ऊँट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय ( पिछले अंक 1 से जारी...) दास्तां-ए-ठंडा बस्ता जिस भांति बाछें मूतर्तः नह...
ऊँट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
दास्तां-ए-ठंडा बस्ता
जिस भांति बाछें मूतर्तः नहीं होती तदापि खिलती अवश्य हैं, उसी भांति ठंडा बस्ता वस्तुतः होता नहीं है, तथापि गुल अवश्य खिलाता है। और अब से नहीं वरन प्राच्यकाल से खिलाता आ रहा है। प्राचीनता के नाम से चौंकिये नहीं तनिक त्रिशंकु प्रकरण पर नजर डालिये। स्वर्ग तथा पृथ्वी के मध्य उल्टा लटके, इस सूर्यवंशी राजा का मामला भगवान ने आज तक ठंडे बस्ते में डाला हुआ है। इससे बड़ी अनीति और क्या होगी कि युगों से औंधे लटके त्रिशंकु के मुख से लार इतनी मात्रा में बह गयी कि उसने नदी का रूप ले लिया, किन्तु सुनवाई अभी तक नहीं हुई। चुनांचे , ठंडे बस्ते के आगे ईश्वर भी हारे। कैकयी ने राम को बनवास दिलाकर उनके राज्याभिषेक का मसला ठण्डे बस्ते में डलवा दिया था। चौदह वर्ष बहुत होते हैं, मान्यवर । पता नही उस अवधि में काल का कराल , क्या उथल-पुथल कर दे? कौन मरे और कौन जिये? वह तो त्रेता के भरत की भलमनसाहत थी कि उसने सिंहासन को अमानत समझा और किसी किस्म की ख्यानत नहीं की।
महाभारत काल के कौरवों को देखो। भ्राता दुर्योधन, महज एक वर्ष के पांडवों के अज्ञातवास के उपरान्त भी राज्य के बंटवारे का मामला, ठंडा बस्ता से निकालने को राजी नहीं हुआ। सूई की नोंक के समान भूमि भी नहीं दूंगा। यह उसका कथन था। वस्तुतः ठंडा बस्ता तथा सामर्थ्य में अद्भुत सामंजस्य है। ऐसा सामर्थ्य ताकत और अधिकार से उत्पन्न होता है। जिसके पास अधिकार है वह किसी भी मसले को सरलतापूर्वक ठंडे बस्ते में सरका देता है। उर्वशी के पास, श्राप देने का अधिकार था। उसने अर्जुन ने प्रणय निवेदन किया। गांडीवधारी अर्जुन ने वह अनुरोध, नम्रता से टाला तो प्रयणातुर उर्वशी क्रोधित हुई। उसने, नपुंसकता का श्राप देते हुए, उस वीर पुरूष के पौरष को एक साल के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया। पार्थ के पास संग्रामी शक्ति तो थी, मगर वह शक्ति मर्दानगी को ठंडे बस्ते से बाहर निकाल सकने में असमर्थ थी। लिहाजा, परमवीर अर्जुन को एक वर्ष तक संगीत शिक्षिका बनकर रहना पड़ा।
ठंडे बस्ते में गये मुद्धे को बाहर लाना वाकई बड़े बूते का काम है। सामने वाले के होश उड़ा देने जैसी सामर्थ्य चाहिए। लक्ष्मण जी सक्षम थे। 'न स संकुचितः पंथ येन बाली हतो गतः। ' बाली वध के पश्चात् निर्भय हुए सुग्रीव ने सीता की तलाश का मामला ठंडे बस्ते में सरका दिया। मास पर मास बीत गये। वर्षा ऋतु भी निकल गयी। राम के अनेकानेक अनुरोधों को नजर अंदाज करता हुआ, वह विलासरत् रहा। अंततः , लक्ष्मण ने आवेश में आकर कहा, ''जिस मार्ग से बालि गया है, वह अभी संकुचित नहीं हुआ है। '' व्यंजना में छिपी धमकी को सुग्रीव ने समझा और सीता की खोज का मसला आनन-फानन ठंडे बस्ते से बाहर ले आये। मित्रों, ‘ठंडा बस्ता' की उपादेयता, सदा रही है सदा रहेगी।
