ऊँट भी खरगोश था व्यंग्य - संग्रह -प्रभाशंकर उपाध्याय लेखक परिचय नाम : प्रभाशंकर उपाध्याय जन्म : 01-09-1954 जन्म स्थान : गं...
ऊँट भी खरगोश था
व्यंग्य - संग्रह
-प्रभाशंकर उपाध्याय
लेखक परिचय
नाम : प्रभाशंकर उपाध्याय
जन्म : 01-09-1954
जन्म स्थान : गंगापुर सिटी (राज0)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि।
व्यवसाय : स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर में अधिकारी।
सम्पर्क
यू-193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाई माधोपुर (राज․)
ईमेल : prabhashankarupadhyay@gmail.com
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कृतियां/रचनाएं : व्यंग्य संकलन- 'नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर' तथा ‘काग के भाग बड़े‘। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?' एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन, ‘आह! दराज, वाह! दराज' का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार।
पुरस्कार/ सम्मान : कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित।
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विषय-सूची
1 चाणक्य बनें प्रधानमन्त्री
2 दुख का लेटेस्ट 'हैंग-ओवर '
3 बिन पढे घोटाला कथा होवे न पूरण ज्ञान
4 दास्तां-ए-ठंडा बस्ता
5 फिक्सिंग मय है, यह जग सारा
6 आह! दराज वाह! दराज
7 गुरूशिष्य संवाद
8 माफिया सरगना से साक्षात्कार
9 बॉस इज ऑलवेज राइट
10 अय हय, बीच वाले
11 प्रवचन परोस वत्स!
12 एक अद्द घोटाला
13 चंदा की चांदनी में।
14 सिन्थेटिक खाओ, सिन्थेटिक पीओ
15 ऊंट भी खरगोश था
16 तत्वज्ञान चर्चा
17 आओ अड़चन डालें
18 इतना जो मुस्करा रहे हो?
19 मुंडोपनिषद्
20 गजब, मोबाइल माया
21 हॉट डॉग
22 मजे टरका देने के
23 इंटरनेट माहात्म्य
24 हतभाग मानुस तन पावा
25 कोल्ड ड्रिंक्स ही पियूंगी, पापा
26 जमानत पर छूटे विश्वगुरू की प्रेस कॉफ्रेस
27 काग के भाग बड़े
28 अगर तुम मिल जाओ
29 वाह! चाय
30 तीक्ष्णक का बुखार
31 पियत तमाकू लाल
32 भागो रे भागो
33 प्रशासनिक कार्यालय ः एक प्रश्नोत्तरी
34 करजा लेकर मरजा
35 चलती किसी की जीभ किसी का जूता चलता
36 आह हमारी अंतर्यात्रा
चाणक्य बनें, प्रधानमंत्री
ख्याल कीजिये कि किसी क्लोन वैज्ञानिक ने आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य की एक कोशिका कहीं से प्राप्त की और उस कोशिका से आचार्य चाणक्य का समरूप विकसित कर लिया। दो हजार तीन सौ से भी अधिक वर्ष पूर्व जन्मे, उस उद्भट विद्वान तथा चतुर कूट़नीतिज्ञ से इस प्रतिरूप का तनिक भी अंतर नहीं है। वही कुरूपता, वैसी ही कृष्णवर्णी पुष्ट शिखा और उतनी ही तत्क्षण बुद्धि। किसी भांति, क्लोन वैज्ञानिक के चंगुल से छूटकर कौटिल्य हिन्दुस्तान में प्रवेश कर जाते हैं तथा संयोगवश आ जुड़ते हैं, वर्तमान राजनीति से। और महामति चाणक्य की प्रखर प्रतिभा से प्रभावित होकर, उन्हें भारत की गठबंधन सरकार को चलाने का प्रस्ताव प्रदान किया जाता है।
तलवे में कांस तथा मन में घनानंद का उपहास बींध जाने पर उनका समूलनाश कर देने वाले महाहठी विष्णुगुप्त, आर्याव्रत के तत्कालीन गणराज्यों और राज शासनों को एक छत्र-साम्राज्य के रूप में गठित कर चुके थे। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा शासित उस विशाल सामर्थ्यशाली राज्य की सीमाएं हाला हिन्दुस्तान से भी विस्तृत थीं और विदेशी आक्रांताओं अधिक सुरक्षित थीं। ऐसा तेजस्वी पुरूष, अगर आज की राजनीति से जुड़े तो उसकी अथवा राजनीति की क्या दशा-दुर्दशा होगी? आइये विचारते हैं चाणक्य नीति के परिप्रेक्ष्य में ः-
