक्ष्‍ण हो ताकि अज्ञान के आवरण को भेद कर प्रविष्‍ट हो सके। उलूक की भांति निवड़ अंधकार में लक्ष्‍य को देख सकने वाला उद्यमी ही लक्ष्‍मीवान हो सकता है । 'रातोंरात मालामाल हो जाना ', कहावत का निहितार्थ भी कदाचित यही है। ज्ञान की कांति हंस की माफिक धवल है। सरस्‍वती का कृपापात्र, इसी दीप्‍ति से प्रदीप्‍त हो उठता है।

    किन्‍तु, कतिपय गणपित भक्‍तों ने मौके-बे-मौके प्‍लेग के चूहों की भांति उत्‍पात मचाया और दहशत फैलायी। लक्ष्‍मी पुत्रों ने ‘हर शाख पर उल्‍लू बैठा है‘ को चरितार्थ किया और सरस्‍वती साधकों ने पद तथा पुरस्‍कार की लोलुपता में अवनति को अपनाया। और अगर ऐसी  प्रवृतियां बढती रहीं तो देवगण एक दिन चीख पड़ेंगे, ‘भागो रे भागो, मानुष आया।

        प्रशासनिक कार्यालय : एक प्रश्‍नोत्‍तरी

प्रश्‍न-    '' नौकरी न कीजै चाहे घ्‍ाास खोद खाइये '' अथवा '' नौकरी करे आवे चोट, उससे भले भीख के रोट'' इन लोकोक्‍तियों का तात्‍पर्य स्‍पष्‍ट करें तथा इस पर अपने विचार व्‍यक्‍त करें।

उत्‍तर -    उपरोक्‍त उक्‍तियों में नौकरी को अत्‍यन्‍त निकृष्‍ट कर्म बताया गया है। नौकरी करने की अपेक्षा घास खोदना श्रेष्‍ठकर है। नौकरी में नुकसान की गुंजाईशें हैं, अतः उससे हितकर तो भीख मांगना माना गया है। लेकिन, हमारा विचार इससे भिन्‍न है। अगर, इन जनश्रुतियों का जन्‍मदाता प्रशासनिक कार्यालयों का हाल देखता अथवा वहां नौकरी कर रहा होता तो महसूस करता कि नौकरी के क्‍या मजे हैं, और कितने  रूतबे हैं?

प्रश्‍न-    प्रशासनिक कार्यालय क्‍या होता हैं? इसके महत्‍व पर प्रकाश डालें?

उत्‍तर-    अधीनस्‍थ विभागों के पर्यवेक्षण तथा नियन्‍त्रण हेतु प्रशासनिक कार्यालयों को स्‍थापित किया जाता है। जिस भांति, दूध की मलाई उसके ऊपर छायी रहती है, उसी प्रकार अधीनस्‍थ कार्यालयों पर प्रशासनिक कार्यालय, आच्‍छादित रहते हैं।

प्रश्‍न-    प्रशासनिक कार्यालय की पहचान के बिन्‍दु बताईये?

उत्‍तर -    प्रशासनिक कार्यालय को निम्‍न बिन्‍दुओं के आधार पर आसानी से पहचाना जा सकता है-

(अ) जिस कार्यालय में कार्यारंभ का समय हो जाने के उपरान्‍त भी कर्मचारीगण निश्‍चिंतता पूर्वक आ रहे हों या प्रांगण की गुनगुनी धूप में धूम्रपान, गुटखा-जर्दा के सेवन मेें जुटे हों। अथवा कानाफूसियों, चुहलबाजियों, तथा मोबाइल पर वार्ता में लीन हों।
    (ब) जिस कार्यालय के अधिकांश आसान रिक्‍त हों और जलपान गृह सदा  भरा हुआ हो।
    (स) जिस कार्यालय में प्रकरणों का निबटान आसान न हो बल्‍कि उसे अधिक उलझा दिया जाए। किसी मुद्‌दे पर निरर्थक बहस कर, राई का पहाड़ बनाया जा रहा हो।
    (द) जिस कार्यालय के कर्मचारी के व्‍यवहार में आगंतुक के प्रति सद्‌भाव का अभाव हो। मुख-मुद्रा रूखी प्रतीत हो और वाणी में कर्कशता का आभास हो।

