ऊंट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय ( पिछले अंक से जारी...) -- सिन्थेटिक खाओ, सिन्थेटिक पीओ खबर बताती है क...
ऊंट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
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सिन्थेटिक खाओ, सिन्थेटिक पीओ
खबर बताती है कि भारत देश में शीघ्र ही दूध-दही की नदियां बहेंगी और अगर यही तरक्की बरकरार रही तो उनमें बाढ आने का अंदेशा भी हुआ करेगा। उंह․․․, इसे ''आपरेशन-फ्लड'' से नहीं जोड़ें। बाढ आने के इस तिलस्म को हम बाद में खोलेंगे। और इस राज को खोलने से पहले यह भी बता दें कि हिन्दुस्तान में दुग्ध उत्पादन बढने के समाचार से दुनियां का दादा अमेरिका भी हैरत में है।
सुपर-कम्प्यूटरों पर आधारित उसकी गणना बताती है कि भारत में पशुधन घटा है। जो दुधारू पशु शेष हैं, उन्हें भी खरामा-खरामा हरा-चारा मुश्किल से नसीब होता है। अतः वे भी '' ऑक्सीटोसिन '' के इंजेक्शन के बूते, इतना दूध तो नहीं देंगे कि दूध-उत्पादन के क्षेत्र में हम अव्वल हो जाएं। विकासशील देशों के हर मामले में टांग फंसाने वाला अमेरिका आखिर, चकरघिन्नी हो गया है। उसकी समस्त गणनाएं फिस्स हो गईं और दुग्ध उत्पादन के मामले में उसकी चौधराहट समाप्ति की ओर है। लिहाजा, हमारे सीने-छाती वगैरह फूल-फूल कर कुप्पा हुए जा रहे हैं।
मित्रों! थाम लो अपना दिल-ओ-जिगर, क्योंकि इस भेद को अब खोला जाता है। हमने दूध का विकल्प विकसित किया है और उसका नाम दिया हैं ''सिन्थेटिक-दूध ''। देश के नौ करोड़ टन के दुग्ध उत्पादन में, एक करोड़ टन से अधिक की सक्रिय की भागीदारी सिन्थेटिक दूध निभा रहा है। चुनांचे, अपने मुल्क की बल्ले बल्ले तो होगी ही । उधर, विकसित देशों के वैज्ञानिक भौंचक होंगे कि उनकी उन्नततम प्रयोगशालाओं और ''बॉयोटेक- मिल्क '' बनाने की कोशिशों को धता बताते हुए, हमारी ग्रामीण प्रतिभाओं ने अपने आंगनों- चौबारों में दूध का ''क्लोन '' बना लिया। साधुवाद के पात्र हैं, वे ग्रामीण शोधकर्ता, जिन्होंने इस देश को सिन्थेटिक खाद्य पदार्थों के निर्माण की नई राह दिखाई। दोस्तों! सिन्थेटिक-दूध के घटक-पदार्थ कितने सहज रूप में प्राप्त हैं?
जरा नज़रे इनायत करें - डिटरजेंट पाउडर, कोई सस्ता तेल, घासलेट, खडि़या, यूरिया, कॉस्टिक सोडा और शक्कर। इसे किसी बड़े पात्र (न हो तो नांद ) में डालो। मथनी से मथो। यह लो, बिना दुहे दूध हाजिर। क्वालिटी और भी अच्छी बनानी हो तो तरल डिटरजेंट (जेंटिल या ईजी ), सफेद रंग, ग्लूकोज, हॉइड्रोजन परॉक्साइड, फॉरमिलीन और शैपूं का उपयोग करो तथा वाशिंग मशीन में खंगाल लो। सुधिजनों! लोग व्यर्थ ही गुस्साएं हुए हैं। वे इस महान आविष्कार को विषैला बताते हुए, इसके निर्माण पर पाबन्दी लगाने की मांग करते हैं। एक अध्ययन बताता है कि इंसान चौथाई मिलीग्राम से अधिक जहर का सेवन प्रतिदिन कर रहा है। कुछ और कर लेगा तो उसका क्या बिगड़ जायेगा? थोड़ी कठिनाई के बाद, यह भी अभ्यास में आ जायेगा। '' 'कोल्डड्रिंक्स ' में कीटनाशक पदार्थ होने के बावजूद, लोग उसे कितने लाड से अपनाए हुए हैं? ‘करंट बॉयो साइंस' में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक ताजा-तरीन तरकारियों में 'हैवी मेटल' यानि जिंक, तांबा, निकल, कैडमियम, सीसा, कोबॉल्ट तथा घातक रसायनों की सीमा से अधिक मात्रा पाई गई है।