- आचार्य विष्णुगुप्त गणतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं का हश्र ईसा से तीन सौ इक्कीस वर्ष पूर्व देख चुके थे। अतः वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली को निश्चित ही नकारेंगे। अतः वे राजशाही व्यवस्था का ही चुनाव करेंगे और उन्हें तलाश होगी ऐसे राजा की, जिसके कंधे इतने मजबूत हों कि उन पर महामति कौटिल्य अपनी नीतियों की बंदूक धर कर दाग सकें।
अस्तु, आचार्य के राजा की कसौटी होगी- सचरित्र, सत्यभाषी, दैवीय-बुद्धि सम्पन्न, अनिरंकुश, प्रजा हेतु सहज-सुलभ तथा निर्धारित कठोर दिनचर्या और रात्रि- चर्या के कालांशों का पालन करे (नीति में प्रत्येक कार्यकलाप हेतु आठ घड़ी अर्थात् डेढ-घंटा नियत हैं)।
क्या विष्णुगुप्त ऐसा आदर्श राजा पा सकेगें? अगर पा गये तो उत्तम, अन्यथा चाणक्य सूत्र के अनुसार अविनीत स्वामिलाभादस्वामिलाभः श्रेयातः अर्थात् अयोग्य राजा के स्थान पर किसी को राजा न बनाना ही उचित है।
मानें कि ऐसा राजा नहीं मिला और महामति अपना हठ छोड़कर, प्रजातंत्र की गाड़ी को हांकना स्वीकार कर प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो पहली परेशानी होगी, उनके आवास की। वे रेसकोर्स या जनपथ के भव्य आवासों को तो पसंद करेंगे नहीं। उनकी पसंदीदा जगह होगी, किसी नदी के तट पर स्थित कुटिया। और कुटिया भी कैसी- जीर्ण-शीर्ण दीवारें, उपलों-कुशाओं के बोझ चरमराती छत और अंदर टिमटिमाता दीपक।
अपशिष्ट पदार्थो से दूषित और कूड़ाकरकट तथा झोंपड़पटि्टयों से अटा हुआ- दिल्ली का यमुना तट। क्या चाणक्य को वह स्थान रास आयेगा? प्रधानमंत्री की कुटिया बनाने के लिए दिल्ली नगर निगम सबसे पहले वहां की झोंपड़पटि्टयों को नेस्तनाबूद कर देगा। क्या कौटिल्य इसके लिए सहमत होंगे? प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था के तौर अनेक इंतजामात भी आवश्यक होंगे अन्यथा राकेट लांचर के इस आंतकी युग में, एक अदना सा बम, महामति को कुटिया तले सद्गति दिलाने में समर्थ नहीं होगा?
आवास समस्या से निजात पाने के पश्चात् आचार्य की असली परीक्षा होगी मंत्री- मंडल के गठन में।
कौटिल्य के मंत्री कैसे हों? - कर्तव्यपरायण, निष्कलंक, बुद्धिमान, लोभरहित, सम्प्रदाय तथा दलों से असम्बद्व, अपराधी और लोक-निंदित नहीं, शिष्टाचार एवं सज्जनता आवश्यक। दुख-सुख में भागीदार। इन योग्यताओं के अलावा विष्णुगुप्त किसी को स्नेहवश अमात्य पद नहीं देंगे। यह चाणक्य नीति कहती है।
ऐसी दशा में दागी, बागी, छली, बली और जनादेश की ठसक धरे जन प्रतिनिधियों को मंत्री पद हेतु नकार देना क्या कौटिल्य के लिए आसान होगा? सूत्र कहता है कि किसी व्यक्ति को सहसा मंत्री परिषद में मत लो। मंत्रियों की संख्या (कदाचित इक्कीस ) से अधिक न हो। मंत्र गोपन अर्थात् मंत्री मंडल की बैठकों में तीन या चार से अधिक अमात्य नहीं हों। तब तो, हो गया बंटाधार। गठबंधित सरकार के दबदबेदार घटक ऐसे में चुप रहेंगे भला? असंतोष, अविश्वास, उपेक्षा की भावनाएं भड़केंगी। इस्तीफों तथा ष्ड़यंत्रों का जोर रहेगा। भेदियों और आयाराम-गयारामों की बन आयेगी।
चलिए, चतुर चाणक्य, इस चक्रव्यूह को भी भेद देते हैं, तो परराष्ट्र संबंधों का क्या होगा?
