बाढ़-सूत्र ओम श्री इन्द्राय नमः। अथ श्री बाढ़ सूत्रम् ॥ 1 ॥ टीका : हे इन्द्र देवता, आपको नमस्कार है ! अब मैं बाढ़-सूत्र का शुभारम्...
बाढ़-सूत्र
ओम श्री इन्द्राय नमः।
अथ श्री बाढ़ सूत्रम् ॥ 1॥
टीका : हे इन्द्र देवता, आपको नमस्कार है ! अब मैं बाढ़-सूत्र का शुभारम्भ करता हूं।
प्र्थम शंका : बाढ़-जैसे अशुभ कार्य को शुभारंभ क्यों कहा गया ?
निवारण : बड़े भोले हो वत्स ! सरकारी अफसरों की ओर देखो, जिनके लिए-बिना बुलाए तीज और दीपावली एक साथ आ गयी है। देखो वो अफसर-पत्नी बेबी को क्या कह रही है-‘‘बेबी, यू सी इट इज फ्लड !''
‘‘ओह ममी, रियली वेरी फनी !''
बाढ़ क्षेत्रे-आर्यावर्ते समवेता युयुत्सवः।
नर-नारी किम् कुर्वन्ते॥ 2॥
टीका : बाढ़ का क्षेत्र सम्पूर्ण जम्बूद्धीप उर्फ आर्यावर्त दैट इज भारत है। ऐसा शास्त्रकारों का कहना है। नर-नारी बाढ़ में क्या कर रहे हैं ?
अनुशंका : बाढ़ में फंसे हुए मनुष्य क्या कर रहे हैं ?
निवारण : बेचारे कर ही क्या सकते हैं ! भारतीय वायु-सेना के हेलीकॉप्टरों का इंतजार करते हैं। पेड़ पर लटक जाते हैं। अपने बहते बच्चों और नष्ट हुए घरों को देख रहे हैं। जो ज्यादा होशियार हैं, वे लाशों के कानों-हाथों से आभूषण उतार रहे हैं, या सम्पूर्ण हाथ, कान और नाक ही काट रहे हैं।
प्रतिशंका : क्या तुम ठीक कह रहे हो ?
प्रतिनिवारण : यह शंका व्यर्थ है ! मेरे ही सामने, गलताजी, अमानीशाह के नाले आदि क्षेत्रों में इन मानवता के हत्यारों ने लाशों के कपड़े तक उतार लिये।
जटाधारी, कृशकाया, विक्षिप्त मनः।
जीर्ण वस्त्राणि अश्रु-नयनं पीडि़तः इति लक्षणाः 1। 3॥
टीका : बाल बढ़े हुए, मरियल, अर्ध-विक्षिप्त तथा आंखों में आंसू व जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों वाला ही बाढ़-पीडि़त होता है।
कुशंका : बाढ़-पीडि़त की ऐसी हालत कैसे होती है ?
निवारण : लगता है, कभी बाढ़-पीडि़त नहीं हुए हो ! खुदा न करे, यह कहर कभी तुम पर पड़े। अगर पड़ गया तो इस श्लोक का अर्थ तुम्हारी सात पीढि़यां भी समझ जाएंगी।
बाढ़ काले, मृत्यु काले।
सरकारः किम कुर्वति ॥ 4॥
बाढ़ : बाढ़ का समय दुःख और मौत के आतंक का होता है, चारों तरफ हाहाकार मच जाता है। ऐसे दुर्दान्त समय में सरकार क्या करती है ?
निवारण : सरकारी बेचारी क्या कर सकती है ! यदि सड़कें पुलिया और पुल टुट जाते हैं, तो प्रशासन कोई हवा में उड़कर मदद थोड़े ही कर सकता है। अतः प्रशासन चुपचाप सड़क जुड़ जाने का इन्तजार करता है।․․․․․․․वैसे इस बार सरकार दिल्ली में मंत्री-परिषद बना रही थी, और हमारा गुलाबी शहर बाढ़ में डूबता-उतराता फिर रहा था। भला हो विद्याधर का, जिसने पुराने शहर को बनाकर नये अभियन्ताओं के कान काट दिए।
बाढ़ काले मर्यादा नास्ति॥ 5॥
टीका : बाढ़ के समय किसी मर्यादा का निर्वाह नहीं होता।
अतिलघुशंका : तो फिर क्या किया जाता है ?
निवारण : जहां भी स्थान मिले, जो भी खाने को मिले, खाकर गुजारा करना पड़ता है।
प्रतिशंका : क्या बीमारियां भी फैलती हैं ?
