ऊँट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय ( पिछले अंक 6 से जारी...) गजब, मोबाइल माया 'तेरी कुड़माई हो गय...
ऊँट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
गजब, मोबाइल माया
'तेरी कुड़माई हो गयी?‘
लड़के का प्रश्न था।
'धत․․․․․․‘। कन्या ने किंचित लज्जा से सिर झुका लिया।
यह संवाद पं․ चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' की अमरकथा' उसने कहा' से संबंधित नहीं है। बहरहाल, बाजार अवश्य पंजाब का है। फिलवक्त, वहां तांगेवालों की जुबान के कोड़े नहीं बल्कि मोटर वाहनों की चिल्लपों व्याप्त है।
उसी गहमागहमी के बीच बाला ने अपने उस बॉय फ्रेंड से पूछा, ‘हाऊ यू गैस इट?'
''अज तन्ने गल इक चंगा मोबाइल ए। प्रोबबली योर वुड बी हसबैण्ड प्रजेंटेड इट?''
लड़की खिलखिला पड़ी । पहले ऐसे अनुमान, 'शालू' या 'अंगूठी‘ देखकर, लगाये जाते थे। लेकिन , अब यह मोर्चा मोबाइल ने संभाल लिया है।
और अब दूसरा दृश्य।
नजारा एक सरकारी बस का है। यह बस यात्रियों से ठंसी और ठुंसी है। मुसाफिरों की हाय-तौबा से निर्लिप्त हो, कंडक्टर सदा की भांति, बिना टिकट काटे, किराये की राशि जेब के हवाले किये जा रहा है। रफ्ता -रफ्ता बस चली किन्तु थोड़ी दूर जाकर, एक झटका खाकर रूक गयी। ड्र्राइवर बड़ी बुलंद आवाज में बोला, ‘‘शरीफ भॉय! गाड़ी कम्पलीट कर लियो, आगे चैकिंग-पार्टी है।‘‘
हमने देखा। ड्राइवर के कान से सेलफोन सटा हुआ था। दूसरी दिशा की किसी बस के ड्राइवर ने अपने मोबाइल से, इस ड्राइवर को यह महत्वपूर्ण सूचना देकर सावधान कर दिया था। शरीफ मियां ने एक अद्द गाली चैकिंग वालों को जड़ी, फिर पैसेजरों के टिकट काटने का पुनीत कार्य करने लगा। अब भारतीय रेल की ओर रूख करते हैं। प्लेटफार्म पर खड़ी रेल के इंजन ने ज्यों ही सीटी मारी, एक पागल बोगी में चढा तथा पानी की खाली बोतल को कान से सेलफोन के अंदाज में लगाकर वार्ता करने लगा-
' हल्लो ․․․․․․․ हल्लो ․․․․․․․․․ मय बोलता․․․․․․ अरे․․․․मय बोलता․․․․․ मय । अब्बी गाड़ी में से बोलता। मय कल तक नखलऊ पहुंचता ․․․ तोम․․․ जरूरी ․․․․जरूरी ․․․․․ टेशन पर आकर मिलना․․․। ' तभी इंजन ने दूसरी सीटी दी और गाड़ी रेंगने लगी। पागल प्लेटफार्म पर उतरकर ठहाके लगाने लगा
''․․․․․हा․․․हा․․․․हा․․․․ वो․․․․․ साला․․․․नखलऊ में अपुन का इंतजार ․․․․․․․․करेगा․․․․․․। ․․․․और अपुन ईधर ईच ही उतर गिया। ''
मित्रों, इस घटना से यह सिद्ध होता है कि मोबाइल की समझ पागलों को भी है। सच पूछें तो सेलफोन के पीछे दुनियां ही पगला गई है। यह जुनून इस कदर परवान चढा है कि पैदा हुए शिशु की बंद मुट्टी को देखकर शक होने लगा है कि कहीं उसकी मुट्ठी में 'दुनियां बंद' न हो। जिस दिन मोबाइल भूले से घर छूट जाता है, उस दिन का सारा मजा किरकिरा हो गया समझो है। ऐसा लगता है मानों शरीर का कोई महत्वपूर्ण अंग पीछे छूट गया हो?
