ऊँट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय ( पिछले अंक 3 से जारी...) अय हय बीच वाले इस वक्त परिवार में जो जन अग्रज हैं...
ऊँट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
अय हय बीच वाले
इस वक्त परिवार में जो जन अग्रज हैं, वे भलीभांति जानते होंगे कि अनुजों के आनन्द ही आनन्द हैं। माता- पिता सबसे छोटी संतान की शरारतों को खींसें निपोरकर कुछ इस तरह टालते हैं- ''हें ․․हें ․․․अभी तो बच्चा है। ''
परन्तु, बीचवालों के उत्पात का जिम्मेदार, ज्यादातर बड़े को ही बनाया जाता है - ‘'ताड़ की तरह लम्बा हो गया और छोटों से लड़ते लाज नहीं आती?''
बहुओं में बीचवाली बहु के मजे ही मजे हैं। दफ्तरों में बीचवाला अधिकारी अथवा बाबू अपनी जिम्मेदारी कनिष्ठों या वरिष्ठों पर थोपकर बेफिक्र रहता है। परमपिता परमेश्वर भी बीचवालों के फ़लसफ़े से बच नहीं सके हैं। कृमियों में केचुंआ, जानवरों में खच्चर, देवों में किन्नर तथा आदम में हिंजडे, ईश लीला का अंजाम हैं।
इंशाअल्लाह, इन बीचवालों से कौन नहीं घबराता? इंसानी बीच वालों से पंगा मोल लेना किसे पसंद है? इनसे अड़ने का अर्थ है, उपहास का पात्र बनना। लीजिये, बानगी पेश है ः- धकाधक चलती रेल और ठसाठस भरी बोगी का वाकया है, यह। उस बोगी की एक सीट पर, नारी वेशधारी, एक खूबसूरत हिजड़ा तसल्ली से पसरा पड़ा था। मजाल, जो कोई उससे थोड़ी सी जगह मांग ले। उस भीड़ में टूंगता-टूंगता किसी भांति एक टिकट-चैकर आ धमका। चूंकि बीचवाले के मुखड़े का आंशिक भाग ही दृष्टिमान था, अतः चैकर महोदय ने उसे महिला समझकर सम्बोधित किया, ‘'ए बहनजी ! जरा टिकट दिखाइये। '' तथाकथित बहिनजी ने लेटी हुई मुद्रा में तनिक सा लोच लाकर, बांहें ऊपर उठायीं और दनाक से जोरदार ताली ठोक दी। उस, सदाबहार '' आइडेंटिटी-कार्ड '' यानी ताली पीटा अदा को देख, चैकर महाशय मामला भांप गये, अतः तल्ख स्वर में बोले, ''एक तो आपने टिकट नहीं लिया। उस पर आप पूरी सीट पर सोये हुए हैं। उठिये और पैसेंजर को बैठने दीजिये। '' बीचवाले ने तमतमाकर तीन तालियां और ठोकीं और कहा, ''अय․․․हय ․․․ हम तो ऐसे ही पूरे इंडिया में जातीं । खूब ढोलक बजातीं। बोल तेरी भी बजाऊं? यात्री खिलखिला पड़े। चैकर अपना सा मुंह लिये आगे बढ़ गया।
चुनांचे, एक जमाना था जब दिल्ली का ताज इन्हीं तालपीटों के सर पर था। क्या आलम रहा होगा, तब? दरबारे आम में साडि़यों की फरफराहट, तालियों की जुगलबंदी और पान की पीक बसा करती होगी? एक सुल्तान तो एक बीचवाले का इतना दीवाना हो गया था कि उसकी बेगमें तक, उस बंदे से सौतिया डाह रखने लगी थीं। बहरहाल, बीचवाला तरीका भी कभी कभी कमाल का करिश्मा दिखा जाता है । कुमारी विषया ने एक ऐसी ही तरकीब भिड़ा कर एक मामले का मजमून ही पलट डाला था।
किस्सा कोताह कुछ यूं है - राजा अग्निदत्त का अत्यन्त कृपा पात्र सेवक था, प्रियदर्शन। एक बार उससे सेवा में कोई चूक हुई और राजा ने प्राण दंड देने का निश्चय कर लिया। अग्निदत्त अपने प्रिय सेवक की मौत आंखों के सामने नहीं चाहता था। अतः उसने अपने एक प्रांतपति शीलमित्र को आदेश लिखा ''इस दूत को तत्काल विष दे देना। '' दंडारोप से सर्वथा अन्जान, प्रियदर्शन को वह पत्र थमाते हुए राजा अग्निदत्त ने शीघ्र ही उसे , शीलमित्र तक पहुंचाने की आज्ञा दी। हुक्म की पालना हेतु युवक तुरंत रवाना हो गया। लम्बी यात्रा के पश्चात् प्रियदर्शन प्रांतपति की हवेली पर पहुंचा तो ज्ञात हुआ शीलमित्र कहीं बाहर गये हैं और सांय तक लौट आयेंगे। थका हारा युवक हवेली के पास एक बाग में पेड़ के नीचे सो रहा। थोड़े समय बाद शीलमित्र की पुत्री विषया उस उद्यान में विहार हेतु आयी। वह, बांके नौजवान को देख कर रीझ गयी। सेविका को आदेश दिया कि युवक से परिचय पूछा जाए। गहन निद्रालीन युवक लाख पुकारने पर भी नहीं उठा।
