ग़ज़लों से अपनी रचना-यात्रा आरंभ करने वाले 10 जनवरी 1961 को ग्राम कूरी रवाना (मुरादाबाद) में जन्मे श्री कृष्णकुमार ‘नाज़' ने साहित्...
ग़ज़लों से अपनी रचना-यात्रा आरंभ करने वाले 10 जनवरी 1961 को ग्राम कूरी रवाना (मुरादाबाद) में जन्मे श्री कृष्णकुमार ‘नाज़' ने साहित्य की अन्य विधाओं- गीत, दोहा, नाटक आदि में भी साधिकार सृजन किया है। श्री नाज़ समर्थ रचनाकार तो हैं ही, साथ ही उन्हें एक कुशल संपादक के रूप में प्रतिष्ठापित करता है उनके यशस्वी संपादन में वाणी प्रकाशन से सद्यः प्रकाशित दोहा-संग्रह ‘दोहों की चौपाल'। उनके समग्र रचनाकर्म की विशेषता ताज़ा कथ्य और पुष्ट शिल्प की चाशनी में पगा होना है। उनकी ग़ज़लें जहाँ नज़ाकत के साथ बात करती हैं, वहीं उनके गीत ओस की बूँदों की तरह कोमल होते हैं। प्रसिद्ध शायर श्री कृष्णबिहारी ‘नूर' के प्रिय शिष्य 'नाज़' जी की प्रकाशित कृतियों- ‘इक्कीसवीं सदी के लिए' व ‘गुनगुनी धूप' (दोनों ग़ज़ल-संग्रह), ‘मन की सतह पर' (गीत-संग्रह) व ‘जीवन के परिदृश्य' (नाटक-संग्रह) के अतिरिक्त अनेक कृतियों की पांडुलिपियाँ प्रकाशन यात्रा पर हैं।
प्रस्तुत हैं ऐसे बेमिसाल और बहुआयामी रचनाकार नाज़ जी से गीत व ग़ज़ल के संदर्भ में कवि योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम' की बातचीत-
व्योम : आपका सृजन कब और कैसे शुरू हुआ?
कृ.कु. नाज़ : व्योम जी! यह बड़ा रोचक प्रश्न किया आपने। इसके उत्तर के लिए मुझे 37-38 वर्ष पीछे लौटना पड़ेगा। गाने-गुनगुनाने का शौक़ बचपन से ही रहा है मुझे। छठी कक्षा में मेरा दाख़िला मुरादाबाद में पारकर इंटर कालेज में कराया गया। उस समय मेरे मामाजी मोहल्ला मंडीचौक में रहते थे, मुझे उन्हीं के पास छोड़ दिया गया। मुझे याद है एक बार मैं मुकेश का कोई गीत गा रहा था, तभी अचानक रजनी गुप्ता आ गईं, मैं उन्हें बुआ कहता था, मुझे गाते देखकर बोलीं- ‘‘अरे कृष्णकुमार तू गा रहा है, मैं समझी थी किसी ने ट्रांजिस्टर खुला छोड़ दिया है।'' बड़ा अच्छा लगता था। यह गाने-गुनगुनाने का शौक़ बना रहा। मैं रात को ट्रांजिस्टर सिरहाने रखकर सुनता रहता था और किसी एक ग़ज़ल को गुनगुनाकर उसी गुनगुनाहट में अपने शब्द ‘फिट' कर लेता था। समय बीतता रहा। न कोई कविसम्मेलन-मुशायरा देखा-सुना था, न कभी किसी काव्यगोष्ठी में भाग लिया था। आत्म-संतुष्टि के लिए लिखता रहता था। चूँकि मेरे लेखन की शुरूआत ग़ज़ल से हुई, तो मुझे उर्दू सीखने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके लिए मैं गाँव में ही स्थित मदरसे में गया और एक मौलवीसाहब से उर्दू सिखाने का अनुरोध किया। उन्होंने मेरा निवेदन सहर्ष स्वीकार कर लिया। मैंने भी उर्दू का ख़ूब अभ्यास किया। उसी दौरान मैंने कुछ शेर कहे और मौलवीसाहब को सुनाने लगा। वेे मेरा उत्साहवर्धन करते हुए बोले- ‘‘भाई मैं शायरी नहीं जानता। हाँ, काँठ में मेरे एक दोस्त हैं, आप उन्हें अपने शेर सुनाइए, वे आपकी ज़रूर मदद करेंगे।'' मौलवीसाहब मुझे लेकर ‘ग़म' साहब के पास पहुँचे। ‘ग़म' साहब का पूरा नाम था रामकुमार वर्मा, ‘ग़म' बिजनौरवी तख़ल्लुस रखते थे, डी.एस.एम. कालेज काँठ में बड़ेबाबू थे और रिटायरमेंट के नज़दीक थे। उन्होंने बड़े प्यार से बैठाया और मेरी ग़ज़लें सुनीं। उस समय मैं मक़ते में ‘कृष्ण' उपनाम का प्रयोग करता था और देवनागरी में लिखता था। ग़मसाहब ने हिदायत दी कि आइंदा तुम उर्दू में लिखकर लाओगे और ग़ज़लों में ‘कृष्ण' तख़ल्लुस अच्छा नहीं लगता, इसलिए कोई तख़ल्लुस भी तज़वीज़ कर लेना। मैंने घर आकर तख़ल्लुस पर विचार किया। इसी दौरान मेरे ज़ह्न में ‘नाज़' शब्द आया और उसके बाद जब मैं ‘नाज़' तख़ल्लुस के साथ पर्सियन लिपि में ग़ज़लें लिखकर ले गया, तो ग़मसाहब बहुत ख़ुश हुए। हालाँकि ग़मसाहब से मेरी चंद मुलाक़ातें ही रहीं, लेकिन ग़ज़ल का सफ़र शुरू हो गया, जो आज तक जारी है।
व्योम : आप सुप्रसिद्ध शायर स्व. श्री कृष्णबिहारी ‘नूर' के शिष्य रहे हैं और आप उनके समग्र सृजन पर शोध भी कर रहे हैं, नूरसाहब के रचनाकर्म से आप कितना प्रभावित हैं और क्यों?