दोस्तों, मोबाइल की इस दीवानगी के चलते एक ग्रामीण अपने साथी के संग सेलफोन खरीदने गया। उसने सेट खरीदा और अपने एक रिश्तेदार रामचंदर का नम्बर डायल करना सीखा। फिर रिसीवर कान से लगा लिया। कुछ सुनने के बाद वह अपने साथी से बोला, 'यो तो रामचंदर की लुगाई बोले छै। पैल्यां तो वा अनपढ छी, पिण इब इंगरेजी में जाणे कांई गिटपिट करे छै। ल्यै तू भी सुण।' ग्रामीण का साथी थोड़ी बहुत अंग्रेजी समझता था। उसने कान से सेट लगाया आवाज आ रही थी, ‘सब्सक्राईबर इज नॉट रीचेबल, काइन्डली ट्राय लेटर। 'यह सुनकर वह बोला, 'रामचंदर को फोन कोनी हो सके, वाये तो 'लैटर' ही लिखणो पड़सी।'
एक रेल यात्रा के दौरान मैंने देखा कि मेरे सामने बैठा एक नौजवान, अचानक परेशान दिखने लगा। उसने पास वाले यात्री से पूछा क्या आपका मोबाइल बज रहा है? नकारात्मक जवाब मिलने पर उसने मुझसे पूछा, 'अंकल आपका?‘
मैंने कहा, 'मेरे पास सेलफोन नहीं है। इस पर उसने मुझे हिकारत भरी नजरों से घूरा। उपर बर्थ पर एक यात्री सोया पड़ा था और उसके मोबाइल की घंटी घनघना रही थी। नौजवान ने उस मुसाफिर को झिंझोड़ कर जगाया, 'भाई साहब आपका मोबाइल बज रहा है, इसे अटैण्ड करो।' यात्री ने मोबाइल का 'स्विच ऑफ ' कर दिया और खर्राटे लेने लगा। युवक बुदबुदाया , '' कैसे लोग हैं, सोये पडे़ रहते हैं और मोबाइल बजता रहता है।''
इसके बाद, नौजवान ने जेब से अपना सेट निकाला और उसकी खूबियां बखान करने लगा। इन दिनों मोबाइल और मोबाइक की जुगलबंदी कुछ अधिक नजर आ रही है। एक हाथ से मोटरबाइक संचालित है तो दूसरे हाथ से मोबाइल। दोनों ही चलायमान हैं। प्रातकालीन भ्रमण के दौरान, बरमूड़ा पहने लोग कदमताल के साथ साथ, सेलफोन पर भी कांव-कांव किये जाते हैं। कुछ लोग तो मोबाइल पर बतियाने के साथ ही घोर चहलकदमी करने लगते हैं। एक बार एक यात्री तो इतने उत्कंठित हो गया कि बात करते करते, बस से नीचे उतर गया। और बस उसका असबाब लेकर आगे चल पड़ी। गोकि सेलफोन पर बतियाने वालों की अदायें भी निराली हुआ करती हैं। कुछ लोग कानफाडू ढंग से बोलते हैं और कुछ लोगों के मात्र होठ ही हिलते प्रतीत होते हैं।
