हिन्दी साहित्य में जब-जब नवगीत की संवेदना और युगीन संदर्भों के साथ-साथ भाषागत सहजता व आंचलिक मिठास की चर्चा होती है , हिन्दी नवगीत के...
हिन्दी साहित्य में जब-जब नवगीत की संवेदना और युगीन संदर्भों के साथ-साथ भाषागत सहजता व आंचलिक मिठास की चर्चा होती है, हिन्दी नवगीत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के सृजनात्मक उल्लेख के बिना न तो वह पूर्ण होती है और ना ही उस चर्चा का कोई महत्व रहता है । हिन्दी नवगीत के वह महत्वपूर्ण और अद्वितीय हस्ताक्षर श्री माहेश्वर तिवारी हैं । 22 जुलाई 1939 को बस्ती (उ․प्र․) में जन्मना श्री तिवारी की अब तक 4 नवगीत कृतियों - ‘हरसिंगार कोई तो हो' , ‘नदी का अकेलापन', ‘सच की कोई शर्त नहीं' और ‘फूल आए हैं कनेरों में' के अतिरिक्त नवगीत की कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं । नवगीत के संदर्भ में श्री तिवारी से महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बातचीत की युवा गीतकवि योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम' ने -
व्योम ः आप नवगीत का आरम्भ कहाँ से मानते हैं, महाप्राण निराला से या उससे भी पहले ?
मा․ति․ ः नवगीत की पहली आहट निराला के गीतों में ही मिलती है । गीत की नई भाषा और शिल्प की नई बुनावट सबसे पहले महाप्राण निराला में ही मिलती है । यह ध्यान देने की बात है कि गीत ही नहीं, प्रयोगवादी और कालान्तर में नई कविता के नाम से अभिहित समकालीन कविता के प्रथम प्रयोक्ता भी निराला ही हैं । कुछ लोग नवगीत का आरंभ छठे दशक से मानने के आग्रही हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा को उत्त्ारकाशी या उससे आगे मानने की अपेक्षा गंगोत्री से ही माना जाना चाहिए क्योंकि गंगोत्री से निकलने के पश्चात गंगा भागीरथी, अलकनंदा आदि नामों से जगह-जगह जानी जाती है लेकिन उत्स तो गंगोत्री ही है, उसी तरह निराला को नवगीत का प्रथम पुरुष माना जाना चाहिए । डॉ․ शम्भूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र जैसे नवगीत कवि निराला को ही नवगीत का पुरोधा मानने के आग्रही रहे हैं । नवगीत शब्द का पहली बार प्रयोग राजेन्द्रप्रसाद सिंह ने स्वयं द्वारा संपादित गीत संकलन ‘गीतांगिनी' की भूमिका में लिखित रूप से किया लेकिन वह भी इसके प्रथमपुरुष नहीं स्वीकारे जा सकते हैं । इस सारे विमर्श के बाद निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नवगीत का आरंभ निराला से ही हुआ । अपनी प्रसिद्ध सरस्वती वंदना में निराला ने ही ‘नवगति, नवलय, ताल, छंद नव' की बात का सबसे पहले उन्होंने ही उद्घोष किया ।
व्योम ः कहा जाता है कि नवगीत यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा है तथा उसमें व्यवस्था विरोध के साथ-साथ वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के विरुद्ध स्वर भी मुखर हुए हैं लेकिन भविष्य के गर्भ में झाँकने की कोशिशें नवगीत में उतनी नहीं हुईं, क्यों ?
मा․ति․ ः कोई भी रचना अपनी समकालीनता से जुड़ी होती है । वह अपने समय के यथार्थ को ही अभिव्यक्ति देती है । वह निष्कर्ष नहीं देती, वर्तमान की विसंगतियों, त्रासदियों को अपनी अंतर्वस्तु में शामिल कर पाठकों को भविष्य के संकेत देती है । सौन्दर्यशास्त्र के नए मानक गढ़ती है । सामाजिक बदलावों की ज़रूरतों की ओर प्रच्छन्न संकेत करती है । इससे आगे सोचना उसके पाठकों और उसके समाज का दायित्व बनता है । यह सभी बड़े रचनाकार और उनका सृजन करता है । गीत महाकाव्य नहीं है कि उससे भविष्य के संकेत ढूँढे जाएँ। वैश्वीकरण और बढ़ते बाज़ारवाद के ख़्ातरों की ओर वह इंगित करता है । इससे बचाव और विकलपों की तलाश उसका काम नहीं है । जब भारतेन्दु हरिश्चंद्र ‘आओ सब मिलकर रोबहु भाई/हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई' या निराला की ‘राम की शक्तिपूजा' में जो अंतर्वस्तु है वह सिर्फ अपने समय को ही अपनी अभिव्यक्ति में समेटती है, भविष्य की ओर संकेत दूसरी तरह की कविताओं में ढूँढा जा सकता है, गीत में नहीं ।
व्योम ः नवगीत को केन्द्र में रखकर काफी काम हुआ है, नवगीत दशक श्रृंखला,
नवगीत और उसका युगबोध, शब्दपदी, धार पर हम आदि समवेत पुस्तकें
प्रकाशित हुईं किन्तु नवगीत का सर्वमान्य एक पारिभाषिक चित्र प्रस्तुत करने के
स्थान पर भ्रामक स्थितियाँ ज़रूर बनीं, आप क्या मानते हैं ?
