मीता के पास मंजुल सात साल बाद आया था. इस अरसे में कितनी ही जिंदगियों ने नयी शुरुआत की थी तो कई बसने से पहले ही उजड़ने को मजबूर थे. कुछ न...
मीता के पास मंजुल सात साल बाद आया था. इस अरसे में कितनी ही जिंदगियों ने नयी शुरुआत की थी तो कई बसने से पहले ही उजड़ने को मजबूर थे. कुछ ने सपने देखे और वे पूरे भी हुए पर कई बीच मझधार में डूबते उतराते रहे और उन्हें फिर भी साहिल नसीब नहीं हुआ. जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों के साथ कुछ ने कराहते हुए तो कुछ ने अपने को भगवान् भरोसे रखते हुए समय को जीने की कोशिश की. सात साल का अरसा कितना बड़ा या छोटा होता है इसका अहसास तो बस इसे काटने वाले या जीने वाले को ही हो सकता है.
सात साल पहले जब वे दोनों अलग हुए थे तो मीता ने अपने को धोखे और फरेब के हाथों ठगी गयी बेबस और लाचार पाया था. उसकी इस बेबसी और लाचारी की वजह मंजुल ही था जिसने खुद को मजबूर और लाचार बताकर मीता से किनारा कर लिया था. दरअसल, दोनों एक दूसरे पर जान देने की क़समें खाते थे और उनके बीच की दूरियाँ कम होते होते इस मुकाम तक पहुँच गए थे कि वे एक जिस्म और एक जान हो चुके थे, उन्होंने अपने रिश्ते को कोई नाम या पहचान नहीं दिया था फिर भी उनसे अपने लिए नाम और पहचान पाने वाला मीता के गर्भ में आगया था. मीता परेशान थी पर मंजुल बेफिक्र और बेपरवाह था. अब वह मीता से मिलने, उसकी कोई बात सुनने और उससे आगे कोई भी रिश्ता रखने के लिए कत्तई तैयार नहीं था. मीता के लिए यह ज़िंदगी और मौत का सवाल था. उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. कही से , किसी से कोई मदद की गुंजाइश ही नहीं थी. उसे लगने लगा कि अपनी जान तक देने की क़समें खाने वाला मंजुल बहुत ही बुजदिल, कमज़ोर और खुदगर्ज़ था, उसे जानने ,समझने में उससे भारी भूल तो हुयी ही थी, उसने उसे धोखा भी दिया था. मीता की कोई परवाह किये बिना मंजुल ने अपने को अलग करते हुए उस शहर से ही किनारा कर लिया.
मीता अपने हाल में अकेली थी, परेशान थी, सामने अन्धेरा था. उसके लिए पूरी दुनियां सुनसान और बेजान थी. मानसिक तौर पर बेपनाह तकलीफ और तनाव से गुजर रही थी कि उसे एक और तकलीफ से गुज़रना पडा. अपने आने वाली ज़िंदगी और उससे जुड़ने वाली ज़िंदगी के बारे में उसे कुछ सोचने या फैसला लेने का कोई मौक़ा मिलता इससे पहले ही उसे मिसकैरेज से गुजरना पडा. उसने सोचा कि यह ऊपरवाले का ही फैसला रहा होगा था जो उसे कोई और फैसला लेने से रोकना रहा होगा. वह अपने को खुद समझाने और तसल्लियाँ देने लगी. खुद को संभालने में मीता को कुछ समय ज़रूर लगा पर अपने बारे में कुछ ऐसे फैसले लेने में उसने बिलकुल ही देर नहीं लगाई जिसका सम्बन्ध उसके जीने के अपने अधिकार से जुड़ा था. एक बार लगी चोट ने, आदमी से मिले फरेब, धोखे और झूठी क़समों ने और मर्द की फितरत ने उसे जिस तल्ख़ तजुर्बे से गुज़ारा था उससे वह यह तय करने को मजबूर थी कि अब वह किसी भी मर्द पर भरोसा नहीं करेगी और कभी किसी रिश्ते में खुद को बंधने नहीं देगी, उसने इस बारे में भी नहीं सोचा कि आज के ज़माने और माहौल में पूरी ज़िंदगी, लम्बी ज़िंदगी अकेली ज़िंदगी कैसे जीयेगी और अगर कभी कोई ज़रूरत हुयी तो किसकी मदद या सहारा लेगी. अपने में, अपने काम में, अपनी जिंदगी के पसंद नापसंद के साथ वह अपना वक़्त गुज़ारने लगी. समय के गर्भ में क्या है, सबकी तरह वह भी नहीं जानती थी. समय के हाथों खाई ज़ख्म को ज़हन के किसी कोने में धकेलने की कोशिश करती रही और कभी किसी को भी यह महसूस नहीं होने देती थी कि वह अपनी तनहाइयों में कितनी खुश या नाखुश है.