हारकर, हुक्म हुआ कि तलाशी लो। पगड़ी में खोंसा हुआ पत्र बाहर आया। आज्ञा हुई पढो। सेविका ने वाचन किया ''इस संदेश के वाहक को तत्काल विष दे देना। '' रंज हुआ। ''हाय ․․․․हाय ․․․․ यह सुदर्शन युवक सवेरे का सूरज नहीं देख सकेगा।'' विषया ने गहन विचार किया, फिर कलम मंगवाई। संदेश में लिखे विष शब्द के सम्मुख 'या' जोड़ दिया। अब वाक्य था- '' इस संदेश के वाहक को विषया दे देना। '' वह पत्र पुनः पगड़ी में खोंस दिया गया।
सांय, प्रियदर्शन सूबेदार शीलमित्र के सम्मुख प्रस्तुत था। पत्र पढा गया । राजा अग्निदत्त का आदेश, प्रांतपति कैसे टालता? हुकुम सर माथे। उसने नजरभर सुंदर युवक को निहारा। वह सर्वथा सुयोग्य वर प्रतीत हुआ। प्रांतपति शीलमित्र नेे राजा के प्रति मन ही मन आभार व्यक्त करते हुए, कन्या का विवाह सानंद सम्पन्न करवाया। इस तरह एक शब्द जोड़ने से मौत, तोहफे में बदल गयी।
काश! सूपर्णनखा भी कोई ऐसी बीचवाली रीति भिड़ा लेती। नाक-कान तो सलामत रहते, साथ ही मनवांछित वर भी मिल जाता। विवाहादि सामाजिक कार्य सम्पादित करवाने में बीचवालों की भूमिका को भला कैसे भूला जा सकता है? नाई, दूत तथा भाट आदि इस पुनीत कर्म को सदियों तक करते रहे। भारतीय समाज उनका ऋणी है। अब यह कार्य अखबार वाले, मैरिज ब्यूरो और इंटरनेट कर रहा है। मुनि नारद ने बीचवालों के किरदार को एक अलग प्रकार का ''थ्रिल '' दिया। इधर की आग उधर और उधर की आग इधर लगाकर खूब मजे लूटे। कालांन्तर से इस प्रकार के कार्य करने वाले को '' नारद'' की संज्ञा से विभूषित किया जाने लगा।
शनैः शनैः इस किस्म के बीचवालों की संख्या बढ़ती चली गयी। बिचौलिया, ब्रोकर, बुकी, आढतिया, एजेंट, कमीशनखोर, दलाल, मध्यस्थ, मॉफिया, डीलर, एक लम्बी फेहरिस्त है। कौनसा काम है, जो बीचवाले नहीं करवा सकें। इनकी तो हर जगह पौ बारह है। बहरहाल, बीचवालों की अहमियत देखिये। नौकरी पानी है, पटाइये पुख्ता दलाल को। रिश्वत खिलानी है, किसी विश्वस्त ऐजेंट का हाथ थामिये। मनवांछित स्थान पर तबादला चाहिए, यूनियन के प्रभावशाली बिचौलिये के पैर पकड़ लीजिये। मकान-जमीन की जरूरत है, नगर के भू-माफिया की शरण में चले जाइये। साहित्यिक -कृति बेचनी है, माहिर मध्यस्थ सरकारी खरीद करवा देंगे। पुरस्कार, लोकार्पण, अभिनंदन के पुनीत कार्य बीचवाले बंदों के लिए बांये हाथ का खेल है। कहिए, क्या ख्याल है, आपका?
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प्रवचन परोस वत्स!
प्रवचन सुनने की इंसानी ललक बेहद पुरानी है। प्राच्यकाल में ऋषिगण सदा प्रवचन दिया करते थे। इस मामले में सूत गोस्वामी नितांत निष्णात थे। नेमिषारण्य में जब-तब मुनियों का जमावड़ा हो जाता था। सूतजी के परम श्रोता शौनक ऋ़षि अपनी ढेर सी जिज्ञासाओं का शमन, तात से किया करते और सूतजी उवाच आरम्भ हो जाता था। यृद्ध भूूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन की शंका -कुशंकाओं का समाधान प्रवचन के बूते पर ही किया था। बुद्ध, महावीर, ईसा, हजरत पैगम्बर आदि ने प्रवचन के आसरे ही अपना मत संसार के सम्मुख रखा। तब, प्रवचनकार आडम्बर विहीन जीवन जीते थे। उनके प्रवचन सुबोध, तत्वपूर्ण तथा हृदयस्पर्शी हुआ करते थे। उनका एक -एक संवाद श्रोताओं के अंतर्मन को झंकृत करता हुआ गहरे पैठ जाता था।
तत्पश्चात् वाचनकाल आया। कथा-वाचकों ने गद्य के साथ पद्य एवं संगीत का समावेश कर श्रोताओं को आनंदित किया। किसी जमाने में राधेश्याम कथ्य शैली की बड़ी धूम मची थी। अब, प्रवचन कला ने अपना चोला बदल डाला है। निस्वार्थ भाव तो तेल लेने गया। अब, यह हुनर है, उद्यम है, उद्योग है। भांति -भांति के भगवान, भाई, आचार्य, योगी, संत, बापू, आदि उग आये हैं। हरि-कथा हेतु कुछ दिव्यात्माएं विदेश प्रवास को तज आयीं और कुछ ने इस हेतु विदेशों में जमावड़ा जा किया। अधिकतर प्रवचनकार, पुराने माल पर नया चमकदार मुलम्मा चढाकर पेश कर रहे हैं। और इस मुलम्मे से श्रोताजन भी सम्मोहित हैं। क्योंकि प्रवचन का धंधा अब, टटपूंजियाना नहीं रहा। जैसा पहले हुआ करता था कि माथे पर त्रिपुंड लगाया, कांख में लाल कपड़े की तुड़ी -मुड़ी सी पोथी दबाई और निकल पड़े प्रवचन देने। भरपेट भोजन के एवज में सवा रूपया दक्षिणा पायी तथा थमा दिया यजमान को आर्शीवचनों का अम्बार।
