प्रमोद भार्गव चूंकि भीतर से राजनीति का चेहरा विद्रूप व विकृत है, इसलिए वह एक ऐसी ‘आरक्षण' नाम की फिल्म से भयभीत है जिसमें आरक्षण के...
प्रमोद भार्गव
चूंकि भीतर से राजनीति का चेहरा विद्रूप व विकृत है, इसलिए वह एक ऐसी ‘आरक्षण' नाम की फिल्म से भयभीत है जिसमें आरक्षण के कथित रूप को एक सामाजिक बुराई के रूप में दिखाया गया है। हालांकि फिल्म में केवल जातीय आरक्षण को नहीं दर्शाया गया है, बल्कि भरी-भरकम कैपिटेशन फीस लेकर मेडीकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले की सुविधा को भी एक ज्वलंत मुद्दे के रूप में दर्शाया गया है। फिल्म से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन किसी फिल्म, नाटक, किताब या चित्र को जातीय, धार्मिक अथवा वोट बैंक के नजरिए से देखना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक घातक दृष्टिकोण है। विचार की अभिव्यक्ति के माध्यम केवल सवाल उछालने का काम करते हैं किसी जातीय अथवा अर्थ आधारित व्यवस्था को चोट पहुंचाने का नहीं ? समझ नहीं आता ‘आरक्षण' जैसी समस्या को एक बुराई के रूप में पेश करने की कोशिश से राजनेता भयग्रस्त क्यों हैं ? महाराष्ट्र के लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल और दलित नेता रामदास उठावले ने इसके महाराष्ट्र में प्रदर्शन करने पर विरोध करने की चेतावनी दे डाली। इसके बाद उत्तरप्रदेश में प्रदर्शन की बारी आई तो मुख्यमंत्री मायावती ने एक छह सदस्यीय दल द्वारा फिल्म देखने के बाद प्रसारण की घोषणा कर दी। इधर मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने फिल्म देखने के बाद प्रसारण के अधिकार सुरक्षित कर लिए। अनुसूचित जाति आयोग के कुछ पदाधिकारियों ने फिल्म देखे बिना ही फतवा जारी कर दिया कि फिल्म दलित विरोधी है, इसलिए इसका प्रदर्शन नामुमकिन है। देश में केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड है, जो किसी भी फिल्म को हर पहलू की कसौटी पर कसने के बाद फिल्म प्रदर्शन को हरी झंडी देता है, लेकिन राज्य सरकारों और जातीय आयोगों के कई बोर्ड वोट बैंक की राजनीति के दृष्टिगत कुकुरमुत्तों की तरह देश भर में उभर आए हैं जो राजनैतिक स्वार्थों की दृष्टि से इस फिल्म का आकलन कर रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रकाश झा एक गंभीर व समस्या की तह तक जाने वाले फिल्मकार हैं। उन्होंने इस फिल्म में शिक्षा के जातीय और व्यावसायिक पक्ष को बेपर्दा करने की कोशिश की है। किसी भी कला माध्यम का निर्विकार दायित्व भी यही बनता है कि वह सामाजिक समस्या को ऐसी संजीदगी से प्रस्तुत करे जिससे बुराई की विकृति तो सामने आए किंतु भावनाएं किसी की आहत न हों। इसलिए इस फिल्म में शिक्षण संस्थाओं का जो व्यापारिक पक्ष है प्रकाश झा ने ‘आरक्षण' में उसी पक्ष को मुखरता से उबारा है। लेकिन हमारी राजनीतिक दृष्टि सामाजिक समस्याओं के समाधान से बचना चाहती है, लिहाजा उसकी कोशिश रहती है कि ऐसे विचार प्रवाह पर अंकुश लगा दिया जाए जो जनमानस में चेतना के प्रबुद्ध बीजों को रोपने का सकारात्मक प्रयास हैं। अभिव्यक्ति को कुचलने की यह मंशा संकीर्ण राजनीतिक मानसिकता को दर्शाती है। इसलिए ऐसी राजनीति के समर्थकों की कोशिश रहती है कि जो सामाजिक बुराईयों हैं, जिनके वैधानिक समाधान की जवाबदेही राजनीतिकों पर है, वे कालीन के नीचे छिपी रहें और उनके समाधान के लिए उठाए जाने वाले सवाल आजादी के छह दशक बाद भी अनुतरित ही बने रहें ?
सदियों से जातीय जड़ता से पीड़ित समाज अभी भी रूढ़िगत अंधविश्वास और दुराग्रहों से मुक्त नहीं हुआ है। किसी हद तक उच्च शिक्षित व्यक्ति और उच्च शिक्षा संस्थानों में भी उक्त विकार यथावत हैं। ऐसी ही वजहों के चलते आरक्षण का लाभ उठाकर 2007-2008 में 22 दलित छात्रों को देश भर के भारतीय तकनीकी संस्थानों (आईआईटी) में प्रवेश मिलता है, लेकिन उनमें से सामाजिक व शैक्षणिक जटिलताओं के चलते 18 आत्महत्या कर लेते हैं। इनमें से केवल तीन छात्रों की आत्महत्या के कारण का लिखित ब्यौरा मिलता है। जिससे जाहिर हुआ कि वे जातीय भेदभाव के शिकार हो रहे थे। और शायद इस हीनता-बोध से उबरने का उनके पास एक ही उपाय बचा था, केवल आत्महत्या !