सदियों से कितने ही प्रकरण, कितनी ही फरियादें, कितने ही आयोग, कितनी ही योजनाएं, कितने ही उद्घाटन, कितनी ही घोषणाएं, कितने ही कांड, कितनी ही सिफारिशें, इस बेहरम ठंडे बस्ते में दफन हुई हैं और होती रहेंगी। इस अमूर्त, 'ठंडे बस्ते' का सर्वाधिक लाभ नेताओं ने उठाया है। ये लोग किसी भी मुद्दे को ठंडे बस्ते के हवाले करने में माहिर होते हैं। जनता से किये गये वायदों , घोषणाओं , सिद्वान्तों, प्रतिबद्धताओं को ठंडे बस्ते में डालकर अपने कट्टर विरोधियों और दुश्मनों तक से हाथ मिला लेते हैं। लोकोक्ति है कि एक चुप सौ को हरावे। बेहतर यही है कि मूक रहकर मामलों को लटकाते जाओ, फिर चुन चुनकर ठंडे बस्ते के हवाले कर दो। सियासतदांओं का यही मूल मंत्र रह गया लगता है।
आलम यह है कि जो सरकार अपनी अक्षमताओं, सभासदों के हंगामों, प्रतिपक्षियों की आवाजों, भ्रष्टों की करतूतों, उत्पातियों के उद्यमों को ठंडे बस्ते में डालने में जितनी सक्षम होती है, वह उतनी ही दीर्घजीवी होगी। काश! जहांपनाह जहांगीर का कोई नुमाइंदा ठंडा बस्ता के इस्तेमाल में निष्णात होता? और इस उपाय के तहत, ईस्ट इंडिया कंपनी की हिन्दुस्तान में व्यापार प्रारम्भ करने की अर्जी को चुपचाप ठंडे बस्ते में सरकवा देता। फिर, आज हमारे पास अपनी संस्कृति बच रही होती। देश के टुकड़े न हुए होते। अगर आवाम के पास ठंडा बस्ता इस्तेमाल करने का हुनर होता। तो वह सियासती ठिठोलियों, अनावश्यक चुनावों, अधकचरे समर्थनों, अविश्वास प्रस्तावों, धर्मिक पाखंडों को ठंडे बस्ते में डालकर, मजे से जीवनयापन कर रही होती?
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फिक्सिंग मय है यह जग सारा
जनश्रुति है कि संसार की होनी अनहोनी, नियंता द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं अर्थात् जग के घटित और अघटित ईश इच्छा से फिक्स हैं। मानव तो निमित्त मात्र है। तब खेलों की फििक्ंसग पर इतना बावेला क्यों?
मित्रों, मुझे तो समूचे ब्रहा्रांड में फििक्ंसग नजर आती है। आसमान फिक्स, ग्रह-नक्ष्ात्र फिक्स, उनके परिक्रमण और परिभ्रमण फिक्स, तीनों लोक अपनी जगहों पर फिक्स। पृथ्वी पर महाद्वीप फिक्स, समन्दर फिक्स। ये सभी रंचमात्र भी हिलें तो जल्जला आ जाए और तो और हर जीवधारी की श्वांस फिक्स हैं। मज़ाल, जो एक भी अधिक ले सके।
दोस्तों, देवों तथा मानवों के व्यवहार पर गौर करें तो वहां भी फििक्ंसग का आलम दिखाई देगा। मर्यादापुरूष राम ने भरत मिलाप के भावुक क्षणों में स्वीकार किया था कि अनुजों की प्रसन्नता के लिए खेलते समय वह उनसे जानबूझ कर हार जाया करते थे। सत्य है भक्तों के सम्मुख भगवान भी पराजय का वरण किया करते हैं। हम भी बालगोपालों की खुशी की खातिर कई बार खुद ब खुद हार जाते हैं।
त्रिलोक के स्वामी श्रीकृष्ण ने सुदामा के मात्र तीन मुट्ठी चावलों के एवज में तीन लोक दान करने का मन फिक्स कर लिया था। दो लोक तो चावल चबाते चबाते ही अलाट कर डाले। तीसरे का क्रियान्वयन हो रहा था कि रूक्मिणी को वह खबर मिल गई और पटरानी ने फौरन अपना 'स्टे' दे दिया अन्यथा द्वारकाधीश और उनके परिवार को रहने के लिए ,ठौर की भी याचना करनी पड़ती।
महाभारत के महासमर में शिखंडी को सामने पा कर अजेय भीष्म ने पूर्वनिश्चयानुसार हथियार फेंक दिए। अगर वह चाहते तो शिखंडी को सुरक्षित रखते हुए पांडवों पर आक्रमण जारी रख सकते थे । इस तरह पितामह के हथियार डालते ही पांडवों की जीत 'फिक्स ' हो गई।
बाली वध के दौरान ताड़वृक्ष की ओट से राम का तीर चलाना सुग्रीव के साथ 'फििक्ंसग ' नहीं तो और क्या थी?