अब, प्रवचन लाखों रूपये में प्रायोजित किये जाते हैं। बैनर, पोस्टर और अन्य संचार माध्यमों के जरिये खासा प्रचार किया जाता है। प्रवचनकर्त्ताओं की निजी पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित होती हैं। सुनियोजित प्रचार के पश्चात मैदानों में लम्बे-चौड़े लुभावने शामियाने सजते हैं। सजावट की अन्य वस्तुओं के साथ, क्लोज-सर्किट टी․वी․ भी लगाये जाते हैं। प्रत्येक प्रवचन की ऑडियो- वीडियो केसेट्स रिकार्ड की जाती हैं, जिसे बाद में भक्तजन खरीदते हैं अथवा उन्हें इलेक्ट्रोनिक माध्यमों पर दिखाया जाता है। प्रवचनकार मंहगी लक्जरी कारों से आते हैं। हजारों-लाखों श्रोताओं की जय जयकार के मध्य पहले प्रवचन परोसे जाते हैं, तत्पश्चात् रियासती मूल्य पर भोजन परोसा जाता है। अपच न हो, इस लिहाज से प्रवचन उद्यमी द्वारा निर्मित चूरण- चटनी भी प्रवचन स्थलों पर प्रायः बेची जाती हैं।
अगर, आपकी तमन्ना भी ऐसे ही ऐशो आराम भोगने की है। मान-प्रतिष्ठा, धन-सम्पत्ति पाना चाहते हैं और आपकी कामना है कि सैंकड़ों लोग सदैव आपके इर्द-गिर्द हों। देशी- विदेशी चेले- चेलियॉ हों। लाखों घरों में आप प्रातः वंदनीय समझे जायें। आपके पोस्टर पूजे जायें। भक्तजन आपकी कैसेट्स देखर सुनकर, झूमें- नाचें- गायें। टेलीविजन- इंटरनेट पर आपके दर्शन हों और वाणी गूंजे। तो अपने सारे काम-धंधे, नौकरी आदि को लात मारकर कूद पडि़ये प्रवचन के मैदान में। अभी बेहद संभावनाएं हैं, इस उद्यम में। जो बेरोजगार हैं, उनके लिए सर्व-फल दाता है, यह उद्योग। अल्प निवेश और थोड़े अभ्यास के बाद यह कार्य भली भांति किया जा सकता है।
प्रवचन उद्यमी बनने के लिए प्रारम्भिक दिशा -निर्देश नीचे दिये जा रहे हैं। इन्हें अंतिम नहीं माना जाना चाहिए। उम्मीदवार अपने अनुभवों से इस पेशे में अधिक निखार ला सकते हैं।
चुनांचे, पेश हैं कुछ टिप्स -
1․ सर्वप्रथम केशादि मूंडना बंद कर दें और अपना ध्यान लोगों को मूंडने की ओर स्थिर करें।
2․ जब तक दाढी- मूंछों का विकास हो, तब तक अपने आध्यात्मिक ज्ञान का भी कुछ विकास कर लें। इस हेतु धर्म-ग्रथों का सतही अध्ययन ही पर्याप्त होगा। आधुनिक प्रवचनकारों का गहरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं। कुशल वक्ता तो श्रोताओं की भावनाओं को मथकर, वांछित पदार्थ प्राप्त कर लेता है। मैंने एक चलताऊ प्रवचनकार को सुना, जिसने मन, ध्यान तथा योग तीन शब्दों का इस्तेमाल हुए, दो घन्टे का प्रवचन देकर वाह वाही लूट ली थी। एक अन्य वक्ता, धार्मिक विषय को कम छूते हैं तथा देशकाल और राजनीति पर बोलकर ही लोगों का मन मोह लेते हैं। तथापि कुछ धार्मिक आख्यान कंठस्थ अवश्य कर लें।
3․ भिन्न- भिन्न प्रवचनकारों को ध्यानपूर्वक निरखें- परखे। फिर जो रूप भाये, तथैव वेश धारण करें।
4․ यह मार्केटिंग युग है अतः मंच-सज्जा, ध्वनि- विस्तारक यंत्र, वाद्य -मंडली आदि व्यवस्थाओं का संयोजन खुद के बलबूते करनी होगी। किसी प्रायोजक को पटाने का प्रयास भी किया जा सकता है। यह कार्य प्रारम्भ में कुछ कष्टकारी सिद्व होगा। किन्तु एक बार मजमा जम जाने के बाद, प्रस्तावक खुद-ब -खुद दौड़े आयेंगे।
5․ एक बात सदा ध्यान रखें, अपना प्रवचन शुल्क सदैव अग्रिम तौर पर वसूल कर लेें। अगर कोई आयोजक, इसमें आना कानी करें तो प्रवचन बीच में छोड़ देने की धमकी दे डालें। घबरायें नहीं। आपके पूर्व प्रवचनकार ऐसा कर गुजरे हैं।
6․ यथा साध्य कार्यकर्ता बटोरें। जिनमें नौजवान कम और नौजवानियां ज्यादा हों। आपका काम चल निकलने के पश्चात् पर्याप्त संख्या में शिष्यरूपी कार्यकर्ता आपको स्वतः उपलब्ध होते जायेंगे। इस हेतु, अपने प्रत्येक प्रवचन में गुरू की जरूरत पर बल दें। और संकेतस्वरूप यह भी बता दें कि आप सरीखा सद्गुरू समूचे विश्व में न कभी पैदा हुआ और न ही होगा ‘न भूतो न भविष्यति।‘ अपने प्रवचन के अंत में गुरू दीक्षा का कार्यक्रम अवश्य रखे और इसकी पूर्व घोषणा, अपने शिष्यों के जरिये आयोजन के बीच बीच में कराते रहें।
