ऊँट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय ( पिछले अंक 2 से जारी...) गुरूशिष्य संवाद समाधिस्थ गुरूदेव ने नयन खोले तो ...
ऊँट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
गुरूशिष्य संवाद
समाधिस्थ गुरूदेव ने नयन खोले तो शंकालु शिष्य जीवराज को प्रस्तुत पाया। उसके मुख पर व्याप्त व्यग्रता के भाव लक्ष्य कर गुरूवर भांप गये कि कोई लौकिक प्रसंग, आज चेले को पुनः आकुल किये हुए है। गुरूजी मुस्कराये, ''कहो वत्स, कुशल तो है? ''
'' नहीं गुरूदेव! चित बड़ा उत्कंठित है। आज, भिक्षाटन हेतु मैं एक आभूषण व्यवसायी की दुकान पर गया और वहां कुछ समय तक प्रतीक्षारत रहा। वह व्यवसायी कुछ देने हेतु गल्ले मैं हाथ डाल ही रहा था कि दो कृशकाय व्यक्ति वहां आ गये और बोले, ''भाई ने सलाम बोला है। '' उन्हें देख, वह दुकानदार कांपने लगा। उसने तत्काल अपनी तिजोरी खोली और रूपयों की कुछ गडि्डयाँ उनकी ओर फेंक दीं। उस धनराशि को उठाकर वे दोनों व्यक्ति हंसते हुए चले गये। '' ''हे तात! जब, मैंने उस व्यवसायी से भीख हेतु पुनः निवेदन किया तो अपने चेहरे का पसीना पोंछना छोड़कर ,उसने मुझे दुत्कार दिया।
शिष्य व्यथित स्वर से बोला, ''गुरूवर, उस प्रताड़ना के पश्चात् मैं, अत्यन्त क्षुब्ध हुआ और भिक्षावृति के लिए आगे जा न सका। हम साधु-जन एकाध रूपयों की भीख के लिए बार-बार आशीर्वाद देते हैं और बदले में हमें अधिकांशतः तिरस्कार ही मिलता है। अतः मुझे इस वृति से वितृष्णा हो गयी है, प्रभो। ''
यह कहकर जीवराज आगे बोला, '' हे देव! कृपा कर मुझे यह बतायें कि वे दोनों दुबले पतले व्यक्ति तथा 'भाई ' नामसे संबोधित होने वाला व्यक्ति कौन है? '' शिष्य की जिज्ञासा सुनकर गुरूजी कुछ समय के लिए ध्यानरत् हुए। उन्होंने दिव्य नेत्रों से वह नजारा देखा तत्पश्चात् चक्षु खोलकर कहने लगे, वत्स सुन! वे दोनों व्यक्ति एक माफिया गिरोह के सदस्य थे और हफ्ता वसूली के लिए आये थे। ''भाई'' उनके मुखिया का नाम है।
जीवराज चकित हो, बोला '' क्या माफिया ․․․․․․․․․․? हां यह नाम यत्र-तत्र मेरे कानों में भी पड़ा है। क्या यह सत्य है तात् कि देवाधिदेव महादेव अपने विकराल रूप में रूद्रगणों की सेना लेकर आ जायें, तो भी उनका तेज माफिया मुखिया के सम्मुख गौण रहेगा?''