प्रश्‍न-    कथन है कि प्रशासनिक कार्यालयों की हवा ही कुछ और होती है। क्‍या यह कथन सत्‍य है? उदाहरण सहित समझाएं।

उत्‍तर -    यह कटु सत्‍य है। प्रशासकीय कार्यालयों का  आलम अलग ही होता है। कहा जाता है कि अधीनस्‍थ कार्यालय का चूहा भी कुछ दिन वहां रहकर, उस आबो-हवा का सेवन कर ले, तो शेर की मानिंद दहाड़ने लगे।
    अब, एक नवयुवक लिपिक का उदाहरण प्रस्‍तुत किया जाता है ः- उसकी प्रारंभिक नियुक्‍ति एक अधीनस्‍थ विभाग में की गई थी। किन्‍तु कुछ माह पश्‍चात्‌ उसे प्रशासकीय कार्यालय में स्‍थानान्‍तरित कर दिया गया। वह, अत्‍यन्‍त अनिच्‍छा पूर्वक वहां गया। कोई एक माह पश्‍चात्‌ अधीनस्‍थ कार्यालय द्वारा भेजे गये पत्रों, प्रस्‍तावों, मसविदों पर तल्‍ख टिप्‍पणियां आने लगीं। अधीनस्‍थ कार्यालय का बड़ा अधिकारी हैरान था। यकायक यह तब्‍दीली कैसी? वह एक दिन अधीनस्‍थ कार्यालय का अधिकारी प्रशासनिक कार्यालय गया और पूछताछ की तो पता चला कि नया बाबू जिसे जबरन अधीनस्‍थ कार्यालय से ठेला गया था, सारी कारगुजारी  उसकी ही थी।

प्रश्‍न-    प्रशासकीय कार्यालय की कार्यशैली का एक उदाहरण और दीजिये।

उत्‍तर-    प्रशासकीय कार्यालय की काम अटकाऊ शैली का एक नमूना पेश है- मामला अधीनस्‍थ विभाग में कार्यरत्‌ एक अधिकारी के अवकाश का है। पूर्व में वह अधिकारी, ''क'' नामके प्रशासकीय कार्यालय के नियंत्रण में काम करता था। अनेक अड़चनें डालने के उपरांत, उसका अवकाश स्‍वीकृत हुआ। किन्‍तु, उस हतभागे अधिकारी के छुटि्‌टयों पर प्रस्‍थान से पूर्व ही विभाग का नियंत्रण बदल कर ''ख'' प्रशासकीय कार्यालय के अंतर्गत हो गया। जब उस अधिकारी ने एवजी अधिकारी की प्रतिनियुक्‍ति हेतु ''ख'' नामके प्रशासनिक कार्यालय से सम्‍पर्क किया तो वहां से टका सा जवाब मिला कि आपका अवकाश ''क'' प्रशासनिक कार्यालय से स्‍वीकृत हुआ था, अतः यह मामला, हमसे संबंधित नहीं है। परेशान हाल अधिकारी ने पुनः ''क'' को दूरभाष किया तो उत्‍तर मिला, '' हम आपकी भार मुक्‍ति हेतु  अधिकारी क्‍यों भेजें? हमने तो आपका अवकाश स्‍वीकृत कर दिया था। अब आप''ख'' के नियंत्रण में अतः  एवजी अधिकारी हमारे द्वारा नहीं भेजा जाएगा। चूंकि, यह आपके और ''ख'' के बीच का मामला है, अतः इसे आप स्‍वयं ही सुलझाएं।

प्रश्‍न-    प्रशासकीय कार्यालय सदा अड़चनें ही नहीं डालते बल्‍कि मददगार भी सिद्व होते हैं। क्‍या यह कथन सत्‍य है। यदि हां तो उदाहरण दीजिये।