7․ जब प्रवचन क्षेत्र में आपका रंग जमने लगे तो पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों- ग्रंथों, पोस्टरों, -कलेण्डरों, डायरियों- अभ्यास पुस्तिकाओं के साथ ही स्वास्थ्य वर्धक तथा रोगनाशक औषधियों आदि का उत्पादन भी किया जा सकता है ताकि मुनाफे में उतरोत्तर उन्नति होती रहे। एवमस्तु।
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एक अद्द घोटाला
सदा की भांति श्रीमती जी ने चाय का कप और अखबार एक साथ थमाया। फिर, खुद पास आकर बैठ गयीं। चाय को मेज पर रख, मैंने अखबार को खोला। मुख-पृष्ठ पर प्रकाशित एक खबर को पढकर चित उदास हो गया। दीर्घ निश्वास छोड़ी मैंने।
पत्नी ने शंकित स्वर में पूछा, '' क्या हुआ? तबियत तो ठीक है? ''
मैंने उस सचित्र समाचार की ओर संकेत किया। बीवी ने खबर की तरफ ध्यान नहीं देकर उसके साथ छपे चित्र को घूरा और बोली, ''हाय ․․․ क्या हैंडसम पर्सनल्टी है? कैसा मुस्करा रहा है? लेकिन इसे देख आप उदास क्यों हुए? ''
मैं बोला, '' इस आदमी पर अरबों रूपये के घोटाले का आरोप है। ''
'' तो क्या हुआ? वह रूपया आपका तो नहीं है। अरे इतने उदास तो आप दंगों और दुघर्टनाओं के समाचारों को पढकर भी नहीं होते। ''
''मैडम! मीडिया घोटालेबाजों को बड़ा उछाल रहा है। शेष समाचार, घोटालों की खबरों के नीचे हैं। छोटे से छोटा घोटाला भी खासी सुर्खियों में प्रकाशित होता है। राई का पहाड़ बन जाता है। बस, इसी बात से मेरा मन रोता है। नैतिक समाचारों को नीचा दर्जा और अनैतिक को ऊंचा । सोच रहा हूं कि एक घोटाला में भी कर दूं। ''
'' दैयारे ․․․․․। '' बेगम बोली, '' नौकरपेशा होकर कैसी बात कर रहे हैं आप? ऐसा सोचना भी पाप है। आप फंस गये तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। ''
''ऐसा कुछ नहीं होगा। हां․․․ पूछताछ और गिरफतारी जैसी कुछेक प्रक्रियाओं से अवश्य गुजरना होगा। लेकिन, हमारे कानून में बच निकलने की अनेक गलियां हैं। तभी तो घोटालेबाजों का बाल भी बांका नहीं हो पाता है। प्रसिद्धि पाने का इससे आसान उपाय कोई और नहीं। एक अदद घोटाला कर दो। फिर मीडिया में सनसनीखेज सुर्खियां होंगी। हो सकता है कि कोई अखबार सम्पादकीय भी लिख मारे। कदाचित कभी प्रतियोगी परीक्षाओं के सामान्य ज्ञान के पर्चे में अपना नाम भी जुड़ जाए। विधानसभा या लोकसभा में हंगामें मच जाएं। घोटाले-बाज की पांचों अंगुलियां घी में हुआ करती हैं, मैडम। ''
इससे पूर्व पत्नी कुछ कहतीं, मित्र ठेपीलाल नमूदार हुए। मैं उमंग पूर्वक बोला, ''आओ, भई आओ। बड़े मौके पर तशरीफ लाए हो। ''
''आज, भाभी से बड़ी घुट-घुटकर बातें हो रही हैं। मैं दो मिनट से खड़ा हूं और आप लोगों को मेरे आने का आभास तक नहीं है। '' ठेपीलाल सोफे पर पसरते हुए बोले।
मैंने कहा, ''ठेपीभाई! कई दिन से एक कीड़ा मेरे दिमाग में कुलबुला रहा है। घोटालों के इस दौर में, क्यों न मैं भी एक घोटाला कर डालूं?'' मैंने अखबार ठेपी की और ठेलते हुए कहा, '' यह देखो, इस घोटालेबाज की खबर कैसी प्रमुखता से प्रकाशित हुई है? ''
ठेपी ने एक उड़ती निगाह समाचार पत्र पर डाली और बोले, ''इसके बारे में कल रात इलेक्ट्रोनिक मीडिया विस्तार से खबर दे चुका है। बहरहाल, पहली दफ़ा, तुमने अकलमंदों जैसी बात की है। मैं, तो कब से कह रहा था कि नाम कमाना है तो लेखन-वेखन का चक्कर छोड़ो और अपनी प्रतिभा को किसी दूसरी दिशा में लगाओ। साहित्य में कैसा भी बड़ा काम कर गुजरोगे तो दो-चार पंक्तियों का समाचार छपेगा। गिने-चुने लोग उसे पढेंगे । और अगर एक छोटा सा घोटाला भी कर डालोगे, तो कई दिन तक मीडिया जगत तुम्हारे पीछे हाथ धोकर पड़ जायेगा। और तुम्हें देश का बच्चा बच्चा जान जायेगा। ''
''फिर सुझा ही दो, घोटाला करने का आसान सा कोई उपाय। तरीका ऐसा हो कि सांप भी मरे और लाठी भी नहीं टूटे। यानी कि नौकरी सही सलामत रहे।