किंचित हास्यभाव से गुरूजी बोले, ''पहले तू माफिया की उत्पत्ति तथा इसके माहात्म्य की कथा श्रृवण कर। तदुपरान्त ही किसी निर्णय पर पहुंचना। ''
गुरूजी उवाच, '' हे जीवराज! पृथ्वी लोक के एक भू-प्रदेश इटली के सिसली शहर से माफिया की उत्पत्ति बतायी जाती है। वहां स्थित मधुशालाओं, जुआघरों, वेश्यालयों, नशीली दवाओं और हथियारों की तस्करी से जुड़े गिरोहों को ''माफिया'' से संबोधित किया जाने लगा। शनै-शनैः इन गिरोहो के प्रमुखों को 'किंग', 'डॉन', ‘गैंगस्टर‘ नाम से पुकारा गया। कालांतर से माफिया ने देश-देशांतर की सीमाएं लांघी और आज सम्पूर्ण विश्व इसके प्रभाव में है। अपने विस्तार के साथ माफिया ने नवीन क्षेत्रों में भी प्रवेश किया है। यथा -भूमि माफिया, जल माफिया, भवन माफिया, यौन माफिया, शिक्षा माफिया, फिल्म माफिया, पर्यटन माफिया, झोंपड़-पट्टी माफिया आदि इत्यादि। इस प्रकार प्रत्येक महानगर में न्यूनतम पन्द्रह -बीस प्रकार के माफिया गिरोह होने आवश्यक हैं, अन्यथा उन्हें महानगर सम्बोधित करने में संकोच का अनुभव होता है। ''
गुरूजी बोले, '' वत्स! अब आगे का कथन ध्यान देकर सुन। माफिया गिरोह का प्रमुख प्रायः परोक्षरूप से अपने गैंग का संचालन करता है। प्रत्यक्षतः वह समाजसेवक, राजनेता अथवा संत का रूप धारण किये होता है। परोक्ष रूप में भी उसकी प्रशासन, राजनीति, उद्योग, फिल्म व व्यवसाय जगत में गहरी पैठ होती है और उनकी गतिविधियों को प्रभावित करता रहता है। वह देश-विदेश में सुगमतापूर्वक गमन कर सकता है और कहीं भी रहकर अपने गिरोह के संचालन एवं सम्पत्ति की सार-संभाल में समर्थ होता है। अब तो इस कार्य में 'इंटरनेट' भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। कुछ माफिया मुखियाओं ने तो अपनी 'वेबसाइट' भी इन्टरनेट पर डाल दी हैं । अगर कोई माफिया प्रमुख कारावासी हो जाये तो इनकी पत्नियाँ उस गिरोह को चलाने में सक्षम होती हैं। ऐसे अनेक उदाहरण देखे गये हैं। ''
'' हे वत्स! अब मैं माफिया की कार्यविधि का वर्णन करता हूँ। ये गिरोह प्रायः भय और आतंक का वातावरण बनाकर कार्य करते हैं। किसी भी देश के विधान और व्यवस्था से इतर इनका अपना संसार होता है। इसीलिए आंग्ल भाषा में इन्हें ''अंडर वर्ल्ड '' पुकारा जाता है। घौंस -दिखाकर , ये गिरोह समाज के विभिन्न वर्गों से चौथ वसूली करते हैं। हत्याओं की ''सुपारी '' लेते हैं। ऐसे सदस्यों को ''किलर-बॉय'' कहा जाता है। ये इंगित व्यक्ति की इहलीला समाप्त कर देते हैं। माफिया की शब्दावली में इस कार्य को 'टपका देना', 'गेम कर देना' अथवा 'शूट-आउट कर देना' कहते हैं। अब, हत्याओं की सुपारियां इन्टरनेट पर भी ली जाने लगी हैं। आम आदमी को टपका देने के लिए नौ लाख रूपये एवं विशिष्ट व्यक्ति के लिए पांच करोड़ तक की सुपारी ली जाती है। इन वेबसाइट पर घायल कर देने दरें भी हैं। ''