कृ.कु. नाज़ : जी हाँ, मैं नूरसाहब का शिष्य हूँ और मैंने उन पर शोध भी किया है। दरअस्ल उनकी पहचान सिर्फ़ उर्दू शायर के रूप में है, बहुत कम लोग जानते हैं कि नूरसाहब ने किशोरवया हिन्दी-ग़ज़ल की उँगली थामकर उसे चलने-फिरने का सलीक़ा सिखाया। इसीलिए मेरे शोध का शीर्षक था
‘हिन्दी-ग़ज़ल के संदर्भ में कृष्णबिहारी ‘नूर' का विशेष अध्ययन'। शायरी के क्षेत्र में मैं सबसे अधिक नूरसाहब से ही प्रभावित रहा हूँ।
दरअस्ल नूरसाहब को यशस्वी बनाने में उनके उत्कृष्ट विचारों का योगदान तो रहा ही, उनकी भाषा ने भी उनकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाये। नूरसाहब अपने शेरों में हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग करते थे, जिसमें संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय उपभाषाओं के ऐसे बहुत से शब्द चहलक़दमी करते हुए पाये जाते हैं, जो आम आदमी की ज़ुबान पर तैरते रहते हैं। तपस्या, साधू, दुख-सुख, जन्म-जन्म, पूजा, सिन्दूर, चन्दन, चुनाव, आवागमन, ध्यान, धन, आयतन, नमन, हवन, आवश्यक, खटपट, स्वभाव, बन्धन, आरम्भ, मार्गदर्शक, संध्या, रूप, स्वयं, नयन, अवतार, साधना, अस्तित्व, दिशा आदि� ऐसे शब्द जो ग़ज़ल की परिधि से सदैव बाहर रहे, नूरसाहब ने उन्हें सम्मान सहित अपने शेरों में स्थान दिया। नूरसाहब के शेरों की यह विशेषता है कि उनमें अध्यात्म में श्रृंगार और श्रृंगार में अध्यात्म के दर्शन होते हैं।
इसके अलावा नूरसाहब बहुत विशाल व्यक्तित्व के स्वामी थे। ‘अपनों का' बहुत ख़याल रखते थे, यही सब बातें थीं जिन्होंने मुझे सदैव प्रभावित किया।
व्योम : आपने साहित्य की अनेक विधाओं यथा- गीत, ग़ज़ल, दोहा, नाटक, मुक्तछंद आदि सभी में कुशलता के साथ सृजन किया है, फिर भी आपकी ख्याति एक महत्त्वपूर्ण ग़ज़लकार के रूप में ही है, ऐसा क्यों?
कृ.कु. नाज़ : मैं ऊपर भी बता चुका हूँ कि मेरे लेखन की शुरूआत ग़ज़ल से हुई। आज भी मेरी प्रमुख विधा ग़ज़ल है, दूसरे नंबर पर गीत। हाँ, इस दौरान कुछ अन्य विधाओं में भी मैंने लेखन किया, लेकिन ख्याति मुख्यतः ग़ज़लकार के रूप में ही मिली। इस ख्याति में मेरी ग़ज़लों के साथ-साथ मेरा उपनाम ‘नाज़' भी सहायक रहा है। मूलरूप में ग़ज़लकार हूँ, इसलिए इसी रूप में पहचान हो गई।
व्योम : आजकल एक नयापन प्रचलन में है, वह यह कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़लें और उर्दू के रचनाकार गीत लिख रहे हैं, परिणामतः शिल्पदोष का ख़तरा दोनों ही ओर उत्पन्न हो रहा है। आपका क्या मत है?
कृ.कु. नाज़ : व्योम जी, आपकी बात बिल्कुल सही है। हिंदी में ग़ज़ल और उर्दू में गीत, दोनों ही की स्थिति दयनीय है। लेकिन, यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किशोरावस्था में होने के बावजूद हिंदी-ग़ज़ल ‘परिपक्वता' की ओर बढ़ने लगी है, जबकि उर्दू में तो गीत की स्थिति बहुत ही कमज़ोर है। उर्दू के कई ‘बड़े शायर' मंचों पर गीतों की प्रस्तुति करते हैं, लेकिन उनकी स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। हिंदी वाले ग़ज़ल के छंदोविधान से पूर्णतः परिचित नहीं है और उर्दू वाले गीत की मात्रिक व्यवस्था से। यही कारण है कि दोनों ही विधाओं में कमज़ोरियाँ बरक़रार हैं। मैं नाम लेना उचित नहीं समझता, कई हिंदी कवियों ने ग़ज़ल के छंदोविधान को लेकर पुस्तकें लिख डाली हैं, लेकिन अधिकतर पुस्तकों की स्थिति अविश्वसनीय एवं राह से भटकाने वाली है। हमारे कई ‘बड़े' गीतकारों ने ग़ज़ल की दुनिया में क़दम रखा, लेकिन उनकी स्थिति हवा निकले ग़ुब्बारे की तरह फुस्स हो गई। इसका एकमात्र कारण है ग़ज़ल के छंदोविधान से अपरिचय।
व्योम : पिछले कई दशकों से यह प्रश्न लगभग अनुत्तरित है कि हिंदी ग़ज़ल क्या है? हिंदी भाषियों द्वारा लिखी गई ग़ज़ल या देवनागरी लिपि में लिखी हुई ग़ज़ल या कुछ और?