और, आज का आदम क्या नहीं खा रहा? राजस्थान का राजेन्द्र भाटी और तमिलनाडु का कुप्पन छिपकली को मजे से खाते हैं। मदुरै का मुरूगान तो छिपकली के अलावा सांप तथा गिरगिट को भी चबा जाता है। बीकानेर का विजयसिंह, ललौनी का पप्पू अहरिवार, दलपतपुर का कैलाश, झाडोली का ओटमल कंकड और ईटों को चबा जाते हैं। साठ साल का ऐंटोनिया तथा तीन वर्ष का स्टीफन ब्लैड, कील, कांच हजम कर जाते हैं। फ्रांस का लोलितो एक साईकिल चबा गया। आस्ट्रेलिया का लियोन सेक्सन कार भकोस गया था। एक मनचला तो छः माह में समूचा ट्रक उदरस्थ कर गया। पूना का एक नवयुवक, मजे से गोबर खाता है।
औरंगाबाद के प्रवीण कुमार को 18 साल से आधा किलो रसोई गैस रोज पीने की लत है। कापरेन का रामदेव खेतों में छिड़कने वाले कीटनाशक रसायन के दो-तीन ढक्कन मजे से हर रोज पीता है। बोलो,इनका बिगड़ा है कुछ? इसी तर्ज पर हमारे एक लेखक बंधु डाक्टर राकेश शरद फरमाते हैं कि सिन्थेटिक दूध के पदार्थ बेहद स्वास्थ्यवर्धक हैं। सबसे पहले इसमें पड़ा डिटरजेंट आपके पेट की गंदगी को धो डालेगा। यानि कब्जियत से छुटकारा। सोडा, गैस की पीड़ा को शांत करेगा। सफेद रंग से आंतों का चकाचक रोगन हो जायेगा। यूरिया खाद से फसल तक लहलहा जाती है, अतः आपका होगा अद्भुत विकास। ग्लूकोज तो वैसे ही चढाते हैं, डाक्टर लोग। आपको बोनस में ही मिल रहा है। इंशा अल्लाह, हम भी इससे सहमत हैं। दूध में पड़ी चाक, खडि़या, मुल्तानी मिट्टी आदि हमें वतन की जमीन से जोड़े रखती हैं। इस दूध के सभी घटक स्वदेशी हैं।
अतः स्वदेशी आंदोलन वालों के लिए यह खुशी का सबब है। हमने विदेशियों को दूध उत्पादन पटकनी दे दी, देश- प्रेमियों हेतु यह गौरव का विषय है। बंधुओं! केवल दूध ही नहीं बल्कि डुप्लीकेट वस्तुओं के विकासीकरण में हम अन्य मामलों में भी आगे बढे हैं। पहले शुद्व घी में वनस्पति घी, खाद्य तेल अथवा गाय की चर्बी मिलायी जाती थी। अब, सिन्थेटिक का जमाना है। सफेद ग्रीस तथा अखाद्य तेल के योग से देशी घी तैयार किया जाता है। उसमें डाईएसीटिल अम्ल डालकर असली घी जैसी सुगंध पैदा की जाती है। बाजरे का आटा मिलाकर घी को दानेदार भी बनाया जाता है।
किसी भी प्रतिष्ठित ब्रांड के खाली डिब्बों में पैकिंग करो और बाजार में पेल दो। यह कुटीर उद्योग नगरों, कस्बों, गांवों तक में पनप गया है। अगरचे, कुछ वर्षो बाद हम निर्यात की स्थिति में आ सकते हैं। आगरा और जयपुर से समाचार है कि कुछ विकल्प विशेषज्ञों ने सिन्थेटिक मावा बना लिया है। इसे डिब्बा बंद दूध, सूजी तथा खाद्य तेल के मिश्रण से तैयार किया जाता है। उधर मुजफ्फरनगर के दिमागदार