'' हे जीवराज! स्वर्ण, मद्य, मादक पदार्थ, अस्त्र-शस्त्र इत्यादि की तस्करी, सरकारी अथवा निजी भूमि पर आधिपत्य के अतिरिक्त किसी देश-प्रदेश में आतंक फैलाने, स्थिर सरकारों केा अस्थिर कर देने, चुनावों में अपनी मरजी चलाने, शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश, उपाधि प्रदान करवाने, फिल्म निर्माण हेतु वित्त प्रबंधन तथा अभिनेता -अभिनेत्री का चयन करने के निर्देश देने जैसी गतिविधियाँ भी माफिया गिरोहों द्वारा संचालित की जा रही हैं। समाचार जगत भी इनके क्रियाकलापों का महिमामंडन करने से पीछे नहीं रहता। इनके कारनामों पर 'गॉडफादर' नामक उपन्यास एवं 'गॉडमदर' नामक फिल्म बन चुकी है।''
माफिया माहात्मय सुनकर जीवराज ने पूछा, '' हे प्रभो! देश-विदेश की सरकारें और पुलिस इनकी गतिविधियों पर अंकुश क्यों नहीं करती? आखिर वे करते क्या हैं? ''
गुरूदेव बोले, ''हे जीवराज प्रशासन और पुलिस सदा सही समय की प्रतीक्षा करते हैं अर्थात् पाप का घड़ा भरेगा तो फूटेगा। घड़ा कभी भरता नहीं, सही समय कभी आता नहीं। ''
शिष्य सहसा उठकर जाने को उद्यत हुआ।
गुरूदेव, '' अरे वत्स, तुम कहां चल दिये? ''
जीवराज , ''गुरूवर! अब, यहाँ एक पल भी नहीं ठहरूंगा। मैं, किसी सशक्त माफिया गिरोह की खोज में जा रहा हूँं ताकि उसमें सम्मिलित होकर अपना जीवन धन्य कर सकूँ।
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माफिया सरगना से साक्षात्कार
स्कूपी नाम के उस युवा रिपोर्टर ने गज़ब का साहस दिखाया तथा एक कुख्यात माफिया डान का साक्षात्कार ले लिया। अनेक बम धमाकों और खूनी वारदातों तथा दहशतगर्दी के किंग बबू सासा को ढूंढ निकाल कर, साक्षात्कार लेना, बड़े बूते की बात थी। चुनांचे, स्कूपी ने यह हौसला तो दिखा दिया किन्तु मीडिया जगत, उस साक्षात्कार को प्रकाशित अथवा प्रसारित करने के लिए सकुचाता रहा। हताश , स्कूपी अनायास ही मुझे मिल गया और कहने लगा, ' इसे आप अवश्य देखें तथा जैसा उचित समझें उपयोग कर लें। ' मैंने वह रिकार्डिग देखी। चुभते हुए सवाल पूछे थे स्कूपी ने। बबू सासा के जवाबी अन्दाज से मुझे अन्दाजा हुआ कि यह तो अच्छा खासा व्यंग्य इन्टरव्यू है। लिहाजा, आप भी लुत्फ लें और निश्चय करें कि यह क्या है?
स्कूपी - '' आप माफिया से कैसे जुड़े?''
"मेरा माफिया से क्या रिश्ता ? इससे मेरा दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। मैं तो शरीफ और नेक इंसान हूं। ''
स्कूपी - '' आप माफिया और उसके अन्डरवर्ल्ड के बारे में कितनी जानकारी रखते हैं बबू सासा - ''
"मैं, माफिया के बारे में उतना ही जानता हूं, जितना आम आदमी । इससे अधिक तो आप जैसे रिपोर्टर ही जानते हैं। आपलोग जो प्रकाशित करते है, उसे पढ़कर ही हमें जानकारी मिलती है। ''
स्कूपी - '' ऐसा है तो आपको माफिया डॉन क्यों कहा जाता है?''
बबू सासा - '' यह पुलिस की कारिस्तानी है वह एक इज्जतदार आदमी को माफिया डॉन बनाए हुए है। ''
स्कूपी - '' आप पुलिस की इस ज्यादती के खिलाफ अदालत क्यों नहीं गए? मानहानि का मुकदमा क्यों नहीं ठोका? अखबारों ने कितनी बार आपका नाम माफिया से जोड़ा, आपने उनका खण्डन क्यों नहीं किया? ''
बबू सासा - '' पुलिस रोज कितने अत्याचार करती है? उसने हजारों निर्दोष नागरिकों को दोषी बना कर जेल में डाला हुआ है। कितने लोग इस ज्यादती के खिलाफ बोले है? मैं बहुत व्यस्त आदमी हूूं। मेरे पास इतना समय नहीं कि मैं इनका खण्डन करता रहूं। ''
