विवादों और पुलिसिया पहरे के बीच प्रकाश झा की बहुचर्चित फिल्म आखिरकार रिलीज हो गयी। इस फिल्म में आरक्षण के अलावा शिक्षा के व्यवसायीकरण जै...
विवादों और पुलिसिया पहरे के बीच प्रकाश झा की बहुचर्चित फिल्म आखिरकार रिलीज हो गयी। इस फिल्म में आरक्षण के अलावा शिक्षा के व्यवसायीकरण जैसे ज्वलंत मुद्दों को बेहद संजीदगी से पर्दे पर उतारा गया है। फिल्म की खासियत है कि यह किसी खास वर्ग की वकालत नहीं करती है। इसमें दलितों व पिछड़ों के पक्ष को प्रभावशाली तरीके से रखा गया है और सामान्य वर्गों के बीच आरक्षण को लेकर जो अंसतोष है उसे भी बखूबी दर्शाया गया है। यह एक फिल्मकार की सफलता ही कही जाएगी कि एक फिल्म के बहाने आरक्षण जैसा मुद्दा फिर चर्चा के केंद्र में है।
इस फिल्म के रिलीज के पहले ही काफी बवाल हो चुका है। प्रकाश झा और फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन के खिलाफ केस दर्ज किये गये। अनुसूचित जाति आयोग की आपत्ति को देखते हुए प्रकाश झा विवादस्पद संवादों को हटाने को भी तैयार हैं लेकिन एक फरमान जारी कर उत्तर प्रदेश, पंजाब और आंध्र प्रदेश में फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गयी। इस तुगलकी फरमान से फिल्म को करोड़ों का नुकसान होने का अनुमान है। वैसे तो प्रकाश झा की फिल्मों पर पहले भी विवाद होता रहा है लेकिन इस बार यह विरोध आसानी से थमता नजर नहीं आ रहा है। प्रकाश झा ने इस रोक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। प्रकाश झा को सुप्रीम कोर्ट से फिलहाल राहत नहीं मिल पायी है। उनकी अर्जी पर सुनवाई मंगलवार तक के लिए टल गयी है। इन विवादों से आहत अमिताभ ने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि जिस तरीके से रचनात्मक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा रहा है उससे लगता है कि लोग सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण फासीवादी स्थिति में जी रहे हैं। इधर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने फिल्म पर पाबंदी को जायज ठहराते हुए यहां तक कह डाला कि प्रकाश झा और अमिताभ 'बिरनी के खोता' में हाथ न डालें। आरक्षण' का यह विरोध संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का प्रयास है। इस विरोध ने एक साथ कई बहसों को जन्म दिया है। आखिर राजनीतिक पार्टियां इस फिल्म के विषय से इतनी घबराई हुईं क्यों हैंघ् क्या संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाने की इजाजत उन चंद नेताओं से लेनी होगी जो खुद को दलितों और पिछड़े वर्ग का हिमायती समझते हैंघ् फिल्म को जब सेंसर बोर्ड ने हरी झंडी दिखला दी है तो यह पाबंदी क्यों आरक्षण जब संवैधानिक सत्य है तो इसको लेकर इतना बवाल क्यों मचा हैघ्
'आरक्षण' पर जिस तरह से विवाद खड़ा किया गया है, उससे लगता है कि हमारे राजनेता हर चीज को अपने वोट बैंक के चश्मे से देखते हैं। भारत का समाज जातिगत समाज है और आरक्षण इस समाज की सच्चाई है। इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण आजादी के पहले से लागू है। अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था 1993 में की गयी। ओबीसी को 2006 से शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण की व्यवस्था की गयी। हाशियाग्रस्त लोगों को समाज के मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू की गयी थी, लेकिन विडंबना यह है कि आरक्षण के नाम आजतक सिर्फ राजनीति ही होती रही और यह अपने मूल उद्देश्य में सफल नहीं हो पायी। आरक्षण का लाभ सही अर्थों में उन लोगों तक नहीं पहुंच पाया जिनको सही मायनों में इसकी जरूरत थी। आरक्षण में शामिल जातियां राजनीतिक दृष्टि से वोट का साधन मात्र रही हैं, उससे इतर कुछ भी नहीं। ए. परियाकरूप्पन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा था कि आरक्षण किसी के निहित स्वार्थ के लिए नहीं होना चाहिए। न्यायालय ने यहां तक कहा था कि आरक्षण की नीति की सफलता की कसौटी यही होगी कि कितनी जल्दी आरक्षण की आवश्यकता को समाप्त किया जा सकता है।
राजनीतिज्ञ हर मामले में अपना फायदा और नुकसान देखते हैं। समाज और जनता की भलाई से इस विरोध का कोई लेना-देना नहीं है। महज किसी वर्ग को आरक्षण देकर जातिवाद से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है। आरक्षण नीति और उसके असर की गहन समीक्षा की जानी चाहिए। यह देखना आवश्यक है कि आरक्षण अपने मूल्य उद्देश्यों में कहां तक सफल रही है। यदि व्यवस्था सफल नहीं रही है तो इसका तात्पर्य यह है कि आरक्षण की नीति में व्यापक फेरबदल की आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा सबसे अहम है। इस पर सार्थक बहस की आवश्यकता है। आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था योग्यता को दबानेवाली है। हम समाज में नयी वर्ग व्यवस्था बना रहे हैं जो खतरनाक है। योग्यता के बावजूद यदि सफलता नहीं मिले तो उससे असंतोष तो पैदा होगा ही। देश में अवसरों की उपलब्धि सीमित है, इसलिए प्रतियोगिता का होना स्वाभाविक है। सरकार पर इस बात का दवाब रहता है कि वह अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए ही नहीं, अन्य समुदायों के लिए सब प्रकार के आरक्षण को सुनिश्चित करे। आरक्षण तत्वतः विभेदकारी है, इसने समाज में एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दिया है। आरक्षण से अभिप्रेत है कि समान योग्यता के दो प्रत्याशियों में आरक्षित कोटा वाले को अनारक्षित कोटा वाले से वरीयता मिलेगी। अतएव बहुत से योग्य प्रत्याशी कम योग्य व्यक्तियों के पक्ष में आरक्षण होने के कारण कुंठित प्रतीत होते हैं। वे आरक्षण की योजना को संविधान के आधार पर चुनौती देते हैं।
