( यह कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है , जैसा मैने देखा वैसा लिख दिया , सिर्फ पात्रों और स्थान का नाम बदला है कहानी के मूल भाव से कोई छे...
(यह कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है, जैसा मैने देखा वैसा लिख दिया, सिर्फ पात्रों और स्थान का नाम बदला है कहानी के मूल भाव से कोई छेड़छाड़ नहीं की हैं)
रघुनन्दन शर्मा, एक पचास वर्ष की वय के व्यक्ति थे सुना है कि वह एक निहायत ही गरीब घर से थे, अपनी मेहनत और ईमानदारी से वह जिला सहकारी बैंक के प्रबन्धक के पद से अवकाश प्राप्त हुये थे, बोलचाल के बहुत ही मधुर थे, मेरे घर से थोडी दूर पर रहते थे, उनकी बहन के बच्चे चूंकि मेरे घर के पास रहते थे और उनके यहॉ मेरा आना जाना था, अतः कुछ समय के बाद मेरी उनसे अच्छी जान पहचान हो गयी, मुझसे उमर में काफी बडे थे, पड़ोसी राजपाल जी के मामा थे, अतः मैं भी उन्हें मामाजी ही कहा करता था। मेरे से कुछ समय बाद उनका काफी स्नेह हेा गया, और धीरे धीरे मेरा उनके घर में आना जाना शुरू हो गया। बात बहुत ही मीठी किया करते थे, रामचरित मानस की पंक्ति गाहें बेगाहे सुनाया करते थे, किसी भी उद्हरण में वह रामचरित मानस की पंक्ति सुना दिया करते थे। उनके घर में उनके दो पुत्र अजय, अनुज, नीलम और छाया थी। सभी बच्चों की शादी हो गयी थी, बडा बेटा शादी के बाद अलग हो गया, और ऊपर वाले तल पर ही रहा करता था। रघुनन्दन शर्मा अपने छोटे बेटे के साथ रहते थे, रघुनन्दन शर्मा अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे वह थी भी बहुत ममता वाली मैने कभी उन्हें ऊॅची आवाज में बात करते नहीं सुना।
लेकिन घर वालों को रघुनन्दन शर्मा जी से शिकायत थी, उनके बडे बेटे ने एक बार बताया था कि पापा हमारे दूसरे दानवीर कर्ण हैं, जब बैंक में नौकरी किया करते थे बरसात के दिनों में रोज एक नयी बरसाती खरीदी जाती थी। मैने सआश्चर्य से पूछा कि '' क्यों पहली वाली पंसद नहीं आती थी'' बोले ''नही, यह अपनी बरसाती-छाता अपने सहयोगी को दे दिया करते थे, कहते थे तुम्हें दूर जाना है तुम इसे लेकर जाओ भीगने से बीमार पड़ जाओगे,.....और ले जाने वाला उसे कभी वापस नही करता था, इसलिये यह अपने लिये दूसरी खरीद लिया करते थे।'' मैने कहा '' यह तो ले जाने वाली की गल्ती है, उसे कम से कम काम चलाने के बाद वापस करना ही चाहिये'' अजय ने कहा'' अगर कभी कोई वापस कर भी देता था, तो पापा कहते थे कि अरे मेरे पास दूसरी है इसे तुम ही रखो''
एक बार उनकी धर्मपत्नी काफी गुस्से में थी । मैने कहा,'' मामी जी क्या बात हैं, आज मूड बडा खराब है'' बोली अपने मामा की करतूत पता है। मैने कहा,'' क्यों क्या बात हुई'' बोली '' रवि तुझे तो पता है न कि आलू आजकल क्या भाव हैं'' मैने कहा '' हॉ, 15 रू0 किलो मिल रहे है।'' अब अपने मामा की करतूत सुन '' यह कल ढाई किलो आलू लाये, एक भी आलू ऐसा नहीं हैं कि जिसे काटकर सब्जी बनाई जा सके, पूछने पर कहने लगे, '' अरे भाई एक गरीब मुसलमान बूढा बैठा था उसके आलू कोई नहीं खरीद रहा था, मैने सोचा कि अगर इसके आलू नहीं बिके तो इसके घर में आज चूल्हा कैसे चलेगा, इसलिये मैने खरीद लिये'' मैं अवाक था ।
कुछ समय बाद रघुनन्दन शर्मा जी आ गये, मामी उठकर दूसरे कमरे में चली गयी। मैने कहा,'' मामा जी, कल आप ऐसे सड़े हुए आलू क्यों लाये''। बोले, '' अगर ऐसे आदमी के आलू कोई भी रखीदता तो उसके बच्चों को रोटी कहॉ से मिलती, कहॉ से वह आढ़ती से पैसे देकर दूसरा सामान लाता जो उसे आज बेचना होगा''