उत्‍तर -    प्रशासनिक कार्यालय सहयोगी भाव भी रखते हैं, सिर्फ उनसे जिनके प्रति उनका सौहार्द रहता है। इसका एक उदाहरण प्रस्‍तुत है- एक प्रशासकीय कार्यालय को किराये पर जीप का अनुबंध करना था। नियमानुसार तीन वाहन मालिकों से प्रस्‍ताव आमंत्रित किये गये। एक पूर्व निश्‍चित वाहन मालिक को अनुबंधित किया गया।

    अब, वह वाहन स्‍वामी  यह भी चाहता था कि उसका अनुबंधित वाहन हमेशा, उसके घर पर ही रहे और जब कार्यालय को जरूरत हो तो मंगवा लिया करे। किन्‍तु विभागीय नियम यह था कि अनुबंधित वाहन सदा कार्यालय में उपलब्‍ध रहेगा। प्रशासनिक कार्यालय का आला अधिकारी उस जीप मालिक के प्रति कृपालु था। अतः, उसने यह मामला अकांउटेंट को सौंपा। उस समस्‍या का समाधान चतुर लेखाकार महोदय ने कुछ इस तरह की टिप्‍पणी लिखकर कियाः- '' कार्यालय में जीप की मौजूदगी के लिए 'गैराज' की व्‍यवस्‍था करनी होगी। चूंकि, कार्यालय में 'गैराज‘ उपलबध नहीं है। अतः 'गैराज‘ किराये पर लेना होगा । इससे कार्यालय पर अतिरिक्‍त व्‍यय भार भी पड़ेगा। अतः वाहन मालिक को अनुबंधित जीप उसके निवास पर रखने की अनुशंसा की जाती है।''

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करजा लेकर मरजा

         मुंशी प्रेमचन्‍द ने एक जगह लिखा है कि कर्ज़ वह मेहमान है जो एक बार आकर, जाने का नाम नहीं लेता। पुरानी लोकोक्‍ति में भी करजे को पहाड़ से भारी माना गया है।  उस जमाने में इंसान उऋण होने के लिए उतावला हुआ करता था। वह इहलोक का समूचा कर्ज़ उतार देना चाहता था ताकि परलोक में सुकून से जी सके। प्राचीन चिंतक चार्वाक ने भौतिकवाद का बहुत ढोल पीटा- ''यावंज्‍जीवेत्‌ सुखं जीवेत, ऋण कृत्‍वा घृतं पिबेत, भस्‍मी भूतस्‍य देहस्‍य पुनरागमनम्‌ कुतः।'' मगर उस बेचारे की दुनियां ने नहीं सुनी। परलोक बिगड़ने का डर जो था। इसी मुद्‌दे का लाभ, उधार वसूल करने वाला भी उठाता था।

वह मसल हाजिर है -     एक दीढ़ उधारिये ने अनेक तकाजों के उपरान्‍त उधार नहीं चुकाया तो साहूकार ने तैश में आकर, ऋणी का लिखा रूक्‍का यह कहकर फाड़ दिया कि तुझे कर्ज़ नहीं चुकाना है तो मत चुका। मरने के बाद भगवान के घर हिसाब- किताब कर लेंगे। ईश्‍वर के सम्‍मुख जवाबदेही से खौफ खाकर, उस उधारिये ने फौरन उधार चुकता कर दिया।

इसी तरह , मुस्‍लिम हदीस का फ़लसफ़ा भी कहता है कि कोई अल्‍लाह की राह में शहीद हो तो वह जन्‍नत में उस वक्‍त तक दाखिल ना होगा, जब तक उसका कर्ज़ अदा न कर दिया जाए, दूसरी हदीस में भी लिखा है कि ऐसे शख्‍स के सारे गुनाह माफ होंगे सिवा कर्ज़ के। जापान के एक सज्‍जन हैं, अकीरा हरेरूया। वे अपनी उधारी चुकाने के लिए सड़क पर कई वर्षो से पिट रहे हैं। अकीरा को एक बार पीटने का शुल्‍क है, एक हजार येन। वे पेशे से इलेक्‍ट्रिशयन है, लेकिन कर्ज़ की अदायगी हेतु अतिरिक्‍त आमदनी के लिए ऐसा कर रहे है। किन्‍तु ऐसे भद्र पुरूष बिरले ही मिलेंगे। 