''फिक्र मत करो मित्र! मैं एक घोटाला किंग को जानता हूं। अनेक बड़े कांड करके भी वह पाक दामन सिद्ध हुआ है। कल उससे तुम्हारी मुलाकात करवा देता हूं। इस वक्त मुल्क और मीडिया का मिजाज भी घोटालों के अनुकूल है। अतः ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें सरलता से सफलता मिल जायेगी। ''
मैं, अमूमन मंदिर नहीं जाया करता हूं, लेकिन उस सांय गया और परमपिता परमात्मा से एक सनसनीखेज घोटाला हो जाने की कामना की। इक्कीस रूपये का प्रसाद बतौर अग्रिम चढाया। इसके बाद एक ज्योतिषाचार्य को कुंडली बताईं । कुंडली पर दृष्टिपात करने से पूर्व पंडितजी ने दक्षिणा को देखा। और उसे कब्जे में कर कहने लगे, '' यजमान! तुम्हारी प्रसिद्धि का एक योग मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है। निकट भविष्य में तुम्हारा नाम घर-घर में फैल जायेगा। किन्तु सावधान! तुम्हारी धन हानि का योग भी कुंडली में साफ दिखाई दे रहा है। ''
मैं प्रसन्नता से फूला नहीं समाया। धन हानि का क्या? रूपया हाथ का मैल है। फिर, आप लाखों रूपये खर्च करके भी समाचार पत्रों में फ्रंट पेज न्यूज या चैनलों की कवर स्टोरी नहीं बन सकते। जबकि एक घोटाला करते ही सब सहज हो जाता है। दूसरे दिन ठेपीलाल ने घोटाला किंग उर्फ गुरूजी से मेरी मुलाकात करवा दी। उन्होंने कुछ गंभीर सवाल पूछे, यथा- ''नौकरी सरकारी है या निजी?'', ''विभाग कौनसा है?'', ''किस पद पर हो?'', ''गबन या घोटाले का कोई पूर्व अनुभव?,'' आदि इत्यादि। तब बोले, ''इस मामले में तुम कतई कोरे हो। अतः प्रत्येक कदम फूंक फूंक कर रखना होगा। हालांकि मेरे पास ऐसे ऐसे नुस्खे हैं कि घोटाला कर्म किये बिना ही घोटाला हो जाये, लेकिन मैं चाहता हूं कि राष्ट्र की मौजूदा घोटाला- धार से तुम प्रत्यक्षतः जुड़कर थोड़ा अनुभव और आनंद लो। ''
इसके बाद , घोटाला किंग उर्फ गुरूजी ने घोटाला करने के अनेक प्रकार बताये। उनमें से एक तरीका मुझे बड़ा भाया। वह था विभाग का कुछ धन हड़पकर, किसी बैंक में अन्य व्यक्ति के नाम से कुछ अवधि के लिए जमा करवा दिया जाए। इस तरह से घोटाला तो होगा ही और साथ ही जमा रकम ब्याज भी कमाएगी। '' मैंने वही किया। विभाग की कुछ लाख रूपये की रकम गायब कर, छः माह के लिए एक बैंक में अन्य नाम से फिक्स डिपाजिट में जमा करवा दी। नसीब से उस अवधि की ब्याज दर काफी उच्च थी, अतः अच्छा ब्याज अर्जित हो जाने की आशा थी। रकम गायब हुई तो विभाग में हड़कम्प मच गया। पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हुई। उच्चाधिकारियों के कान खड़के। खबरें प्रकाशित और प्रसारित हुई। गबन का पता लगाने के लिए विभाग द्वारा एक जांच समिति बैठा दी गयी। उसे रिपोर्ट देने में सात माह का समय लग गया। जाहिर है संदेह की सुई मेरी और संकेत कर रही थी। मैंने गुरूजी से सम्पर्क साधा और पूछा कि मैं शक के दायरे में आ चुका हूँ, अतः क्या किया जाय?
उन्होंने प्रश्न किया, '' बैंक में जमा रकम की अवधि पूर्ण हो गयी?''
''हां। ''
''ब्याज सहित वह राशि निकाल लो। मूलधन अपने पास रखो और ब्याज की रकम मेरे पास ले आओ। तुम्हें बचाने का वह, मेरा मेहनताना होगा। ''
यद्यपि ब्याज की रकम पर निगाह मेरी थी और मैं उसे हड़प कर लेना चाहता था, किन्तु घोटाला किंग के समक्ष, मैं बेबस था, अतः मन की बात दबाकर प्रश्न किया, ''मूलधन का क्या करूं? गुरूदेव। ''
गुरूजी ने विदेशी सिगरेट का एक कीमती ब्रांड सुलगाया तथा कश खींचकर बोले, ''दो तरीके हैं। पहला यह कि गबन किया रूपया विभाग में फौरन जमा करवा दो। इससे केस की ''ग्रेविटी '' कम हो जायेगी और मामला कुछ माह मेें ही खत्म हो जायेगा। दूसरा रास्ता जरा लम्बा है। विभाग की रकम जमा नहीं करवायी जाए। उसे तुम अपने घर पर रखो। तुम्हारे घर छापा पड़ेगा और रकम बरामद हो जायेगी। इससे तुम्हें समाचारों में आने का मौका मिलेगा। ''
मैं रोमांचित होकर बोला, '' गुरूजी छापा पड़े बिना घोटाले का कैसा क्रेज?''