स्कूपी - '' सुना है, आपका आपराधिक -रिकार्ड इन्टरपोल के पास भी है। '' बबू सासा - ''सुना है, यानी आप भी सुन ही रहे है। देखा है क्या? ''
स्कूपी - '' यह भी सुना गया है कि आप अंतरराष्ट्रीय गैंगस्टर डाऊ इब के दाएं हाथ रह चुके हैं। आपकी कार्य-शैली भी डाउ-इब से मिलती है। आप भी वैसा ही दरबार लगाते हैं। ''
बबू सासा - ( फीकी हंसी के साथ ) - '' यह पुलिस की बनाई कहानी है? मैं बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का इन्सान हूूं। थोड़ी सी समाजसेवा और राजनीति कर लेता हूं। शायद इसी वजह से लोग हमसे जलते हैं। ''
स्कूपी - '' इस सूबे के गृहमंत्री ने छह माह पूर्व घोषणा की थी कि माफिया का सर तोड़ देंगे। कुछ रोज पहले बयान दिया है कि हमने माफिया की कमर तोड़ दी है, अब सिर की बारी है․․․․․․․․․․․․․। ''
ब․सा․ - (बीच में ही तैश खाकर ) '' यह मंत्री जी का ख्याली पुलाव है। वे माफिया तंत्र की अंगुली भी नहीं तोड़ सके हैं। ''
स्कूपी - ''आप एक बिन्दास कहे जाने वाले नगर के निवासी हैं। आपने महसूस किया होगा कि वह शहर पिछले एक वर्ष से भयाक्रांत है। पहले वह बम विस्फोटों से कांपता रहा। अब अंतहीन हत्याओं से थर्रा रहा है। जबरिया हफ्ता-वसूली के कारण उस शहर से उद्योगपतियों और व्यवसायियों का पलायन प्रारम्भ हो गया है। इसके पीछे माफिया का हाथ बताया जाता है। ''
ब․सा․ (भृकुटि में बल डाल कर ) '' माफिया․․․․․माफिया ․․․․माफिया ․․․․नेताओं, पुलिस और पत्रकारों को माफिया के खिलाफ जहर उगलने की आदत हो गई है। हर घटना का दोष माफिया के मत्थे मंढ़ देते हैं। ''
स्कूपी - (मुस्कराकर ) '' पिछले महीने पुलिस मुख्यालय के सामने एक नामी गिरामी व्यवसायी की दिन दहाड़े हत्या हुई। एक संगीतकार का मन्दिर के सामने गेम करवा दिया गया। एक कम्पनी निदेशक को शहर के व्यस्ततम मार्ग में टपका दिया गया। इस घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी सैकड़ों लोग हैं। जिनका नाम इन वारदातों से जोड़ा गया है, वे आपके नजदीकी हैं। आखिर इसकी कोई वजह तो होगी?''
ब․सा․ (कुछ पल की चुप्पी के पश्चात् ) '' हां, वजह है और वह है पुलिस। ऊपर वालों के इशारे पर वह कैसी भी कहानी गढ सकती है और सैकड़ों गवाह पैदा कर सकती है। ''
स्कूपी - '' सुना है आपके गिरोह का यातना देने का तरीका अजीब सा है। शिकार का सिर किसी गोल वस्तु में डालकर ․․․․․․․․․․। ''
मैं स्क्रीन पर देखता हूं कि सहसा बबू सासा की आंखें अंगारे उगलने लगती हैं। उसका हाथ कोट की अन्दरवाली जेब में चला जाता है। वह ओढ़ी हुई। शालीनता भूल कर एक गन्दी गाली देकर चीखता है - '' अबे ․․․․․․․․․․․․․․․इत्ती देर से चबड़ चबड़ कर रिया है। साले की मुण्डी टायर में डाल कर ऐसा घुमाऊंगा․․․․। '' (आधा वाक्य बोल कर बबू सासा अचानक संयत होकर शरीफाना लिबास में लौट आता है। ) - '' आप नोट करें मि․ रिपोर्टर कि मेरा ऐसा कोई गिरोह नहीं है और न ही मेरा ऐसे किसी गिरोह से वास्ता है। मेरी एक कम्पनी है और सिर्फ अपने बिजनिस से वास्ता रखती है। ''
स्कूपी - (विषयान्तर करते हुए ) - '' आपको किससे भय लगता है? ''