गुटनिरपेक्षता, निशस्त्रीकरण, व्यापक परमाणु निषेध, मित्रों तथा शत्रु देशों से संबंध में उस यर्थाथवादी राजतंत्री का क्या दृष्टिकोण होगा? संभवतया, वे इसका निपटारा अपनी 'षाडगुण नीति' के आधार पर करेंगे। वे गुटनिरेपक्षता के बिन्दु पर तो सहमत होंगे किन्तु निशस्त्रीकरण तथा व्यापक परमाणु निषेध जैसे मसले उन्हें रास नहीं आयेंगे। सबल के प्रति, भेद नीति ही उनका दृष्टिकोण होगा। मित्र तथा शस्त्रु देशों के प्रति उनका द्वैधी भाव अर्थात् एक शासक के प्रति संधि तथा दूसरे के प्रति विग्रह की नीति रखेंगे । कौटिल्य का मानना है कि आग कभी कमजोर नहीं होती। एक चिंगारी दवानल बन जाती है। अतः मित्रों तथा शत्रुओं से समान रूप से सचेत रहें। विशेषतः छोटे शस्त्रु देशों को दुर्बल न समझें। सीमा से लगे राज्य अनन्तर प्रकृति शत्रु हैं।
अतः चाणक्य ऐसे राज्यों से समझौतों के ढकोसलों से बचेंगे। शिमला और लाहौर समझौता, जनमत संग्रह तथा राष्ट्रों के बीच रेलों- बसों के संचालन जैसे अस्थायी उपाय उनकी यर्थाथवादी पंसद नहीं होंगे, बल्कि पुख्ता संधि अथवा प्रगाढ मित्रता का भाव प्रमुख होगा।
इस हेतु, उनके सेतु होंगे मानवीय संबंध तथा बेटी-रोटी के रिश्ते। सिकंदर के सेनापति सेल्युकस के आक्रमण को विफल कर तथा उसे सीमा पार धकेलकर, कूटनीतिज्ञ कौटिल्य ने सम्राट चन्द्रगुप्त का विवाह सेल्युकस की बेटी से कर दिया था। इस तरह उन्होंने सीमावर्ती सेल्युकस के राज्य से अपने साम्राज्य की सीमाएं सुरक्षित करलीं।
फिलवक्त, अनन्तर प्रकृति शत्रु से सीमा विवाद हल करने के लिए आचार्य अवश्य ही इन देशों के प्रभावशाली स्त्री-पुरूषों को नातों-रिश्तों की डोर में अवश्य बांध देंगे। आजीवन ब्रहा्रचर्य- व्रत ठाने, सत्ताधारियों को भी कदाचित अपने कुंवारेपन की बलि देनी होगी।
महाबली देशों यथा अमरीका जैसों के प्रति गुरूदेव का दृष्टिकोण संभवतः ऐसा होगा- ' एरण्डंवलस्यम्व्य कुर्जरं न कोपयेत् अर्थात् अदृढ, अरंड के पेड़ का आसरा लेकर महाकाय हाथी को कुपित मत करो। ईरान तथा अगफानिस्तान पर हमले का कदाचित कौटिल्य समर्थन ही करते।
अर्थशास्त्र के जनक, आचार्य चाणक्य के प्रधानमंत्रित्व काल में भारतदेश की कर, कानून और न्याय की व्यवस्था क्या गति होगी? आइये विचारते हैःं-
आचार्य प्रवर, त्वरित न्याय के हामी तथा कानून और व्यवस्था को दृढता से लागू करने के पक्षधर हैं। वे लूट-खसोंट, तोड़फोड़ के कार्य को राष्ट्रद्रोह करार देते हैं। उत्कोच और अनुचित लाभ लेने वाले राजकर्मियों, स्वेच्छाचारी-व्यापारियों एवं थोथे-धर्म प्रचारकों को चाणक्य ने चोर संबोधित किया है। अपराधियों के अंगों पर अपराध सूचक सूचनाएं अंकित करना । यदि चिकित्सकीय भूल से रोगी किसी अंग से वंचित हो जाए तो चिकित्सक के उसी अंग को अलग कर देने जैसे विधान आचार्य ने अर्थशास्त्र में वर्णित किये हैं। ‘अपराधोनुरूपों दण्डः' की इस व्यवस्था को लागू करने पर, मानवाधिकार संगठन, यूनियनें और मीडियावाले आसमान सिर पर नहीं उठा लेंगे।
देश की अर्थ-व्यवस्था को सुदृढ करने के लिए कौटिल्य कर प्रणाली को भी मजबूत करना चाहेंगे। नीति कहती है कि जिस भांति माली उद्यान से पके पके फूलों का संग्रह करता है, शासकों को उसी प्रकार से कर वसूली करनी चाहिए, जिस भांति माली अपने उद्यान से पके पके फूल चुनता है। किन्तु काली कमाई के इस अंधे युग में, महामति कैसे पता लगायेंगे कि कौन पका और कौन कच्चा? कुएं में ही भांग घुली है, भन्ते। यह आप ही का सूत्र है- ' मत्स्या यथान्तः सलिले चरंतो ज्ञातुं न शक्या सलिलं पिबंत अर्थात् जल में निग्मन मछलियां , सरोवर का कितना पानी पी जाती हैं, इसका भान नहीं होता?‘
हे अमात्य!, मछलियां तो फिर भी कांटे में फंस जाती हैं, किन्तु उन मगरमच्छों से कैसे सुलटोगे, जो समूचा तालाब चट कर जाने की जुगत में हैं?