घोटाला किंग मूछों में ही मुस्कराये, '' यह हुई, मदोंर्वाली बात। भाई, यह छापे ही तो हम लोगों की छाप हैं। लेकिन इस बात को आसानी से मत लो। काफी सावधानी आवश्यक है। अपने घर से फालतू नकदी, आभूषण और कीमती सामान आदि को अतिशीघ्र निकलवाकर कहीं सुरक्षित रखवा दो। ध्यान रहे कि छापे में घोटाले की रकम के अलावा और कोई आपत्तिजनक वस्तु बरामद न हो। बस, इतना करलो। फिर मैं तुम्हें बाइज्जत बरी करवा दूंगा। विश्वास रखो। ''
गुरूजी के निर्देशानुसार मैंने ब्याज की हजारों की रकम गुरूजी के श्रीचरणों में अर्पित कर दी। उन्होंने राशि को गिना। पूरी पाकर बोले, '' तुम ईमानदार हो। अतः हम तुम्हें इस रकम पर स्पेशल डिस्कांउट देंगे लेकिन बाद में। अभी तो केस का निबटारा हो जाने दो। अब, तुम जाओ और छापा पड़ने की प्रतीक्षा करो। ''
मेरे घर छापा पड़ा। मय जाब्ता पड़ा। विभाग से उड़ाई गयी रकम पूरी बरामद हो गयी। मीडिया कर्मियों ने मुझे घेर लिया। फ्लैश- लाईटें दनादन दमकने लगीं।
एक युवा पत्रकार ने मुझसे तीखा सवाल किया, '' साहित्कार समाज को दर्पण दिखाता है और आप जैसे गबन कर रहे हैं?''
मैंने तिलमिलाकर बोलना चाहा कि मैं भी तो समाज को उसका चेहरा दिखा रहा हूं। फिर मुझे ध्यान आया कि मैं किसी साहित्य- गोष्ठी नहीं बल्कि प्रेस से मुखातिब हूं। अतः गुरूजी के द्वारा सुझाया गया वाक्य बोला, ''बरामद रकम, मैं नहीं लाया। यह रकम रखकर मुझे फंसाया जा रहा है। यह कारगुजारी मेरे विभाग के किसी व्यक्ति की हो सकती है। अब, आप लोग ही देखिये कि गबन हुए सात महीने से अधिक समय हो गया और रकम का एक पैसा भी खर्च नहीं हुआ। क्या मैं इसमें से कुछ खर्च नहीं कर सकता था। इस राशि के अलावा पूछिये इन छापोंवालों से कि क्या मेरे घर से इस राशि के अतिरिक्त कोई भारी नकदी, आभूषण, शेयर या विलासिता की वस्तुएं बरामद हुई हैं? मैं तो सादगीपूर्वक रहने वाला सरस्वती का सच्चा साधक हूं।मेरे घर लक्ष्मी का कैसा वास ?''
एक अन्य प्रश्न उछला, '' सात महीने से इतनी बड़ी रकम आपके घर में पड़ी है, आपने विभाग को अब तक क्यों नहीं बताया?
मैंने सावधानी पूर्वक कहा, '' मुझे नहीं पता कि यह रकम यहां कब रखी गयी थी? मेरी जानकारी में होता, तो मैं इसे अवश्य ही विभाग को लौटा देता। मेरी बीस साला नौकरी में,मुझ पर कोई दाग नहीं है। ''
उस नौजवान पत्रकार ने प्रतिप्रश्न किया, '' क्या आप बता सकते हैं कि आपका ऐसा दुश्मन कौन है? ''
मैंने भी घाघ जवाब दिया, '' ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर। भई, इसे तो आप जैसे खोजी पत्रकार ही खोजें अथवा हमारे विभाग को दोषी का पता लगाने दें। ''
लिहाजा, मीडिया वालों की सहानुभूति मेरे प्रति उपज गयी। उन्होंने मेरे पक्ष में समाचार लिखे। अखबारों में मेरी विभिन्न अदाओं वाली श्वेतश्याम तथा रंगीन तस्वीरें प्रकाशित हुईं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भी खासा कवरेज दिया। कलमकारों के एक संगठन ने मेरे समर्थन में एक रैली निकाल दी और मुझ पर लगाये गये आरोप को निरर्थक घोषित करते हुए मांग कर दी कि उसे फौरन वापस लिया जाए अन्यथा आन्दोलन किया जायेगा।
एक दिन घोटालाकिंग का फोन आया, '' बड़ा रंग जमा रहे हो। न्यूज में छा गये हो, अब तो तुम्हारे विभाग को झकमारकर केस वापस लेना होगा। ''
लेकिन वैसा नहीं हुआ। समर्थन जताने वाले कुछ दिन चिल्लपों मचाकर चुप हो गये। समाचारों का सिलसिला भी बन्द हो गया। क्योंकि एक नामी-गिरामी शख्यित द्वारा किया गया एक नया घोटाला प्रकाश में आ गया था। विभाग ने मुझे लम्बा चौड़ा आरोप पत्र थमाकर नौकरी से निलम्बित कर दिया। मैं तुरन्त गुरूजी की शरण में गया।
उन्होंने आरोप-पत्र को ध्यान से पढा और बोले, ''सारे आरोप को मानने से मना करते हुए, एक संक्षिप्त सा उत्तर लिख दो। इसके बाद एक प्रेस-विज्ञप्ति जारी करो। उस विज्ञप्ति में यह मांग करो कि मेरे पर लगाये गये बेबुनियाद आरोपों की जांच विभाग से बाहर की किसी एजेन्सी से करायी जाए।
मैं घबरा गया, '' यह क्या कह रहे हैं, आप? इससे मेरा बेड़ा गर्क हो जायेगा। ''