हमारे महल्ले के एक सज्जन को उधार पर रूपया चलाने का शौक है। उधार वसूली का उसका तरीका भी न्यारा है। वह, हर सुबह जागकर बरामदे में आ बैठता है। उसकी बीबी , चाय का प्याला, अखबार तथा सेलफोन लाकर रखती है। वह सबसेे पहले सेलफोन को लपकता है। और अपने उधारियों से तगादे आरंभ कर देता है। उसके संवाद इतने कठोर तथा आवाज इतनी बुलंद होती है कि उधारियों की नींद के साथ पड़ौसियों की नींद भी हराम हो जाती है। सामने रखी चाय ज्यों ज्यों ठंडी होती है, हमारे पड़ौसी की आवाज में उबाल आता जाता है। उसके धमाकेदार संवादों को सुनकर मोहल्ले का कोई भी वाशिंदा, आज तक उस शख्स से उधार मांगने का हौंसला जुटा नहीं सका है।
यह तो हुए जोर शोर से बतियाने वाले बंदे। अब हौले हौले बात करने वालों की बात। एक लतीफेबाज़ के मुताबिक , एक दफ्तर में एक सज्जन, मोबाइल के रिसीवर को कान से दूर यानि कनपटी से सटाकर धीमे धीमे बात कर रहे थे। सामने बैठा आंगतुक सात-आठ मिनट से उस बातचीत का खत्म होने का इंतजार कर रहा था। बात समाप्त होने पर उसने पूछा, ' बाबू साहेब। आप, मोबाइल को माथे पर रखकर किससे बात कर रहे थे। '' झल्लाकर बाबूजी बोले, ' अपने मुकद्धर से बतिया रहा था, महाराज!‘
हॉट डॉग
भारत में अन्य प्राणियों पर काक, गरूड, मत्स्य, कूर्म, बराह आदि पुराण रचे गये हैं किन्तु तमाम वफादारियों के बावजूद श्वान पर कोई पुराण नहीं रचा गया। अलबत्ता, चीन ने इस नाचीज़ जीव को अवश्य महत्व दिया और चीनी ज्योतिष में 'डॉग-इअर' मुतअल्लिक़ किया गया है। 'डाग-इअर' बाहर बरस में एक बार आता है। कुत्ते की औसत आयु भी बारह वर्ष बतायी गयी है। यानि चीन में कुत्ते को ऐसा सौभाग्य जीवन में एक बार ही मिल पाता है। लिहाजा, क्यों न हम ही इस वफादार प्राणी के बारे में चर्चा करलें। कहा भी गया है कि जहां कुत्ते हों, वहां चोर, बुज़र्ग और फ़रिश्ते नहीं फटकते।
बहरहाल, चीनी ज्योतिष के मुताबिक ‘डॉग-इअर‘ बारह बरस में एक बार आता है। कुत्ते की औसत आयु भी बारह वर्ष मानी गयी है। अतः कुत्तों के बारे में बात करने से ‘बारह बरस में घूरे के दिन फिरने‘ की कहावत भी चरितार्थ हो जाएगी। फिलवक्त, मैं सोच रहा हूं कि सदियों से अनवरत पूंछ हिलाकर वफादारी जताने के बावजूद, पुरूषों के मन में अमूमन कुत्ते को लतियाने की फितरत क्यों उमगती है ? जबकि नारियों के मन में प्रायः ऐसा भाव नहीं उपजता। लड़के, अक्सर पास से गुजरते हुए कुत्ते पर कंकर मारकर, उसकी कें․․․․․․․․․․कें․․․․․․․․․का लुत्फ लेते हैं, लेकिन लड़कियां कदाचित ऐसा करती हों ?