भी कुछ कम नहीं। वे लोग ''कत्थे'' का डुप्लीकेट विकसित करने में कामयाब हो गये हैं। मरे जानवरों को सूखा रक्त, जूता- पॉलिश, मुल्तानी मिट्टी, लाल रंग और आरारोट आदि श्रेष्ठ पदार्थों योग से कत्था तैयार होता है। इसके अनुसंधानकर्ता पर्यावरण प्रेमी नजर आते हैं। उनकी खोज से खैर के पेड़ की ताबड़तोड़ कटाई थमेगी। सज्जनों! यह हुई इंसानी खुराक की बात। वाहनों की खुराक यानी मोबिल ऑयल भी सिन्थेटिक रूप में तैयार हो गया हैं ।
सफेद मिट्टी, ग्रीस, अरंड का तेल और रंग मिलाकर मनचाहे ब्रांड का डुप्लीकेट रूप तैयार है। तो पाठकों विकल्पों के विकास की क्रिया के तईं हम काफी आगे बढे हैं। यहां प्रत्येक प्रतिष्ठित उत्पाद का डुप्लीकेट-रूप चंद दिनों में उपलब्ध हो जाता है। सौंदर्य- प्रसाधन, सॉफ्टवेयर्स, सीडी-कैसेट्स , करेंसी-नोट, सिक्के, पानमसाला, गुटखा, दवाएं और न जाने क्या-क्या? तथापि संभावनाएं इतनी विपुल है कि नित नवीन प्रकरण सामने आ रहे हैं । लिहाजा, इसी मिजाज पर एक लतीफा पढ़ें - सवाल -''भगवान ने इंसान को आकाश, धरती, हवा, पानी बनाने के बाद क्यों बनाया? '' जवाब -''क्योंकि भगवान को भय था कि इंसान को पहले बना दिया तो उन्हें वह स्वयं बना लेगा और भगवान को कुछ भी बनाने का मौका नहीं देगा।''
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ऊंट भी खरगोश था
अखबारों में अमूमन ताजा अध्ययनों और वैज्ञानिक शोधों की बाबत एक कॉलम हुआ करता है। मैं, उसे सम्पूर्ण विश्वास और रूचि के साथ पढता हूं। एक दिन पढा- ऊंट का आकार कभी खरगोश जैसा था। बात हैरानी की, किन्तु विज्ञान सम्मत थी, अतः यकीन करना पड़ा। अब, जमाना 'कापर्निक्स ' वाला तो है नहीं कि उसने कहा कि सूरज सदा स्थिर रहता है और पृथ्वी घूमती है। तो भाई लोग लट्ठ लेकर उसके पीछे पड़ लिये।
बेचारा 'कापर्निक्स' अपनी बात दोबारा कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। लेकिन, अब बात अलग है। अन्वेषकों के तथ्य बगैर शुबहा स्वीकार किये जाते हैं और समाचार माध्यमों की उन पर कृपा दृष्टि होती है। पाठकों को भी रोचक समाचार उपलब्ध हो जाते हैं। दरअसल, बात जब तक ऊंट और खरगोश के दरम्यान थी तब तक मेरी सोच पर कोई असर नहीं पड़ा, अनेकदफा उन्होंने वर्षों पुरानी स्थापनाओं और मान्यताओं को दरकिनार कर दिया। शोधकर्ता कभी एक तथ्य प्रस्तुत करते और कुछ दिनों के बाद उसे नकारते हुए नया अन्वेषण पेश कर देते। अपने ने फिक्र नहीं की। लेकिन जब एक दिन मुए अध्ययनकर्ता मेरी दिनचर्या में दखलंदाजी पर उतारू हो गये, तब मैं व्यथित हुआ। मसलन, सूर्योदय से पूर्व जागने फायदे युग-युगों से स्थापित और विज्ञान-सम्मत हैं। हमें अपना बचपन याद आता है, जब पूज्य पिताश्री पौ फटने से पूर्व, हमारा लिहाफ खींचते हुए गाया करते थे, '' जो सोवेगा सो खोवेगा, जो जागेगा सो पावेगा। ''
