ऊँट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय ( पिछले अंक 7 से जारी...) इंटरनेट माहात्म्य पौराणिक काल में, महात्...
ऊँट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
इंटरनेट माहात्म्य
पौराणिक काल में, महात्मा शौनक के ऋषि कुल में अट्ठासी हजार मुनि विद्याध्ययन करते थे। नेमिषारष्य में सूत गोस्वामी उनकी जिज्ञासाओं का शमन किया करते थे।
उस वन में वे ऋषिगण पुनः एकत्र हुए । शौनक द्वारा पूछे गए अनेकानेक आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर कृष्ण द्वैपायन सूत जी ने अत्यंत धैर्यपूर्वक दिए। अंततः शौनक ने एक भौतिक प्रश्न किया, ' हे प्रभो! पृथ्वी पर इस समय इंटरनेट अत्यंत चर्चा में है। नर-नारी, बाल-अबाल समस्त जनों में यह प्रिय है। अतः ,हे तात! इंटरनेट के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन करने का श्रम करें। ''
शौनक के प्रश्न को प्राप्त कर सूत गोस्वामी ने मुस्कराकर नयन मूंद लिए। मुनियों की जिज्ञासा के शमन हेतु सूत जी बोले- ' हे शौनक! साधुओं की भौतिक वस्तुओं के प्रति लालसा को जानकर मुझे अतीव हर्ष हुआ। भू-लोक के वर्तमान काल में संत एवं सन्यासीजन भी भौतिक वस्तुओं को पूर्णरूपेण भोगते हुए, आध्यात्मिक उपदेश दे रहे हैं।‘‘
'' हे शौनक ! पृथ्वी लोक पर विज्ञान ने अत्यधिक उन्नति कर ली है और उस उन्नति का सुफल है संगणक, जिसे आंग्ल भाषा में कम्प्यूटर पुकारा जाता है। देवनागरी ने भी इसी शब्द को स्वीकार किया है। जब, कम्प्यूटरों का पारस्परिक संबंध हो जाता है तो उस संबंध को नेटवर्क नाम से संबोधित किया जाता है। स्थानीय कम्प्यूटरों के अंतः संबंध को लोकल एरिया नेटवर्क अर्थात् लेन। विभिन्न नगरों के कम्प्यूटरों के आंतरिक संबंध को वाइड एरिया नेटवर्क अर्थात वैन एवं विश्व के अनेक देशों के कम्प्यूटर के अंतर-संबंध को इंटरनेट का नाम दिया गया है। अतः हे तात! इंटरनेट वस्तुतः करोड़ों कम्प्यूटरों का एक जाल मात्र है। अब तो यह लाभ 'चल-दूरभाष‘ पर भी सहज प्राप्य है।
'' हे तपस्वियों! जिस भांति परमपिता परमेश्वर का कोई नियंता नहीं, उसी भांति इंटरनेट का भी कोई नियामक नहीं है। यह निरंकुश और स्वतंत्र है। भगवान की ही भांति यह समूचे विश्व में व्याप्त है। इसकी लीला निराली है। इसका एक मायावी संसार है। इसके रूप, गुण एवं कार्य के सम्बन्ध में अनेकानेक रूपक और मिथक रच दिए गए हैं। किन्तु ईश्वर की भांति इसके दर्शन दुर्लभ नहीं, अपितु अति सहज हैं। कुछ सहस्त्र रूपए व्यय करने से यह प्रकटतः दृष्टिमान हो जाता है।''
तनिक विराम लेकर सूत गोस्वामी फिर बोले, ' इंटरनेट ज्ञान का अथाह सागर है। जिस भांति समुद्र मंथन करने के पश्चात् अनेक अद्भुत वस्तुओं की प्राप्ति हुई थी, उसी प्रकार इंटरनेट को खंगालने से नाना प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। परम ज्ञानी की भांति यह एक नन्हें परदे पर ज्ञान का विशाल भंडार प्रदर्शित करने में समर्थ है। '
शौनक उवाच- ' हे देव ! इंटरनेट से किस प्रकार की सामग्री उपलब्ध होती है?'