कृ.कु. नाज़ : भाई व्योम जी, बड़ा रोचक प्रश्न है आपका। विशेष बात यह है कि लगभग नहीं, बल्कि पूर्ण रूप से यह प्रश्न अनुत्तरित है। यदि हिन्दी ग़ज़ल के इतिहास को ध्यानपूर्वक देखा जाये तो फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि अमीर ख़ुसरो (सन् 1252-1325) से हिन्दी ग़ज़ल का प्रारम्भ हुआ, जिन्होंने खड़ी बोली में ग़ज़लें लिखीं। इनकी कई ग़ज़लों में यह विशेषता थी कि शेरों की एक पंक्ति फ़ारसी में होती थी, तो दूसरी खड़ी बोली में। जबकि, कुछ ग़ज़लें हिन्दी (तत्कालीन हिन्दवी) में भी पाई जाती हैं। अमीर ख़ुसरो ने ग़ज़लें या तो फ़ारसी में कहीं या तत्कालीन हिन्दी में। उर्दू तो बहुत बाद में, लश्करी ज़ुबान के रूप में अस्तित्व में आयी। इनके बाद इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए कबीर ने ग़ज़ल लिखी। इनकी भाषा भी खड़ी बोली थी। इनके बाद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, निराला, जानकी बल्लभ शास्त्री, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह, बलवीर सिंह रंग, गोपालदास नीरज आदि कवियों से होती हुई हिन्दी ग़ज़ल की यात्रा दुष्यन्त तक पहुँची। दुष्यन्त के बाद हिन्दी में ग़ज़ल लिखने वालों की होड़-सी लग गयी।
अमीर ख़ुसरो से लेकर कबीर, मैथिलीशरण गुप्त, गयाप्रसाद शुक्ल सनेही, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बद्रीनारायण प्रेमघन, प्रतापनारायण मिश्र, निराला, शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यन्त कुमार तथा उसके बाद हिन्दी ग़ज़लकारों की एक लम्बी परम्परा है।
कुछ लोग कबीर को हिन्दी का पहला ग़ज़लकार मानते हैं। मैं चाहता हूँ कि इन दोनों ही कवियों की एक-एक रचना आपको सुना दी जाये। अमीर ख़ुसरो की हिन्दी (तत्कालीन हिन्दवी) में लिखी गयी एक ग़ज़ल के कुछ शेर प्रस्तुत हैं-
जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिन्ता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब, राखे उसे समझाय कर
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही, क्या किया आँसू चले भर लायकर
तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है, इक शब मिलो तुम आय कर
जाना तलब तेरी करूँ, दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिन्ता दिल धरूँ, इक दिन मिलो तुम आय कर
तुमने जो मेरा मन लिया, तुमने उठा ग़म को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसे पतंगा आग पर
‘ख़ुसरो' कहें बातें ग़ज़ब, दिल में न लावें कुछ अजब
क़ुदरत ख़ुदा की है अजब, जब दिल दिया गुल लाय कर
यहाँ फ़िराक़ गोरखपुरी का कथन बहुत महत्वपूर्ण है- ‘‘मुसलमानों को हिन्दुस्तान में आकर बसे हुए कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। भारत की भिन्न-भिन्न भाषाएँ बन चुकी थीं। उनमें अभी गद्य तो नहीं, लेकिन कविता की ध्वनि गूँजने लगी थी और सभी भाषाओं में हिन्दुओं के साथ-साथ उनकी ध्वनि में अपनी ध्वनि मिलाकर वे कविता कर रहे थे। ख़ुसरो, कबीर साहब, मलिक मोहम्मद जायसी, रसखान, आलम और इन्हीं के सदृश कई सौ दूसरे मुसलमान पुरुष और स्त्री हिन्दी कविता को मालामाल कर रहे थे। साथ ही साथ कई मुसलमान और कुछ हिन्दू फ़ारसी में भी काव्य रचना कर रहे थे।''
भले ही ख़ुसरो मूलरूप में फ़ारसी के कवि रहे हों, लेकिन साहित्यिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि बहुत से ऐसे साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने एक-दो तो क्या, कई-कई भाषाओं में साहित्य सृजन किया है, जिनका एक साथ कई भाषाओं पर समान अधिकार रहा है। उस समय भले ही शासन की भाषा फ़ारसी रही हो, लेकिन हमें इस तथ्य को भी स्वीकारना चाहिए कि किसी भी दौर में शासन की भाषा जनसाधारण की भाषा नहीं रही। आम आदमी हमेशा अपनी क्षेत्रीय उपभाषाओं अथवा बोलियों में लिखता-पढ़ता और कार्य करता रहा। अमीर ख़ुसरो विद्वान भी थे और प्रयोगधर्मी भी। उन्हें संगीत का भी ज्ञान था। उनकी उक्त ग़ज़ल इस बात का भी सशक्त उदाहरण है कि तत्कालीन समाज में हिन्दी (अथवा हिन्दवी) का रूप खड़ी बोली में था, जो आज की हिन्दुस्तानी भाषा से मिलता-जुलता है। भले ही ख़ुसरो ने हिन्दी में कम ग़ज़लें कही हों, लेकिन कहीं तो। इसलिए हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अमीर ख़ुसरो हिन्दी भाषा की ग़ज़ल के पहले कवि हैं।
कबीर की एक ग़ज़ल सुनिए-
हमन हैं यार मस्ताना हमन को होशियारी क्या
रहें आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते
हमारा यार है हममें, हमन को इन्तज़ारी क्या
ख़लक सब नाम अपने को बहुत कर सर पटकती है
हमन हरिनाम राँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या
न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से
उन्हीं से नेह लागा है, हमन को बेक़रारी क्या
‘कबीरा' इश्क़ का नाता दुई को दूर कर दिल से
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सर बोझ भारी क्या
भले ही कबीर ने अपनी उक्त रचना को ग़ज़ल नाम न दिया हो, लेकिन यह ग़ज़ल के छन्द में है तथा भाव की दृष्टि से परिपूर्ण है। यह रचना मतला, क़ाफ़िया, रदीफ़, मक़ता, यानी ग़ज़ल की सभी आवश्यक शर्तों को पूर्ण करती है। ऐसे में इसे ग़ज़ल न मानना रचना के साथ अन्याय है। सूफ़ी सम्प्रदाय से जुड़े कवि� यार, पिया, पियारा, साईं, साहब� इस प्रकार की शब्दावली ईश्वर के लिए प्रयोग करते रहे हैं, इसलिए इस ग़ज़ल में लौकिक प्रेम तलाशना भी अनुचित है।
कुछ विद्वान कबीर की उक्त रचना को भजन का नाम देते हैं। जबकि कुछ विद्वान कबीर को हिन्दी का पहला ग़ज़लकार मानते हैं, वहीं कुछ विद्वानों ने इस ग़ज़ल को उर्दू की पहली ग़ज़ल स्वीकारा है। उक्त रचना को एम.ए. ग़नी ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री अॉफ़ द पर्शियन लैंग्वेज़ एट ए मुग़ल कोर्ट' में उर्दू की पहली ग़ज़ल स्वीकारा है, लेकिन यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि विद्वानों ने आधुनिक उर्दू कविता का पहला कवि वली (सन् 1668�1744) को माना है। यद्यपि मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने तो वली को उर्दू का पहला कवि माना है। इन स्थितियों में यह कैसे सम्भव है कि कबीर की उक्त रचना उर्दू की पहली ग़ज़ल सिद्ध हो जाये। दूसरी बात यह है कि उक्त रचना की भाषा खड़ी बोली है, उर्दू नहीं। अतः ग़नी साहब की बात में दम प्रतीत नहीं होता है। हाँ, यह भी अवश्य है कि कबीर को हिन्दी ग़ज़ल का पहला कवि मान लिए जाने के पर्याप्य तथ्य उपलब्ध नहीं होते।
हिन्दी ग़ज़ल की विकास-यात्रा का तीसरा बिन्दु है भारतेन्दु युग, जो सन् 1850�1885 तक रहा। यद्यपि भारतेन्दु जी के पिता गिरधरदास ने भी हिन्दी में कुछ ग़ज़लें कहीं। दो शेर द्रष्टव्य हैं-
हो गया मुझसे ख़फ़ा वो याद अब आता नहीं
जब से सब बेपीर आकर उसको बहकाने लगे
‘दास गिरधर' तुम फ़क़त हिन्दी पढ़े थे ख़ूब-सी
किस क़दर उर्दू के शायर में गिने जाने लगे
गिरधरदास की शब्दावली से ज्ञात हो जाता है कि वह हिन्दी कवि होते हुए स्वयं को ग़ज़ल लेखन में उर्दू का शायर मानते हैं। भारतेन्दु जी ने ग़ज़लें भी कहीं और नाटक भी लिखे। ग़ज़लें उन्होंने ‘हरिश्चन्द' तथा ‘रसा' उपनाम से लिखीं। उदाहरण के तौर पर उनके कुछ शेर प्रस्तुत हैं-
दिल मेरा ले गया दग़ा करके
बेवफ़ा हो गया वफ़ा करके
दोस्तो कौन मेरी तुरबत पर
रो रहा है रसा-रसा करके
यह तो निश्चित है कि इस कालखण्ड में भगवानदीन, प्रतापनारायण मिश्र, चौधरी प्रेमघन, गोपालदास ‘गुल', श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय, जयशंकर प्रसाद आदि हिन्दी कवियों ने ग़ज़लें भी लिखीं। इसलिए इस युग मेंं हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में बहुत से प्रयोग हुए, जिनसे हिन्दी ग़ज़ल विकास के मार्ग पर अग्रसर हुई। इन कवियों की भाषा अवश्य हिन्दी रही, लेकिन कथ्य अधिकांश परम्परागत रहा। इस बीच बलवीर सिंह रंग, त्रिलोचन और शमशेर बहादुर सिंह, जानकी बल्लभ शास्त्री, विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, हंसराज रहबर, रामावतार त्यागी आदि ने भी ग़ज़लें लिखीं, लेकिन ये भी परम्पराओं की भेंट चढ़ गईं। सभी का वर्ण्य-विषय प्रेम और सौन्दर्य रहा। शिल्प की दृष्टि से भी ये ग़ज़लें कमज़ोर रहीं। उर्दू मुहावरों का प्रयोग किया गया।
