ऊँट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय ( पिछले अंक 5 से जारी...) -- आओ अड़चन डालें अड़चन डालने की कला युगों-य...
ऊँट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
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आओ अड़चन डालें
अड़चन डालने की कला युगों-युगों से चली आ रही है। प्राचीनकाल में इस हुनर के त्रिलोक में व्याप्त होने के प्रमाण मिले हैं। तब आदम और इतर योनियों में इसने अपना खास स्थान बनाया था। पुराण-प्रसंग खंगालें, तो प्रकरण-पर-प्रकरण मिलते चले जायेंगे। दैत्यों ने सदा मानवों तथा देवों के कार्यों में बाधा डाली। जहां भी हवन-पूजन होता, वे सूंघते-सूंघते वहां पहुँच जाते थे। दैत्यगुरू शुक्राचार्य को अपनी एक आँख, अड़चन डालने की वजह से खोनी पड़ी थी। किस्सा कुछ यूँ है-राजा बलि द्वारा वामन अवतार को दान दिये जाने की प्रक्रिया में रोड़ा डालने के लिए शुक्राचार्य जी महाराज सूक्ष्मरूप रख, बलि के कमंडल की टोंटी में जा बैठे ताकि संकल्प हेतु जल बाहर न निकले। अवरोध को दूर करने के लिए, जब टोंटी में सींक डाली गई तो वह गुरूदेव की आँख ले बैठी।
दूसरी ओर देवगण भी अड़ंगा डालने की कला में उन्नीस नहीं थे। उनके राजा, इन्द्र को सदा यह खटका रहता था कि कोई आदम अथवा असुर, जप-तप-यज्ञ से इतना बल प्राप्त नहीं कर ले कि इन्द्रासन पर खतरा मंडरा जाए। इसी भय के चलते देवराज, राजा सगर के अश्वमेघ यज्ञ के अश्व को पाताल लोक तक ले गये और कपिलमुनि के आश्रम में बांध आये। इन्हीं इन्द्रदेव के अड़ंगा लगाने से, सदेह स्वर्ग जाने की आकांक्षा के इच्छुक, इवाक्षुवंशी राजा त्रिशंकु, पृथ्वी तथा स्वर्ग के मध्य औंधे लटके थे और शायद आज भी यथास्थिति बनी हुई है।
अच्छे भले निष्पादित होते कार्यों में ''ऑब्जेक्शन'' लगाने की कला में देवर्षि नारदजी निष्णात रहे हैं। ''अपनी बंदूक चलाने के लिए दूसरों का कंधा इस्तेमाल करना'' और ''इधर की आग उधर तथा उधर की आग इधर लगाना'' जैसे मुहावरे संभवतः नारदजी की देन लगते हैं।
अब मानव की बात। तौबा․․․․․तौबा․․․․एक ढूंढो तो ढेरों किस्से मिलेंगे। महापुरूषों का जीवन देखो। उनके उपदेशों, उनकी मान्यताओं को इंसान ने बाद में ग्रहण किया, पहले भाँति- भाँति की अड़चनें डाली। महात्मा ईसा की सरल, मानवीय शिक्षाओं से क्रोधित होकर उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया। हजरत मुहम्मद पैगम्बर के उपदेशों में बाधा डालने के लिए उन पर कूड़ा -करकट बरसाया गया। भगवान बुद्ध के विरूद्व अंगुलिमान ने हंसिया उठा लिया। महर्षि दयानंद को एक वेश्या ने विष दे दिया था।
बहरहाल सभ्यता के विकास के साथ ही अड़ंगा डालने की कला का पर्याप्त विकास हुआ है। रेलें-बसें चलीं तो चक्का जाम आन्दोलन का जन्म हुआ। बिजली-नलों का विकास हुआ तो आपूर्ति में बाधा पहुँचाने का पुनीत कार्य प्रारम्भ हुआ। वायुयानों की उड़ान के संग उन्हें उड़ा ले जाने के करतब सामने आने लगे। कार्यालयों की स्थापना के साथ ही अड़चन डालने की दफ्तरी-संस्कृति का पर्याप्त विकास हुआ।