सूत जी ने नयन खोले और प्रसन्नतापूर्वक बोले - ' हे शौनक! इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री का आकलन अत्यन्त कठिन है तथापि मैं इसकी संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार करता हूं। पुस्तकालयों के महत्वपूर्ण ग्रंथ। साहित्यिक-असाहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं । ललित कलाएं। अनुपम मोहक चित्र। संगीत के सुरीले रिकॉर्ड। अत्युत्तम वा अश्लील चलचित्र। कौतुकी विज्ञान कथाएं। देशों-विदेशों के मानचित्र और उनके ज्ञान-विज्ञान। देवी-देवताओं के दर्शन। आरतियाँ, अर्चन और प्रवचन। औषध-शास्त्र। चिकित्सा सेवाएं। क्रय-विक्रय हेतु वस्तुएं। आयात-निर्यात सुविधाएँ और बैंकिंग।
' हे मुनिश्रेष्ठों ! देवी सरस्वती के भंडार की भांति इंटरनेट जितना देता है, उससे अधिक पा लेता है। इसका भण्डार दिनोंदिन समृद्ध होता जा रहा है और यह किसी प्रकार की सामग्री लेने में संकोच भी नहीं करता। ''
सूतजी बोले- ' हे ऋषियों ! इंटरनेट अत्यंत चपल और नटखट है। आकार- प्रकार अथवा रूप परिवर्तित करने के कार्य को यह अति निपुणता से करता है। एक का सर दूसरे के धड़ से जोड़कर नवीन सृजन कर देता है। वस्त्रधारियों के वस्त्र उड़ाकर, उन्हें नग्न रूप में दर्शा देता है और वस्त्रविहीन को भद्र- परिधान पहना देता है। इस देश की सीमा उस देश से और उस देश की सीमा इस देश से जोड़ देता है। नामचीन व्यक्तियों के कल्पित यौन-प्रसंग दिखा देता है। देवों-देवियों के आपत्तिपूर्ण चित्रों का कुशलतापूर्वक निरूपण कर देता है। '
' हे मुनिवरों! इंटरनेट समान दृष्टा है। यह किशोरों-बालकों के सम्मुख भी अभद्र प्रदर्शन से नहीं चूकता। यह अमृत भी बांट रहा है और विष भी । इंटरनेट का लाभ संत पुरूष भी उठा रहे हैं और असंत जन भी । यह भद्र व्यक्तियों का संदेशवाहक भी है और दुर्दांत अपराधियों का भी। दोनों के काम यह पूर्ण गोपनीयता से करता है।''
सूत गोस्वामी उवाच- ' हे साधुओं! इंटरनेट का तिलिस्म अतीव अद्भुत है। इसका रहस्यलोक भेदने के लिए 'खोज-इंजनों‘ का उपयोग करना होता है। आधुनिक कल्पवृक्ष है यह। जिसे यह मिल गया, मानो उसे मनवांछित मिल गया। यह ऐसी कामधेनु है, जिसे जितना दुहोगे, उतना ही पाओगे। परन्तु, हे सुधीजनों! इस कामधेनु के स्तनों से दुग्ध रूपी अमृत भी झरता है और विष भी। यह विष हलाहल से भी घातक है।''
सूत जी चिंतित होकर बोले - ' हे शौनक! मानव, इंटरनेट के ज्ञान रूपी अमृत का पान करेगा तो पल्लवित होगा। यदि उसने हलाहल का पान कर लिया तो उसका नाश निश्चित ही है। ''
॥ इति इंटरनेट माहात्म्य कथा॥
हत भाग! मानुस तन पावा
शास्त्रों में लिखा है कि चौरासी लाख योनियों को भोगने के उपरान्त मानव काया मिलती है। इसे धारण करने के लिए देवता भी तरसते हैं। भगवानों ने इस काया में अवतरित होकर नाना प्रकार की लीलाएं कीं। तुलसी बाबा भी लिख गये हैं कि बड़ भाग मानुस तन पावा। योगाचार्यों का दावा है कि इंसानी शरीर में अनेक अनूठे चमत्कार भरे पड़े हैं, लेकिन उन्हें ध्यान यानि मेडिटेशन से जाग्रत करना होता है। तपस्वियों ने इसमें अनहद्नाद खोज लिया है और वे समाधिस्थ होकर इसी आनंद में लीन रहते हैं। विज्ञान के कर्णधार ह्यूमन-बॉडी को जन्तुओं का सर्वाधिक विकसित कोशकीय रूप बताते नहीं अघाते।