मा․ति․ ः नवगीत को केन्द्र में रखकर नवगीत दशकों के बाद में आए कई समवेत संकलनों, जिनका जि़क्र आपने किया है उससे भी पहले बासंती, रश्मि, कविता-64, वातायन अंतराल, सांध्य मित्रा, नवगीत जैसी पत्रिकाओं के नवगीत विशेषांकों ने नवगीत को लेकर काफी काम किया। नवगीत की चर्चा करने वाले अक्सर इन महत्वपूर्ण प्रयासों को भूल जाते हैं या उनकी अनदेखी कर देते हैं । कालान्तर में आए पाँच जोड़ बाँसुरी, गीत जैसे समवेत संकलनों की ओर पता नहीं किन कारणों से उनका ध्यान नहीं जाता । विगत वर्षों में इस दिशा में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप दिनेश सिंह के संपादन में आई पत्रिका ‘नए-पुराने' ने किया । रचना और विमर्श दोनों दृष्टियों से नए-पुराने के अंक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन गए । आप जिस तरह की अपेक्षा करते हैं उसके लिए नवगीत का ‘गोल्डन-ट्रेज़री' जैसा कोई संकलन आए तभी काम हो सकता है । नवगीत दशक, नवगीत अर्द्धशती, शब्दपदी, धार पर हम, नवगीत सप्तक आदि की सीमाओं और उनके संपादकों की निजी पसंद-नापसंद तथा नवगीत संबंधी संपादक की निजी अवधारणाएँ, रचनाकारों की आपसी टालमटोल आदि कई कारक हैं जो नवगीत को समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में बाधक बनते हैं । दूसरी बात यह कि नवगीत गतिशील रचनाकर्म है, नित नए रचनाकार उसकी भूमि में प्रवेश करते हैं फिर उन सबको समेटना एक तटस्थतापूर्ण कठिन श्रम और भारी आर्थिक प्रबंधन की माँग करता है । क्या यह उन लोगों से संभव है जो स्वयँ अपने प्रस्तोता हैं और इस बात के आग्रही कि जो है वह उन्हीं से माना जाना चाहिए तथा उसके आगे-पीछे का सब व्यर्थ है । पिछले दिनों इसी तरह की आत्मकेन्द्रित घोषणा देश की राजधानी से भी हुई है । ऐसा कार्य या तो दुराग्रहपूर्ण होता है या अल्पज्ञान का प्रतीक । दिल्ली का वैसे भी स्वभाव रहा है कि वह सिर्फ अपने को ही देखती है और मानती है कि वही पूरे देश को देख रही है ।
व्योम ः ज़रा पलटकर गुज़रे वक़्त पर नज़र डालें, अपने गीतों के कारण निराला से
लेकर बच्चन, नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, नीरज, भारत भूषण, सोम ठाकुर आदि ने
काफी लोकप्रियता अर्जित की और उनके गीत लोगों के दिलो-दिमाग़ पर छाए
ही नहीं, बस गए जबकि नवगीत के संदर्भ में ऐसा नहीं हो सका, नवगीत
पठनीय तो अधिक रहे किन्तु गुनगुनाए कम गए, इसके पीछे आप किन कारणों
को जि़म्मेदार मानते हैं ?