    क्‍योंकि अब सोच बदल गयी हैं आज वसूलने वाला कर्ज़दारी के कागजात भूले से भी नष्‍ट कर दे तो ऋणी की बांछें खिल जायें। अब तो जिसने उधार दिया है, वह इस तरह गुनगुनाता है - ''हमने उनकी याद में जिन्‍दगी गुजार दी, मगर वो नहीं आये जिन्‍हें उधार दी। '' राजस्‍थानी कहावत है, ' घी खा रे घी खा, पगड़ी राख घी खा। ' यानि पगड़ी को गिरवी रखकर भी घी खा। ज्‍योतिष शास्‍त्र में लिखा है कि छठे भाव के स्‍वामी के साथ मंगल की युति या दृष्‍टि संबंध हो अथवा बुध नीच-भाव का हो तो ऐसी कुंडली वाला व्‍यक्‍ति कर्ज़दार हो जाता है। जब शुभ भाव में गुरू होगा तभी तो कर्ज़ चुकेगा। अब बताये कि इसमें बेचारे कर्ज़दार का क्‍या दोष ? सब ग्रहों का हेर-फेर है।

    वस्‍तुतः, कर्ज़ अदायगी का युग अब गया। कवि सत्‍यपाल नगिया के अनुसार  ‘कज़र् लिए चल खाता चल, सबका माल पचाता चल। कज़ार् जो भी वापस मांगे, गाली उसे सुनाता चल' का अफ़साना विकसित हो चला है। अर्थात्‌ उधार लेना, आन-बान-शान का प्रतीक है। फ़ाकामस्‍त मिर्जा गालिब को कर्ज़ पर मदिरा मुश्‍किल से ही मयस्‍सर हुआ करती थी किन्‍तु, अब कर्ज़ पर शराब ही नहीं, नाना  प्रकार की उपभोक्‍ता सामग्री उपलब्‍ध हैं मनचाही चीज खरीदिये। उपभोग कीजिये। किश्‍तें चुका सकें तो चुकाइये अन्‍यथा फाका मस्‍त हो रहिए।     
यह किश्‍तों का मामला भी बड़े गुल-गपाड़े वाला है। 'थोड़ा सा नकद चुकावें, शेष आसान किश्‍तों में ' जैसे जुमले ने बाजार जमा दिया है। और ये किश्‍तें आसान किसके लिए रहेंगी? चुकाने वाले के लिए या वसूलिये के लिए ? अलबत्‍ता, जिसे आसान नहीं होगा, वह ही भुगतेगा।    

 हाल के वर्षो में उधारवादी मानसिकता के ऊंट ने बड़ी तेजी से करवट बदली है। इस संस्‍कृति के चलते आलम यह है कि क्रेडिट कार्डधारी शख्‍स अपने आगे अन्‍य को तुच्‍छ मानते हैं। क्रेडिट-कार्ड पर से खरीद फरोक्‍त करना प्रतिष्‍ठा पूर्ण हो गया है। एक नहीं चार चार क्रेडिट कार्ड के मालिक हैं, भाई लोग।    
फिलवक्‍त, भोगियों के अनुभव बताते हैं कि नकद क्रेता सदा पछताता है और उधार खरीद करने वाला मजे मारता है। नकद खरीदारी, वह तोता है जो क्रेता के हाथों से फुर्र हो गया। खरीदे सामान में कोई खामी निकल आयी तो खरीदार, विक्रेता के सामने गिड़गिड़ाने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। मर्जी है दुकानदार की। वह उस शिकायत पर तवज्‍जा दे अथवा नहीं। दूसरी ओर, कर्ज़ के जरिये क्रय करने वाला, वस्‍तु की छोटी से छोटी खामी को बढा चढा कर बतायेगा । और अगली किश्‍त रोक देने रौब भी दिखा देखा। फलतः ऐसे खरीदार को विक्रेता, रिरियाकर संतुष्‍ट करने का प्रयास करेगा।     