लुब्बेलुबाब, यह कि हमारे देश में लार्ड मैकाले के मानस-पुत्रों यानी बाबू लोगों ने ऑब्जेक्शन-ऑर्ट में बड़ी उन्नति की है। तदापि, तयशुदा सुविधा-शुल्क देकर, इस ऑर्ट के कमाल से बचा जा सकता है। एक बार मेरा वास्ता एक कार्यालय के बड़े बाबू सुखस्वरूप से पड़ा। सुना था कि बत्तीस बरस की नौकरी में उन्होंने पदोन्नति तो एक ही पायी, अर्थात् बाबू से हैड-क्लर्क बन गये, मगर उस काल में मीन-मेख लगाने की हजारों नयी विधियों का विकास किया। ‘न भूतोः न भविष्यतिः‘। उनकी विकसित विधियां नये बाबुओं के लिए पथ-प्रदर्शक हैं और सदा रहेंगी। लिहाजा, जब मैं बड़े बाबू सुखस्वरूप की मेज के पास पहुँचा तो वे उग्र रूप धरे हुए थे। एक कनिष्ठ लिपिक को तड़ी पिला रहे थे, जो डाक-प्रेषण का कार्य करता था। ‘तुमने लिफाफों पर ये पते लिखे हैं। इतना पढ़े हो, पर ढंग से पता भी नहीं लिख सकते ?'' ''सर, मेरी गलती क्या है, यह तो बताइये?'' नये बाबू ने नम्रता से पूछा।
''हूँ ․․․गलती․․․मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है, जो बिना गलती के भौंक रहा हूँ․․? माना तुम्हारी हैंड-राइटिंग सुंदर है। शहरों के नाम भी अच्छी तरह से लिखे हैं लेकिन इन्हें अंडरलाइन क्यों किया?'' ''सर ․․․․ इसलिए कि डाक छांटने वाले को शहर का नाम अलग से नजर आ जाए।'' छोटे बाबू ने अचकचाते हुए सफाई दी।
सुखस्वरूप भड़ककर बोले, ''खुद को बुद्धिमान और दूसरों को बेवकूफ समझना छोड़ दो। भारत के डाक विभाग की गिनती, दुनिया की कुशल डाक-संस्था में होती है। तुम डाकिये की कार्यक्षमता पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हो? वह बिना अंडरलाइन किये पते के पत्रों को भी सही जगह पहुँचा देगा।''
लिहाजा, बड़े बाबू के अकाट्य तर्क को सुनकर छोटा बाबू अपना सा मुंह लिये सीट पर लौट गया। उस प्रसंग से निबट कर बाबू सुखस्वरूप ने त्यौरियों में बल डाले हुए मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से घूरा। मैंने जेब से सौ रूपये का एक नोट निकाला, वशीकरण -यंत्र की भांति उसे बाबू साहब की नजरों में लाते हुए, अपना कार्य निवेदित किया। लक्ष्मीदेवी का सिफारिशी पत्र देखकर , बाबू सुखस्वरूप की भृकुटियों के बल विलुप्त हो गये और वहां सुख की प्रतिछाया उभर आयी। नोट झपटकर, बाबूजी ने एक आवेदन-पत्र टाइप करवा लाने को कहा।
मैंने उनसे ही, आवेदन का प्रारूप बना देने का निवेदन किया। माया महाठगिनी । पेशगी के तौर पर प्रदान किये गये सुविधा-शुल्क का ही चमत्कार था कि बाबू साहब ने आनन-फानन एक प्रारूप बना कर मुझे थमा दिया और मैं उसे तत्काल टंकित करवा लाया। प्रार्थना -पत्र पढ़कर वे भड़क गये, ''यह आवेदन तो गलत है। ''
''बाबू-साहेब , इसे तो आपने ही लिखा था। आपके लिखे में कैसी गलती?''