मा․ति․ ः देखिए, लोकप्रियता एक अलग विषय है । कोई रचना लोकप्रिय होने से ही बढि़या नहीं हो जाती और उसकी अपेक्षा कम लोकप्रिय रचना को भी सिर्फ इसलिए नहीं नकारा जाना चाहिए कि वह कुछ की अपेक्षा कम लोकप्रिय रही । यह सवाल किसी भी प्रकार के लेखन की पड़ताल करें तो पता चल सकता है । कहानी, उपन्यास आदि की दिशा में प्रेमचंद्र कितने लोगों तक पहुँचे । ‘मैला आँचल' के बाद फणीश्वरनाथ रेणु की और भी कृतियाँ आईं लेकिन क्या वे उसी तरह व्यापक स्वीकार्य की सीमा में शामिल हो सकीं जैसे ‘मैला आँचल' । निराला की लोकप्रियता कितनी है जिनकी तुलना में अन्य लोगों के नाम का उल्लेख आपने किया है । डॉ․ शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र आदि जैसे कुछ नवगीत कवि रहे हैं जिन्होंने लोकप्रियता की परिधि में सार्थक उपस्थिति दज़र् की । आपने जो नाम गिनाए हैं उनमें कितने हैं जो नवगीत से जुड़े हैं । वे क्या लिखते हैं और मंच पर क्या प्रस्तुत करते हैं इसकी भी जाँच परख होनी चाहिए । उनकी लोकप्रियता के पीछे मंच पर उनकी प्रस्तुतिकला भी एक महत्वपूर्ण कारक होती है । रचना की गुणवत्ता का उसमें बहुत बड़ा हाथ नहीं होता । आज मंच पर ऐसे बहुत से कवि हैं जो लोकप्रियता में इनमें से किसी से कम नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएँ सृजनात्मकता के धरातल पर कहाँ ठहरती हैं ? कविता के ग्रहण के लिए पाठक या श्रोता में कुछ संस्कारों की आवश्यकता होती है । वास्तविकता यह है कि आज समाज में उसी संस्कार की कमी होती जा रही है । नवगीत पढ़े भी गए हैं और गुनगुनाए भी जाते रहे हैं, यह अलग बात है कि वे गाए कम गुनगुनाए अधिक गए ।
व्योम ः नवगीत को पूर्व में नया गीत आदि-आदि नामों से पुकारा गया, आज भी ‘गीत
नवांतर' शब्द को ‘नवगीत' की तुलना में अधिक प्रभावी बताया जा रहा है ।
पचास वर्षों से भी अधिक यात्रा करने के बाबजूद नाम का संकट आज भी
अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है,आपको क्या लगता है ?
मा․ति․ ः यह संकट नवगीत का नहीं है । नवगीत की परिधि से छूटे या खिसकाए गए कुछ लोग उसे नए-नए नाम देकर जुलूस में शामिल होना चाहते हैं । मैंने भी सहज गीत की चर्चा की है लेकिन वह गीत की संप्रेषणीयता से जुड़ा है । नई कविता के गीत, नए गीत आदि नाम उस समय गीत में आए बदलाव की ओर संकेत करते हैं । वे संज्ञाएँ नहीं हैं, विशेषण हैं उस समय की रचनाओं को रेखांकित करने वाले । अब नामकरण का एक सिलसिला बन गया है और किसी के विरुद्ध अध्यादेश तो लाया नहीं जा सकता । यह तो रचना और विचार का लोकतंत्र है । हाँ, यह ध्यान देने की बात है कि लोकतंत्र की भी एक मर्यादा होती है, वह भीड़तंत्र नहीं है और ना ही अराजकता या तानाशाही । नवगीत के बाद गीत के अग्रिम चरण का एक ही सार्थक नाम है जन-पक्षधरता या जनबोध की ओर उन्मुख जनवादी गीत । ध्यान देने की बात है कि नवगीत का यह प्रस्थानक वैचारिकता और रचना की समाजोन्मुखता से लैस है । यह किसी की निजी उद्घोषणा नहीं, बरन जन-पक्षधरता की चिंतनशीलता और रचनाकर्म के अभिप्रेय से जुड़ा है ।
व्योम ः आपकी चार नवगीत कृतियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं और कई पांडुलिपियाँ
प्रकाशन की बाट जोह रही हैं, उक्त के अतिरिक्त आप द्वारा गद्य में भी आलेख
आदि के रूप में पर्याप्त मात्रा में महत्वपूर्ण सृजन किया गया है, कृतियों के
प्रकाशन की आगामी योजना क्या है ?