जब वयस्क हुए तो सैमुलिन जानसन की यह उक्ति ब्रह्म वाक्य बन गयी कि जो व्यक्ति प्रातः जल्दी नहीं उठ सकता, वह कोई बड़ा कार्य नहीं कर सकता। '' मगर, ''अर्ली टू बेड, अर्ली टू राइज '' को धता बताते हुए बिट्रिश मेडीकल जर्नल लिखता है कि आप जब भी चाहे सोयें और मन चाहे तब जागें। इस नुक्ते का समर्थन करते हुए साउथ मेंटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता लिखते हैं कि जागने में जल्दबाजी उचित नहीं, देर तक सोने वाले अधिक स्वस्थ रहते हैं। चुनांचे, मैंने ''जो जागेगा सो पावेगा․․․․․․'' वाली दार्शनिकता छोड़, किस किस को याद करें, किस किस को रोइये। आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक कर सोइये। '' वाला फ़लसफ़ा अपना लिया। और अलस्सुबह उठने के तनाव से भी मुक्ति पायी।
किन्तु यह निजात अधिक दिन नसीब नहीं हुई। कुछ दिन चैन से बीते कि एक रोज मनौवैज्ञानिक ट्रीशिया सैमूर ने सब गुड़-गोबर कर दिया। वे अपनी पुस्तक '' 31 दिन तक अपने तनाव बढायें '' में लिखती हैं कि प्रतिदिन तनाव पालें और आप देखेंगे कि आपके कार्य बेहतर ढंग से कार्यान्वित हो रहे हैं। सैमूर के अनुसार तनाव बड़प्पन की निशानी है। दूसरी ओर तनाव से छुटकारा पाने के लिए लोग 'डेमेज-थेरेपी' अपना रहे हैं। अजब, असमंजस है टेंशन पालें या नहीं ? मुझे बिस्तर त्यागने से पूर्व '' बेड-टी '' की आदत थी। मजबूरी थी, उसके बगैर दैनंदिनी प्रारम्भ ही नहीं होती थी। लेकिन जब चाय की बुराईयां पढ़ीं, तो घबराकर चाय छोड़ दी। एवज में दो-तीन गिलास जल पीकर काम चलाया।
कुछ माह बीते होंगे कि चाय के बारे में डा0 हसन मुख्तार की यह हिमायत पढ़ी कि चाय हृदय-घात, कैसर, फेफड़ों के लिए लाभकारी है। पेट के ट्यूमर का खतरा घटाती है। सूर्य की हानिकारक किरणों से बचाव करती है। मोतियाबिन्द को नियंत्रित रखती है। एक्जिमा दूर करती है। बुढापे तथा झुर्रियों को थामे रखती है। कुछ इसी तरह की बातें जापान, स्काटलैंड तथा नीदरलैंड के वैज्ञानिकों ने लिखीं। किसी ने चाय में विटामिन्स तक खोज निकाले। कुछ खोजकर्ताओं ने एक कप चाय के गुणों की तुलना ताजा फलों और हरी तरकारियों से कर डाली। बस, फिर क्या था? ऐसा प्रातः स्मरणीय अमृततुल्य पदार्थ अपने रसोईघर में मौजूद हो और उसका सेवन नहीं हो? पहले एक कप पीते थे किन्तु अब दो कप बिस्तर में ही सुड़क जाते हैं। चलो, चाय निपटी अब नाश्ता लें। अपन हृद्य रोगी हैं तथा उच्च रक्तचाप से भी ग्रसित हैं। डॉक्टर ने बदन का वजन और भोजन की चिकनाई नियन्त्रण में रखने की ताकीद की। अतः, केला, दूध, घी तथा तेल का त्याग कर दिया।
किन्तु एक रोज करंट साइंस जर्नल ने करंट मारकर हमें हिला दिया। उसमें लिखा था कि केला खाने से रक्तचाप कम होता है। यही निष्कर्ष कस्तूरबा मेडीकल मणिपाल के अनुसंधानकर्ताओं का है। इधर आये दिन पढ़ने में आ रहा है कि वसा युक्त भोजन हृदय रोगियों हेतु गुणकारी है। पूर्व में दोषी करार दिये गये सेचुरेटेड फेट्स, अब रक्त में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम करने हेतु अनिवार्य बताये जा रहे हैं? रोमानिया और फ्रांस में हृदय