सुखस्वरूप खीजकर बोले, ''इसे आपने कहां से टाइप करवाया? एप्लीकेशन का सत्यानाश करके डाल दिया। आवेदक का नाम और पता कागज के दायीं और टाइप करना था, उसने बायीं तरफ टाइप कर दिया। ''
अपनी मुस्कान को मुश्किल से दबाते हुए मैंने कहा, ''बाबूजी, आपने आवेदन में आवेदक का नाम बायीं तरफ लिखा था और टाइपिस्ट ने वैसा ही टाइप कर दिया। उसकी क्या गलती है? ''
मेरी बात को अनसुना करते हुए बड़े बाबू बोले, ''मैं एप्लीकेशन देखते ही समझ गया था कि आपने किसी अनाड़ी से टाइप करवाया है। जिसे देखो वह मुए इसी टाइपिस्ट के पास जा मरता है। ऑफिस के पीछे जो बढि़या टाइपिस्ट है, उसके पास कोई नहीं जाता। देखो, कितना हल्का पेपर इस्तेमाल किया है, इसने। जाओ, इसे पीछे वाली दुकान से टाइप करवाकर लाओ। वह जानता है कि प्रार्थी का नाम किस जगह टाइप करना है।'' यह कहकर बाबू सुखस्वरूप ने वह आवेदन मेरी ओर फेंक दिया।
मैंने हल्का सा प्रतिवाद किया, '' बड़े साहब , क्यों दोबारा टाइप का खर्चा करवा रहे हो? नाम चाहे बायीं तरफ लिखा हो या दायीं ओर क्या फरक पड़ता है? पत्र अमेरिकन स्टाइल में हो या इंग्लिश में․․․․। '' मानो, स्पेनिश सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो, सुखस्वरूप की आँखें अंगारा हो गयीं। नथुने फड़कने लगे। ''यह दफ्तर है, जनाब। यहाँ हर चीज का कायदा और अदब होता है। अगर, टाइपशुदा एप्लीकेशन में कोई कमी रह गई या कागज हल्के किस्म का हुआ तो साहब उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखेंगे। ''
मरता क्या न करता दफ्तर के पीछे वाले टाइपिस्ट के पास गया। वहां बैठे युवक की शक्ल-ओ-सूरत में बड़े बाबू की झलक नजर आयी। कदाचित उनका पुत्र था। बहरहाल , मैंने उसे बढि़या किस्म के कागज पर आवेदन-टाइप करने का आदेश दिया।
दूसरे आवेदन को देखकर, सुखस्वरूप हर्षाये। कागज को अंगुली और अंगूठे के बीच फड़फड़ाते रहे, ''वाह , क्या बढि़या कागज है? अब बनी बात। '' जबकि मुझे पहले टाइपशुदा कागज तथा दूसरे कागज की किस्म में कोई अंतर नजर नहीं आ रहा था।
बड़े बाबू बोल रहे थे, '' इसे मैं साहब को पुट-अप कर दूँगा। आप तीन दिन बाद पधारें। ''
आम तौर पर दफ्तरों में समयबद्ध काम तो होता नहीं, मैं तीन की जगह पांच दिन बाद गया। बड़े बाबू को अपना काम याद दिलाया। बमुश्किल उन्हें याद आया, ''अरे हां․․ आपने सौ रूपये पेशगी दिये थे। '' ''जी हाँ- । ''
''आपके आवेदन में गलती थी, दोबारा टाइप करवाने को कहा था। ''
''जी․․․․मैंने फिर से टाइप करवा लिया था। ''
''कहाँ है? लाओ मुझे दो। मैं उसे पुट-अप कर देता हूँ। ''
''बाबू साहब, वह तो मैं उसी दिन दे गया था। आपने तीन दिन बाद आने को कहा था। ''
''तो जल्दी क्यों आ गये? तीन दिन बाद ही आओ। ''
''बाबूजी, मैं तो पांच दिन बाद आया हूँ। ''
''हैं․․․ पांच दिन बाद ․․․․․ दो दिन देर से ? तीन दिन बाद ही क्यों नहीं आये? आपने इस ऑफिस को मजाक समझा है क्या? ''
''गलती हो गई बाबू साहेब । ''
''आज साहब का मूड भी ठीक नहीं । अब तक, दो बार डांट लगा चुके हैं। आप परसों आयें, उस दिन आपका काम अवश्य हो जायेगा। ''
मैंने जेब से एक कागज निकाल कर, बडे बाबू की मेज पर रखा, ''बड़े बाबू, मैं तो आपको धन्यवाद देने आया हूँ। उस रोज के आवेदन पर कार्यवाई हो चुकी है। आपके दफ्तर से इसकी सूचना डाक द्वारा मुझे आज ही प्राप्त हुई है।''
अब, बाबू सुखस्वरूप का मुखड़ा देखने लायक था। और वे क्रोधित होकर नये डाक बाबू को घूरने लगे ।
इतना जो मुस्करा रहे हो?
भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में हास्य के आठ प्रकार बताएं हैं। उनमें मुक्त हास्य, मंद हास्य एवं मौन हास्य प्रमुख हैं। अट्टहास, ठिठोली, ठट्ठा तथा ठहाका को मुक्त हास्य, मुस्कान को मंद हास्य और अंतर्हास को मौन हास्य कहा गया है। हास्य-कला का एक और वर्गीकरण है, 'अपहास'। यह निकृष्ट श्रेणी का हास्य है। उपहास, खिल्ली, खीस तथा कटाक्ष आदि अपहसित हास्य हैं। घोड़े की माफिक हिनहिनाना और लकड़बग्घी हंसी इसी श्रेणी के हास्य हैं।
महबूबा की उन्मुक्त हंसी पर अग्निवेश शुक्ल लिखते हैं- ''जब्ज है दीवारों में तेरी हंसी और खुशबू से भरा है मेरा घर। '' वस्तुतः निर्मल हंसी और निश्छल मुस्कान इंसान को ईश्वर की नेमत है। कवि लिखता है, ‘हंसना रवि की प्रथम किरण सा, कानन के नवजात हिरण सा‘। वाक़ई, शिशु की भोली किलकारी सभी को सम्मोहित करती है। ‘तमक-तमक हांसी मसक' यानी मनभावक, मतवाली और मस्तानी हंसी एक चिकित्सा है। ‘लाफ्टथैरपी' के कद्रदान कहते हैं कि हंसने से ‘बक्सीनेटर‘, ‘आर्बीक्यूलेरिस,' 'रायजोरिस' तथा 'डिप्रेशरलेबी' जैसी मुख्य मांस पेशियों समेत दो सौ चालीस मासपेशियां सक्रिय होकर सकारात्मक प्रभाव पैदा करती हैं।
कदाचित इसी से वजह बदहालियों और बीमारियों के बावजूद देश की जनता हंसे- मुस्कराए रही है। भय, भूख, बेरोजगारी, अराजकता और अकाल के बाद भी हम खिलखिला रहे हैं। भ्रष्टाचार और कुव्यवस्थाओं के खिलाफ आक्रोश जताने की जगह खीसें निपोर रहे हैं। गाहे-बगाहे, क्रोध प्रदर्शन हो भी जाता है तो उनमें भी हंसते- मुस्कराते मुखड़े नजर आ जाते हैं। हैरत है कि दारूण प्रकरणों तथा अंतिम संस्कारों जैसे अवसरों पर भी लोग चहक लेते हैं।
कवि रघुवीर सहाय भी कदाचित इस अवस्था को अनुभूत करते हुए लिखते हैं -
'' लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कहकर आप हंसे। निर्धन जनता का शोषण है, कहकर आप हंसे॥ चारों ओर है बड़ी लाचारी, कहकर आप हंसे। सबके सब हैं भ्रष्टाचारी, कहकर आप हंसे‘‘। चुनांचे, आलम यह कि आवाम ही नहीं बल्कि देश के दिग्गज राजनीतिबाज भी बात-बेबात मुस्करा रहे हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब चुनावों में मुंह की खाने के बाद शीर्ष नेता हंस-विहंस कर आत्मचिंतन की आवश्यकता जाहिर करते हैं। और नतीजा वही, ढाक के तीन पात होता है। गंभीर विषयों पर आयोजित नौकरशाहों की बैठकें अमूमन चाय -नाश्ते के चटखारों के साथ समाप्त हो जाती हैं।
लिहाजा, अब वक्त आ गया है, जब बचे-खुचे लोग भी हंसने- मुस्कराने की इस पुनीत राष्ट्रीय धारा में शरीक हों और अपना स्वास्थ्य दुरूस्त रखें। इसके लिए किसी लॉफिंग-क्लब से जुड़ने की जरूरत नहीं। सिर्फ, सतर्कता से अपने आवास, दफ्तर, प्रतिष्ठान के आसपास के मौजूं का अवलोकन करें, बस इसी ताका-झांकी में आपको कोई भी हास्य प्रसंग मिल जाएगा। इस मामले में थोड़ा सा मार्गनिर्देशन हम किये देते हैं- जब लोग गुलाब जामुन को रसगुल्ला। बाघ, चीता, तेंदुआ को शेर। किसी कंपनी की कार को मारूति। किसी भी मोटर साइकिल को हीरो होंडा। वनस्पति घी को डालडा और लेमीनेट को सनमाइका पुकारें; तो आप यकीनन खिलखिला सकते हैं।
आपके उपालंभ पर दूधिया कहे कि सा‘ब! मेरा दूध तो एकदम शुद्ध और पेवर है। आपका पड़ौसी बोले कि मैं तो रोज सुबह उठकर, डेली घूमता हूं। अधिकारी पूछे कि इन आंकड़ों का कुल टोटल क्या है? चिकित्सक नसीहत दे कि रोजाना फल-फ्रूट खाया करो अथवा अतिथि आपके चाय के प्रस्ताव पर नाक- भौं सिकोड़े और कहे कि टी तो मैं सिर्फ बेड-टी पर ही लेता हूं। गर्ज यह कि आप ऐसे प्रसंगों पर अपनी एक अद्द मुस्कराहट न्यौछावर कर सकते हैं। डॉक्टर के पास एक महिला अपने बच्चे को दिखाते हुए कहने लगी- डॉक्टर साहब ! जरा देखिए तो इसके बाथरूम में सूजन आ गई है। उसकी उस बाथरूमी-संज्ञा पर चिकित्सक की इच्छा लहालौंट होने को अवश्य हुई होगी?