अतः, सुधारो इस देश को कृपानिधान।
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दुख का लेटेस्ट ''हैंग- ओवर''
'' इंसान संसार का सबसे दुखी प्राणी है '', यह यूनान की दार्शनिक सोच है। हमारे यहां नचिकेता ने कहा था कि मानव दुखी जीव नहीं है किन्तु छः स्थितियां उसके दुख का कारण होती हैं। ये अवस्थाएं हैं - मोह, शोक, जरा, क्षुधा, पिपासा और मृत्यु भय। स्वामी अद्वैतानंद ने भी दुख के छः प्रकार बताये थे-
कुग्रामवासः, कुलहीन सेवा, कु भोजनं, क्रोधमुखी च भार्या।
पुत्रस्य मूर्खः, विधवा च कन्या, वनाग्नि हं षट् निहनन्ति पाद्यः॥
अर्थात् कुख्यात ग्राम का वास, कुलहीन व्यक्ति की सेवा, कुभोजन, गुस्सैल पत्नी, मूर्ख पुत्र और विधवा कन्या। इस प्रकार का व्यक्ति सदा आशंकित और उत्पीडि़त ही रहता है।
मगर, वर्तमान काल में दुख के और कारण भी सम्मुख आये हैं। अब, आदमी अपनी वजह से नहीं वरन दूसरों की वजह से दुखी दिखाई देता है। उसके सहकर्मी, संबंधी और पड़ौसी सुखी क्यों हैं? यह पीड़ा उसे सालती है। उनकी सफलता, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा, उसे दुख प्रदान करती हैं। प्रतियोगी -भाव की जराग्नि में वह जला जाता है। फलां पड़ौसी के पास लक्जरी कार है । फलां सहकर्मी का बालक मंहगे पब्लिक स्कूल में पढकर अव्वल आ रहा है। ''वाऊ! व्हॉट ए मोबाइल ? यार, अपना वाला तो उसके सामने, बस डब्बा ही लगता है।‘‘ ''फलां की क्या कोठी है, क्या फार्म हाउस है?'' ‘‘ हाय, मार्व्लस फर्नीचर!'', आदि इत्यादि। अगरचे, अपने पास वैसा वैभव क्यों नहीं? दरअसल, आज का आदमी अपनी नहीं बल्कि दूसरों की जिन्दगी जीना चाहता है। यह दुख का लेटेस्ट 'हैंग-ओवर ' है।
किसी ने कहा था कि जिसने बुरे दिन नहीं देखे वह अच्छे दिनों में भी परेशान रहता है। एक संत का कथन है कि सुख से मोह मत रखो, उसके मस्तक पर पत्थर मारो और दुख को चंदन की भांति माथे पर मल लो।
भारतीय चिंतन एक बात और कहता है कि सुख तथा दुख से दो ही व्यक्ति अप्रभावित रहते हैं, एक तो परमयोगी और दूसरा वज्र- मूर्ख। संस्कृत की एक उक्ति है कि मूर्खः सुखं जीवति। गोकि दुखपूर्वक जीना, बुद्धिमता का परिचायक है। कबीर कहते थे कि सुखिया सब संसार है, खाबै अरू सोबै। दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोबै। अतः प्रतीत होता है कि इन्हीं सम्मतियों से सहमत होकर, अधिकांश जन दुख को शिरोधार्य कर चुके हैं और दुनियां दुख का दरिया बन गई है।