मेरे मित्र हैं, ठेपीलाल। ऋण -संस्‍कृति के खासे दुश्‍मन और नकद खदीदारी के पक्‍के पक्षधर। उधार को प्रेम की कैंची समझते हैं और इस विषय पर चर्चा चलते ही शेक्‍सपियर की यह उक्‍ति दोहराया करते हैं -'न उधार लो न दो, क्‍योंकि उधार से अक्‍सर पैसा और मित्र दोनों खो जाते हैं और उधार से भी किफायतशारी कुंठित हो जाती है। '    

सदा पैदल चलने और स्‍वस्‍थ रहने की नसीहत पर अमल करने वाले ठेपी भाई को मैंने एक दिन मोटरसाईकिल चलाते देखा। मैं कहीं सपना तो नहीं देख रहा। चिकोटी काटकर यकीन किया कि वह यथार्थ ही है। सोचा कि शौकिया तौर पर चला रहे होंगे? दूसरे दिन मोटर साईकिल पर सवार होकर मेरे घर आ धमके तो मैंने पूछा । वे गर्वपूर्वक बोले, ''बेचनेवाले को धन की आवश्‍यकता थी। और सस्‍ती बेच रहा था अतः मैंने नकद भुगतान कर खरीद ली। सिर्फ छः महीने पुरानी है।'' ठेपी भाई प्रसन्‍न थे। हमने भी हर्ष जताया।  
  
दो माह बाद ठेपीलाल बैंक में आये। थोड़े से व्‍यथित लगे। बोले, '' जिनसे मैंने मोटरसाईकिल ली है, उन्‍होंने बैंक से ऋण लिया था, क्‍या यह सही है? ''    

मैंने पूछा ,''खरीदते वक्‍त कागज नहीं लिये थे क्‍या? ''    

ठेपीलाल बोले, '' उसने कहा था कि कागज बाद में दूंगा। ''    

मैंने विक्रेता का नाम पूछकर खाता तलाशा। बात सच थी । बैंक-कज़र् से खरीदी गयी मोटरसाईकिल की एक किश्‍त भी नहीं चुकायी थी उस सज्‍जन ने। मैंने मित्र को बताया कि ऋणी को नोटिस दिये जा चुके हैं और इस गाड़ी को बैंक कभी भी जब्‍त कर सकती है।
    
ठेपीलाल की नींद हराम हो गयी। उसने बेचने वाले पर अनेक प्रकार के दबाव डाले। किन्‍तु वह कान में तेल दिये बैठा रहा। सच है, सीधे का मुंह कुत्‍ता चाटे। दरअसल, बैंजामिन फ्रैकलिन की यह उक्‍ति भी अब बेमानी हो गई है कि जो कर्ज़ आप पर है उसे चुका दें फिर आपको पता चलेगा कि आपके पास अपना क्‍या है?     

इसी तरह विदेशी कथन है कि देने और लेने में कलाई के घुमाव का ही अंतर है- ''डिफरेंस बिटवीन ए बैगर एण्‍ड ए  गिवर, इज इन द टि्‌वस्‍ट ऑफ द रिस्‍ट '' भारतीय दर्शन भी कहता है कि देने वाले का हाथ सर्वदा ऊपर रहता है। और लेने वाले का नीचे। आज, यर्थाथ में यह हो भी रहा है। देने वाले का हाथ सदा ऊपर ही रहता है। जब लेने वाला चुकाने की जगह, गुर्राकर धमकाता है ,तो  वस्‍तुतः देने वाले के दोनों हाथ ऊपर हो जाते हैं।

शायद, इसीलिए हास्‍यावतार काका हाथरसी कह गये-
''जप तप तीरथ व्‍यर्थ है, व्‍यर्थ यज्ञ और योग।
कर्जा लेकर खाइये, नित्‍य प्रति मोहन भोग॥
नित्‍य प्रति मोहन भोग, करो काया की पूजा।
आत्‍म यज्ञ से बढकर यज्ञ नहीं है दूजा॥
कह काका कविराय नाम कुछ रोशन करजा।
अरे! मरना तो निश्‍चित है, करजा लेकर मरजा॥ ''
 