किसी कस्बाई नेता का अभिनंदन है और प्रशंसा के बड़े-बड़े पुल बांधे जा रहे हैं कि इनके नेतृत्व से देश ही नहीं वरन विश्व को बड़ी आशाएं हैं। तबादलित, जिला स्तर के अधिकारी के विदाई समारोह में भाषण झाड़े जा रहे हों कि इनकी कार्यकुशलता का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है अथवा सूदखोर सेठ को दानवीर कर्ण या भामाशाह की उपाधि से विभूषित किया जा रहा हो या धुर देहात में ग्रामीणों के मध्य कृषि संबंधी जानकारी अंग्रेजी में दी जा रही हो, किसी स्थानीय समाचार -पत्र का लोकार्पण या राजनीतिक दल अथवा संगठन का अभ्युदय हो और उसे राष्ट्रीय स्तर के संबोधन दिए जा रहे हों तो ऐसे मौकों पर सिवा मुस्कराने के आप कर ही क्या सकते हैं?
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मुंडोपनिषद्
कई दफा मात्रा भी गजब ढा देती है। दो शब्द देखिये, मुंडन और मूंडना। मुई, नन्हीं सी मात्रा ने क्रिया भेद उत्पन्न कर दिया। इन्हें वाक्यों में प्रयुक्त करें तो लिखा जाएगा कि भेड़ें मुंडती रही और रखवाले मूंडते रहे। कभी एक उक्ति पढी थी कि हमारा समाज भेड़ों और चरवाहों का समाज है। चरवाहे गिनती में कितने ही कम हों तथा भेड़ें गिनती में कितनी ही अधिक, उनकी नियति है, मुंडना तथा पुश्त-दर-पुश्त मुंडना। रक्षक ही अमूमन मुंडक सिद्व हुए हैं और अपने चिर परिचित गूंठेपन के साथ भेड़ें मुंड रही हैं।
लिहाजा, भेड़ों को अपने मुंडने का अहसास है या नहीं यह तो वे ही जानें लेकिन मूंडने वाला अवश्य ज्ञानी होता है। मूंडने के लिए प्रायः उस्तरे की धार का सीधा उपयोग किया जाता है किन्तु उस्ताद लोग उल्टे उस्तरे से भी मूंड लिया करते हैं। साथ ही ''मुंडैती '' भी वसूल लेते हैं।
मुंडन की स्थितियां अजब-गजब होती हैं। कभी मुंडने वाला सहर्ष मुंडता है और कभी बेचारगी से। यथा-मुंडन संस्कार, अराध्यदेव को केश अर्पण, सन्यास हेतु लोम लोचन, मौत पर बालों का तर्पण, दण्डस्वरूप मुंडित मस्तक हो गधे की सवारी और फैशनपरस्ती पर खल्वाट हो जाना आदि-इत्यादि। कदाचित इसी वजह से किसी कवि ने कहा -
मूंड मुंडाये तीन सुख, मिटे सीस की खाज।
खाने को लड्डू मिलें, लोग कहें महाराज॥
ऐसे महाराजों पर कबीर ने अपने फक्कड़ाना अंदाज में प्रहार किया है -
मूंड मुंडाये हरि मिले तो मैं भी लेऊं मुंडाय।
बार बार के मूंडते, भेड़ न बैकुंठ जाय। ।
आज के युग में मूंडने का दायरा बहुत विस्तृत हो गया है। धर्म के धंधेबाज, इहलोक का हवाला देकर मूंडते हैं। नेताओं ने भूलोक को स्वर्गलोक बनाने का दिलासा देकर मूंडा। विक्रेता, अपनी रोजी और ईमान की दुहाई देकर मूंडते हैं। परंतु कभी मुंडक आपके सामने नहीं अपितु नेपथ्य में होता है। ऐसे मुंडकों में अग्रणी हैं, उद्योग और कम्पनी जगत। एक वस्तु के साथ एक मुफ्त, नवीन पैकिंग, किश्तों में खरीदारी, शून्य ब्याज वाली ऋण सुविधा यानि बाजार के इस बाजीकरण में मुंडने की प्रतीति नहीं होती। शेयरों तथा बांडों का निवेशक कब और किस तरीके से मुंड जाता है, इसका आभास नहीं होता। मिलावटिये और नकलबाज ऐसे माहिर हैं कि ' जागो ग्राहक जागो ' एक जुमला मात्र रह गया है।