मेरे महकमे में दो नये बाबू भर्ती हुए हैं। पहला बाबू उच्च शिक्षित है और ऊंची नौकरी हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होकर, अंततः कर्ल्की हेतु सुयोग्य सिद्ध हुआ। उसकी काबिलियत का एक तुर्रा यह भी है कि वह कानून स्नातक है। नौकरी करने के कुछ माह बाद ही उसे अधिकारियों के आदेशों में अंदेशे नजर आने लगे। आशंकाएं और सुझाव उसकी जबान पर रहने लगे।
इससे उलट दूसरा नौजवान है, हाला नौकरी से संतुष्ट है। किसी भी कार्य की पालना अपनी क्षमता और निष्ठा से करता है। उसका सोच कुछ इस तरह है - ''मेरे पैरों में चुभ जाएगें, लेकिन इस राह के कांटे तो कम हो जाएगें।‘‘ पहलेवाला लिपिक उसकी संतुष्टि से भी दुखी है। यानी, जिसे दुखी रहना है, वह हर हाल में बिसूरता ही रहेगा।
यद्यपि , आत्मा को सुख और दुख की अनुभूति नहीं होती किन्तु जब तक जीवात्मा का वास, इस नश्वर काया में है, वह अवश्य ही संवेदित होती होगी। अतः इन आत्माओं का वर्गीकरण दो भागों में किया गया है - दुखी और सुखी। दुखी आत्मा, घरों-परिवारों, गलियों -मोहल्लों, नगरों - प्रांतों तथा देशों-विदेशों के घटित- अघटित से व्यथित हो उठती है। वहीं सुुखी आत्मा का फलसफा है कि हमारी फ्रिक से इन घटनाओं में क्या फर्क पड़ जाएगा? अतः मस्त रहो।
एक दफ्तर के वरिष्ठ बाबू, एक वैद्यराज के पास बार-बार अपना हाजमा खराब होने की शिकायत लेकर पहुंच जाते थे। वैद्यजी मुस्कराकर बोले, 'बडे़ बाबू उम्र का तकाजा है कि चाय कम पीओ और तली-भुनी वस्तुएं मत खाओ।''
बाबूजी फट पड़े, '' मैं एक समोसा-कचौडी़ क्या खा लेता हूं कि पेट भरा-भरा सा लगता है, खट्टी डकारें आने लगती हैं। शाम तक भूख ही नहीं लगती। उधर ऑफिस में अन्य कर्मचारी दिन भर, मुफ्त का उड़ाते रहते हैं। ''
एक दिन बड़े बाबू, एक कद्धावर सूअर को बड़े ध्यान से देख रहे थे। वह सूअर नाली में पड़े कचरे को, बड़ी बेसब्री से फफेड़ रहा था। संयोगवश वैद्यराज भी वहां से गुजरे। बाबूजी को टोका, '' बड़े बाबू! सूअर को इतने ध्यान से क्यों देख रहे हो?''