हिन्दी ग़ज़ल की विकास-यात्रा के चौथे और अनन्तिम बिन्दु हैं दुष्यन्त कुमार (1933�1975)। तत्समय 1940 के आसपास प्रयोगवाद और नयी कविता का आन्दोलन शुरू हुआ, लेकिन उस कविता में कविता के आवश्यक तत्व लय, छन्द, गेयता नहीं थे। यह कविता सिर्फ़ बुद्धिजीवी वर्ग तक ही सीमित रही। बिम्बों का ऐसा प्रयोग कवियों द्वारा किया गया कि समझने का प्रयास करने पर भी अर्थ समझ में न आये। ऐसी कविता से तत्कालीन पाठक और श्रोतावर्ग कट गया। तब आवश्यकता महसूस हुई ऐसी कविता की जिसमें काव्य के सभी आवश्यक तत्व उपलब्ध हों, और ऐसी कविता के रूप में ‘ग़ज़ल' पर रचनाकारों की दृष्टि पड़ी। ‘सूर्य का स्वागत' के माध्यम से नई कविता के क्षेत्र में प्रतिष्ठापित हो चुके दुष्यन्त कुमार ने ग़ज़ल विधा को अपनाया। यद्यपि उनकी ग़ज़लों में उर्दू-फ़ारसी के शब्द बड़ी संख्या में मिल जाते हैं, तथापि अपनी चुटीली शैली और कथ्य के कारण दुष्यन्त को काफ़ी प्रोत्साहन मिला। दुष्यन्त के बाद हिन्दी में ग़ज़ल लेखन के लिए रचनाकारों में होड़-सी लग गयी। सप्रयास ग़ज़लें लिखी गयीं, आज भी लिखी जा रही हैं। बल्कि हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर पाठकों और श्रोताओं के सामने बहुत-सा कूड़ा-करकट भी परोसा जा रहा है, क्योंकि ऐसे हिन्दी रचनाकार बड़ी संख्या में हैं, जो ग़ज़ल के छन्द से अपरिचित हैं। सीखने की उन्होंने कोशिश नहीं की, गुरु किसी को बनाते नहीं, त्रुटियाँ बताने वाले मित्रों से रुष्ट हो जाते हैं। परिणाम सामने है कि अधिकांश हिन्दी ग़ज़लों में गेयता का अभाव है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दुष्यन्त हिन्दी ग़ज़ल की विकास-यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं, जहाँ से ग़ज़ल की भावभूमि ज़मीनी सच्चाइयों से जुड़ते हुए जनसाधारण की पीड़ाओं को सहलाती है और उनका उपचार बताती है।
देवनागरी में लिखी गई ग़ज़लों को हिंदी-ग़ज़ल कहना उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि भाषा और लिपि में बहुत फ़र्क़ है। लिपि तो भाषा को लिखने का सिर्फ़ माध्यम है। हाँ, हिंदी कवियों द्वारा लिखी गई ग़ज़लों और हिंदी शब्दावली से सुसज्जित ग़ज़लों को हिंदी-ग़ज़ल की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। हालाँकि मैं तो हिंदी और उर्दू में कोई अंतर नहीं मानता। हिंदी का अर्थ है हिंद में पैदा हुई भाषा और उर्दू भी हिंदुस्तान में ही पैदा हुई है। मैं तो उर्दू को हिंदी का ही अंग मानता हूँ। अंतर केवल इतना है कि एक ही भाषा की दो लिपियाँ हैं- देवनागरी और पर्सियन।
व्योम : ग़ज़ल को तरन्नुम और तहत दोनों ही माध्यम से प्रस्तुत करने की परंपरा रही है, आप किसे उचित समझते हैं?
कृ.कु. नाज़ : यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि शायर ‘रचनाकार' है या ‘गवैया'। हालाँकि हमारे बहुत से ‘मंचीय' शायर ऐसे हैं, जिन्होंने ग़ज़ल की प्रस्तुति तरन्नुम के साथ की, लेकिन यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिस शायर का तरन्नुम जितना ‘बड़ा' हो गया, उसका रचनाकार उतना ही ‘छोटा' हो गया। मुशायरे के मंच पर तो तरन्नुम से ग़ज़ल की प्रस्तुति करके श्रोताओं को लुभाया और रिझाया जा सकता है, लेकिन किताब के लिए ‘गला' कहाँ से आयेगा। परिणाम निकलता है कि ‘योग्य समीक्षक' तरन्नुम के अंक काटकर शायर को ‘रचनाकार' के निम्नतम अंक प्रदान कर देता है। यही कारण है कि अधिकतर रचनाकार साहित्यिक ऊँचाइयों के ज़ीने चढ़ने की कोशिश में हाँफकर, थक-हारकर बैठ जाते हैं। इसलिए मैं तरन्नुम को ग़ज़ल से अलग मानता हूँ, इसका महत्त्वपूर्ण अंग नहीं।
व्योम : अनेक ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल के कथ्य में प्रयोगवादी परिवर्तन करने का प्रयास किया है, आधुनिक ग़ज़ल को आप समकालीन लेखन के कितना निकट पाते हैं?
कृ.कु. नाज़ : व्योम जी, ग़ज़ल आज उर्दू की सर्वाधिक प्रभावशाली और लोकप्रिय विधा है तथा उर्दू शायरी का महत्वपूर्ण काव्यरूप है। यह इसकी लोकप्रियता की बात है कि आज ग़ज़ल को ही उर्दू शायरी का अर्थ समझा जाने लगा है। बड़ी से बड़ी और गूढ़ से गूढ़ बात को शायर एक शेर यानी दो पंक्तियों में कह डालता है। इतनी संक्षिप्तता किसी और विधा में कहाँ। ग़ज़ल प्रेयसी भी है, ग़ज़ल प्रेमी का हृदय भी है और हृदय की धड़कन भी। किसी को ग़ज़ल के कजरारे नयन पसन्द हैं तो कोई इसके रूप का दीवाना है तो कोई इसके बाँकपन पर जान छिड़कता है। ग़ज़ल कोई एकान्त में सुनता है तो कोई महफ़िल में। ग़ज़ल अगर टूटे दिलों का सहारा है तो प्रेम में आकण्ठ डूबे मदमस्त प्रेमियों की कल्पनाओं का विस्तृत आकाश भी। ग़ज़ल में गाँव की मिट्टी की भीनी सुगन्ध है तो महानगरों का कोलाहल भी। अर्थात् जीवन के हर पहलू को ग़ज़ल ने स्वयं में समेट लिया है।