समय कब और कैसे करवट लेगा, चाहा नहीं होगा और अनचाहा होगा, जो अपना है वह दूर होगा और जो बेगाना है वह कभी अपना होगा, इस सब पर कहाँ किसी का काबू रहा है. मन में किसी के लिए हमदर्दी और अपनापन कब क्यों और कैसे जगह बना लेगा, अमूमन न अन्दाजा होता है और न पता ही चल पाता है. नासूर बनता हुआ ज़ख्म कब और कैसे भरने लगता है, यह भी कभी कभी पता ही नहीं चलता. दर्द हल्का करने वाला, बांटने वाला, दूर करने वाला मिलता भी है तो नसीब से. मीता को भी पता नहीं था कि एक ऐसा ही सख्स उसके आस पास है जो अपना बने न बने, अपना कहे न कहे, अपना लगने लगा था. यह सख्स उसी के औफ़िस में थे सुमित. तीन साल लगे थे मंजुल के साथ बिताये दिनों और उसके दिए ज़ख्मों को भुलाने में और एक ही साल में वह सुमित को जानने, समझने और पसंद करने लगी थी. मर्द के नाम से मन में आयी नफ़रत न जाने कैसे मन के बाहर हो गयी थी, मीता ने कभी ध्यान ही नहीं दिया. ज़िंदगी के मायने बदलने लगे थे, जीने का नजरिया बदल रहा था.
जब कोई अच्छा लगने लगता है तो उसे पास रखने और उसके पास होने की बेताबी के अहसासों से वह एक बार गुजर चुकी थी. पर उस बार की बेताबी से गुजरते हुए उसे जज्बातों में डूबने और बह जाने का खतरा नहीं मालूम था इसलिए अब उसे अपनी जज्बातों पर काबू रखना आ गया था. उसे अपनी बात बड़ी बेबाकी से कहना और रखना भी आ गया था. उसे साफगोई पसंद आने लगी थी और अपनी तारीफ़ में कसीदें सुनना कत्तई गवांरा नहीं था. सुमित को उसने इसी सोच और नज़रिए से देखने की कोशिश की थी. उसने मंजुल से जुड़े अतीत को किसी सड़े गले चीज़ की तरह अपने से अलग कर दिया था. वह किसी दूसरे के वर्तमान और भविष्य को अपने गले नहीं पड़ने देना चाहती थी. सुमित से उसके सम्बन्ध बहुत ही स्पष्ट और खुले हुए थे. जैसा उसे अच्छा लगता कह देती, जो उसे अच्छा लगता ले लेती, जो देना चाहती दे देती. सुमित को भी यह सब अच्छा लगता था. उसने इससे ज़्यादा न कभी लेना चाहा और न कभी कम की शिकायत ही की. दोनों ने न तो अपने रिश्तों को कोई नाम देने की बात की और न ही वादों और क़समों को अपने बीच आने ही दिया. दोनों के बीच एक अंडरस्टैंडिंग थी, एक दूसरे की इज्ज़त, एक दूसरे की ज़रूरत, एक दूसरे की भावनाओं को समझने और उसकी कद्र करने की.