जाहिर है, स्त्रियों के मन में श्वानों के प्रति सहानुभूति का भाव प्रारंभ से ही होता है। अधिकांश गृहणियां, गली-महल्ले के कुत्ते के लिए एक रोटी अवश्य बनाती हैं और बासी हो जाने के उपरांत, प्यारपूर्वक पुकार-पुकार कर, दौड़कर आगे आये कुक्कुर के सम्मुख फेंक देती हैं। कुत्ता भी बगैर चूं-चुपड़, उस सूखी रोटी को फफोड़ लेता है।
पुरूषों के हृदय में श्वानों के लिए ऐसा दया भाव आम तौर पर नहीं होता । मौके-बेमौके आदमियों ने कुत्तों को काटा और ऐसे समाचार, सुर्खियों में छपे। इसकी एक वजह कदाचित यह हो, कि कुत्ता रात में उनके सुख और नींद में बाधा डालता है। अधिक तो वे ही जानें।
अलबत्ता, यहां दीगर प्रश्न यह खड़ा हो जाता है कि भैरव के इस वाहन के प्रति नारियों में इतना अनुराग क्यों है? अंग्रेजी की कहावत भी है - ‘लव मी, लव माई डॉग‘। कुछ पत्नियां तो पतियों से भी अधिक तरजीह ' कूकर राजा ' को देती हैं। किसी सुमुखि के सुचिक्कन कपोल और उन्नत उरोजों से सटे अथवा पालतू ''डॉगी '' की मौत पर बिलख- बिलखकर, हलकान होती किसी सुंदरी को देखकर, मर्दों का डाह से फुंक जाना भी लाजिमी है।
एक सुप्रसिद्ध महिला ब्यूटीशियन के पास उन्नीस बेशकीमती कुत्ते हैं। उसने कुत्तों के लिए ब्यूटी-प्रॉडक्ट की विशेष श्रृंखला निर्मित की है। अनेक फिल्मी अभिनेत्रियों के पास तकरीब दो-चार कुत्ते तो हुआ ही करते हैं। और उन खुशनसीब कुत्तों के लिए, उम्दा किस्म के ब्यूटी सैलून भी हैं। वे कुत्ते वहां, अपना सौंदर्य निखारते हैं। कीमती कार से भी अधिक कीमत वाले कुत्ते ' क्वांडो ' के लिए तो मालकिनों ने वातानुकूलित कमरे तथा तरणताल तक बनवा लिए हैं। अतः कूकर राजा के प्रति इस प्रेम के उत्तर को ढूंढने के लिए मैं, मनन में मशगूल हुआ और विचार सागर के मंथन के परिणामस्वरूप जो रत्न हाथ लगे हैं वे प्रस्तुत हैं -
- यह अतीव आज्ञाकारी है। ‘अप-अप' पुकारने पर खड़ा हो जाएगा और 'सिट-सिट ' कहते ही बेचारगी से बैठ जाएगा। - यह पतियों की भांति भोजन में नुक्स नहीं निकालता। जैसा परोसो, उसे चबड़-चबड़ करते हुए निगल जाएगा। फिर थाली भी ऐसी साफ करेगा कि मेम साहब के साथ महरी भी खुश। यह थाली में छेद भी नहीं करता। - यह बहाने बाज नहीं। इसे सरदर्द नहीं होता। ‘ आउटिंग ' के किसी कार्यक्रम को मीटिंग -शीटिंग की व्यस्तता बताकर निरस्त नहीं करता बल्कि बुलाते ही तत्परतापूर्वक हाजिर हो जाता है। - यह डांटता नहीं। गालियां नहीं बकता। शराब- सिगरेट नहीं पीता। पर्स से रूपये नहीं उड़ाता। पराई स्त्रियों को लोलुप निगाहों से नहीं घूरता अथवा उनकी प्रशंसा के गीत नहीं गाता।
- इससे बेहतर बॉडी-गार्ड कोई और नहीं। किसी अबला के साथ चुस्त-चौकस अल्सेशियन, रॉटवेलियर, हाउंड या शेफर्ड को देखकर, सड़क छाप मजनुंओं की उसे छेड़ने की हिम्मत नहीं होगी। शोहदों को देखकर पुरूष-मित्र या पतिदेव दुम दबा सकते हैं, किन्तु कुक्कुर-देव तो जान लड़ा ही देगा।
लिहाजा, इन तथ्यों पर विश्व- व्यापी विमर्श होना चाहिए ताकि कुत्तों के प्रति अन्यान्य मानवीय विचार प्रकाश में आ सकें। जो इन मुद्दों से असहमत हों, वे बाखुशी 'हाट-डॉग' का स्वाद ले सकते हैं।
मजे टरका देने के