हमारे व्यंग्यकार मित्र अनुराग वाजपेयी लिखते हैं कि मानव शरीर की चर्बी से सात बट्टी साबुन, फास्फोरस से दो हजार से अधिक माचिसें, लोहे से एक कील तथा कैल्सियम से एक कमरे की पुताई की जा सकती है।
हम, किशोरावस्था से युवाकाल तक इन धारणाओं-अवधारणाओं को पढ़-सुनकर, फूले- फूले फिरते थे। परन्तु दाम्पत्य जीवन में घुसने तथा गृहस्थी के खटरागों से जूझने और अधेड़ावस्था में अनेकानेक बीमारियों से घिरने के पश्चात् ,हमें इस मानस तन पर खीज आने लगी। एक जान और सैंकड़ों दुश्मन। सच बताएं तो मुझे अन्य योनियों से भी डाह होने लगी है। आदमी को केवल आठ कचौडि़यां अस्पताल पहुंचा देती हैं और मुआ सूअर ताउम्र, भक्ष्य-अभक्ष्य पदाथोंर् को भकोसता रहता है, और उसका कुछ बिगड़ता नहीं।
पिद्दी से मच्छर पर डी․डी․टी․ बेअसर हो गया है लेकिन इंसानी काया पर यह बवाल मचा देता है। इस अदने से मच्छर ने विश्वविजेता सिकन्दर को ढेर कर दिया। चँगेज खान के मंसूबे धराशायी कर डाले। ऑलिवर कामवेल की तानाशाही नेस्तनाबूद कर दी थी। इस अलबेले मच्छर की मस्त मस्त तुनतुनाहट सुनकर मैं जलन से जल भुन जाता हूं। नहाने-धोने, वस्त्रादि धारण करने, बच्चों की चिल्चपों बीवी की किचकिच तथा डयूटी पर जाने का कोई झंझट नहीं। बल्कि चैनपूर्वक निद्रालीन आदमजाद का खून पीकर और उसके कान में अपनी तान सुनाकर, फुर्र हो जाने की दरकार है। चूल्हा-चौका तथा नोन-तेल लकड़ी का झमेला नहीं। रेडीमेड ताजा पेय पदार्थ यानि रक्त सदा उपलब्ध। मानव तन की किसी कोमल जगह पर अपना ‘स्ट्रा‘ घुसाओ, फिर थोड़ा सा थूक उगलो , तत्पश्चात् मजे से गर्मागर्म लहू 'सक' करो। हां, लाइफ अवश्य कम है। हर पल चुटकी में मसल दिये जाने का भय है।
तो भइया, आज बेऔकात इंसान की भी कौन गारंटी है? कहीं भी टपक जाने या टपका देने का डर है। बेकाबू वाहनों, अनियंत्रित प्रदूषणों, बढ़ती बीमारियों, भुखमरी , प्रकृति प्रकोप ,आखिकर किस-किस से जान बचाए आदमी।
और तो और, नग्न नयनों से नजर न आनेे वाले ''वायरस'' का खौफ तो देखो। मानव तो मानव, इससे कम्प्यूटर भी कांपे है। कमबख्तों का कोई तोड़ ढूंढों तो मुए नया रूप विकसित कर लेते हैं। सूक्ष्म बैक्टीरिया भी बड़ा भाग्यवान है। यह आत्मा की भांति अजर-अमर है। कितना ही काटो, कूटो, पीटो, पीसो। जितने भाग होंगे, और उनमें केन्द्रक का थोड़ा भी हिस्सा होगा तो उतने ही नये बैक्टीरिया बन जाएंगे। इसने अवश्य ही ''अमृत-छका'' होगा। अगर इसने मानवीय आंत में कब्जा कर लिया तो अवैध अतिक्रमणों की माफिक स्वेच्छासे नहीं हटेगा। किसी भांति हटाओगे तो मौका मिलते ही फिर डेरा जमा लेगा।
कटा-पिटा मानव यदि जिन्दा बच गया तो अस्पतालों और डॉक्टरों के चंगुल से नहीं बचेगा। इन्होंने कृपा कर दी तो नकली दवाइयां मार देंगी। कुछ माह पूर्व अपुन की एक टांग टूटी थी। तीन माह तक बिस्तर पर दुर्दशा झेली। सोचते हैं कि काश इंसान होने के साथ, बैक्टीरिया गुण सम्पन्न भी होते तो टांग की कोशिकाओं से अलग शख्स बन जाता । वह अपनी रोजी -रोटी और गृहस्थी संभाल लेता तथा बिस्तरवाला शख्स पड़ा पड़ा, कलम घसीटी करता रहता।