रोग की चिकित्सा शराब के जरिये की जा रही है। यह कैसी लीला है, प्रभु? पहले मैंने कहीं पढ़ा था कि तली वस्तुओं को उपयोग से पूर्व अखबारी कागजों में तनिक दबा कर रख दें ताकि कागज फालतू चिकनाई सोख ले। मैंने इस उपाय को फौरन अपना लिया, भले ही इस उपक्रम में कभी-कभी समाचार पत्रों की स्याही खाद्य पदार्थों पर उभर आया करती थी। अखबारी स्याही में कीटाणु नाशक गुण होते हैं, यह तथ्य भी मेरी जानकारी में था, अतएव इस ओर से मैं निष्फ्रिक था। मगर एक दिन यह धारणा भी धराशायी हो गयी। एक अध्ययन में छापे खाने में प्रयुक्त स्याही में घातक रसायन पाये गये। अतः मैं ऊहांपोह में पड़ गया हूं।
''चाकलेट'' को दंत-क्षय तथा रक्त में शर्करा वृद्धि के भय की वजह से नहीं खाया करते थे किन्तु जब से एटुअर्ड कॉमे और क्रिस ईथरटन की घोषणा पढी कि चाकलेट हृदय के लिए हितकर है। यह दिल की दवा है, तो बेखटके खाने लगे। हां, बाद में दांत अवश्य अच्छी प्रकार से साफ कर लेते हैं। मंजर यह कि विज्ञान सम्मत जिन्दगी जीने वालों के लिए विज्ञान ही नित नई आशंका पैदा कर देता है।
चुनांचे, आप ही बतायें वैज्ञानिकों के निम्न वर्णित जुमलों के साथ क्या व्यवहार करें-
''अधिक सोचने से मस्तिष्क को नुकसान'' (यानि सबते भले हैं, मूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत गति )
''अच्छा है दफ्तर में गप्प मारना '' (और अधिकारी अगर चेतावनी पत्र थमा दे तो ? )
''काम के दौरान एक घंटे में तीस मिनट की झपकी लें, सुस्ती दूर रहेगी'' (किसी ज्वैलरी की दुकान पर काम के दौरान, झपकी लेकर अंजाम देखें )
''प्रोटीन बुखार का जिम्मेदार ''(भोजन से ''प्रोटीन '' अवयव को निकाल फेंकने का उपाय भी बता दो भाई!)''
प्रति किलोमीटर तीन हजार चूहों का घनत्व हो तो प्लेग की आशंका ''। ( गोकि सरकार जन -गणना के साथ चूहा-गणना की व्यवस्था भी करे'')
''संगीत से काम-काज पर बुरा असर '' (किन्तु दुधारू पशु तो अधिक दूध देते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक संगीत याददाश्त भी बढाता है । )
''मुर्गे को टी․वी․ दिखायें, वह मोटा होगा'' (कमाल है जी! सीकिंया मर्द इसे नोट करें और लाभ उठायें )
''बिजली के तारों से रक्त कैंसर '' (आओ केंडल लाइट वाले काल में लौट लें।)
'' अण्डा खायें, दिल बचायें, ''(हृदय रोगी ध्यान दें संडे हो या मंडे रोज खाये अण्डे )
'' गैस पर खाना पकाने से फेंफड़ों को नुकसान '' (औरगांबाद का प्रवीण कुमार आधा किलो गैस प्रतिदिन पीकर पूर्ण स्वस्थ है, तनिक उससे भी पूछ लेते )
''हृदय रोगियों को एस्प्रीन से खतरा ''( लो उस्ताद, रोज रोज एस्प्रीन खाने के झंझट से मुक्ति दिलवा दी। )
''हो सकता है अगरबत्ती के धुएं से भी कैंसर ''(भक्तजनों! भगवत् मिलन की आस अब शीघ्र पूरी होगी)''
आठ गिलास से अधिक पानी पीना नुकसान दायक'' (तो इसका विकल्प भी बता देते हुजूर ) ।
तो विचार करें कि क्या विज्ञान अपनी राह भटक गया है? आखिर, शोध कार्यों की भी कोई दिशा तो होनी चाहिए?