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    चलती किसी की जीभ किसी का जूता चलता

               
   
    एक कहावत है, ''जूते दो, चिंता सौ‘‘। अमूमन एक आम आदमी के पास एक जोड़ी जूते अथवा चप्‍पल बमुश्‍किल होते हैं। परन्‍तु इन पगरखियों के प्रति उसकी चिंताएं सौ होती हैं। मंदिर में, दावत में, अदावत में, सफर में, वह कहीं भी निष्‍फ्रिक नहीं हो पाता। उसका मन तो जूतों-चप्‍पलों की सुरक्षार्थ ही अटका रहता है।

    अरे, भले मानुस! तुम्‍हारे इन िघसे-पिटे, जीर्ण-शीर्ण जूतों-चप्‍पलों को भला, चोर क्‍यों चुरायेगा, ? उसे चाहिए, उसके नाप के उम्‍दा किस्‍म के, ब्रांडेड कम्‍पनी के जूते। लेकिन फिक्रमंदी, पीछा ही नहीं छोड़ती। रेल के सफर के दौरान ऊपर की बर्थ पर सोते वक्‍त, आम आदमी अपने उन चरण सेवकों को अपने सर पर चढा लेता है।

    आदि मानव इन चिंताओं से मुक्‍त था। पुराण काल के प्रारंभ में भी संभवतया इनका अस्‍तित्‍व नहीं था। तभी तो भृगु ऋषि को विष्‍णु भगवान पर पद-प्रहार करना पड़ा था। अन्‍यथा जूता या चप्‍पल ही फेंक मारते। इस तरह कम-अज-कम उनका गुण-बल तो बच जाता। कदाचित इसी भय से बाद में ऋषि-मुनियों ने 'खड़ाऊं‘ का वरण किया। कालांतर मं,े इस खांटी खड़ाऊं ने बड़ा महत्‍व पाया। रामचंद्रजी की खड़ाऊं चौदह वर्ष तक अयोध्‍या में सिंहासीन रहीं। एक आख्‍यान के हवाले से पता चलता है कि राजसी नारियां उन दिनों जूतियां पहनती थीं।  एक अवसर पर योगीराज कृष्‍ण को द्रौपदी की जूतियां उठानी पड़ी थीं। जूतों का ऐतिहासिक संदर्भ देखें तो इसका प्रथम प्रमाण नवप्रस्‍तर काल में स्‍विट्‌जरलैंड में मिला है। सीरिया के भित्ति चित्रों के मुताबिक ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व भी मानव द्वारा पदत्राण उपयोग में लाने का चित्रण है।

    वर्तमान काल में सियासतदाओं के इर्द-गिर्द मंडराते, सर्राते इन जूतों ने पहले भी कम सितम नहीं ढाये। ‘मैं तुझे जूते की नोंक पर रखता हूं' यह एक कहावत है। कदाचित यही वजह थी कि नुकीली नोंक के जूतों का चलन चला। पंद्रहवीं शती में तो यूरोप के शाही खानदानों में लम्‍बी नोंक के जूतों का प्रचलन काफी हद तक बढ गया था। इन्‍हें 'पोलेंस‘ कहा गया। प्रतिस्‍पर्धा के फलस्‍वरूप इनकी नोंकें लम्‍बी होती गयीं। शनैः शनैः ये दो फीट तक हो गयीं और इन नोकों को जंजीर की मदद से घुटनों के साथ बांधा जाने लगा। जूतों की नोकों को सलामत रखने की फिक्र में रईसजादे ठुमकते-बलखाते-इतराते नाज़नीनों की भांति चलने लगे थे। तब, ब्रिटेन के बादशाह ने जूते की नोंक को दो इंच तक सीमित रखने का आदेश निकाला था।

    सोलहवीं शताब्‍दी से बीसवीं शती तक  जूता उद्योग ने पर्याप्‍त  विकास पाया। 'पैटनूस', 'चोपाहन्‍स', 'चैकबूट', वेलिंगटनबूट्‌स' के क्रम में चमड़ा, कपड़ा, रबर, प्‍लास्‍टिक और अन्‍य सिंथेटिक पदार्थों से बने जूते-जूतियां बाजार में आते चले गये। अंग्रेजों के जमाने में डासन का जूता भी विख्‍यात हुआ था। भारत में इसे मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू पहना करते थे। उस जूते की ख्‍याति से प्रभावित होकर अकबर इलाहाबादी ने लिखा-