देखा जाये तो ग़ज़ल चंद अशआर का छोटा-सा संकलन है और सोचा जाये तो वही संक्षिप्त संकलन विचारों का महासागर है। वह ज़माना और था जब राजा, महाराजा, बादशाह और नवाब हुआ करते थे, जब तवायफ़ें हुआ करती थीं, मुजरे हुआ करते थे, शराब और शबाब के दौर चला करते थे, जब ग़ज़ल पर ढोलक-मंजीरे का क़ब्ज़ा था, नर्तकियाँ नाचने-गाने के साथ साक़ी का कार्य भी करती थीं, जब हमारे साहित्यकार भी उसी रंग में रँगे हुए थे और ‘माननीयों' की जी-हुज़ूरी ही उनका उद्देश्य था, जब आम-आदमी से साहित्यकारों का कोई ख़ास लेना-देना नहीं था। यानी ग़ज़ल सिर्फ़ मनोरंजन की वस्तु थी। ग़ज़ल का वर्ण्य-विषय औरतों का शरीर, शराब, साक़ी, पैमाना, गुलो-बुलबुल, फूल-तितली, शम्अ-परवाना आदि ही हुआ करते थे। आज न वे राजे-महाराजे हैं, न रजवाड़े, न बादशाह रहे, न बादशाहत, न अब नवाब हैं, न उनकी रियासतें। आज परिस्थितियाँ बिल्कुल उलट गयी हैं। आज का रचनाकार सजग है। आज की ग़ज़ल पहली जैसी नगरवधू नहीं है, जिसका उद्देश्य नाज़-नख़रे के साथ सज-सँवरकर और अपना सर्वस्व गिरवीं रखकर धनोपार्जन करना होता है। आज की ग़ज़ल को कुलवधू की गरिमा प्राप्त है, जो मर्यादाओं के साथ सजती भी है, सँवरती भी है, खिलखिलाती भी है, भजन भी गाती है, पूजा भी करती है।
आज शायर अपने चारों ओर के वातावरण में जो देख रहा है, उसी को शेर के माध्यम से नज़्म कर रहा है। आज ग़ज़ल की दृष्टि में यदि ऊँची हवेलियाँ हैं, तो टूटी-फूटी झोंपड़ियों को भी वह नज़रअन्दाज़ नहीं कर रही है। यदि उसकी नज़र में चाक-चौबन्द सड़कें हैं, तो फ़ुटपाथ पर भी उसने अपनी दृष्टि दौड़ाई है।
‘महबूब से काव्यात्मक बातचीत' को ग़ज़ल की परिभाषा माना जाता है, लेकिन आज की ग़ज़ल पुरानी सीमाओं में क़ैद नहीं रही। आज की ग़ज़ल को पढ़कर और सुनकर लगता है कि हम बंद कमरे से निकलकर खुली हवा में साँसें ले रहे हों। यही कारण है कि आधुनिकता की चादर ओढ़े हुए ग़ज़ल आज भी ज़िंदा है और युवा है।
व्योम : आपने गीतों का सृजन भी पर्याप्त संख्या में किया है और आपकी एक गीत-कृति ‘मन की सतह पर' भी प्रकाशित हो चुकी है, गीत आपकी दृष्टि में क्या है तथा इसकी क्या-क्या शर्तें व मर्यादाएँ हैं?
कृ.कु. नाज़ : गीत मेरी दृष्टि में क्या है? भाई मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि ‘हृदय की अतल गहराइयों से निकले संवेदना के स्वर जब मन की असीम कल्पनाओं को वरमाला पहनाते हैं, तो गीत की रचना होती है।' गीत की शर्त है गेयता। यदि गेयता नहीं है तो गीत की सार्थकता प्रभावित होती है, भले ही उसमें कितने ही उत्कृष्ट विचार क्यों न हों। साथ ही गीत की अपनी छांदसिक सीमाएँ है, जिनका उल्लंघन किसी भी दशा में गीत के अस्तित्व को हानि पहुँचा सकता है। आज मंचों पर मैं बहुत से युवा गीतकारों को देखता हूँ, वे गीत के मात्रिक विधान को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। इससे गीत को हानि हो रही है।
व्योम : वर्तमान में अनेक गीत कवियों द्वारा गीत को विभिन्न नामों, यथा- नवगीत, जनगीत, प्रगीत, विगीत, सहजगीत आदि से विभिन्न स्वरूप प्रदान किए गए हैं, आप इससे कितना और क्यों सहमत अथवा असहमत हैं?
कृ.कु. नाज़ : भाई, अगर आप मुझसे पूछना चाहते हैं, तो मैं तो यही कहूँगा कि गीत स्वयं में विस्तृत भूमिकाओं और विशाल अर्थों वाला शब्द है। इसे यदि नवगीत, जनगीत, प्रगीत, विगीत, सहजगीत, अगीत आदि नामों से अलंकृत किया जाता है तो यह किसी भी दशा में उचित नहीं। छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटकर हम इस विधा को कमज़ोर कर रहे हैं। मैं अक्सर देखता हूँ कि नवगीत के नाम पर कतिपय रचनाकार उल्टी-सीधी बातें छंद में पिरो देते हैं। कविता का आधार सिर्फ़ छंद ही तो नहीं है। कुछ रचनाकारों का कहना है कि नवगीत जनसमस्याओं से जुड़ी हुई विधा है, जिसमें आमजन की पीड़ा को नये बिंबों और नये प्रतिमानों के साथ अभिव्यक्त किया जाता है। लेकिन, अक्सर देखने में आता है कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग के ‘पढ़े-लिखे लोग' कुछ ऐसे बिंबों का प्रयोग गीत में करते हैं कि उसके अर्थ निकाल पाना मुश्किल हो जाता है। परिणाम यह निकलता है कि हम जिसके लिए नवगीत लिख रहे हैं, वही व्यक्ति उससे वंचित रह जाता है। ऐसी रचनाधर्मिता का क्या लाभ? कई ऐसे लोग जो छंद का ज्ञान नहीं रखते, वे तो ‘गद्यगीत' के नाम पर ऐसी ‘दिमाग़ी' रचनाएँ लिख डालते हैं कि पढ़े-लिखे लोग भी उनके अर्थों की सीमाएँ नहीं छू पाते। परिणाम शून्य हो जाता है। आख़िर ऐसी रचनाओं का क्या लाभ, जो लोगों की समझ में ही न आ सकें। इसलिए मैं तो इस विधा में सिर्फ़ एक शब्द का समर्थक हूँ, और वह है ‘गीत'।
व्योम : आप कवि सम्मेलनीय मंचों से भी जुड़े रहे हैं, आज अकविता के समय में क्या मंचों पर पुनः गीत का वही स्वर्णिम समय वापस लौटने की आशा की जा सकती है?