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तत्वज्ञान चर्चा
तत्वज्ञान चर्चा
महर्षि याज्ञवल्क्य महान तत्वज्ञानी थे। वैदेह नरेश परिध्वज जनक के काल में उन्होंने शास्त्रार्थ द्वारा अपार ख्याति और संपत्ति अर्जित की। आधी आयु व्यतीत होने के पश्चात् उस सद्गृहस्थ, ऋषि प्रवर ने वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश का निश्चय किया और अपनी संपत्ति दो पत्नियों मैत्रेयी तथा कात्यायनी में बराबर बांट दी। कात्यायनी अति हर्षित हुई, किन्तु मैत्रेयी को संपत्ति का मोह न था । वह, अनेकानेक प्रश्न पति से पूछने लगी। लिहाजा, उस मर्मान्वेषी संवाद का कलयुगी संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है-
मैत्रेयीः '' हे स्वामी! शास्त्रार्थ क्या है? ''
याज्ञवल्क्य:हे ''देवि! विश्वास मत प्राप्त करने के लिए संसद में जारी वाद-विवाद ही आधुनिक शास्त्रार्थ है। ऐसे शास्त्रार्थ के तकोंर्-वितकोंर् का प्रजाजन भी पूरे मनोविनोद से रसास्वादन करते हैं। ''
मैत्रेयी:''हे प्रभो! जो दमन से पराभूत न हो, बल्कि असंयमित हो कर अधिकाधिक प्रबल होता जाए वह क्या है? ''
याज्ञवल्क्य:''आतंकवाद ।''
मैत्रेयी:''हे तत्वज्ञ! ''चितस्यवृति:निरोधःयोग । क्या चित्तवृतियों का निरोध करने वाला ही सच्चा योगी है? ''
याज्ञवल्क्य:'' प्रिये ! आधुनिक योगी स्वयं ही चित्तवृतियों का शमन नहीं करता, बल्कि समर्थों अर्थात् सत्ताधारियों के मन को वशीभूत करने का प्रयत्न करता है, जो इस रूप में सफल होता है, वही परमयोगी है। ''
मैत्रेयी:'' हे नाथ! धन-संपदा और सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने के पश्चात् कलयुगी मानव का अन्य ध्येय क्या है? ''
याज्ञवल्क्य:''राजनीति में प्रवेश कर येनकेन -प्रकरेण संसद या विधानसभा की सदस्यता प्राप्त करना। तत्पश्चात् मंत्री पद को प्राप्त हो जाना ही परम ध्येय है। यह ध्येय अपराधियों को भी मोहता है।''
मैत्रेयी:‘‘हे ऋषिवर! गीता का कथन है- ‘नैनं छिदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक। नचैनं क्लेदयन्तयापो, न शोषयति मारूतः।‘ जो शस्त्र से छिद्रित नहीं हो, आग से जले नहीं। जल जिसे गला नहीं सके और वायु से शोषित न हो। वह कौन है?''
याज्ञवल्क्य:'' मसाला फिल्मों एवं टी․वी․ सीरियलों के नायक अजर है, आर्या!''
मैत्रेयी:'' सर्वव्याप्त क्या है स्वामी? ''
याज्ञवल्क्य:‘‘ हे भद्रे! भ्रष्टाचार सर्वव्याप्त है। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप में व्याप्त है। वस्तुतः परोक्ष भ्रष्टाचार दृष्टिगत नहीं होता है, परन्तु उसकी अनुभूति भोगी को पूर्णतः होती है। ‘‘
मैत्रेयी:'' हे भगवन्! शास्त्रों में माया को महाठगिनी पुकारा गया है। क्या वर्तमान में इससे भी श्रेष्ठ ठग विद्यमान हैं? ''
याज्ञवल्क्य:''हां, शुभे! शासन के संचालन हेतु प्रजा द्वारा निर्वाचित विभिन्न विचारों वाले एवं विभिन्न दलों वाले अल्पसंख्यक प्रतिनिधि, किसी बहुसंख्यक दल को सत्तासीन नहीं होने देने के लिए परस्पर गठबंधित होते हैं और अपनी इच्छा के व्यक्तियों को सत्तारूढ़ करते हैं तथा अल्पकाल में ही उन्हें सत्ताच्युत करते जाते हैं। अथवा पारी से शासन करने के लिए विरोधियों से अनोखे जोड़-तोड़ बिठाते हैं। ऐसे सभासद महाठग हैं। इसी भांति निश्छल निवेशकों की श्रमसाध्य संचित राशि को नानाविध योजनाओं से आकर्षित कर अथवा अपनी साख को किसी भांति अधिक उच्च दर्शाकर, घोटालों- कांडों के माध्यम से हड़पकर, सुख भोगने वाले पूंजीपति महाठग हैं। ''
मैत्रेयी:‘'अभी, भारत-भूमि पर कठिनतम क्या है?‘‘
याज्ञवल्क्य:''पूर्व निर्धारित सरकारी आंकड़ों की लक्ष्यपूर्ति ही सर्वाधिक कठिन कार्य है । विशेषतः नसबन्दी लक्ष्य को प्राप्त करना तो कठिनतम है। ''
मैत्रेयी:''हे मर्मज्ञ! ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन‘ अर्थात् कर्म के सम्मुख फल की चिंता न करने वाला प्राणी इस पृथ्वी पर कौन है? ''
याज्ञवल्क्य:''प्रिये! कामवासना से उत्कंठित बलात्कारी पुरूष; कर्म के परिणाम की चिंता नहीं करता। इसी भांति दिग्भ्रमित आंतककारी भी स्वयं और समाज का नाश करता है।''
मैत्रेयी:‘‘हे तात! इस युग की अमरबेल का नाम प्रकट करने की कृपा करें।''
याज्ञवल्क्य:''मंहगाई ही वह अमरबेल है, जो निरन्तर पल्लवित हो रही है।''
मैत्रेयी:''हे देव ! भारत- भू पर कृषक अनवरत आत्महत्या कर रहे हैं, किन्तु शासक इसके प्रति निरपेक्षभाव क्यों अपना रहे हैं?''