घोलाटाकिंग ने ठहाका लगाया, फिर विदेशी ब्रांड के सिगरेट का सुट्टा खींचकर बोले, '' अरे , बेड़ागर्क होगा तुम्हारा बुरा चाहने वालों का । हमें तो इस प्रेस-नोट के तीन फायदे होंगे। पहला - इस मांग से तुम्हारी साहसिकता, नैतिकता और निर्दोषिता झलकेगी। दूसरा तुम्हें फिर से खबरों में आने का अवसर मिलेगा। तीसरा लाभ यह कि मुझे इस केस को सुलझाने में अधिक आसानी हो जायेगी। ''
गुरूजी की दो बात तो मेरी समझ में आ गयी, मगर तीसरी पल्ले नहीं पड़ी । अतः मैंने पूछा, '' बाहरी एजेंसी से केस आसान कैसे हो जायेगा? ''
मंद मंद मुस्कराते हुए घोटाला किंग ने उत्तर दिया, '' अनुभव बताता है कि विभागीय जांच के मुकाबले, बाहर की जांच एजेन्सी से हम लोगों की पटरी जरा जल्दी बैठती हैं और मामला सरलता से निबटता हैं। ''
मेरी आंखे हैरत से फटी रह गयीं, '' यह क्या कह रहे हैं, गुरूजी? मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा। ''
घोटाला किंग तसल्लीपूर्वक धुंआ उड़ाकर बोले, ''तुम अभी इस क्षेत्र में बच्चे हो। ये अंदर की बातें हैं, अतः इन पर पर्दा ही रहने दो। बस इतना जान लो कि जांच एजेन्सी ने एक बार तुम्हारे पक्ष में रिपोर्ट दे दी, तो विभाग को मामला खत्म करना ही होगा। और तुम्हारे पक्ष में ऐसी रिपोर्ट हम लिखवा देंगे।''
जब बात परदे की है तो मैं भी परदा क्यों हटाऊं? आप, इतना ही जान लीजिये कि एक वर्ष का समय और लगा। मेरे कुछ हजार रूपये खर्च हुए और मैं बाइज्जत नौकरी पर बहाल हो गया।
मैंने गुरूजी उर्फ घोटालाकिंग के चरण पकड़ लिये। उन्होंने आशीष स्वरूप मेरी पीठ पर जोर से धौल मारी तथा मेरी आंख खुल गयी।
पत्नी मुझे थपेड़ रही थी, ''क्या घोटाला ․․․․घोटाला चीखे जा रहे हो। जागो भी ․․․․․․․ दिन कितना चढ गया। '
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चंदा की चांदनी में ․․।
कहीं बज रहा है, '' चंदा की चांदनी में झूमे झूमे दिल मेरा․․․․․․ '' और इधर मेरे हृदय की धड़कनें तेज हो गयी हैं। होली पर चंदा वसूलने वालों की टोली में वह गीत बज रहा है। पिछले वर्ष की भांति हुल्लड़ मचाते, नाचते- गाते नौजवानों का हुजूम आ रहा होगा?
जिस चंदा की चांदनी में उनका दिल झूम रहा है और कुछ देर बाद जब वह मुझ पर पड़ेगी तो उसकी कल्पना से मुझे कंपकंपी छूट रही है। होली पर रंगबाजी से मुंह चुराना आसान है और उसके अनेक तरीके हैं। घर के स्टोर रूम में छिप रहें तथा घर में नहीं हैं का सदाबहार जुमला उछलवा दें। बीमार होने का ढोंग रच लें। रंग और अबीर से एलर्जी की दुहाई दे डालें। अधिक भय हो तो शहर से दफा हो ले। किन्तु चंदा मांगने वालों से बचना नामुमकिन है।
लोगों का कहना है कि होली का उछाह घटा है और मैं कहता हूं, ''अरे म्यां! होली का उत्साह महसूस करना है तो चंदा-टोली में शामिल होकर देखिये। ''
पुरानी पीढी के लोग इसका दोष नई पीढी पर डालते हैं। एक बुजुर्गवर ने जब ऐसा ही दोषारोपण किया तो मैं बोला, '' हे परम श्रद्वेय! जब आप युवा थे तथा तार- कांटा लगाकर, राहगीरों की टोपियां और अंगोछे उड़ा लेते थे। उस बेचारे की अंटी से कुछ न कुछ निकलवाकर टोपी- गमछे लौटाते थे। तो क्या वह चौथ वसूली नहीं थी? चलो इसे छोड़ो और दूसरी बात याद करो। आप जब घर घर जाकर होली का चंदा मांगते थे और किसी के मना कर देने पर, उस घर की महिला को संबोधित कर यह उक्ति नहीं सुनाते थे, '' तक तक तूती, मरेगी तू तो सूती। '' तीसरी बात कि होली में दहन करने के लिए दुकानों - मकानों के बाहर पड़े , तख्तों , चारपाईयों तथा किवाड़ों तक को उतार ले जाते थे। ''
लेकिन, बुर्जुग चिंतक ने बात घुमा दी, '' हमारे समय में समूचे कस्बे की एक होली जलती थी, पर अब मुहल्ले -मुहल्ले में जलती है। हर मुहल्ले की होली का चंदा पूरे कस्बे से वसूला जाता है। एक टोली को निबटाते हैं, तो कुछ समय बाद मुआ दूसरा दल आ मरता है। निगोड़े, मांगने वाले भी कतई नंगई दिखा देते हैं। पुकारेंगे ‘अंकलजी' और मुंहामुंही पर उतर आएगें। उनकी फूहड़ फब्तियों, कुटिल मुस्कानों और घर के भीतर भेदती निगाहों को देख, कहीं भाग जाने का मन करेगा। ''