भाइयों, अब तनिक इतिहास में घुसें। 29 मई, 1658 को सामूगढ़ के संग्राम में विद्रोही औरंगजेब ने अपने भ्राता दाराशिकोह के सेनापति खलीलुल्लाह के साथ फििक्ंसग कर ली। परिणामतः पिता के पक्ष में युद्ध करता हुआ दारा विजय के पास पहुंच कर भी पराजित हुआ।
उसी औरंगजेब के लख़्तेज्रि़गर मोहम्मद अकबर के साथ मेवाड़ तथा मारवाड़ के राजपूत सरदारों ने दिल्ली के तख़्तोताज़ का प्रलोभन देकर फििक्ंसग की। नतीजतन, बगावती बेटा 70 हजार मुगलों व राजपूतों की संयुक्त सेना लेकर बाप से युद्ध लड़ने अजमेर के पास देवराई के मैदान में आ डटा। उस वक्त बादशाह के पास केवल सत्रह हजार फौज थी। 17 जनवरी, 1681 की रात थी। सुबह युद्ध शुरू होना था। उस रात को चतुर औरंगजेब ने ऐसी चाल चली कि पासा पलट गया। बादशाह ने पन्द्रह पंक्तियों का एक पत्र शहजादा मोहम्मद अकबर के नाम लिखा कि तू मेरी हिदायत के मुआफिक इन नालायक राजपूतों को धोखा देकर यहां तक ले आया है। अब युद्ध शुरू होते ही इन को हरावल (आगे ) में रखना ताकि ये दोनों तरफ से बखूबी हलाक किए जा सकें। दूत को इस तरह भेजा गया कि वह खत राजपूत सरदारों के हाथ लगे। पत्र को पढ़कर राजपूत चकरा गए। उन्हें लगा कि यह तो बाप बेटे की फििक्ंसग है। हम लोग बुरे फंसे। प्रातः युद्व होते ही आगे से बादशाह की फौज मारेगी और पीछे से शहजादे की सेना । ऐसा सोच कर रातोंरात राजपूत रणक्षेत्र से दूर चले गए। यह देख शहजादे की सेना में भी भगदड़ मच गई। उसके ज्यादातर सैनिक औरंगजेब से जा मिले।
हिन्दुस्तान की सल्तनत पर राज करने का ख्वाब देखने वाला शहजादा जब सुबह जागा तो उजड़ा हुआ मंजर देख कर मैदान से भाग लिया।
पाठकों, अब भूत से वर्तमान काल में घुसते हैं। मुझे यहां भी चहुंदिश ‘फिक्सिंग इफेक्ट‘ नजर आ रहा है। फििक्ंसग प्रकरण इन्सान के पैदा होते ही परछाई की माफिक जुड़ जाता है। देखिए, प्रसव होते ही चिकित्सक से लेकर सफाईकर्मी तक अपनी-अपनी ' फिक्स ' बख़्शीशों का तकादा करते हैं। शिशुओं को कुछ टीके लगाने का कार्यक्रम फिक्स होता है। अनेक बालक- बालिकाओं के ब्याह बाल्यावस्था में ही फिक्स कर दिए जाते हैं। वयस्क विवाहों में दहेज फििक्ंसग का जोर सर्व विदित है।
नौकरियों में साक्षात्कार से पूर्व ही आशार्थी को चुनने की फििक्ंसग हो जाती है। वांछित स्थान पर नियुक्ति अथवा तबादले की फिक्सिंग होती है।