मैने कहा,'' अगर ऐसी बात थी, आपका सोचना ऐसा ही था तो उसे पैसे देकर आ जाते''
रघुनन्दन शर्मा जी ने कहा, '' मैं, देता और वो ले लेता, बेटे गरीब आदमी बहुत खुददार होता है वह ऐसे ही क्या मेरे से पैसे पकड लेता''।
मेरे पास कोई जवाब नहीं था ।
एक दिन रघुनन्दन शर्मा जी मुझे बाजार में मिल गये। दुआ सलाम के बाद मैने कहा ,'' चलो मामा जी एक एक कप चाय पीते है।'' बह तैयार हो गये। हम दोनों एक चाय की दुकान में गये मैने दो कप चाय के लिये बोल दिया। तभी वहॉ दो बच्चे आये, देखने से ही लगता था कि किसी गरीब घर के बच्चे हैं, स्कूल के बैग उनके कंधों पर थे उन्होंने दुकानदार से पूछा '' अंकल समोसा कितने का है'' दुकानदार ने कहा '' चार रूपये का '' उनके पास मात्र पांच रूपये थे। अब समस्या यह थी की समोसा तो एक आता बच्चे दो। दोनों ने एक दूसरे के चेहरे की तरफ देखा। फिर आपस में कुछ सलाह की । दुकानदार से कहा'' एक समोसा दे दो, और एक रूपये की पकौड़ी देदो'' दुकान दार ने एक प्लेट में समोसा रख दिया एक प्लेट में एक रूपये की पकौड़ी रख दी। दोनो ने मेज पर रखी चटनी काफी मात्रा में डाल ली और बैठकर अपनी क्षुधा शान्त करने लगे, समोसा और पकौड़ी तो जल्द खत्म हो गये वह चाट चाट कर चटनी खाने लगे। बार बार समोसे के थाल की तरफ ललचाई नजरों से देख रहे थे । शायद थोडा सा समोसा खाने से उनकी भूख और बढ गयी थी। रघुनन्दन शर्मा जी यह सब देख रहे थे, बच्चे जब पैसे देकर अपने बैग उठाने लगे तो उन्होनें बच्चों से कहा '' अरे, और समोसा खाओगे'' बच्चे तत्काल बोले '' आप खिलायेगें'' रघुनन्दन शर्माजी ने कहा ''हॉ'' उन्होने दुकानदार से कहा '' भाई इन बच्चें को एक एक समोसा और दे दे'' दुकानदार ने उन्हें समोसे दे दिये । बच्चे बडे मनोयोग से खाने लगे उन्हें डर था कि कहीं यह हमसे कुछ काम न कह दें'' । समोसे खाने के बाद जो तृप्ति बच्चेां के चेहरे पर थी उससे कहीं अधिक चमक रघुनन्दन शर्मा जी के चेहरे पर थी । बच्चे थैक्यू अंकल कहकर चले गये ।तब तक हमारी चाय भी आ गई थी, मैने चाय पीते पीते रघुनन्दन शर्मा जी से कहा '' आप इन बच्चेां के माता पिता को या इन्हें जानते थे। रघुनन्दन शर्मा जी ने कहा '' नहीं'' तो फिर आपने इन्हें समोसे क्यों खिलाये '' उन्होने फिर रामचरित मानसे की यह पंक्ति गुनगुनाई '' उमा जे रामचरन रत, विगत काम अरू क्रोध । निज प्रभुमय देखहि जगत, केहिसन करहिं विरोध''। मैं अभी भी रघुनन्दन शर्मा जी के स्वभाव को नहीं जान पाया ।
एक दिन मुझे किसी काम से अपने शहर से बाहर जाना था मेरी परेशानी यह थी, कि दिन में बच्चों को स्कूल से घर कैसे लाया जाये ? काफी सोच विचार के बाद मै रघुनन्दन शर्मा जी के घर गया और उनसे प्रार्थना की '' क्या आप दिन में मेरे बच्चों को स्कूल से ला सकते है? रघुनन्दन शर्माजी ने कहा '' आप जाओ चिन्ता मत करों बच्चे मैं ले कर आ जाउॅगा'' मैं निश्चित हो कर चला गया। शाम को जब मैं अपने घर वापस आया तो मेरे बेटे के पैर में पट्टी बंन्धी थी'' धर्मपत्नी ने बताया कि '' हजरत (मेरा बेटा) ने पैर में चोट मार ली, मामाजी के साथ आ रहे थे उनकी बजाज एम एटी के स्पोक में फैर फंसा लिया वह ही इसके पैर में टांके लगाकर दवा वगैरह दिला कर घर छेाड़ गये हैं।'' मैने पूछा'' उन्हें डा0 के पैसे दिये या नहीं'' धर्मपत्नी ने कहा '' मैने तो बहुत कोशिश की पर वह लेने को तैयार ही नहीं थे'' चलो मैं दे दूंगा'' रात में रघुनन्दन शर्माजी अपनी पत्नी के साथ बेटे का हाल पूछने आये । मैने कहा '' मामा जी आपको आज मेरी वजह से काफी परेशानी उठानी पडी'' मैने उन्हें पैसे देने के लिये जेब में हाथ डाला बोले'' अब जेब में हाथ मत डाल, यह मेरा कर्तव्य था और मैने पूरा कर दिया छेाटी छोटी बातों में तक्कलुफ में नहीं पड़ना चाहिये, और तुम अपना काम करों मै कल इसे डा0 को दिखा दूंगा '' मेरे लाख प्रयत्न करने पर भी उन्होंने पैसे नहीं लिये।