बूट डासन ने बनाया, मैंने इक मज़मूं लिखा।
मेरा मज़मूं चल न पाया, डासन का जूता चल गया॥



    इसी मौजूं पर जगदीश्‍वर नाथ विमल लिखते हैः-

सच पूछो तो दुनियां में सब कुछ चलता।
खरे माल को धक्‍का दे खोटा चलता॥
बिजनिस के ठेले पर टोटा चलता।
चलती किसी की जीभ किसी का जूता चलता॥



तदुपरांत, बाटा और बीएससी कम्‍पनियों ने बड़ा नाम और नामा कमाया। आगरा और कानपुर का देशी जूता उद्योग खूब चला। कोल्‍हापुरी चप्‍पलें चल गयीं। 'बूट-पालिश‘ फिल्‍म ने धूम मचायी। जूते चुराने के विवाह गीत-'जूते ले लो․․․पैसे दे दो‘ ने दर्शकों का दिल चुराया।

इसके अलावा जूतों के कुछ इतर उपयोग का वर्णन करना भी उचित होगा- यथा, इनकी माला पहनाना, इन्‍हें पैक करके भेंट करना, जूतम-पैजार के दौरान एक दूसरे पर पांच-दस तड़का देना, बोर कवि पर जूते-चप्‍पल फेंक मारना। आदि इत्‍यादि। इधर, सियासी शख्‍सों पर जूते-चप्‍पल फेंकने के मामले भी बड़ा गुल-गपाड़ा मचा रहे हैं।

इस मामले में हमारे पुरखे अत्‍यंत समझदार और दूरदर्शी थे। सार्वजनिक आयोजनों के दौरान पगतरियों को बाहर उतार देने की परम्‍परा उन्‍होंने पहले ही डाल दी थी। हमारे बहुतेरे ग्रामीण बंधु, अब भी कार्यालयों में प्रवेश से पूर्व अपनी पगरखियों को बाहर ही उतार देते हैं। न साथ रहेगा, जूता और न चलेगा। कहिए क्‍या ख्‍याल है, आपका?

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आह! हमारी अंतर्यात्रा․․․․․

   
    कुछ दिनों पूर्व मैंने ‘जीवन जीने की कला' नामक एक लघु पुस्‍तिका पढी। पुस्‍तिका का एक नुस्‍खा मुझे बड़ा पसंद आया। लिखा था कि कभी अंतर्यात्रा पर जाओ और ‘स्‍व' को खोजो, खुद को जानो और अपने लाइफ-स्‍टाइल में आमूल परिवर्तन कर डालो।

     बात पते की थी तथा मुझे जम गयी। पेशे और परिवार की अनेक परेशानियों के चलते, सैर-सपाटे पर तो कभी जा नहीं सका था तो क्‍यों नहीं, ऐसी अंतर्यात्रा ही कर लूं? अतः एक सुबह जल्‍दी जागा। पुस्‍तक के मुताबिक मुझे हवादार कमरे को चुनना था। मेरे छोटे से दड़बानुमा घर में सिर्फ एक कमरा तनिक हवादार था, जिसकी खिड़कियां वहां जमे सामानों से जाम थीं। उन दो खिड़कियों को खोलने के लिए सामानों को इधर-उधर करने की मशक्‍कत में ही, वह सुबह खर्च हो गयी। खिड़कियों को खोलने की कसरत में बीवी की झिड़कियां भी सुननी पड़ी कि इन्‍हें भी बैठे-ठाले जाने क्‍या क्‍या सूझता रहता है।