मा․ति․ ः कविता संकलनों के प्रकाशन की स्थिति कभी भी सुखद नहीं रही । दुलारेलाल भार्गव जो निराला जी की कृतियों के एक प्रमुख प्रकाशक भी रहे, वे स्वयँ भी एक कवि थे लेकिन निराला जी का अनुभव उनके साथ भी बहुत सुखद नहीं रहा । प्रकाशन एक लम्बा चौड़ा व्यवसाय बन गया है । कोई अपनी कृति प्रकाशित कराना चाहता है तो उसे अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है । अगर कोई निजी तौर पर अपना संकलन छपवाता है तो उसके सामने व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचाने कोई तंत्र नहीं होता, फलतः अधिकांश पुस्तकें लोकार्पण में और मुफ़्त में बँट जाती हैं और बची हुई पुस्तकें कमरे का एक कोना घेरकर पड़ी निरीह भाव से ताकती रहती हैं । ऐसे में आगामी प्रकाशनों के विषय में क्या आश्वस्ति पाल सकता हूँ । हाँ, यह अवश्य है कि प्रकाशन का सुयोग मिला तो पहले मैं अपने शेष गीत संग्रहों को प्राथमिकता दूँगा । गद्य का प्रकाशन बाद में होगा या नहीं भी होगा तो मुझे कोई चिंता नहीं है । मेरा काम है लेखन, वह बना रहेगा सिर्फ इस संबंध में विश्वासपूर्ण आश्वस्ति सौंप सकता हूँ ।
व्योम ः क्या आप मानते हैं कि गीत-नवगीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से
लामबंद है, यदि हाँ तो कृपया बताएँ कि हिंदी साहित्य पर इसके क्या-क्या
प्रभाव पड़ने की संभावना है?
मा․ति․ ः गीत-नवगीत तो एक बहाना है, पूरे छांदसिक लेखन के बरख़िलाफ़ एक मोर्चा दशकों पहले से लामबंद है । वह कभी धीमा पड़ जाता है और कभी तेज़ हो जाता है । कविता में इस तरह का विभाजन अंततः कविता के ही विरुद्ध जाता है और उसी को क्षतिग्रस्त करता है । नवगीत में ऐसे कई लोग जो सिर्फ कविता और अच्छी कविता के ही प्रशंसक हैं फिर वह किसी भी फॉर्म में हो लेकिन दूसरा वर्ग केवल छांदसिक रचनाओं को गरियाने या धकियाने में ही रुचि रखता है । अरुण कमल की मैं प्रशंसा करता हूँ जिन्होंने अपने एक साक्षात्कार में पिछले दिनों यह कहा कि हिंदी छंदों का मुझे ज्ञान नहीं है और मैं तो उन्हें ठीक से (लय के साथ) पढ़ भी नहीं सकता । कभी इसी तरह अपने एक साक्षात्कार में शमशेर बहादुर सिंह ने कहा था कि रचना में अगर छंद हो और वह अभिव्यक्ति को किसी तरह वाधित न करे तो वह सोने में सुहागा जैसा होगा । बात साफ है कि रचना महत्वपूर्ण है, फॉर्म उसे और अधिक ग्राह्य और सम्प्रेषणीय बनाता है । छांदसिक कविता को इसी दृष्टि से जाँचा परखा जाना चाहिए । सिर्फ छंद में होने से ही कोई कविता, कविता के संसार से बहिष्कृत नहीं की जानी चाहिए ठीक उसी तरह जैसे मुक्तछंद में होने पर कोई कविता, कविता के लोक की नागरिक नहीं बन सकती । ऐसा होगा तो भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, धर्मवीर भारती आदि जैसे असंख्य कवियों की रचनाओं के प्रति एक अंधदृष्टि ही काम करेगी । क्या राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, वीरेन डंगवाल, नरेन्द्र जैन आदि को मैं इसलिए पढ़ना छोड़ दूँ या उन्हें कवि ही मानना छोड़ दूँ कि वे मुक्तछंद में लिखते हैं । ऐसी दृष्टियाँ संकीर्णता की परिचायक हैं, रचना के संसार में इनके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए ।
व्योम ः जहाँ कुछ गीतकवियों की रचनाओं में अभिनव प्रयोग के नाम पर अपरिचित
प्रतीकों के साथ-साथ दुरूह शब्दावली का प्रयोग मिलता है, वहीं अनेक गीत
कवियों द्वारा अपनी रचनाओं को नवगीत का नाम देकर सपाटबयानी को परोसा
जा रहा है, आपको क्या लगता है ?