ब․सा․ - '' पुलिस और पत्रकारों से । पुलिस फर्जी मुठभेड़ बता कर किसी को भी कत्ल कर सकती है और रिपोर्टर नमक -मिर्च लगा कर उसकी स्टोरी बना देते हैं। पुलिस गैंग-वार में उलझे गिरोहों के एक दल से पैसा लेकर, दूसरे गिरोह के सदस्यों को मार गिराती है। पत्रकार इसे पुलिस की सफलता की कहानी बना कर छाप देते हैं । मुझे डर है कि किसी दिन कोई ' हैप्पी -ट्रिगर ' पुलिस कांस्टेबल मुझे भी भून डालेगा और पत्रकार उसे फर्जी भिड़न्त बता देंगे। '' (बबू सासा, डाउइब एवं स्कूपी काल्पनिक नाम हैं)
बॉस इज ऑलवेज राइट
बॉस आंग्ल भाषा का संज्ञासूचक शब्द है और है बड़ा मजे का। प्रायः यह भी माना जाता है कि बॉस लोगों के बस मजे ही मजे हैं। 'बॉस' शब्द, बोलचाल के तौर पर विकसित हुआ और हिन्दी में इसके अर्थ अधिपति, उभाड़ तथा गांठ हैं। अंग्रेजी के शब्द कोश में एक शब्द और देखने में आया, वह है '' बॉसी ''। इसका अर्थ बॉस की बीवी नहीं बल्कि 'गांठदार 'है। आखिर, बॉस की गांठ जिसके पास होगी, वह ही तो गांठदार होगा? 'बॉस ' शब्द की खास बात यह भी है कि इसके इस्तेमाल पर कोई पाबन्दी नहीं है। मुक्तिपूर्वक उपयोग करें। आमतौर पर अधिकारी को 'बॉस ' कहा जाता है लेकिन आप चाय लाने वाले लौंडे को भी 'बॉस' संबोधित कर सकते हैं। फर्क लहजे का होगा। यानि अफसर को कहेंगे 'यस बॉस' और चायवाले छोकरे को कहेंगे, 'अबे बॉस'।
आंग्ल में ही एक शब्द और है, 'सर'। मगर इसके साथ वैसी व्यापकता नहीं। अफसर को ''यस सर'' तो कह देंगे किन्तु किसी को 'अबे सर ' पुकारना कुछ उचित नहीं लगता। बॉस बने और मूल्यवर्धन हुआ, लीजिये इसी मिजाज पर एक लतीफा पढें। पक्षियों की एक सेल में तीन तोते भी थे। एक की कीमत सौ , दूसरे की दो सौ तथा तीसरे की चार सौ अंकित थी। एक सज्जन ने पूछा कि दो तोतों के बीच के पिंजड़े में जो तोता है, उसकी कीमत चार सौ रूपये क्यों है? उत्तर मिला कि सौ रूपये वाला एक भाषा बोलता है तथा दो सौ रूपये वाला दो भाषा बोलता है और बीच में बैठा सबसे अधिक कीमत वाला तोता, इन दोनों का 'बॉस ' है।
हिन्दी प्रेमी क्रोधित न हो इसलिए उन्हें भी बता दें कि देवभाषा में भी बॉस के मुकाबले का एक शब्द है, 'गुरू'। यह गरिमावानों के लिए भी प्रयुक्त होता है और वंचकों के लिए भी। 'गुरूवर' और 'वाह गुरू‘ के अंतर का अहसास करें।साथ ही गुरूजनों की प्रज्ञा और गुरूघंटालों की धूर्तता को भी परखिये। इंशा अल्लाह, उर्दू और फारसी के हिमायती गुस्सा न हो, अतः उन्हें भी बता दें कि वे अपने 'उस्ताद जी' और 'अरे उस्ताद' के फर्क को महसूस करें। हिन्दी के महागुरू की भांति, वहां उस्तादों के उस्ताद भी पाये जाते हैं।
बहरहाल, ''बॉस '' तो आखिर ''बॉस '' है। सुपर बॉस शब्द कुछ जमता नहीं। लिहाजा, हम बॉस पर केन्द्रित होते हैं। वह भी कार्यालयी बॉस पर। अंग्रेजी में एक कहावत है - ''मैन हू इज अर्ली, व्हेन यू आर लेट ; एण्ड ही लेट व्हेन यू आर अर्ली, दैट काल्ड ''बॉस''। और ऐसा कम-अज-कम एक बॉस प्रायः प्रत्येक दफ्तर में हुआ ही करता है। अगर बॉस नहीं होगा तो अधीनस्थों को घुड़केगा कौन? बिना घुड़की कार्यालयों में अनुशासन कैसे कायम होगा?