बंधुओं, साहित्यजगत में फिक्सिंग का जलवा ही निराला है, यहाँ पुरस्कार देने, अभिनन्दन करने तथा लोकार्पण कराने की फिक्सिंग है। कवि सम्मेलनों हेतु आयोजकों के कवि प्रायः फिक्स हुआ करते हैं। संचालकों द्वारा मंच पर कवियों के प्रस्तुतिकरण का क्रम भी अमूमन फिक्स होता है। संपादकगण ज्यादातर अपने लेखक फिक्स रखते हैं।
और राजनीति? अहा․․․․यहां तो फिक्सिंग के तेवर गज़ब के हैं। चुनावों में जीत के समीकरण प्रायः फिक्सिंग के जरिए ही बनाए बिगाड़े जाते हैं। त्रिकोणात्मक संघर्ष से फायदा होता हो तो किसी उम्मीदवार को बीच में फिक्स कर दो और अगर त्रिभुजाकार टक्कर मिटानी हो तो फििक्ंसग के बल पर तीसरे उम्मीदवार को बैठा दो।
सत्ता की कुरसी ''फिक्स'' रखने के लिए दलों के गठजोड़, निर्दलियों की ख़्ारीदफरोख़्त, मंत्री पदों का प्रलोभन अथवा वांछित विभाग प्रदान किए जाने जैसी प्रक्रिया अपनाई जाती है। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री की इकलौती कुर्सी के लिए दो विपरीत ध्रुव वाले दावेदारों ने प्रत्येक छः माह हेतु अपनी अपनी बारी 'फिक्स' कर ली थी।
सुधी जनों, सरकारी मामलों में जो फििक्ंसग के खेल खेले जाते हैं, अब जरा उन का भी कुछ बखान कर दूं। विभागीय खरीदारी में अलमारी से लेकर आलपिन तक कमीशन की फििक्ंसग से क्रय की जाती है। फाइलों , ठेकों, टेंडरों की स्वीकृति हो अथवा किए जा चुके कार्यो का अनुमोदन, भी फििक्ंसग के जरिये किये जाते हैं। जो कर्मचारी फििक्ंसग में रत् होते हैं, कई बार उन का सामना भी फििक्ंसग से होजाता है।
अनेक दफा वेतन, एरियर, भत्तों आदि के बिलों की भुगतान स्वीकृति हेतु, प्रायः उन्हें भी फिक्स-दरों का भुगतान करना पड़ता है। इच्छित स्थान पर स्थानान्तरण के लिए, उस जगह पर फिक्स कर्मचारी को हटाने की फििक्ंसग भी प्रायः की जाती है।
अब अवकाश फििक्ंसग का एक नायाब किस्सा ज्ञानार्थ लिखा जाता है। कथा के नायक हैं चमन चन्द्र चक्रपाणी, जो चमन बाबू के नाम से जाने जाते हैं । वे एक सरकारी विभाग में वरिष्ठ लिपिक हैं तथा मेरे मित्र हैं।
मैं, एक दिन दोपहर की नींद लेने की कोशिश कर रहा था कि दूरभाष चिंघाड़ा । सन्देश सुनकर मेरा आलस्य जाता रहा। किसी जानकार ने बताया कि चमन बाबू सस्पेंड हो गए। मैं बेचैन हो गया। चमन भाई के आफिस को फोन किया तो जवाब मिला, जनाब आज आफिस पहुंचे ही नहीं।
व्यग्र होकर बिस्तर छोड़ा, कपड़े पहने और पहुंचे चमन बाबू के घर। काफी देर तक घंटी घनघटाने के बाद दरवाजा खुला। मिसेज चक्रपाणी नुमूद हुई। सुस्त शरीर, बोझिल लाल नयन। मैंने सोचा, काफी रोई होंगी? सो कोमल स्वर में पूछा, '' चमनजी हैं क्या?''