मा․ति․ ः प्रयोगशीलता का स्वागत होना चाहिए । वह रचनाकर्म के निरंतर विकास की परिचायक है लेकिन भाषा और अन्यान्य प्रयोगों से अगर सम्प्रेषणीयता वाधित होती है तो सह उचित नहीं है । रचनाकर्म दो तरह का होता है - स्वतः स्फूर्त और द्राविण प्राणायाम से ग्रसित । अगर रचना स्वतः स्फूर्त नहीं है और आप सृजन की अपेक्षा सृजन को उत्पादन में ढालने की कोशिश करते हैं वह रचनाकर्म से छिटककर अलग हो जाता है । कभी एक मध्यकालीन हिंदी कवि ने लिखा था - ‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत/ मोहि तो मेरे कवित्त बनावत' । शायद इस तरह के लोग पहले भी रहे हैं तभी तो कवि को यह लिखना पड़ा । सपाटबयानी अगर कविता में ढलकर आए तो वह कविता ही होगी । सरलता और सपाटबयानी दोनों अलग-अलग हैं । जब शैलेन्द्र लिखते हैं - ‘तू जि़न्दा है तो जि़न्दगी की जीत पर यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर' तो यह सपाटबयानी नहीं है, यह एक ऐसी रचना है जो करोड़ों लोगों को प्रेरित करती है । सपाट गद्य तो हो सकता है कविता नहीं ।
व्योम ः आजकल एक नया प्रयोग प्रचलन में है कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़लें और उर्दू
के रचनाकार गीत लिख रहे हैं, परिणामतः शिल्पदोश का खतरा दोनों ही ओर
उत्पन्न हो रहा है, आपका मत क्या है ?
मा․ति․ ः हिंदी और उर्दू दोनों भारतीय ज़मीन की उपज हैं, इनमें परस्पर लेन-देन, प्रभाव ग्रहण स्वीकार्य होना चाहिए । उर्दू में जो गीत लिखे जा रहे हैं उनकी अंतर्वस्तु काफी पीछे की है। उनमें समकालीन यथार्थ नहीं है । हिंदी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़लों में छांदसिक त्रुटियाँ ढूँढी जा सकती हैं लेकिन काफी हद तक उनमें सुधार आया है, फिर भी पूर्णतः दोषमुक्त होने में उसे अभी समय लगेगा । उर्दू गीत को समकालीन गीत के बरक्श खड़ा होना पड़ेगा । यह असंभव भी नहीं है, सिर्फ गीत लेखन को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।
व्योम ः हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में आपका विशद अध्ययन है । वर्तमान में
कहानी, उपन्यास, लघुकथा आदि को विमर्श के खांचों में फिट किया जा रहा
है, जैसे अमुक कहानी स्त्री-विमर्श पर है या दलित-विमर्श पर केन्द्रित है ।
विमर्श के नाम पर इस तरह के बँटवारे से आप कितना और क्यों सहमत या
असहमत हैं, क्या गीत-नवगीत के संदर्भ में भी ऐसे प्रयोग की आशंकाएँ हैं ?
मा․ति․ ः विमर्श समकालीन लेखन को समझने की एक नई कोशिश है । फिर वह चाहे दलित लेखन हो या स्त्री विमर्श, होना यह चाहिये कि उन्हें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जाँचा परखा जाये । रचनाशीलता के पैमाने पर वह कितना कलात्मक है, यह जाँचना पहले जरूरी है । फिर उसमें जो विचार उपजते हैं उनकी पैमाइश की जानी चाहिये । आज जब दशकों में बाँटकर साहित्य की पड़ताल की जा रही है तो ये विमर्श भी उसी में आते हैं । अभी इनसे जुड़े रचनाकारों में स्वीकार्यता का संकट है, उससे मुक्त हो जायेंगे तो सब सामान्य लगेगा । गीत-नवगीत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं, वह आम आदमी, शोशित-पीडि़त जन का पक्षधर है जिसमें दलित भी हैं और स्त्री भी । गीत जोड़ता है खानाबंदी में विश्वास नहीं करता । गीत अपनेआप में जनकाव्य है, उसमें सामंत, शोषक, उत्पीड़क आ भी नहीं सकते।
व्योम ः वरिष्ठ रचनाकार श्री ज़हीर कुरैशी, सूर्यभानु गुप्त जैसे अनेक महत्वपूर्ण
गीत-नवगीत कवि बाद में ग़ज़ल, कहानी, समीक्षा के क्षेत्र में चले गए और
वापस नहीं लौटे, आपकी दृष्टि में इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं ?