कृ.कु. नाज़ : व्योम जी, आपका यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। ‘गीत' हिंदी काव्य-साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा रही है। हालाँकि हास्य की विधा उस समय भी रही है, जब गीत का मंचों पर साम्राज्य था, लेकिन मात्र मनोरंजन और रस-परिवर्तन के लिए। इससे अधिक हास्य की कोई बिसात नहीं थी, लेकिन बदलते वर्तमान परिवेश में हास्य ने गीतों को पीछे धकेलते हुए मंच पर प्रमुख स्थान पाया। यह समाज की कमज़ोरी नहीं, यह हमारी खोखली व्यवस्थाओं की कमज़ोरी है। नतीजा भी सामने है कि आज फूहड़ हास्य की अतिवादिता ने संश्लिष्ट व्यंग्य को भी हानि पहुँचाई है। आज लोग हास्य कविता का नाम आते ही टी.वी. का चैनल बदल लेते हैं। सीधा-सा अर्थ है कि हास्य कविताएँ परिवार के साथ सुनने की चीज़ नहीं रह गई हैं। लेकिन, छिटपुट गीतों को छोड़कर गीत आज भी हिंदी काव्य-साहित्य की मुख्य धारा से जुड़ा हुआ है। गीत को लोग आज भी निष्ठा के साथ सुनते हैं और प्रोत्साहित करते हैं। आज हमारे ही कुछ गीतकार साथी ‘परफ़ार्मर' की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं, सिर्फ़ पैसे के लिए। संचार माध्यमों के ज़रिये उनकी पैसे की मनोकामना तो पूर्ण हो जाती है, लेकिन साहित्य उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा। गीत की दुनिया से वे ‘दूध की मक्खी' की तरह निकालकर फेंक दिए जाएँगे। आिख़र समय सबसे बड़ा निर्णायक है। वह दूध को दूध की श्रेणी में और पानी को पानी की श्रेणी में रखना जानता है। इस सबके बावजूद गीत का भविष्य मेरी दृष्टि में स्वर्णिम है।
व्योम : गीत को केंद्र में रखकर अनेक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं, हाल ही में इंटरनेट पर ‘गीतपहल' नाम से गीत को समर्पित पत्रिका शुरू हुई है, अनेक ब्लाग्स भी हैं, जिन पर गीत को आगे लाने के लिए काफ़ी श्रम किया जा रहा है, इन प्रयासों से गीत के भविष्य को आप किस तरह देखते हैं?
कृ.कु. नाज़ : भाई, छांदसिक कविताओं के संक्रमण के दौर में गीत को समर्पित ‘गीत-पहल' जैसी इंटरनेट पत्रिका का गीत की दुनिया में प्रवेश गीत के अच्छे भविष्य का संकेत है। मैं भाई अवनीश चौहान जी, आप और आपके सभी साथियों को साधुवाद और बधाई देना चाहता हूँ कि आप लोगों ने गीत के क्षरणकाल में उसकी बागडोर सँभाली है। अवनीश जी समर्थ गीतकार हैं, ऊर्जावान व्यक्ति है और बग़ैर हानि-लाभ की चिंता किए, वह गीत पर सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ कार्य कर रहे हैं, इससे निश्चित रूप से गीतविधा का भी भला होगा और गीत-पहल के संपादक-मंडल को भी ख्याति प्राप्त होगी। गीत के उज्ज्वल भविष्य के लिए एक और बात बेहद ज़रूरी है, वह यह कि गीत-केंद्रित पत्रिकाएँ अच्छी और सच्ची गीत रचनाधर्मिता को आगे लाने के लिए ईमानदारी से काम करें।
व्योम : क्या आप महसूस करते हैं कि लंबे समय से गीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से लामबंद है, यदि हाँ तो हिंदी साहित्य पर इसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा?
कृ.कु. नाज़ : व्योम जी, गीत के विरुद्ध चाहे कितने ही मोर्चे लामबंद हों, लेकिन वह कभी नहीं मर सकता। सृष्टि की हर वस्तु में गीत समाया हुआ है। हालाँकि आज अधिसंख्य समाचार-पत्र छंद से अनभिज्ञ बुद्धिवादियों के ‘सुलगते शब्दों' को कविता की श्रेणी में ला खड़ा कर देते हैं, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जनरुचि भी कोई चीज़ है। जहाँ न छंद हो, न भावों की सौम्यता हो, न भाषा की एकरूपता हो, वह तथाकथित कविता समाज का मार्गदर्शन कैसे कर सकती है? परिणाम सामने है कि गीत का विरोध करने वाले आज धूल चाट रहे हैं।
व्योम : आपकी नाटक-संग्रह की एक पुस्तक ‘जीवन के परिदृश्य' प्रकाशित हुई है, क्या आपको नहीं लगता कि नाट्यलेखन में वर्तमान में अपेक्षाकृत ह्रास की स्थिति उत्पन्न हुई है, जबकि इस महत्वपूर्ण विधा पर पूर्व में प्रचुर सृजन हुआ है?
कृ.कु. नाज़ : भाई, नाटक हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण विधा थी, जब लोगों के पास पर्याप्त समय था, इक्का-दुक्का फ़िल्में बरसों में तैयार होती थीं, जब फ़िल्में किसी थियेटर में सिल्वर, गोल्डन और डायमंड जुबली मनाती थीं। वह ऐसा समय था, जब फ़िल्मों का टिकट लेने के लिए क़तारें लगा करती थीं और दूरदराज़ से आने वाले लोग एकाध वक़्त का खाना साथ लाते थे। टिकट न मिलने पर वहीं बैठकर खाना खाते थे और दूसरे शो का टिकट मिलने की प्रतीक्षा करते थे। आज स्थितियाँ उलट गई हैं। आज सिनेमाघरों पर भीड़ नहीं मिलती। न वो फ़िल्में आ रही हैं, न लोगों के पास इतना समय है कि सब काम-धाम छोड़कर तीन घंटे तक फ़िल्म देखें। टेलीविज़न ने सारी सुविधाएँ घर बैठे ही मुहैया करा दी हैं। पहले नुक्कड़ नाटक हुआ करते थे और इसके अलावा भी नाटकों के कार्यक्रमों में लोक रुचि लेते थे। आज का भाग-दौड़ का परिवेश इन सबकी इजाज़त नहीं देता। यही कारण है कि जनरुचि घटने के साथ-साथ साहित्यकारों में भी नाट्यलेखन के प्रति रुचि कम होती जा रही है।
व्योम : गीत और ग़ज़ल दोनों के संदर्भ में नयी पीढ़ी की दशा और दिशा के विषय में आपका मत क्या है? गीत और ग़ज़ल का भविष्य नयी पीढ़ी के हाथों में कितना सुरक्षित और स्वर्णिम है?