वह मुसकराई, '' हां, सो रहे हैं । ''
मैं हैरान हुआ। हो सकता है इन्हें मुअत्तली की बात मालूम न हो, यह सोचकर अन्दर पहुंचा । देर तक झिंझोड़ने के बाद जनाब ने आंखें खोलीं। हमारी नींद हराम हो गई थी और यह बन्दा घोड़े बेच सोया हुआ है। लगता है निलम्बन का भान नहीं है। अब, खबर सुनते ही बेचारे की नींद उड़न छू हो जाएगी, यह सोच कर मैंने टोह ली, '' आज आफिस नहीं गए थे? ''
'' क्या करता जाकर। मैं सस्पेंड हो गया हूँ।''
'' हैं․․․ तब भी सोए हुए हो? मुअत्तल होना बड़ी चिन्ता की बात है।''
वह हंसे, ''क्यों, चिन्ता की बात कैसे? अरे भई, मुझे लम्बी छुट्टी चाहिए थी। मकान का काम पूरा कराना है। ढंग का रिश्ता मिल गया तो बेटे या बेटी का विवाह भी कर डालूंगा और यह काम निबटते ही बहाल हो जाऊंगा।''
'' वह कैसे ? मैं हैरान था।
'' यूनियन का नेता अपना खासमखास है। उस से यह बात मैंने पहले ही ' फिक्स ' कर रखी है। अब बताओ मैं अपनी छुटिट्यां क्यों खत्म करूं?‘‘
तो कैसी रही यह फिक्सिंग?
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आह! दराज वाह! दराज
दफ़्तरी आलम के कुछ आवश्यक तत्व हुआ करते हैं और उनके बगैर दफ़्तर-दफ़्तर सा नहीं लगता । मसलन उधड़े प्लॉस्टर तथा बरसों से रंग-रोगन की चाह रखने वाली इमारतों के आभाहीन कमरे। लड़खड़ाती कुर्सियां , स्टूल ,बैंचें। धूसर फाइलें। घुड़कते बॉस । त्यौरियों के तइंर् बतियाते-बाबू। बीड़ी का सुट्टा मारते, उनींदे- चपरासी । चाय के कपों-गिलासों को टकराते रेस्टोरेंटी छोकरे और काम हो जाने की आस में यत्र-तत्र धकियाते, आते जाते आगंतुकगण। ऐसे हाहाकारी माहौल में, मेजों के नीचे सुकून से छिपीं दराजों की भूमिका भी बहुत अहम है। यद्यपि इनकी कारगुजारी कोई कम नहीं। कार्यवाही हेतु प्रस्तुत प्रार्थना -पत्र की गति क्या होगी? वह मार्गी होगा या वक्री ? दाखि़ले-फाइल होगा अथवा दाखिले-दराज़? यह आवेदन के संग रखे वजन पर निर्भर होगा।
अलबत्ता, जब तक कागज मेज पर है, उस पर समुचित कार्यवाही अपेक्षित है और अगर, वह दरा़ में गया तो मानो उसका भविष्य अनिश्चित हो गया। पता नहीं वह, बेरहम , कब बाहर निकले? अतः, इस अदना-सी दराज़ पर, मैं फिलहाल, विचारमग्न हूँ। पहला विचार यह कि 'दराज़' शब्द, मुआ आया कहां से? इस हेतु शब्द-कोश खंगालता हूँ। संस्कृत-हिन्दी कोश में इस आशय का मूल शब्द नहीं है। यह फारसी से आया है। स्त्रीलिंग है। विशेषणयुक्त है । शब्दार्थ है-लंबा, दीर्घ, विशाल, शिगाफ। क्रिया विशेषण है- बहुत अधिक अर्थात् दराज में जो गया, समझो वह लम्बे, दीर्घ, विशालकाय समय के लिए गतिविहीन हो गया। अतएव नन्हीं सी इस दराज़़ के कारनामे भी बहुत अधिक हैं।