मा․ति․ ः मैं इसे सकारात्मक रूप में लेता हूँ । हर रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए फॉर्म की तलाश करता रहता है और जब वह उसे मिल जाता है तो उसी में रम जाता है । यही दुष्यंत कुमार ने ‘साये में धूप' की रचनाओं तक पहुँचने में किया । शलभ श्रीराम सिंह, नरेश सक्सेना, सूर्यभानु गुप्त आदि सबने यह किया है । अभिव्यक्ति के दबाव के कारण ही तो उपन्यास, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का जन्म हुआ । जिस फॉर्म में जो सहज महसूस करता है उसे ही अंततः अपना लेता है । गीत लेखन वैसे भी कठिन साधना और लम्बे धैर्य की माँग करता है । संभव है कि कुछ लोग उससे बचते हुए अपेक्षाकृत कम साधना वाले पथ अपनाते होंगे । वैसे ज़हीर कुरैशी ने अपनी ग़ज़लों और दोहों में और इसी तरह सूर्यभानु गुप्त ने जो दोहे और ग़ज़लें लिखी हैं, उनमें नवगीत झाँकता दिख जाएगा अगर ग़ौर से देखें तो । कैलाष गौतम, यश मालवीय, विनय मिश्र ने भी तो सही किया है, इन सबमें नवगीत उपस्थित है । हाँ, कुछ लोग अवश्य हैं जो गीत से मुक्त होकर पूरी तरह ग़ज़लियत में समा गए ।
व्योम ः नवगीत के क्षेत्र में श्रीमति षांति सुमन, डॉ․ यशोधरा राठौर, राजकुमारी ‘रश्मि',
मधु शुक्ला आदि कुछ ही गिनी-चुनी महिलाओं ने अपना सम्मानजनक स्थान
बनाया है, क्या कारण रहे कि नवगीत सृजन में महिला रचनाकारों की संख्या
पुरुषों की तुलना में काफी कम रही ?
मा․ति․ ः हिंदी साहित्य में, विशेष रूप से कविता के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति पुरुशों की अपेक्षा कम रही है । पुराने साहित्य में भी हमें मीरा, सहजोबाई, आलम जैसे कुछ ही नाम मिलते हैं । आधुनिक काल में भी तारापंत, महादेवी वर्मा, तोरनदेव लली, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, शकुन्तला सिरौठिया, स्नेह लता स्नेह जैसी अल्प संख्या में ही महिलाएं सक्रिय रही हैं । हाँ, गद्य में अवश्य यह संख्या बढ़ी है । इसलिये नवगीत में डॉ0 शांति सुमन, डॉ0 यशोधरा राठौर, राजकुमारी रश्मि, मधु शुक्ला जैसे यदि कुछ नाम ही उभरकर सामने आये तो चिन्ता की बात नहीं है । इनका लेखन अपने समकालीन पुरुष रचनाकारों के समानान्तर किस मज़बूती से खड़ा है, यह विचारणीय है । गीत घर से बाहर निकलकर ही लोगों के जीवन, अपने समकालीन समय को ठीक से जानने बूझने के बाद ही लिखा जा सकता है । गीत लेखन वातानुकूलित कमरों, सजे-धजे ड्राइंग रूमों, प्रभावशाली अध्ययन कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता । अपने गृहस्थ जीवन के दायित्वों को निभाते हुए एक आम भारतीय गृहणी घर से ज्यादा से ज्यादा बाज़ार तक ही जा सकती है। इससे उसे अपने लेखन की विषय वस्तु के चयन और उसकी उत्प्रेरक स्थितियों से साक्षात्कार सम्भव है । डॉ0 कीर्ति काले में भी व्यापक सम्भावनायें थी लेकिन बाजार ने उनके साथ भी काफी तोड़-फोड़ की । बाकी तो भीड़ भी है और भाड़ भी । लेकिन जो हैं बे मजबूत कदम काठी, गहरी वैचारिकता से लैस सृजन में रत हैं, उनका सम्मान किया जाना चाहिये । नवगीत को भीड़ की नहीं समर्थ रचनाकारों की ज़रूरत है ।
व्योम ः आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ।
साक्षात्कारकर्ता - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
ए․एल․-49, सचिन स्वीट्स के पीछे, दीनदयाल नगर फेज़-।,काँठ रोड,
मुरादाबाद (उ0प्र0)-244001
चलभाष- 9412805981
नवगीत पर माहेश्वर तिवारी जी का साक्षात्कार बहुत सारगर्भित है। नवगीत को गहराई से समझने वालों के लिये यह बहुत उपयोगी है।
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यह साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा....
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