जो लोग आरक्षण का हल्ला मचाते हैं दरअसल वे लोग जातिविहीन और वर्गविहीन समाज के विरोधी है। ऐसे बहुत कम राजनेता हैं जो वास्तव में यह चाहते हैं कि जातिवाद खत्म हो जाए। आरक्षण का लाभ वंचितों को मिले ना मिले लेकिन इसका मूल्य देश को चुकाना पड़ रहा है। जातिप्रथा जैसी थी वैसी बनी हुई है। इस पर शोर मचा कर राजनीतिज्ञ दोनों ही स्थितियों का मजा ले रहे हैं। राजनीतिक और सामाजिक संगठनों द्वारा जातिविहीन समाज के लक्ष्य की प्राप्ति के उद्देश्य को लेकर जो प्रचार किया जाता है स्थिति उसके ठीक उलट है। राजनीतिक और सामाजिक जीवन में जातीयता की पैठ गहरी है। चुनाव से पहले सामाजिक आधार पर उम्मीदवारों का चयन किया जाता है और चुनाव के बाद मंत्रिमंडल के गठन के समय भी जातियों के हिसाब से प्रतिनिधित्व को महत्व दिया जाता है। यहां काबिलियत और योग्यता का कोई महत्व नहीं रह जाता है।
जाति एक विलक्षण शक्तियों से संपन्न संस्थान है, इसे खत्म करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था काफी नहीं है। जब तक हमारी सोच नहीं बदलेगी, समाज में जाति का अस्तित्व कायम रहेगा। स्वतंत्रता के उपरांत सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़े कुछ वर्गों के रहन-सहन के स्तर में सुधार के लिए यह व्यवस्था की गयी थी। उस समय जो सामाजिक व्यवस्था थी आरक्षण उसके हिसाब से तय किया गया। यह एक अस्थायी व्यवस्था थी लेकिन राजनीतिज्ञ अपने फायदे के लिए इसे अभी तक ढो रहे हैं। आज समाज की स्थिति भिन्न है। आरक्षण आज के हिसाब से तय किया जाना चाहिए। आर्थिक स्थिति आरक्षण का बेहतर पैमाना हो सकती है। सामाजिक पिछड़ेपन का अवधारण करने में जाति एक सुसंगत मानक हो सकता है लेकिन इसको एकमात्र या प्रधान मानक नहीं बनाया जा सकता है। आंध्र प्रदेश राज्य बनाम पी सागर के मामले में न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि जाति के आधार पर किया गया आरक्षण प्रथम दृष्टया तो अवैध ही माना जाएगा और इस बात का भार राज्य पर होगा कि वैध माना जाए, तो इसका आधार क्या हैघ्
आर्थिक आधार पर किसी को आरक्षण नहीं दिया जा सकता है तो उससे वंचित भी नहीं किया जा सकता है। संविधान में जो आरक्षण का प्रावधान है उसकी व्याख्या सही ढंग से करने की आवश्यकता है। कोई भी वर्ग या समुदाय पिछड़ा घोषित हो सकता है और आरक्षण का लाभ ले सकता है। संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में नागरिकों के पिछड़े वर्ग उल्लेख है। अनुच्छेद 15 (4) एक स्वतंत्र उपबंध है और संविधान के किसी अन्य उपबंध से नियंत्रित नहीं है। इसमें जातियों का नहीं बल्कि एकमात्र वर्गों का उल्लेख किया गया है। दोनों ही अनुच्छेदों में वर्ग शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जाति का नहीं।
आरक्षण के बहाने अपनी राजनीति चमकाने वाले लोगों के द्वारा 'आरक्षण फिल्म का जो विरोध किया जा रहा है वह कतई न्यायसंगत नहीं है। 15 अगस्त को हम आजादी का जश्न मनायेंगे, लेकिन ऐसी आजादी किस काम की जो हमारी रचनात्मक आजादी पर पाबंदी लगाए। चंद राजनेताओं द्वारा अपने राजनीतिक फायदे के लिए अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज के सबसे महत्वपूर्ण स्वतंत्रता है क्योंकि यह शेष स्वतंत्रता की आधारशिला है। लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक है। यूं हंगामा खड़ा करके किसी को संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है। फिल्म को देखने ना देखने का फैसला जनता पर ही छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा।
हिमकर श्याम
द्वारा ः एन. पी. श्रीवास्तव
5, टैगोर हिल रोड, मोराबादी,
रांची ः 8, झारखंड।
ek dam sahi likha hai... ham aaj bhi aajad kahan hain, swa- tantra to mila hai, aajadi nahi...
जवाब देंहटाएंarakhsan ke chalte hum vibhagt vo gage hai ,ek chhoute lobh ki vajah se sevaon ki gunvatta men din din khsaran mahsoosa ja sakata hai
जवाब देंहटाएंश्रीमान जी,बहुत ही विचार पूर्ण लेख पढ़ने को मिला, सही अर्थों में स्वतंत्रता तो तभी प्राप्त होगी जब हर नागरिक को अपनी बात कहने की आजादी मिलेगी,बहुत ही उत्तम लेख....
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