प्रतिनिवारण : बीमारियां तो बाढ़ और अकाल के साथ-साथ चलती हैं। लेकिन स्वास्थ्य-विभाग यदि कर्मठ हो तो बीमारियां कुछ नहीं कर पातीं। हमारे आर्यावर्त में अभी ऐसा नहीं होता।
संस्था शरणम् गच्छामि,
कलक्टर शरणम् गच्छामि,
नेता शरणम् गच्छामि ॥ 6॥
टीका : बाढ़ के समय स्वयंसेवी संस्थाओं, जिलाधीशों तथा नेताओं की शरण में जाना चाहिए ।
व्यर्थ शंका : बाढ़ में जिलाधीश और नेताओं की शरण में क्यों जाना पड़ता है ?
निवारण : बाढ़-पीडि़त का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए जिलाधीश व नेताओं की मदद आवश्यक है। और वास्तव में असली बाढ़-पीडि़त तो बेचारा यह प्रमाण-पत्र प्राप्त भी नहीं कर पाता है।
प्रतिशंका : असली बाढ़-पीडि़तों को प्रमाण-पत्र क्यों नहीं मिल पाते ?
प्रतिनिवारण : हमारे देश में एक चीज पायी जाती है, जिसे भ्रष्टाचार कहते हैं, और भ्रष्टाचार-प्रधान देश में ऐसा ही होता है !
बाढ़ं हि देशस्य महान् रिपुः ॥ 7॥
टीका : बाढ़ ही देश का सबसे बड़ा शत्रु है।
पुनः शंका : सो कैसे महाराज ?
निवारण : वत्स ! बाढ़ से प्रति वर्ष अरबों रुपयों का नुकसान होता है। राजस्थान का ही उदाहरण लो, इस बार की बाढ़ से एक हजार करोड़ का नुकसान हुआ-जबकि छठी योजना ही कुल छः सौ करोड़ की है। अतः अर्थशास्त्र के सिद्धान्त से सिद्ध हुआ कि बाढ़ इस देश का सबसे बड़ा शत्रु है।
बाढ़ः सरकारस्य शिरः शूलं वर्तते॥ 8॥
टीका : बाढ़ें सरकार के लिए सिरदर्द हैं।
बालशंका : इस सिरदर्द को दूर करने के क्या उपाय हैं, महाराज ?
निवारण : उपाय तो कई हैं, लेकिन सरकार करे तब तो ! कई बार उपाय करने वाले ही बाढ़ में बह जाते हैं, और अक्सर ऐसी बाढ़ें राजनीतिक होती हैं। बन्धु कुछ तो स्वयं समझो।
बाढ़स्य चरित्रम अकालस्य भाग्यम्,
दैवो न जाने, कुतो व्यंग्यकारम् ॥ 9॥
टीका : बाढ़ का चरित्र और अकाल का भाग्य तो देवता भी नहीं जान सकते, बेचारा व्यंग्यकार क्या जानेगा !
दीर्घशंका : बाढ़ के चरित्र का विस्तार से वर्णन करें।
निवारण : वत्स, बाढ़ और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है। वैसे भी दोनों व्याकरण की दृष्टि से स्त्रीलिंग ही हैं, अतः इनके चरित्र का भगवान ही मालिक है ! जिस तरह युवा स्त्री कहीं भी, कभी भी भाग सकती है; ठीक उसी प्रकार बाढ़ भी यौवन के उफान को पाकर कभी भी, कहीं भी आ सकती है। एक-दो घन्टे की बाढ़ हजारों वर्षों के बने शहरों को नष्ट कर देती है। चाहो तो जयपुर शहर के चारों बने नये नालों को देख लो-लगता है, जैसे नये चम्बल के खार बन गए हैं।
नरो नरस्य भक्षणम् ॥ 10॥
टीका : बाढ़ में नर ही नर को खा जाता है।
अनंत शंका : क्या गिद्ध नहीं होते ?
निवारण : बाढ़ के इस कुसमय में मनुष्य का आचरण भी गिद्ध-जैसा ही हो जाता है, अतः नर ही नर को खाता है, नोचता-खसोटता है, लूटता है। मानवता के सेवक एक कप चाय पांच रुपये में बेचते हैं।
यो भजंते मानवाः बाढ़-सूत्रम्।
ते भवंति सुरक्षिताः बाढ़ात् ॥ 11॥
टीका : जो व्यक्ति इन सूत्रों का पारायण नियमित करेगा, वह बाढ़ से हमेशा सुरक्षित रहेगा।
इति श्री बाढ़-सूत्रम् ॥ 12॥
टीका : अब मैं बाढ़-सूत्र का समापन करता हूं।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर-302002 फोनः-2670596
Ak achha vyangy.
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