मैं, जब भी जुगाड़ों, जीपों, बसों तथा रेलों में ठंसे और ठुंसे यात्रियों को तथा पास से गुजरते ट्रक में तसल्ली से जुगाली करती दो भैंसों को जाते देखता हूं तो मानव तन पर तरस आता है। ये नाचीज इंसान जेबें ढीली करने के बावजूद नाना प्रकार की योग मुद्राओं में सफर करने को मजबूर हैं। रेलों- बसों मेे एक टांग पर टूंगते- टंगते, यत्र- तत्र लटके सामानों से सिर और कंधे बचाते और तो और संडासों तक में भरे लम्बी दूरी के मुसाफिरों को देखकर कवि अंचल का यह शेर अनायास याद आ जाताहै -
‘‘ यह नस्ल जिसे कहते मानव, कीड़ों से आज गयी बीती।
बुझ जाती तो आश्चर्य न था, हैरत है पर कैसे जीती॥ ‘‘
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कोल्ड ड्रिंक्स ही पियूंगी, पापा
पांच वर्षीय पुत्री अड़ गयी थी कि कोल्ड ड्रिंक्स ही पियूंगी, पापा। मैं चौंका। यकायक यह कैसी मांग , मैंने समझाया, ' यह तुम्हारे लिए सही पेय नहीं है । इसमें हानिकारक तत्व पाये जाने का हल्ला मचा हुआ है अतः तुम फलों का रस, शर्बत या लस्सी पियो। '
किन्तु हठ और वह भी बाल-हठ । ‘मैं तो वही खिलौना लूंगा, मचल गया दीना का लाल'। लेकिन अब दीना का लाल सामान्य खिलौनों के लिए नहीं मचलता। उसकी पंसद हाई-फाई है । इलेक्ट्रोनिक्स टॉयज, टी․वी․ चैनल्स, इंटरनेट कनेक्शन, वी․सी․डी․, मोबाइल और मोबाइक की चाह उसे मचला देती हैं। दीना का लाल, अब घर की बनी आलू की चिप्स नहीं खाता बल्कि उसे चाहिए 'अंकल चिप्स‘, 'लेज' या 'कुरकुरे। '
इसमें माता-पिता भी कम दोषी नहीं। मैंने एक युवा दम्पत्ति ऐसे देखे जो अपने डेढ साल के बच्चे के मुुंह में कोल्डड्रिंक्स की बोतल लगाये हुए थे। उसमें से एक घूंट कभी मां गटकती थी और कभी बाप। मैंने उनको टोका तो पिता हंसकर बोला, ' अरे यार! यह तो पूरी बोतल पी जाता है। '
मैंने कहा, ‘ यह नासमझ है, इसे आप पिलाते हैं तो पीता है। ' लेकिन उन लोगों ने मेरी बात पर कान नहीं दिया और हुलस हुलस कर, उसे पिलाते रहे।
एक वाकया और याद आ रहा है। सर्दियों के दिन थे। एक किशोर अपने पिता से कोल्डड्रिंक्स पीने की जिद पर था। वह किशोर सर्दी-जुकाम से पीडि़त था और कई दफा छींक चुका था। उसकी जिद से हार कर, 'डैड' ने आखिरकार बोतल थमा दी थी। अल्लाह जाने, बाद में क्या हश्र हुआ होगा?
'' पापा ․․ कोल्ड ड्रिंक्स । '' पुत्री ने मेरी बांह खींच कर, विचार तंद्रा भंग की।
'' तुम्हारे, नन्हें से पेट को नुकसान करेगी। '' मैंने प्यारपूर्वक अपना तर्क दोहराया।
'' मैं भी पियूंगी । '' छोटी से दो वर्ष बड़ी बेटी बोली।
मैं सपरिवार अवकाश यात्रा पर था। साथ में थीं, तीन पुत्रियां और एक अद्द बीवी। तभी रेल चल दी। बच्चों के मुख पर मायूसी छा गई और मैंने सुकून की सांस ली। अगले अनेक स्टेशन छोटे छोटे थे। वहां पीने का पानी भी बमुश्किल मयस्सर था, ''कोल्ड ड्रिंक्स '' कहां?
मैंने छुटकी से पूछा, ' यह कोल्ड ड्रिक्ंस की तुम्हें क्या सूझी?