याज्ञवल्क्य:'' हे शुभे! इस हेतु एक अध्ययन ' क्रिश्चियन एड ' नामक संस्था ने किया था। उसका निष्कर्ष था कि भारत में कृषकों की आत्महत्या के परिप्रेक्ष्य में ब्रितानी सरकार की मुक्त व्यापारिक कृषि नीतियां हैं। यह इतर बात है कि स्थानीय शासकों का उन नीतियों से मोहभंग नहीं हो रहा है। ''
मैत्रेयी:'' स्वामी, अनेक विचित्र प्रसंग मेरे संज्ञान में हैं। यथा राजस्थान के बांसड़ा गांव में एक बघेरा घुस आया तो ग्रामीणों ने वन अधिकारियों को सूचना दी। वन अधिकारियों ने बघेरे को नहीं अपितु सूचना देने वालों को पकड़ा। उत्तरप्रदेश के मुबारकपुर के लाल बिहारी को न्यायालय ने मृत घोषित कर दिया। उसे जिन्दा सिद्ध होने में अठारह वर्ष लगे। उन अठारह सालों में उसे अपना नाम मृतक लाल बिहारी लिखने की आदत पड़ गयी। एक प्रदेश में बासठ वर्ष पूर्व मरे व्यक्ति की शवयात्रा में उपस्थित होने का शपथ पत्र दो जनों ने प्रस्तुत किया। दोनों की आयु चालीस साल से अधिक नहीं थी और उस शपथ-पत्र को एक अभिज्ञानित वकील ने सत्यापित भी कर दिया था। ढाई करोड़ रूपये की रिश्वत लेने वाले अधिकारी को, विभाग ने पुनः पदस्थापित कर, उच्च पद प्रदान किया। यह कैसी लीला है, प्रभो! ''
याज्ञवल्क्य:''हे प्रज्ञे! ऐसे कलयुगी प्रपंच, सैंकड़ों की संख्या में नित प्रति घटित हो रहे हैं, अतः तुम्हें अपना चित इनसे पृथक रखना ही हितकर होगा। ''
मैत्रेयी:'' हे महात्मन! आज के कथावाचन की भी किंचित व्याख्या कीजिए। ''
याज्ञवल्क्यः'' भवंती! वर्तमान काल में प्रवचनकारों द्वारा ऐसा आयोजन अत्यंत विस्तृत रूप में व संपूर्ण आडंबर के साथ किया जाता है। संचार के समस्त साधनों द्व्रारा प्रचार- प्रसार किया जाता है। हजारों -लाखों की संख्या में श्रोतागण एकत्र होते हैं। कुशल कथावचाक ,विलासिता के समस्त साधनों का भोग करता हुआ, श्रवणकर्ताओं को भौतिकता के प्रति विरक्ति का उपदेश देकर, उन्हें आध्यात्म की ओर प्रेरित करता है। ''
अंततोगत्वा; विद्वान पति के पांडित्य पर रीझकर मैत्रेयी याज्ञवल्क्य के चरणों में गिर जाती है।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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