बाबूजी दुखी होकर बोले, '' इसे देखो। यह क्या क्या नहीं खाता है? मैं जब, सुबह दफ्तर जाने के लिए, यहां से निकला था, तब भी यह ऐसे ही टूट- टूट कर भकोसे जा रहा था और अब भी उतनी ही तल्लीनता से खा रहा है। कभी-कभी तो यह पॉलीथीन की थैलियां भी पचा जाता है, क्या इसका हाजमा कभी खराब नहीं होता? ''
वैद्यराज ने एक ठहाका मारा और बाबूजी को ये पंक्तियां सुनाकर चलते बने-
'' जुआ ,चोरी, मुखबिरी, घूस, भूख, पर -नार।
जो सुख चावै जीव को, ये छह वस्तु बिसार॥''
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बिन पढ़े घोटाला कथा, होवे न पूरण ज्ञान
संतों! आज, आपके लाभार्थ हम घोटाला कौतुक कथा लिखते हैं। जो भक्त इस कथा का नित्यप्रति अध्ययन और मनोयोगपूर्वक इसके परायण पर होंगे, उन्हें अवश्य ही मनवांछित फल की प्राप्ति होगी। अस्तु, जम्बूद्वीप के भरतखंड पर, जब से तहलका, दुर्योधन, चक्रव्यूह जैसे स्टिंग आपरेशन उद्घाटित हुए, हमें घोटालों के लाभ ही लाभ दृष्टगत होने लगे हैं। यदि काई हानि दिखाई देती है तो वह भी लाभ के तई गौण प्रतीत होती है।
सज्जनों ! भ्रष्टाचार का भाव मानव मन में निहित है। यह भाव पद और अधिकार से जुड़ा हुआ है। अतः राज-काज में रत् लोगों में यह भाव सदा रहा है। महामति चाणक्य इसे अनुभूत करते हुए लिखते हैं -
'' यथा हा्रना स्वादयितुं न शक्यं जिह्वातलस्थं मधु वा विषं।
वा अर्थस्तथा हा्रार्थचरेण राज्ञः स्वल्योपि अनास्वादयितुं न शक्यः॥
(अर्थशास्त्र त्र 2/10)
(जिस भांति जिव्हा पर रख्ो हुए मधु अथवा विषय को चखे बिना नहीं रहा जाता, उसी भांति अर्थ कार्यो में रत राज कर्मचारी धन का स्वाद स्वल्प भी न चखें, यह संभव नहीं )
भ्रष्ट आचरण के चालीस प्रकारों का उल्लेख करते हुए कौटिल्य लिखते हैं कि -
'' मत्स्या यथान्तः सलिले चरंतो ज्ञातुं न शक्याः सलिलं पिबंतः।
युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्याः धनमाददानाः॥
(अर्थशास्त्र त्र 2/11)
(अर्थात् मछली सरोवर में निवास करते हुए कितना जलपान कर जाती है? यह ज्ञात नहीं होता, उसी प्रकार राजकर्मियों के धन हरण का भान नहीं हो सकता) । कदाचित इसी कारण से अलाउद्धीन खिलजी और औरंगजेब जैसे कठोर शासक भी भ्रष्टाचार का समूल नाश नहीं कर सके।
भद्रजनों ! देश की आजादी के पश्चात् हम इस क्षेत्र में सम्पूर्ण स्वतंत्रता के साथ बढे हैं।
उदाहरण देखिये- जीप दलाली कांड (1948), सिराजुद्धीन प्रकरण (1956), नागरवाला कांड (1971), मारूति उद्योग प्रकरण (1975), इंडियन ऑयल तेल कांड(1980), अंतुले कांड (1982), बोफोर्स कांड (1986), हर्षद प्रतिभूति घोटाला (1992), झामुमो सांसद रिश्वत प्रकरण( 1993), चीनी घोटाला (1994), हवाला कांड (1995), आवास घोटाला (1995), दूरसंचार कांड (1995), चारा घोटाला (1995), लक्खूभाई प्रकरण ( 1996), यूरिया घोटाला (1996), औषधि घोटाला (1996), पुलिस वर्दी कांड (1996), अलकतरा घोटाला (1996), मेडीकल संयंत्र कांड (1996), तहलका कांड (2001) तथा हथियार खरीद कांड (2001), स्टाम्प घोटाला (2003), िस्ंटग आपरेशन (2005), थ्री जी घोटाला ;2011द्ध।
वर्ष 1996 को घोटाला वर्ष पुकारा गया। हम भी चाहते है कि प्रति वर्ष एक हफ्ता, भ्रष्ट सप्ताह के रूप में निरूपित किया जाए। इस दिन भ्रष्ट -कथाओं ,लीलाओं का पठन-पाठन हो। घोटाला-भजनों तथा चालीसों का कीर्तन हो। वर्ष के श्रेष्ठ भ्रष्ट पुरूष अथवा नारी का चयन कर, जन-अभिनन्दन किया जाए। बोलो, सच्चे दरबार की जाय।