जिस दिन ऑफिस में बॉस नहीं होते, उस दिन खासा गुलग पाड़ा मचा रहता है। उस रोज, काम-काज को कर्मचारी सूंघना तक नहीं चाहते । अतः ऐसे प्राणी की मौजूदगी बेहद लाजिमी है। बॉस की उपस्थिति सदा तकलीफ देह नहीं होती । यदा-कदा आनंद भी देती है। किसी दिन बाबू का मूड खराब ह,ै तो आज ''बास का मूड ऑफ '' है कहकर वह अनचाहे आगंतुक को टरका देता है। ''बॉस मीटिंग में हैं'' जैसे वाक्य भी मातहतों के आदर्श सिद्व हुए हैं। बॉस जब केबिन में होते हैं तो बाहर बैठे चपरासी के तेवर भी तीखे होते हैं। बॉस जब वाहन में होते हैं तो ड्राइवर को 'बॉस' के निकटतम होने का दंभ आ जाता है। चुनांचे, , बास हैं तो उनकी, सार्वजनिक और निजी छवि की छीछालेदर करने का अवसर अधीनस्थों को मिलता ही रहता है। कोई उन्हें गबदू, घोंचूं अथवा बीवी का दब्बू बताता है।
किन्तु,दीगर बात यह भी है कि बॉस के निंदक ही नहीं वरन प्रशंसक भी होते हैं। वे बॉस को दुरूस्त, दबंग और डॉइनेमिक प्रवृति का बताते नहीं अघाते। रेस्ट्रां में कभी कभी दोनों पक्षों की ठन जाती है। चतुर बॉस, रेस्टोरेंट के छोकरे को दस का नोट थमा कर, सारा सुराग लेता रहता है। और उसके बाद 'बॉस गिरी' प्रारंभ होती है। वह निंदकों की गलतियां ढूंढ ढूंढ कर गिनाता है। निंदकों की निगाह में बॉस भी गलतियों के पुतले हैं लेकिन उन्हें गिनाने का मतलब है 'घोर कदाचार'। लिहाजा, 'बॉस इज आलवेज राइट' नौकरी का नफीस सूत्र है।
गीत गोविन्द के श्लोक- 'पटु चाटु शतैरनुकूलम' भी यही भाव व्यक्त करता है। अगर आप गलती पर न हों और अगर , बॉस कहते हैं तो मान लीजिये। जरा, बॉस के सुर में सुर मिलाकर राग अलापें फिर देखें कि इसके कितने मजे हैं? किसी भ्रष्ट बॉस की छवि अगर उच्चाधिकारियों में उज्जवल है तो निश्चित ही जानो कि वे भी अपने बॉस के 'यस मैन' होंगे।
मेरे मित्र ठेपीलाल जिस कार्यालय में काम करते हैं, वहां आठ बॉस हैं। और वे सभी आरोही क्रम में हैं। ठेपी का स्तर उनमें सबसे निम्न है। एक दिन ठेपीलाल ने रोचक वाकया बयान किया। एक नोट-शीट के मसविदे को अंतिम रूप देते समय, ठेपीलाल ने अपने दृष्टिकोण से उसमें थोड़ी सी तब्दीली कर, अधिक प्रभावशाली बना दिया। वह प्रारूप, जब बड़े बॉस के पास पहुंचा तो वे नाराज हो गये और बोले, '' नोटशीट की विषय वस्तु में तुमने काट-छांट क्यों की? इसका अधिकार तुम्हें नहीं है, समझे। ठेपी भाई, 'यस बॉस ' कह कर चले आये और ठान लिया कि भविष्य में अपने स्तर पर कोई परिवर्तन नहीं करेंगे।
बकौल ठेपीलाल, कुछ दिनों बाद प्रधान कार्यालय से एक सूचना मांगी गई कि उनके कार्यालय में कितने राजपत्रित अधिकारी कार्यरत हैं? उस प्रारूप पर शीर्ष अधिकारी ने अपनी टिप्पणी अंकित कर दी कि हमारे कार्यालय में कितने राजपत्रित अधिकारी हैं, इसकी सूचना दें। शीर्ष अधिकारी ने वह कागज निचले अधिकारी को भेज दिया तथा निचले अधिकारी ने उसे और नीचे भेजा। अवरोह क्रम में होकर , अततः वह प्रारूप ठेपीलाल तक पहुंचा।
चूंकि ठेपीलाल के आधीन कोई राजपत्रित अधिकारी कार्यरत नहीं था, अतः उन्होंने रिपोर्ट दी 'शून्य'। और उसे ऊपर भेज दिया। बड़े अधिकारियों ने भी बगैर ध्यान दिये, उस पर अपने अपने लघु हस्ताक्षर अंकित कर दिये। वह रिपोर्ट प्रधान कार्यालय पहुंच गयी। ठेपी बताते हैं कि थोड़े दिन बाद प्रधान कार्यालय से खेदजनक पत्र आया कि आपके कार्यालय में आठ राजपत्रित अधिकारी होते हुए भी 'निल ' रिपोर्टिंग क्यों हुई? नतीजन, शीर्ष अधिकारी ने आग बबूला होकर नीचे वाले अधिकारी को तलब किया। और नीचे वाले अफसर ने उससे नीचे वाले पर अपनी भड़ास उतारी। अंततः सारी गाज ठेपीलाल पर गिरी। उसे कहा गया कि उसने थोड़ा दिमाग भी क्यों नहीं लगाया? ठेपी बोले, मित्र जब मैंने पहली दफ़ा दिमाग लगाया तो डांट मिली , दूसरी बार भी मैं अपने स्तर पर सही था तो भी लताड़ सुनी। अतः ‘बॉसेज् आर ऑलवेज राइट‘ धुव्र सत्य है।‘‘
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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