' ओहो․․․․। ' उसने अपना नन्हा हाथ माथे पर मारा। आप भी कुछ नहीं देखते, पॉप्स। पीछे वाले स्टेशन पर मुझसे भी छोटी लड़की कोल्ड ड्रिक्ंस की पूरी बोतल पी रही थी। '
' हां․․․ मैंने भी देखा था, उसे । ' बड़ी वाली उत्साहभाव से बोली, '' अपनी विंंडो के जस्ट सामने ही तो खड़ी थी।''
वस्तुतः, मुझे वह बालिका नजर नहीं आयी थी। मगर , मैंने जो देखा उसे शायद किसी ने नहीं देखा था। मैली-कुचैली और फटा हुआ फ्रॉक पहने वह भूखी लड़की, जो रेल लाइन पर फेंके गये जूठे दोनों में चिपकी सब्जी को बेताबी से चाट रही थी।
दरअसल, हर नजर मनोनुकूल ही लक्षित करती है। टी․वी․ चैनल्स को लेकर महाभारत ही मचा रहता है। नित यही युद्व कि हम यह देखेंगे , तुम वह देखो। रहन-सहन की ताकीद कि ऐसे रहो, वैसे मत रहो। यह पहनो, वह मत पहनो। ऐसे बोलो, वैसे मत बोलो, आदि इत्यादि। जहां देखो वहां, मुआ जैनरेशन गैप।
तभी, शोर उभरा और मेरा सोच फिर भंग हो गया। सबसे बड़ी वाली छोटियों को डपट रही थी, '' चुप रहो, तुम दोनों एक एक बोतल नहीं पी सकोगी। पेट दुखेगा और नाक में जा चढेगी। '
''हुंह ․․․․․ हमारी क्यों, आपकी नाक में चढेगी।‘‘ एक मत हो दोनों ने उसे चिढाया।
पत्नी बोली, '‘ तुम दोनों फ्रूटी या जूस ले लेना। ''
'हां, मैं भी तो यही कहने वाली थी। ,'' बड़ी वाली ने बड़ापन बघारा।
''नहीं․․․ नहीं․․․ हम कोल्ड ड्रिंक्स ही पीयेंगे। ' बाल हठ बरकरार था।
मैं अपने बचपन में जा पहुंचा । तब तकरीब दस साल का था। उन दिनों 'कोका-कोला' की बड़ी धूम थी। कक्षा के अंतराल में कुछ सहपाठियों के संग एक दुकान पर जा पहुंचे और कोका-कोला मांगा। दुकानदार ने कड़ी निगाह से घूरा, तो दो कदम पीछे हट लिए।
' यह बहुत तेज है, बच्चों के लायक नहीं। ' यह कहकर दुकानवाले ने 'गोल्ड स्पॉट ' थमा दिया। उसे भी हम पूरा कहां पी सके थे? एक तो दुकानदार की निगाहों का ताब, फिर पेट का उफान और डकारें। आधी ही छोड़ भागे।
रेलगाड़ी के ब्रेक चिंघाड़े। बच्चे चीखे, ' कोल्ड ड्रिक्ंस ․․․ कोल्ड ड्रिंक्स। ' छोटा सा स्टेशन था। यहां 'ड्रिंक्स ' कहां?
एक छोटी सी स्टॉल सामने नजर दिखाई दी। उस पर बड़ा सा एक बोर्ड लगा था, कोल्ड ड्रिंक्स के एक विख्यात ब्रांड का। बच्चे उछल पड़े, ' वो रही․․ वो रही․․․। '' वहां रखी दसियों बोतलें मेरा मुंह चिढ़ा रही थीं।
''गाड़ी यहां सिर्फ दो मिनट रूकेगी।'' मैंने बहाना बनाया।
'' नहीं साहब, यहां दस-पन्द्रह मिनट रूकेगी। पीछे से एक सुपरफॉस्ट पास हो रही है। '' उस स्टेशन से चढा एक यात्री बोला।
आखिरकार , उस हठ योग ने मुझे झुका दिया। दोनों छोटी पुत्रियों को एक बोतल, दो गिलासों में आधी आधी ढाल कर दिलवा दी। बड़ी कठिनाई से दोनों ने स्वीकार किया। मना करने का मतलब था कि आधी से भी हाथ धो बैठना। लेकिन बड़ी वाली ने पूरी बोतल पर अपना हक अख्तियार किया। पत्नी को चाय की चाहत हुई। चाय मिल गयी।
बीवी बोली, ''आप भी कुछ ले लीजिये। ''
मैंने सिंधी विक्रेता से पूछा, '' लस्सी या जूस मिलेगा, भाऊ। '' स्टाल वाले ने इंकार में सिर हिला दिया।
तीनों बेटियां कोल्ड ड्रिंक्स पी रही थीं। उनकी भाव भंगिमा से साफ झलक रहा था कि वे पी नहीं पा रही थीं । अपितु किसी तरह हलक से नीचे उतार रही थीं । दीगर बात यह थी कि उनसे छोटी बालिका कोल्ड ड्रिंक्स की पूरी बोतल गटक गयी, तो क्या वे आधी भी नहीं पी सकती। वाह, रे ठंडे !
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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