हाल ही में विज्ञापन, मोबाइल तथा इंटरनेट की तिगड़ी ने मूंडने के नये आयाम स्थापित किये हैं। ये कितनी शिद्धत से मानव को मूंडने के पुनीत कर्म में जुटे हैं एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूं।
मैंने एक विवाह-ब्यूरो का विज्ञापन पढा कि आपके विवाह योग्य पुत्र-पुत्रियों का प्रोफाइल, अपने मोबाइल द्वारा मुफ्त जोड़ें और अनगिनत रिश्ते पायें। मैंने, पुत्री का विवरण एस․एम․एस․ किया। जवाब मिला कि आपने अपना डाटा, करेक्ट फार्मेट में पंच नहीं किया, अतः फार्मेट की जानकारी हेतु एस․एम․एस․ करें। खैर, जैसे तैसे प्रोफाइल जुड़ा तो संदेश आया कि सुटेबुल -मैच हेतु प्रति संदेश दस रूपये वसूल किये जाएंगे। चलो, यह भी मंजूर। ओ․के․ किया तो पहली बार में लड़के का नाम, उम्र और जन्म तिथि बतायी गयी। दूसरी बार पूछा, तो शिक्षा, जाति तथ गोत्रादि बताए गए। तीसरी बार पूछने पर पिता का नाम, पता और दूरभाष संख्या दर्शाइ गई। आगे की जानकारी भावी वर के पिताश्री से दूरभाष पर लेनी थी। इस प्रकार दस जनों की जानकारी का व्यय तकरीब पांच सौ रूपये हुआ। हमने कान पकड़े । किन्तु तौबा नहीं मिली। दूसरे दिन से कन्या से दोस्ती गांठने वालों के एस․एम․एस․ आने प्रारम्भ हो गये। हमें एक बारगी लगा कि किसी मैरिज ब्यूरो से नहीं अपितु 'फ्रैंडशिप-क्लब' में वह प्रोफाइल रजिस्टर्ड हो गया हो। लिहाजा, हमने 'सिम ' बदलकर वह सिलसिला बंद किया।
बहरहाल, मुंडने और मूंडने के इस घोर काल में थोड़ी तसल्ली तब मिली जब संस्कृत का 'लब्ध प्रणाश‘ पढा। उससे विदित हुआ कि मानव में मुंडने की ललक प्राचीन काल से है और ज्ञानीजन भी सायास मुंडित हुए हैं। लब्ध प्रणाश में जिक्र है कि महाप्रतापी नंद का मंत्री वररूचि उत्कट विद्वान था। एक रात उनकी धर्मपत्नी रूठ गई। मनाने के अनेक उपायों के बावजूद , वह राजी नहीं हुई। अंततः वररूचि ने कहा, 'देवी ! तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूूं। ''
''सच ․․․?''
''वचन देता हूं। ''
सुंदरी ने तनिक भृकुटि ढीली की, ''मुंडित मस्तक मेरे चरणों में नाक रगड़कर दिखाओ। ''
वररूचि ने वैसा ही किया और पति को टकला देख पत्नी प्रसन्न हुई। इसी मिज़ाज पर डा․ बलजीत सिंह फर्माते हैं -
‘‘गंजा गर में हो गया हूं, इसका कोई गम नहीं।
गम है कि करतूत बेगम की सब बताते हैं, इसे॥''
गजब, मोबाइल माया
'तेरी कुड़माई हो गयी?‘ लड़के का प्रश्न था।
'धत․․․․․․‘। कन्या ने किंचित लज्जा से सिर झुका लिया।
यह संवाद पं․ चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' की अमरकथा' उसने कहा' से संबंधित नहीं है। बहरहाल, बाजार अवश्य पंजाब का है। फिलवक्त, वहां तांगेवालों की जुबान के कोड़े नहीं बल्कि मोटर वाहनों की चिल्लपों व्याप्त है।
उसी गहमागहमी के बीच बाला ने अपने उस बॉय फ्रेंड से पूछा, ‘हाऊ यू गैस इट?'