    दूसरी सुबह, सबको ताकीद किया कि मुझे एक घंटे तक डिस्‍टर्ब नहीं करें क्‍योंकि मैं अंतर्यात्रा पर जा रहा हूं। मैं आसन बिछा कर बैठ गया और ध्‍यान लगाने की चेष्‍टा करने लगा। बंधुओं! बड़ा कठिन कार्य है, यह। मुआ मन, उस शरारती बालक जैसा है कि उसे जब जब पकड़ो, वह चंगुल से निकल भागता है। छकाये जाता है, छकाये जाता है। बहरहाल, आधा घंटा की मशक्‍कत के बाद मन की चंचलता कुछ कम होती प्रतीत हुई।

    किताबी गुरू ने लिखा था कि अपने चित को वनांचलों, पर्वतों की वादियों, सागर के तटों आदि इत्‍यादि स्‍थानों की ओर ले जाओ। मैंने मन को रणथंभोर के जंगलों की ओर धकेला। रे मन! चल टाइगर प्रोजेक्‍ट में और वहां स्‍वछंद विचरते चीतों को देख। मेरा चित उस प्रलोभन में आ गया और एक बाघ वहां नजर भी आया। उसे पास जाकर देखने का मन हुआ, लेकिन  यह क्‍या? बाघ का चेहरा तो बॉस से मिल रहा था। दहाड़ती-डपटती मुख मुद्रा। मेरा मन वहां से दुम दबाकर भाग छूटा।

    चित को पुनः स्‍थिर किया तो कुलांचे भरते हिरन दिखाई दिए। हां, यह ठीक है, इन मासूमों से कैसा भय? सहसा कोई शोर सा सुनाई दिया। उसने जंगल की नीरवता को भंग कर दिया। अरे! दूधवाला, उसकी भैंस और मेरी बीवी यहां कहां से आ टपकी?

    ओह! यह तो दूधिये और पत्‍नी की नोंक-झोंक है। दूध में पानी मिलाने की वही पुरानी किच-किच। दूधवालों की यह कला भी शाश्‍वत है और जो शाश्‍वत है वह ईश्‍वर है। जो नश्‍वर है वह संसार है। तब तो इस समस्‍या को परम पिता भी नहीं सुलझा सकते। लो, चित फिर बहक गया।

    मैंने मन को कहा, ''यार, तू भी किस पचड़े में जा पड़ा? चल, इस बाह्य यात्रा को त्‍यागकर पुनः अंतर्यात्रा पर चलें।‘‘ चपल चित को यह भी समझाया कि अब आकाश में उड़ेंगे। जमीं के सारे झंझटों से दूर-सुदूर। किताब में लिखा था कि मन को पक्षियों की भांति उन्‍मुक्‍त कर दें। आसमान में कलरव गान करें। मेरे मन में गीत गूंजा-''पंछी बनूं उड़ के चलूं नील गगन में, आज में आजाद हूं दुनियां के चमन में।‘‘

    लिहाजा, प्रसन्‍नचित चित को मैं ले उड़ा। यत्र-तत्र-सर्वत्र। कोई बंधन नहीं, कोई बाधा नहीं। थोड़े प्रयास के पश्‍चात्‌ पक्षियों की चहचहाहट भी सुनाई देने लगी। सफलता के सोपान पर पहुंच कर, मैं विस्‍मय विभोर था। शनैः शनैः उस कलरव गान की तीव्रता बढने लगी। लगा कि पंछी मेरे नजदीक आते जा रहे हैं। बस, कुछ देर में ही मेरे चारों ओर पक्षी ही पक्षी होंगे, मन अति मुदित था।

     तभी बेटी ने कमरे का दरवाजा भड़भड़ाया, ‘‘डैड! आपका फोन।'' मैंने चक्षु खोले। मेरे सेलफोन से कलरव गान गूंज रहा था। कदाचित, कल रात बिटिया रानी ने मेरे मोबाइल की रिंग-टोन बदल दी थी।
  
--
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
prabhashankarupadhyay@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. नरेंद्र तोमर8:09 pm

    तीखे और सार्थक व्‍यंग्‍य जो धार्मिक और सामाजिक पाखंड पर जोरदार चोट करते हैं।

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: प्रभाशंकर उपाध्याय का व्यंग्य संग्रह - ऊँट भी खरगोश था - अंतिम किश्त
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