किसी शायर ने लिखा है - ' उलझा है पांव यार का, जुल्फे़ दराज़ में। ' लुब्बेलुबाब, यह कि दराज़ की खोज करने वाला कोई नामाकूल नहीं था बल्कि बुद्धिमान व्यक्ति था। इस नामकरण की सूझ उसे कैसे सूझी? आइए इस परिकल्पना पर गौर करते हैं। मेरे विचार से इसका रहस्य 'दरज़' में छिपा है। 'दरज़' का अर्थ है - चीर, दरार। मतलब कि किसी के बनते हुए काम में दरार डाल दो। आंगल भाषा का 'ड्रॉअर' भी कदाचित 'दरार ' से उत्पन्न हुआ लगता है। मैं इस सोच को आगे बढ़ाता कि गुरूवर चमनचन्द्र चक्रपाणि पधारते दिखायी दिये। वे संस्कृत के विद्वान तथा भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक हैं। लिहाजा, मैंने अपनी परिकल्पना गुरूदेव के सम्मुख प्रस्तुत की। चक्रपाणिजी बिफर गये, ''हमारा भारत जगत गुरू रहा है एवं सदा रहेगा। वैज्ञानिक उपलब्धियां और अनुसंधान हमारी ही देन हैं। निश्चित ही 'दराज़' शब्द भी हमारा आविष्कार है। इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के 'दर्दर' से हुई है। ''
योग कहें, संयोग कहें कि अरबी-फारसी के जानकर,जनाब खच्चन खान की आमद भी उसी वक्त हुई। आते ही, मियां इस नुक्ते पर फरमाने लगे, ''हजरत! यह शब्द अरबी के 'दरजा ' से आया है। गोया, दफ्तर में पेश की गयी अरजी को क्या दरजा हासिल हुआ? क्या उसे दराज़-दरोज कर दिया गया?'' दराज़ के विदेशी भाषा से आयात होने की पुष्टि पर मैं उत्साह से उछला, ''म्यां! यहाँ फारसी के 'दर्रा ' को भी मत भूलो। सारे महत्वपूर्ण पत्र-प्रपत्र, इस नामुराद दराजरूपी 'दर्रे ' में गुम हो जाते हैं। '' भई वाह! गजब हुआ।
हिन्दी-उर्दू के फनकार तरन्नुम राजस्थानी भी तभी तशरीफ ले आये। उन्होंने अपनी मौजूदगी कुछ तरह दर्ज़ करायी, '' राजस्थान में 'दरा' नामक जंगली जगह है। वर्तमान मे यह दरा -अभयारण्य के नाम से जानी जाती है। लिहाजा 'दराज़' की प्रेरणा इसी 'दरा' शब्द से प्राप्त हुई है। मसलन एक बार जो कागज दराज़ में दाखिल हुआ, वह अभय के अरण्य (जंगलद्धमें गया समझो। '' गुरूदेव चमनचन्द्र चक्रपाणि बहुत देर से चुप थे, अब असहमत होकर मुखर हुए, ''बंधु तरन्नुम! यह उत्तम बात है कि तुमने ''दराज़'' की उत्पत्ति भारत भूमि से बतायी है, इस स्वदेश प्रेम के लिए तुम्हें साधुवाद! परन्तु, मैं इसे ''दरा'' से नहीं वरन संस्कृत के ''द्वार '' से मानता हूँ। प्रार्थना पत्र के 'दराज़' में जाते ही प्रार्थी द्वार -द्वार डोलने लगता है। '' अपनी मान्यता पर शरीफाना चोट होते देख तरन्नुम ताव खा गये, '' वाह पंडितजी! आपने यह शब्द द्वार से कैसे पैदा कर दिया? इससे नजदीक तो फारसी का 'दर' है। कागजात के दराज़ में दफन होते ही उसका पेशकर्ता दर-दर नहीं भटकता क्या?''