मुस्कराकर टरका देना एक कला है। ईश्वर का वरदान है, मुस्कराहट । किन्तु टरका देने के इल्म की ईजाद, इंसान ने की है। दुनियां के दूसरे जीव, दोनों तरह की क्रियाओं से सर्वथा वंचित हैं। मुस्कराने और टालने का तालमेल भी काफी गजब का है। टका सा जवाब देकर टरकाना चाहें तो सामने वाला मुश्किल से ही टरकेगा। सौ वहम मन में अलग से पालेगा। किन्तु, ढाई इंची मुस्कान बिखेरते हुए टालिये तो, मजे से मुस्कराता हुआ टरक जायेगा। गोया, सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे।
कुछ बंदे इस कला में नितांत निष्णात हुआ करते हैं। उनका टरकाने वाला अंदाज भी बेहद मोहक होता है। वे सामने वाले की समस्या को गौर से सुनने का ढोंग रचेंगे। और उसके कार्य के प्रति घोर संवेदना जतायेंगे। तदुपरांत, काम शीघ्र हो जाने का वायदा देते हुए, मुस्कराकर टाल देंगे। आज नहीं कल होगा। कल नहीं परसों। इसी तरह टरकेगा बरसों। कच्चे सूत सरीखी आशा रूपी डोर से उसे लटकाये रखेंगे। जो टरक रहा है वह भी खूब जानता है कि उसे ''सुगर-कोटेड'' गोली खिलायी जा रही है। जो ऊपरी तौर पर तो मीठी है, पर अंदर है, अत्यंत कड़वी। मगर, मजबूर है बेचारा। सिवा टरकने के कुछ कर नहीं सरकता। रोज नयी उम्मीद लेकर आता है और टालने वाले की सलोनी मुस्कान के आगे, अपनी खिसियायी मुस्कान बिखेरकर चला जाता है।
किसी के काम में नित नवीन रोड़े ड़ालने वाले टरकाऊ प्राणी को इस हुनर में अवश्य ही कोई रसानुभूति होती होगी? तभी तो भाई लोग, बेबस आदमी का काम अटकाकर, उसके जाने के बाद ठहाका मारकर कहते हैं, ''देखो, पिला दिया ना टालू मिक्श्चर। '' आखिरकार, यह कैसा गुप्त रस है? इस पर शोधकार्य हो सकता है।
दूसरी दृष्टि यह है कि व्यक्ति का समूचा जीवन ही टरकने और टरकाने में व्यतीत हो जाता है। उधारिया, वसूली करने आये साहूकार को टरकाता है। पेढी पर पसरा सेठ, मंगतों को टालता जाता है। आदर्श पति अपनी पत्नी की अनवरत फरमाईशों को टालता है। बदले में बीवी, ऐसे शौहर को जला-भुना भोजन परोसकर टरकाती रहती है। मां-बाप, बाल-हठ को बहला-फुसलाकर टालते हैं। नेता अपने क्षेत्र के मतदाताओं की समस्याओं को आगामी चुनाव तक टरकाता जाता है। यार लोग तो यमराज को भी टरकाकर, पुनर्जीवित हो गये हैं।
दुकानदार भी टरकाने की कला में कम प्रवीण नहीं होते। ग्राहक द्वारा मांगा गया माल, स्टॉक में नहीं होगा, तो बस दो-तीन दिन में आ जायेगा, कहकर हफ्तों तक टरकाते रहेंगे। इसी बात पर मुझे एक टरकाऊ दर्जी का वाकया याद हो आया। एक मित्र, उस दर्जी को सूट सिलने दे आये। बरसों तक वह दर्जी उन्हें आज-कल, आज-कल कहकर टालता रहा। एक दिन तंग आकर, हमारे मित्र महोदय ने कहा, ''कैसा टेलर है, तू? बीस बरस पहले सूट सिलने को दिया था। तू रोज आज दूंगा, कल दूंगा, कहकर टालता रहा। अरे, अब तो वे कोट-पेंट सिलकर दे दे। मुझे या मेरे जवान बेटों में से जिसे फिट आयेगा, वही पहन लेगा। ''यह सुनकर दर्जी ने अपने पुराने असिस्टेंट को बुलाया और इतना अर्जेन्ट आर्डर बुक करने के लिए उसे अच्छी खासी डांट पिला दी।
मेरे मित्र खच्चनखान, टरकाउ कला के अच्छे ज्ञाता हैं। वे एक दफ्तर में बड़े बाबू हैं और वहां लोगों को टालू मिक्शचर पिलाने के अलावा कोई काम नहीं करते। उनके अधिकारी जब, किसी आगंतुक को टरका सकने में असमर्थ हो जाते हैं तो उसे खच्चन की तरफ ठेल देते हैं। और जनाब खच्चन, उस व्यक्ति को इतने इत्मीनान से टरकाते हैं कि उनके उस इल्म पर न्यौंछावर होने की इच्छा करती है।
एक रोज सुबह खच्चनखान मेरे घर पधारे। रविवार का दिन था। मैं, दफ्तर की एक फाइल में उलझा हुआ था। खान साहब बुरा मुंह बनाकर बोले, '' यार! सवेरे सवेरे यह फाइल?''