वह दिन रघुनन्दन शर्मा जी की जिन्दगी का सबसे खराब दिन था जब उन्हें पता लगा कि उनकी छोटी बेटी छाया को उसके ससुराल वालों ने मार दिया, क्योंकि दहेज के लालच में वह अपने बेटे की शादी कहीं और करना चाहते थे । मुझे बडा गुस्सा आया, मैने कहा '' मामाजी हम इनके खिलाफ एक एफ0आई0आर0 दर्ज करा देते हैं चार दिन जेल में रहेगे तो भाव पता चल जायेगा'' रघुनन्दन शर्मा जी अपनी उसी आवाज में बोले '' सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखेहु कह मुनि नाथ, लाभ हानि जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ '' । और यहीं से उनके बेटों का उनके साथ सम्बन्ध कटु होते चले गये। पत्नी भी अब बेटेां का ही पक्ष लेती थी। रघुनन्दन शर्मा जी केा एक दिन हार्ट अटैक पड गया । इस उमर में ऐसा हो जाना कोई बडी बात नहीं थी, बेटों ने लाख कोशिश की किसी प्राइवेट डा0 को दिखा दिया जाये लेकिन वह सरकारी अस्पताल की जिद कर बैठे और वहॉ जाकर भर्ती हो गये। मैं जब उनके पास गया और कहा '' आपकेा प्राइवेट अस्पताल में अच्छा इलाज मिल जाता '' बोले '' भाई अब इस बूढे शरीर में रखा क्या हैं, बच्चे इलाज तो करा देते लेकिन कर्ज में डूब जाते, मै तो उन लोगों को कुछ दे नहीं पाया और अन्तिम समय में उनके उपर कर्ज छोड़ जाऊं क्या यह ठीक रहेगा'' ।
रघुनन्दन शर्मा जी को मै जितना जानने का प्रयास करता वह उतने ही अस्पष्ट हो जाते। एक दिन डा0 को दिखाने ले गया । डा0 ने उनकी उम्र का भी लिहाज नहीं करा और उनके द्वारा जो अपने प्रति बदपरहेजी की उसके लिये काफी डांटा रघुनन्दन शर्मा जी चुपचाप सुनते रहे। बाहर आने पर मैने कहा कि डा0 ने आपको इतना डांटा आप क्यों बदपरहेजी करते है। रघुनन्दन शर्मा जी ने फिर कहा '' सचिव वैद्य गुरू तीन जो प्रिय बोलहि भय आस, राज धर्म तन तीन का होवहिं बेगही नास''।
घर से रघुनन्दन शर्मा जी का अब घर सें कटाव सा हो गया था कोई भी व्यक्ति उनसे बाद नहीं करता था रोटी पानी के लिये भी अब उन्हें नहीं पूछा जाता था । और एक दिन रघुनन्दन शर्मा जी घर से कही चले गये।
शायद यहॉ से रघुनन्दन शर्मा जी की कोई नई यात्रा शुरू होने वाली थी ।............
पाठकों यदि आपको रघुनन्दन शर्मा जी कहीं मिले तो मुझे जरूर सूचित करें उनके स्वभाव के बारे में यदि आप को कोई अन्दाजा हुआ हो तो कृप्या मुझे भी बतायें कि वह ऐसे क्यों थे, क्यों वह दूसरों के प्रति इतना प्रेम दिखाते थे, दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझते थे, दूसरों की परेशानी को हल करने में उन्हें क्या मिलता था ।
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RK Bhardwaj
151/1 Teachers’ Colony
Govind Garh,Dehradun\
(Uttarakhand)
e mail: rkantbhardwaj@gmail.com
Kahanee ek kasak de gayee.
जवाब देंहटाएंओह! बस इतना ही कह पाऊंगा.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...................
जवाब देंहटाएंऐसी आत्मा एक ही नश्वर चोले के लिए थोड़े ही बनी होती है, उसका तो सब बेशब्री से इंतज़ार करते है