पंडितजी कोई कम थोड़े थे, बोले ''मियां, तुम तो नेंक-से विवाद पर भारत की भूमि छोड़ फारस जा पहुुँचे। आओ, हम तुम्हें पुनः हिन्दुस्तान में लाते हैं। देव भाषा संस्कृत में भी 'दर' शब्द है एवं दराज की व्युत्पत्ति इसी 'दर' से हुई है। इसके शब्दार्थ है - कंदरा, गुहा। 'दराज़', किसी कंदरा से कम प्रतीत होती है भला?'' अब, खच्चन भाई भी मैदान में ताल ठोककर कूदे, ''दोस्तों! लफ़्ज़ों के साथ तोड़- मरोड़ की पहलवानी न करें। 'दर ' को छोड़ो दराज लफ़्ज़ 'दरक' से बना है। 'दरक' के मायने हैं - ‘खाँचा‘ । यानी जो कागज किसी भी खांचे में नहीं बैठे, उसे इस 'दराजी-खांचेे‘ में डाल दो। ''
यह महासंयोग ही था कि अनुवादक के पद पर कार्यरत् ठेपीलाल मेरे कमरे में प्रविष्ट हुए। अब, वातावरण एक लघु गोष्ठी सरीखा हो गया था। ठेपी भाई ने अपनी स्थापना इस तरह दी, दराज शब्द 'दौर ' से अपभ्रंश होकर आया है। किसी पत्रावली के निबटान का पहला दौर उसे दराज में डाल देता है। सोचते हैं, जब फुरसत होगी, तब देखें और मुई फुरसत कभी मिलती नहीं। अंग्रेेज लोग 'दौर' का उच्चरण ''डौर'' करते थे। इंगलिस्तान में जाकर यह 'डौअर' हो गया और शनैः शनैः इससे 'ड्राअर ' बना। फारसी का दराज भी अंगरेजी के 'ड्राअर' से बना है। प्रवीण ठेपीलाल समां बांधते हुए , आगे बोले ''अब मैं आपको 'दौर ' और 'ड्राअर' का अंतःसंबंध एक उदाहरण के माध्यम से समझाता हूँ- ‘हमारे साहब की मेज में तीन दराजें हैं। किसी भी पत्र या कागज की प्राप्ति पर वे उस पर लाल स्याही से टिप्पणी अंकित करेंगे, ' टू बी सी ' और उसे पहली दराज में डाल देंगे। यह हुआ, उनके कार्य को निबटाने का पहला दौर।
''दूसरे रोज, एक दिन पूर्व के प्राप्त कागजातों को दराज से बाहर निकालेंगे और उन सभी पर टिप्पणी अंकित करेंगे, ‘टू बी सी लेटर‘। तत्पश्चात् उन सभी पत्रों- प्रपत्रों को दूसरी दराज में डाल देंगे। इस प्रकार पहली दराज नवीन आगत के स्वागत के लिए खाली हो जाएगी और दूसरी भर जाएगी। यह हुआ कार्य निपटाने का दूसरा दौर।
‘‘तीसरे दिन दूसरी दराज के कागजों को निकालेंगे। उन पर लाल स्याही से लिखेंगे, 'टू बी फाइल' और तीसरी में डाल देेंगे। इसी क्रम में पहली दराज के पत्र-प्रपत्र दूसरी दराज में आ जाएंगे।‘‘ ''चौथे दिन, तीसरी दराज के सारे पत्रों-प्रपत्रों को निकालेंगे और 'टू बी फाइल' लिखे समस्त कागजात संबंधित कर्मचारियों के पास भिजवा देंगे। ‘‘ ‘‘अब क्रमशः दूसरी दराज के कागजात तीसरे में तथा पहली के दूसरी दराज में आ जाएंगे। पहली दराज नये कागजों की आगत के लिए सदा की भांति तैयार हो जाएगी। यह होगा, हमारे साहब के कागजात निबटाने का चौथा और अंतिम दौर। '' ठेपी भाई के किस्से को परवान चढ़ाते हुए, तरन्नुम राजस्थानी ने उसी मिजाज का परवीन कुमार 'अश्क' का एक शेर पढ़कर सभी की दाद लूट ली - ‘'बरसों से जिन्दगी की अरजी गुम है दराजों में।
कभी अफसर नहीं होता कभी बाबू नहीं होता॥'‘
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(क्रमशः अगले अंक 3 में जारी...)
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