मैंने पृष्ठ पलटते हुए उत्तर दिया, '' यह ऑफिस की एक फाइल है। कल सुबह ही कुछ आवश्यक टिप्पणियां प्रस्तुत करनी हैं। बस उसी में लगा हूं।''
खच्चन बोले, '' अमां मियां ! यह भी कोई बात हुई? लोग तो ऑफिस टाइम में ही काम नहीं करते और तुम दफ्तर की मगजपच्ची घर ले आये हो। ऑब्जेक्शन लगाकर टरका दो। ''
मैंने फाइल को एक और सरकाते हुए कहा, '' इससे क्या होगा? आज नहीं तो कल, यह काम करना ही होगा। ऐसे टालने से क्या फायदा? साहब भी समझ जायेंगे कि जानबूझकर कामचोरी की जा रही है। ''
खान साहब ने मुस्कराकर उस फाइल को अपनी ओर खींचा और कहने लगे, '' अरे, मैं ऐसा मुद्दा ढूंढता हूं कि साहब लोगों के सात पुरखे भी ऑब्जेक्शन की असल वजह नहीं समझ पायेंगे। ''
कुछ ही मिनट में खच्चन ने एक ऐसी तकनीकी आपत्ति तलाश ली, जिसकी वजह से वह फाइल, रंच मात्र भी आगे नहीं बढ सकती थी। मैं, खान साहब की टरकाऊ कला का कायल हो गया।
अब, मैंने विचारा कि अपनी भी क्या जिंदगी है? लानत है। दिन भर दफ्तर में आंकड़ों से नजरें लड़ाते और कलम घिसते रहते हैं। जीवन तो खच्चन जैसे लोग जी रहे हैं। कलम खोलते हैं तो केवल हाजिरी दर्ज करने के लिए।
हम ऐसे आदमी हैं कि चिंचियाती चिडि़या को भी नहीं भगा सकते। आदमियों क्या टरकाएंगे? हाल ही का वाकया है, बेगम साहिबा बाजार जाने को तैयार हुइंर्। हम दोनों दरवाजे से बाहर सड़क पर आये ही थे कि उधर से गुजरते हुए एक साहित्यकार दोस्त से सामना हो गया। शिष्टाचारवश घर पधारने का न्यौता दिया तो वे सज्जन उसी समय गृह-प्रवेश हेतु तत्पर हो गये। पत्नी समझ गई कि गयी भैंस पानी में। जब, दो दीवाने यानी साहित्यकार मिल बैठें तो समय क्या मायने रखता है? दो-तीन घंटे तो यूं ही उड़ जायेंगे । उसे चाय नाश्ता लाने के लिए कहा तो वह, बुदबुदाती हुई अंदर चली गयी।
मुझे मालूम है कि उसके मन में कुछ ऐसा ही खदक रहा होगा कि जब देखो तब आ बैठते हैं, मुए। मैं यह भी जानता हूं कि शाम को बड़ा महाभारत मचेगा। मगर, मित्र- रूपी यह फंदा, जो फुरसत से मेरे सामने सोफे पर पसरा पड़ा है, उसे मैं कैसे टालूं? सोचता हूं काश!, मुझे भी टकराने की कला आती?
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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