''अज तन्ने गल इक चंगा मोबाइल ए। प्रोबबली योर वुड बी हसबैण्ड प्रजेंटेड इट?''
लड़की खिलखिला पड़ी । पहले ऐसे अनुमान, 'शालू' या 'अंगूठी‘ देखकर, लगाये जाते थे। लेकिन , अब यह मोर्चा मोबाइल ने संभाल लिया है।
और अब दूसरा दृश्य।
नजारा एक सरकारी बस का है। यह बस यात्रियों से ठंसी और ठुंसी है। मुसाफिरों की हाय-तौबा से निर्लिप्त हो, कंडक्टर सदा की भांति, बिना टिकट काटे, किराये की राशि जेब के हवाले किये जा रहा है। रफ्ता -रफ्ता बस चली किन्तु थोड़ी दूर जाकर, एक झटका खाकर रूक गयी। ड्र्राइवर बड़ी बुलंद आवाज में बोला, ‘‘शरीफ भॉय! गाड़ी कम्पलीट कर लियो, आगे चैकिंग-पार्टी है।‘‘
हमने देखा। ड्राइवर के कान से सेलफोन सटा हुआ था। दूसरी दिशा की किसी बस के ड्राइवर ने अपने मोबाइल से, इस ड्राइवर को यह महत्वपूर्ण सूचना देकर सावधान कर दिया था। शरीफ मियां ने एक अद्द गाली चैकिंग वालों को जड़ी, फिर पैसेजरों के टिकट काटने का पुनीत कार्य करने लगा।
अब भारतीय रेल की ओर रूख करते हैं। प्लेटफार्म पर खड़ी रेल के इंजन ने ज्यों ही सीटी मारी, एक पागल बोगी में चढा तथा पानी की खाली बोतल को कान से सेलफोन के अंदाज में लगाकर वार्ता करने लगा-
' हल्लो ․․․․․․․ हल्लो ․․․․․․․․․ मय बोलता․․․․․․ अरे․․․․मय बोलता․․․․․ मय । अब्बी गाड़ी में से बोलता। मय कल तक नखलऊ पहुंचता ․․․ तोम․․․ जरूरी ․․․․जरूरी ․․․․․ टेशन पर आकर मिलना․․․। ' तभी इंजन ने दूसरी सीटी दी और गाड़ी रेंगने लगी। पागल प्लेटफार्म पर उतरकर ठहाके लगाने लगा ''․․․․․हा․․․हा․․․․हा․․․․ वो․․․․․ साला․․․․नखलऊ में अपुन का इंतजार ․․․․․․․․करेगा․․․․․․। ․․․․और अपुन ईधर ईच ही उतर गिया। ''
मित्रों, इस घटना से यह सिद्ध होता है कि मोबाइल की समझ पागलों को भी है। सच पूछें तो सेलफोन के पीछे दुनियां ही पगला गई है। यह जुनून इस कदर परवान चढा है कि पैदा हुए शिशु की बंद मुट्टी को देखकर शक होने लगा है कि कहीं उसकी मुट्ठी में 'दुनियां बंद' न हो। जिस दिन मोबाइल भूले से घर छूट जाता है, उस दिन का सारा मजा किरकिरा हो गया समझो है। ऐसा लगता है मानों शरीर का कोई महत्वपूर्ण अंग पीछे छूट गया हो?