आरक्षण की स्थिति की भयावहता केवल अनुसूचित जाति या जनजाति के छात्रों तक सीमित नहीं है, निजी मेडिकल इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रबंधन कोटे को तय आरक्षण ने भी इसे खतरनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है। प्रबंधक कैपिटेशन फीस की बोली लगवाकर पात्रता नहीं रखने वाले छात्रों को भी अपने शिक्षण संस्थानों में प्रवेश दे देते हैं। धन बल के बूते रूस से भी बड़ी संख्या में सवर्ण छात्र मेडिकल की शिक्षा लेकर आ रहे है। धन से अवसर की इस खरीद से वास्तविक प्रतिभाशाली छात्र प्रभावित हो रहे हैं। धनाभाव की वजह से अवसर चूक जाने की ये वजहें कई सवर्ण छात्रों को फांसी के फंदे तक ले पहुंची हैं। लिहाजा प्रबंधन कोटे के बहाने निजी कॉलेजों को मिली आरक्षण की यह सुविधा भी खतरनाक है। इससे प्रतिभा पर कुठाराघात तो होता ही है। संविधान के सिद्धांत ‘समता और अवसरों की समानता' को भी पलीता लगाया जा रहा है। हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने दाखिले के समय छात्रों से मनमानी कैपिटेशन फीस वसूलने वाले निजी मेडीकल व इंजीनियरिंग शिक्षण संस्थानों पर एक करोड़ रूपए तक का जुर्माना लगाने की सिफारिश की है। लेकिन हमारे सामाजिक जीवन का कोई भी पक्ष भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रह गया है इसलिए तकनीकी शिक्षा संस्थानों पर इस सिफारिश का फिलहाल कोई असर देखने में नहीं आ रहा है। आरक्षण फिल्म में कैपिटेशन फीस के इस मुद्दे को भी बेहतरीन और असरकारी तरीके से उठाया है। क्या इस स्थिति को दिखाया जाना आपत्तिजनक है ? दरअसल चीजों को जातीय और राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति की दृष्टि से देखना हमारी राजनीति का स्थायीभाव बन गया है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी राज्य सरकारें रोजगार के नए अवसर तलाशने में अक्षम साबित हो रही है, इसलिए उनकी कोशिश रहती है, लोगों को सतही मुद्दों पर उलझाएं रखो।
अनुसूचित जाति आयोग के कर्त्ताधर्ता कुछ राजनेता भी फिल्म देखने के बाद अपना अनापत्ति प्रमाण-पत्र देने की हुंकार भर रहे हैं। इन नेताओं से पूछ सकते हैं कि आईआईटियन दलित छात्र एक-एक कर आत्महत्या कर रहे थे, तब वे उनका उत्साहवर्धन करने और जातीय अपमान बोध से उबारने के क्या उपाय कर रहे थे ? प्राकृतिक संसाधनों से लगातार दूर होते जाने के कारण आज दलितों के सामने जीविका के संकट गहराते जा रहे हैं। सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र सिमटते जा रहे हैं और निजी क्षेत्र में आरक्षण पर राज्य सरकारों व निजी कंपनियों की नीयत साफ नहीं है, ऐसे विपरीत माहौल में दलितों को रोजगार के पर्याप्त अवसर मुहैया हों, इसके लिए वे क्या पहल कर रहे हैं और उनकी पिछले एक दशक की क्या उपलब्धियां हैं ? आज करीब 25 करोड़ दलित आबादी अपनी पसंद का पेशा चुनने से महरूम हैं। इस सामाजिक व्यवस्था से निकलने और दलितों की बराबरी की हिस्सेदारी के परिप्रेक्ष्य में डॉ. भीमराव अंबेडकर चाहते थे कि व्यवस्था को चलाने में दलितों की भी भागीदारी हो। इसी लिहाज से उन्होंने दलितों को आरक्षण एक उपकरण माना था और संविधान में 10 साल के लिए दलितों को आरक्षण लाभ का प्रावधान किया था। जिससे एक दशक में दलित ज्ञानार्जन कर अपने समुदाय को इतना सक्षम व समर्थ बनालें कि आगे उन्हें इस औजार की जरूरत ही न रह जाए। लेकिन छह दशक तक चली आ रही इस सुविधा से न तो दलितों को आबादी के अनुपात में नौकरियां मिली और न ही वे जातीय दंश से उबर पाए। ऐसे में यदि कोई फिल्म आरक्षण के किसी पाठ को लेकर सामने आ रही है, तो उसे देखने में हर्ज क्या है ? यदि इस पाठ में कोई ऐसे सूत्र हैं, जिनसे हमारी संकीर्णता टूट सकती है तो उससे समन्वय बिठाने में हानि क्या है ? इसके बावजूद भी यदि फिल्म आरक्षण लाभ को गलत ठहराती है तो क्या हमारी केंद्र अथवा राज्य सरकारें इतनी उदार हैं कि एक फिल्म से सबक लेकर वे आरक्षण खत्म कर देंगी। जख्मों को छिपाकर हरा बनाए रखने की बजाय अच्छा है उन पर मलहम लगाकर उन्हें ठीक किया जाए।
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pramod.bhargava15@gmail.com
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551
लेखक वरिष्ठ कथाकार एवं पत्रकार हैं।
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