सुध्ाीजनों ! अब, घोटाला लाभ कथा आरम्भ की जाती है। बारम्बार हो रहे घोटालों से हमें पहला लाभ तो यह हुआ कि हमें राष्ट्र स्तर का एक रस प्राप्त हुआ। पूर्व में हमारे पास राष्ट्रपिता, राष्ट्र-पक्षी, राष्ट्र-पशु, राष्ट्रगान, राष्ट्र-ध्वज इत्यादि थे, किन्तु राष्ट्र-रस न था। ऐसे सदाबहार, और मनोरंजक रस की आवश्यकता थी, जिसका आस्वादन संसद से लेकर घर-घर तक हो। परमपितापरमेश्वर की कृपा से हमें यह मिल गया। इसका आनन्द, हास्य की भांति है। और हम इस रस के रंजन में हम अपनी आपदा, भूख और बदहाली तक भूल जाते हैं।
अस्तु ! नीम न मीठी होय, सींचो चाहे गुड़-घी से गोकि हम सुधरेगें नहीं।
दूसरा लाभ- किसी भी बड़े कांड के उजागर होते ही राजनीतिबाजों में अद्भुत एकता स्थापित हो जाती है। एक धड़ा सम्पूर्ण एकता के साथ आरोपों का रोपण करता है, तो दूसरा एकीकृत पक्ष पूरी दृढता और दीढता से उन्हें नकारने का प्रयास करता है। यह देख हमें भाई इन्द्रजीत कौशिक की इन पंक्तियों का स्मरण हो जाता है -
'' आदर्श एकता कैसी, बेईमानों में होती वैसी। ''
तीसरा लाभ- ''भ्रष्टाचारी अधिक निर्भीक हुए''। पहले उत्कोच को तनिक संकोच के साथ मेज के नीचे और सतर्कता पूर्वक स्वीकारा जाता था। अब यह अधिकारिक हो गया है। लिये जाओ। डकारे जाओ। बिगड़ेगा कुछ नहीं। कभी पकड़े गये तो कवि कहता है - '' रिश्वत में गर पकड़ा जाये, छूट जा रिश्वत देकर।‘‘
चौथ लाभ-जनता- जर्नादन के सामान्य-ज्ञान में वृद्धि। बोफोर्स, सोफामा, लोटस, हवाला, कर्सन कैनपिना, फेयरग्रोथ बिग-बुल, बदला, वायदा, कारोबार, रेडीफरवार्ड िस्ंटग जैसे नवीन शब्दों की जानकारी। एक सूटकेस में अधिकतम कितने रूपये रखे जा सकते हैं जैसी पहेली बूझना। जासूसी- तंत्र कैसे नाकाम और खुफिया कैमरे कैसे कारगर होते हैं? ऐसा ज्ञानवर्धन, घोटालों के रहस्योदघाटनों से ही संभावित है।
प्रबल मांग के उपरान्त, संसद के पटल पर सार्वजनिक की गई बोहरा जांच समिति की रिपोर्ट बताती है कि गुंडों के संगठित गिरोह, मुल्क में एक समानांनतर सरकार चला रहे हैं। देश के कर्णधार उस रिपोर्ट को धुएँ में उड़ा देते हैं। चलिये, यह भी पता लगा। धन्यभाग हमारे।
पाठकों! विस्तार भय से, अब घोटालों, कांडों, भ्रष्टाचारों के कुछ प्रत्यक्ष वा परोक्ष लाभ हम संकेत स्वरूप लिखते हैःं- पत्रों-पत्रिकाओं को सनसनीखेज आमुख कथाएं तथा दृश्य-श्रव्य समाचार माध्यमों को चटखारेयुक्त खबरें मिलती है। जनप्रतिनिधियों को छवि- सुधारने अथवा बिगाड़ने के मौके मिलते हैं। हाशिये पर हो गये नेताओं को वक्तव्य झाड़ने के अवसर प्राप्त होते हैं। त्यागपत्र मांगने तथा देने का मौसम आ जाता है। डायरियां लिखने के खतरे पता लगते हैं। मांत्रिकों- तांत्रिकों की आ बनती है। रैली के आयोजन सक्रिय हो उठते हैं। बाजार-बंद कराने और लूट मचाने वाले अपनी आस्तीनें चढा लेते हैं। पुतला निर्माण उद्योग, लाउडस्पीकर, बैंड-बाजे, टेन्ट, वाहन-मालिकों, भाड़े की भीड़ के ठेकेदारों आदि का धंधा चल निकलता है। हथियारों के आपूर्तिकर्ता गतिशील हो उठते हैं। पुलिस-सेना को मशक्कत का मौका मिलता है।