दोस्तों, मोबाइल की इस दीवानगी के चलते एक ग्रामीण अपने साथी के संग सेलफोन खरीदने गया। उसने सेट खरीदा और अपने एक रिश्तेदार रामचंदर का नम्बर डायल करना सीखा। फिर रिसीवर कान से लगा लिया। कुछ सुनने के बाद वह अपने साथी से बोला, 'यो तो रामचंदर की लुगाई बोले छै। पैल्यां तो वा अनपढ छी, पिण इब इंगरेजी में जाणे कांई गिटपिट करे छै। ल्यै तू भी सुण।' ग्रामीण का साथी थोड़ी बहुत अंग्रेजी समझता था। उसने कान से सेट लगाया आवाज आ रही थी, ‘सब्सक्राईबर इज नॉट रीचेबल, काइन्डली ट्राय लेटर। 'यह सुनकर वह बोला, 'रामचंदर को फोन कोनी हो सके, वाये तो 'लैटर' ही लिखणो पड़सी।'
एक रेल यात्रा के दौरान मैंने देखा कि मेरे सामने बैठा एक नौजवान, अचानक परेशान दिखने लगा। उसने पास वाले यात्री से पूछा क्या आपका मोबाइल बज रहा है? नकारात्मक जवाब मिलने पर उसने मुझसे पूछा, 'अंकल आपका?‘
मैंने कहा, 'मेरे पास सेलफोन नहीं है। इस पर उसने मुझे हिकारत भरी नजरों से घूरा। उपर बर्थ पर एक यात्री सोया पड़ा था और उसके मोबाइल की घंटी घनघना रही थी। नौजवान ने उस मुसाफिर को झिंझोड़ कर जगाया, 'भाई साहब आपका मोबाइल बज रहा है, इसे अटैण्ड करो।' यात्री ने मोबाइल का 'स्विच ऑफ ' कर दिया और खर्राटे लेने लगा। युवक बुदबुदाया , '' कैसे लोग हैं, सोये पडे़ रहते हैं और मोबाइल बजता रहता है।'' इसके बाद, नौजवान ने जेब से अपना सेट निकाला और उसकी खूबियां बखान करने लगा।
इन दिनों मोबाइल और मोबाइक की जुगलबंदी कुछ अधिक नजर आ रही है। एक हाथ से मोटरबाइक संचालित है तो दूसरे हाथ से मोबाइल। दोनों ही चलायमान हैं। प्रातकालीन भ्रमण के दौरान, बरमूड़ा पहने लोग कदमताल के साथ साथ, सेलफोन पर भी कांव-कांव किये जाते हैं। कुछ लोग तो मोबाइल पर बतियाने के साथ ही घोर चहलकदमी करने लगते हैं। एक बार एक यात्री तो इतने उत्कंठित हो गया कि बात करते करते, बस से नीचे उतर गया। और बस उसका असबाब लेकर आगे चल पड़ी।
गोकि सेलफोन पर बतियाने वालों की अदायें भी निराली हुआ करती हैं। कुछ लोग कानफाडू ढंग से बोलते हैं और कुछ लोगों के मात्र होठ ही हिलते प्रतीत होते हैं।
हमारे महल्ले के एक सज्जन को उधार पर रूपया चलाने का शौक है। उधार वसूली का उसका तरीका भी न्यारा है। वह, हर सुबह जागकर बरामदे में आ बैठता है। उसकी बीबी , चाय का प्याला, अखबार तथा सेलफोन लाकर रखती है। वह सबसे पहले सेलफोन को लपकता है। और अपने उधारियों से तगादे आरंभ कर देता है। उसके संवाद इतने कठोर तथा आवाज इतनी बुलंद होती है कि उधारियों की नींद के साथ पड़ौसियों की नींद भी हराम हो जाती है। सामने रखी चाय ज्यों ज्यों ठंडी होती है, हमारे पड़ौसी की आवाज में उबाल आता जाता है। उसके धमाकेदार संवादों को सुनकर मोहल्ले का कोई भी वाशिंदा, आज तक उस शख्स से उधार मांगने का हौंसला जुटा नहीं सका है।
यह तो हुए जोर शोर से बतियाने वाले बंदे। अब हौले हौले बात करने वालों की बात। एक लतीफेबाज़ के मुताबिक , एक दफ्तर में एक सज्जन, मोबाइल के रिसीवर को कान से दूर यानि कनपटी से सटाकर धीमे धीमे बात कर रहे थे। सामने बैठा आंगतुक सात-आठ मिनट से उस बातचीत का खत्म होने का इंतजार कर रहा था। बात समाप्त होने पर उसने पूछा, ' बाबू साहेब। आप, मोबाइल को माथे पर रखकर किससे बात कर रहे थे। ''
झल्लाकर बाबूजी बोले, ' अपने मुकद्धर से बतिया रहा था, महाराज!‘
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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