मैंने कहा, '' कहां जाओगे मान्यवर ? क्या वहां भी चंदा मांगने वाले नहीं होंगे? इससे तो अच्छा है कि उन्हें जल्द से जल्द कुछ देकर चलता किया जाए। '' लेकिन, कुछ समय बाद मैंने सोचा कि वृद्ध पुरूष की इस बात में दम था कि अब कस्बों में होली दहन मोहल्लों और कॉलोनियों में होने लगा है। हर वर्ष -वर्ष दो चार होलियों का इजाफा हो जाता है । यही तरक्की रही तो कुछ वर्षों बाद गली-गली में होली जलने लगेगी। अभी भी स्थिति यह है कि चंदा देते देते खोपड़ी पर पूर्णिमा का चांद सा उगने लगा है। कदाचित इसी वजह से होली का पर्व पूर्णमासी को ही पड़ता है? पिछली बार, मेरी इस नव विकसित कॉलोनी के चंद नौजवान, चंदा-नवीसों ने चंदा उगाही की। चूंकि, पहली दफा होलिका- दहन का आयोजन हो रहा था, अतः कॉलोनी के सभी वर्ग का भी उन्हें समर्थन हासिल था। कॉलोनी-वासियों ने भी यथा-योग्य योगदान दिया। सुना गया कि अच्छी राशि एकत्र हुई थी।
बहरहाल, होलिका- दहन की तैयारी धूमधाम से हुई। शामियानें ,कुर्सियां, डेक और न जाने क्या क्या था ? धार्मिक गीत बज रहे थे। कॉलोनी के स्त्री-पुरूष वहां उत्साहपूर्वक इक्कठा थे । पूजा -अर्चना के पश्चात् होलिका दहन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। शालीन आयोजन हेतु, आयोजकों की प्रशंसा हुई। रात थोड़ी गहरी हुई तो डेक पर बज रहे गीतों ने पलटा खाया। टपोरी और रिमिक्स संगीत परवान चढने लगा। अधिक आयु वालों को यह कम भाया, अतः वे अपने घर चले गये। किन्तु कुछ मॉर्डन नौजवान-नौजवानियां उन धुनों पर थिरकने लगीं। बात यहां तक तो धिक जाने वाली थी। लेकिन, आधुनिक सोमरस का सेवन कर आये नृत्यबाजों ने नौजवानियों से कुछ अधिक नजदीकियां दर्शा दीं। नतीजन, उस हंगामेदार आयोजन में मार-पीट का नजारा भी नजर आने लगा।
धूल -पर्व ( धूलेंडी ) की उस पूर्व संध्या पर, रंगों- गुलाल की जगह रक्त के छींटे उछले। सुबह आठ -दस लोग अस्पताल में थे। पुलिस में केस दर्ज हुआ, उसमें कुछ गेहूं पिसा और कुछ घुन। अब, चंद दिनों बाद पुनः होली पर्व है तथा मैं बैठा-बैठा ''चंदा'' के जनक को कोस रहा हूँ। जिसने हमें मुसीबत में फंसा दिया। इस संदर्भ में ''चंदा'' की उत्पत्ति पर विचार करता हूॅ तो वरिष्ठ व्यंग्यकार लक्ष्मीकांत वैष्णव की रोचक स्थापना याद हो आती है। उनका कथन है कि समुद्र -मंथन जैसा बड़ा आयोजन बगैर चंदा एकत्र किये संभव नहीं था। अतः, जब एक ठंडा और रोशन गोला ( जिसकी आकृति भी चांदी के चमचमाते सिक्के जैसी थी ) मंथन के परिणाम स्वरूप समुद्र से निकला तो उसका नाम चंदा ही रखा गया। और अजब संयोग है कि होलिका की रात्रि भी पूर्ण चंद्र को ही होती है।
जिस प्रकार, प्रारंभिक काल में चंदा दागदार नहीं था। उसकी छवि नितांत उज्जवल थी। उसमें घट-बढ भी नहीं होती थी। बाद में गौतम-ऋषि की मृगछाल की छाप से वह दागी हुआ तथा श्रापवश उसमें कृष्ण-पक्ष का समादेश भी हुआ। उसी तरह, पूर्व में, चंदा उगाही के काम में गोपनीयता नहीं थी। सब कुछ शुक्ल पक्ष की भांति उजला उजला था। चंदा-मांगने वाले एक चादर फैलाकर निकलते थे, और पुकारते थे, ''चंदा-डाल; चंदा-डाल '' ।
बाद में जो घपले हुए तो चंदा-बाजों को ''चांडाल '' शब्द से संबोधित किया जाने लगा। कदाचित, ''चांडाल'' शब्द का उद्भव चंदा-डाल से हो? वैष्णवजी का मानना है कि चंदा बटोरने के इतिहास में गोपनीयता का समावेश गुप्तकाल से आया। कूटनीतिज्ञ कौटिल्य ने नन्द के नाश हेतु, चन्द्रगुप्त के सैन्यवर्धन के लिए अवश्य ही चंदा एकत्र किया होगा? और निश्चित ही उसे गुप्त रखा होगा? मजे की बात यह कि भारतीय राजनीति में सशक्तीकरण हेतु चंदा यानि ''पार्टीफंड'' उगाहने और उसकी गोपनीयता बरकरार रखने के तार गुप्त कालीन चाणक्य से लेकर आधुनिक चाणक्य तक अनायास जुड़ गये हैं।
आजादी के बाद की हिन्दुस्तानी राजनीति में द्वारका प्रसाद मिश्र उर्फ आधुनिक चाणक्य से पूर्व का पार्टी-चंदा-उगाही-कालखंड लगभग पारदर्शी माना गया है। घपलों की शुरूआत 1967 के आम चुनावों हेतु एकत्र चंदा अर्थात् मध्यप्रदेश के गुलाबी चना कांड से हुई। तब से तहलका और तेलगी कांड के पर्दाफाश तक जाने क्या क्या और कितना गोपनीय रहा? कदाचित यमराज के अकाउटेंट चित्रगुप्त के पास उसका लेखा-जोखा हो? बहरहाल, जब तक आसमां में चंदा रहेगा, आप और हम कितना ही कुनमुनाएं चंदा- बाजों की चांदी होती रहेगी, अतः इस शेर को पढकर तसल्ली कीजिये- ''कितने गुलों का खून हुआ इससे क्या गरज? उनके गले का हार तो तैयार हो गया।''
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
Vah Prabhahankar ji,achchhe vyangya likhe hai aapne.Badhai.
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