कृ.कु. नाज़ : ग़ज़ल हमारे देश में एक आयातित विधा है, जो अमीर ख़ुसरो के समय में ‘हिंदवी' में शुरू हुई। उस समय उर्दू तो थी भी नहीं। यह तो बहुत बाद में लश्करी ज़बान के रूप में सामने आई। ‘हिंदवी' में ग़ज़ल ने पाँव पसारे, लेकिन बाद में उर्दू विकसित हुई और वह ग़ज़ल की दुनिया पर छा गई। आज ग़ज़ल उर्दू की महत्वपूर्ण विधा है। इसी प्रकार ‘गीत' हिंदी काव्य-साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है। यह ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रमाण है कि आज इसे कई भाषाओं में लिखा जा रहा है। इसी प्रकार गीत रचना भी कई भाषाओं में हो रही है। जहाँ तक नयी पीढ़ी के हाथों इन विधाओं के भविष्य का प्रश्न है, तो वह आज भी उज्ज्वल है और कल भी उज्ज्वल रहेगा। हालाँकि नई पीढ़ी के लोग अपनी रचनाओं पर अपने वरिष्ठ रचनाकारों के सुझाव/संशोधन प्राप्त करने से बचने की प्रवृत्ति के शिकार हैं, लेकिन फिर भी नई पीढ़ी नई सोच और कहन के साथ अपनी रचनाधर्मिता को सामने ला रही है, यह बहुत सुखद है। ये दोनों ऐसी विधाएँ हैं, जो किसी न किसी ज़रिये जनसामान्य के कानों से टकराती रहती हैं और उनके मनोरंजन तथा दिशा-निर्देशन का माध्यम बनती हैं, इसलिए इन दोनों ही विधाओं के भविष्य पर कोई संकट नहीं है। नयी पीढ़ी इन दोनों ही विधाओं को दुलार रही है और सुरक्षित रख रही है।
आज गीत के क्षेत्र में सर्वश्री योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम', अवनीश चौहान, मूलचंद ‘राज', जय चक्रवर्ती, डा. अजय पाठक, मनोज जैन ‘मधुर', आनंद तिवारी, देवेन्द्र सफल, राजा अवस्थी आदि तथा हिंदी-ग़ज़ल के क्षेत्र में दीपक जैन ‘दीप', अरविंद ‘असर', आलोक श्रीवास्तव, अशोक ‘अंजुम', कमलकिशोर ‘भावुक', राजेश रेड्डी, सुरेश कुमार आदि बहुत से युवा रचनाकार हैं जो हिंदी साहित्य में अपनी-अपनी विधाओं को समृद्ध कर रहे हैं।
व्योम : आपके संपादन में ‘दोहों की चौपाल' शीर्षक से दोहों का समवेत संकलन वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, दोहों में प्रायः पाये जाने वाले शिल्प दोष के संदर्भ में आप क्या कहेंगे? अन्य विधाओं में भी क्या कोई ऐसे ही समवेत संकलन के प्रकाशन की योजना है?
कृ.कु. नाज़ : भाई व्योम जी, ‘दोहों की चौपाल' में 109 रचनाकारों के 16-16 दोहे सम्मिलित हैं। मैंने 25-25 दोहे लोगों से मँगवाए थे, लेकिन कुछ ऐसे रचनाकारों के दोहे पढ़कर निराशा हाथ लगी, जो मात्राओं की सीमाओं का उल्लंघन करते दिखाई दिए। दोहा विधा तो हिंदी काव्य-साहित्य की रीतिकाल से लेकर आज तक लोकप्रिय विधा रही है। हाँ, पहले और आज की विषयवस्तु में परिवर्तन अवश्य हुआ है, यह ज़रूरी भी था, क्योंकि समय के साथ-साथ परिवर्तित न होने वाली विधाएँ या तो पिछड़ गईं या मर गईं। लेकिन, दोहा ऐसे में भी सीना तानकर अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहा है। इसे दोहे की लोकप्रियता ही कहा जाएगा कि आज उर्दू रचनाकार भी दोहे लिखने का प्रयास कर रहे हैं। ‘दोहा' भी ग़ज़ल और गीत की तरह हमेशा जीवित रहेगा। मेरी योजना भविष्य में ग़ज़ल और गीत पर समवेत संकलन प्रकाशित करने की है।
व्योम : आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
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साक्षात्कारकर्त्ता- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
एएल-49, दीनदयालनगर-प्रथम, काँठरोड, मुरादाबाद (उ.प्र.)
बहुत अच्छा ौर सारगर्भित साक्षात्कार है भाई कृष्णकुमार ‘नाज़’ साहब का। इससे रचनाकारों को लाभ मिलेगा। ग़ज़ल के संदर्भ में इतिहासपरक जानकारियाँ देने के लिये धन्यवाद।- ऒंकारसिंह ‘ऒंकार’, मुरादाबाद।
जवाब देंहटाएंनाज़साहब ने ग़ज़ल के इतिहास को बड़े ही अच्छे ढंग से बताया है। धन्यवाद। मुकेश वर्मा, मुरादाबाद।
जवाब देंहटाएंअच्छा साक्षात्कार है
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