जांच आयोग गठित होते हैं। न्यायाधीशों को रौब गॉफिल करने का अवसर प्राप्त होता है। वकीलों को काम मिलता है।
सुध्ाीजनों ! अब, हम घोटाला लाभ का एक दृष्टांत लिखकर इस कथा को विराम देते हैं- भारत वर्ष के एक भू-भाग में निवास कर रहे, वेतनभोगी चमन चन्द्र चक्रपाणि की कथा है यह । समय है, किसी वित्त वर्ष का अंतिम मास अर्थात् मार्च। यह माह आयकरदाता कर्मचारियों के लिए घोर विपत्ति वाला है। चमन चन्द्र भी उसी श्रेणी आते हैं वे अधिकतम निवेश करते हुए कर बचाना चाहते हैं। वे साठ हजार रूपये की राशि का निवेश कर चुके थे, दस हजार रूपये और करना चाहते थे। इस राशि को किसी बांड में लगाने की बाध्यता थी। उनकी दृष्टि एक विज्ञापन पर पड़ी। एक कम्पनी बांड जारी कर रही थी। उस बांड पर आयकर विभाग ने छूट की अनुमति दे दी थी। साख सर्वेक्षण करने वाली दो प्रतिष्ठित एजेंसियाँ, उस कम्पनी को श्रेष्ठतम दर्जा देकर निवेशक को उसकी राशि की सम्पूर्ण सुरक्षा का दावा कर रही थीं। बांड पर प्रदान की जाने वाली ब्याज दर बहुत आकर्षक थी। अस्तु, विज्ञप्ति कम्पनी ने यह भी उल्लेख किया था कि उसे निजी क्षेत्र में बैंक खोलने की सरकारी मंजूरी मिल चुकी है, अतएव, वह शीघ्र ही देश के प्रमुख नगरों में अपना बैंक स्थापित करने जा रही है।
इस प्रकार, चमन चन्द्र चक्रपाणि को उस कम्पनी में निवेश करना हितकर प्रतीत हुआ। उन्होंने बांड हेतु आवेदन पत्र भरकर, दस हजार की राशि का बैंक ड्राफ्ट लगा कर, अपने नगर में स्थित कम्पनी के शाखा कार्यालय में जाकर, जमा करा दिया और रसीद प्राप्त करली।
तीसरे दिन समाचार माध्यमों पर खबर थी कि उस कम्पनी का स्वामी अपनी सम्पत्ति तथा लाखों निवेशकों की राशि को समेटकर वायुयान से विदेश उड़ गया।
घबराकर, चमन चन्द्र उस कम्पनी के शाखा कार्यालय पहुंचे, वहां ताला लटका हुआ था। तत्पश्चात् चक्रपाणि बैंक पहुंचे। भाग निकलने की हडबड़ी में कम्पनी उस ड्राफ्ट का भुगतान लेना चूक गयी थी। अतः ड्राफ्ट का भुगतान शेष था। जारीकर्ता शाखा ने चमन चन्द्र चक्रपाणि के अनुरोध पर, भुगतान रोकने का अनुदेश भुगतानकर्ता शाखा को दे दिया।
छः माह पश्चात् उस ड्राफ्ट को निरस्त करवाकर, चक्रपाणि ने अपनी मूल राशि प्राप्त करली। दूसरी ओर, उन्होंने अपनी आयकर विवरणी में बांड की रसीद प्रस्तुत करते हुए, दो हजार रूपये की छूट का दावा पेश किया। आयकर विभाग ने यह छूट प्रदान कर दी। इस प्रकार चमन चन्द्र चक्रपाणि को, एक कम्पनी द्वारा किये गये घोटाले से शुद्धतः दो हजार का अर्थ लाभ प्राप्त हुआ।
संतो ! इस प्रसंग पर, व्यथित होने की किंचिंत आवश्यकता नहीं है। क्योंकि चमन चन्द्र एक छोटी मछली हैं, जिसने भ्रष्टाचार रूपी सागर का दो बूंद जल पी लिया है। जबकि, उसी सरोवर में ऐसे ऐसे मगरमच्छ निवास कर रहे हैं, जो समूचे जलाशय को उदरस्थ कर जाना चाह रहे हैं।
भक्तों ! यदि इस लेख को पढकर मन अशांत हो गया हो तो योगेन्द्र मोद्गिल के इस दोहे की दो माला का जाप तुरन्त कर लें-
‘‘ घोटालों को देखकर, होता क्यों हैरान?
भारत-भ्रष्टाचार की, राशि एक समान॥‘‘
ओम शांति․․․․․․․․․․․․․․․शांति․․․․․․․․․․․․․․․․शांति․․․․․․․․․․शांतिः․․․․․․․।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
भारत भूमि में आज कुछ भी सच कहो तो व्यंग्य बन जाता है ।
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