मीता और सुमित के बीच एक करार था जिसकी बुनियाद एक दूसरे पर बेइंतहा यक़ीन और भरोसा था. उन्होंने यह तय कर लिया था कि वे कभी एक दूसरे को धोखा नहीं देंगें और न ही अपनी मर्जी और फैसला किसी पर थोपेंगे. उन्होंने अपने जीने का अंदाज़ ही कुछ ऐसा चुना था कि जिस बात पर दोनों की मर्जी होगी वही वे मानेंगे. फिर भी अपने किसी फैसले को बदलने या न मानने के लिए दोनों पूरी तरह आज़ाद होंगे. इन्ही नज़रिए और सोच की वजह से दोनों काफी नजदीक आ गए थे. न कभी किसी से कोई गिला न शिकवा. दोनों अपने इस रिश्ते से खुश थे. मीता को जीने का यह अंदाज़ बहुत पसंद और रास भी आने लगा था. उधर सुमित भी खुश था. उसे न तो इससे ज़्यादा और न कम की ज़रूरत थी. ज़माने से बेपरवाह दोनों साथ साथ रहने लगे थे. अब किसी और चीज़ की ज़रूरत उन्हें महसूस ही नहीं होती थी. दोनों एक दूसरे की ज़रूरत बन गए थे और इस तरह तीन साल कैसे निकल गए पता ही नहीं चला जब मंजुल मीता से सात साल बाद अपनी कमजोरियों और मजबूरियों की दास्तान के साथ मिला.
मीता मंजुल को देखते ही एक बार फिर नफ़रत की आग में जलने लगी, मंजुल गिडगिडा रहा था. अपनी गुनाहों के लिए मीता से सज़ा की दरख्वास्त कर रहा था. उसे अपने किये पर पछतावा था और शर्मिन्दगी भी. उसने बताया कि वह लौटकर मीता के पास बिलकुल नहीं आना चाहता था. उसके गुनाहों की सज़ा भगवान् ने दी ज़रूर पर उसे वह अब भी कम ही मानता था. वह कबूल कर रहा था कि कोई कितनी भी बड़ी सज़ा उसे दे दे पर जब तक मीता उसे सज़ा नहीं देगी वह ग्लानि और पश्चाताप की आग में जलता रहेगा, उसकी आत्मा तडपती रहेगी.
मीता उसकी एक बात भी सुनना नहीं चाहती थी. गुनाह, सज़ा,ग्लानि, पश्चाताप, शर्मिन्दगी,आत्मा सब उसके लिए अब कोई मायने नहीं रखते थे. वह चुप रही. उसकी चुप्पी जब नहीं टूटी तो मंजुल ने बताया कि वह एक दिन किसी रोड एक्सीडेंट का शिकार हो गया और जब उसे होश आया तो एक अस्पताल में था. पता नहीं कौन उसे ले आया और कैसे उसका इलाज हुआ. अपनी तकलीफ और अपना दर्द वह मीता को उससे हमदर्दी पाने के लिए नहीं बल्कि यह बताने के लिए कर रहा था कि ईश्वर ने उसे उसके किये की पूरी सज़ा देना चाहता था पर वह अभी भी पूरी नहीं हो सकी और इसीलिये उसके लिए यह सज़ा ही ठीक थी कि अब वह कभी भी किसी के साथ हमबिस्तर होने के काबिल ही नहीं रहा..
पहले तो मीता की समझ में ही नहीं आया कि वह बताना क्या चाहता है पर जब मंजुल की बात समझ में आयी तो उसके मन ने यह मान ही लिया कि उपरवाले की अदालत के फैसले जुर्म और अपराध के आधार पर होते है. पल भर को उसके मन में दया का भाव आया पर अपने साथ हुए बर्ताव के लिए वह उसे दोषी न माने ऐसा मानने से उसके मन ने इनकार कर दिया. मंजुल की लाचारी यह थी कि अब न तो उसके पास मन था और न ही तन उसका साथ देने के काबिल था.
मीता की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. वह यह भी नहीं सोच पा रही थी कि आखिर मंजुल चाहता क्या है. वह इस बात से भी परेशान थी कि वह अपनी तरफ से मंजुल को कोई सज़ा देना भी चाहे तो क्या हो सकता है. वह यह भी समझती थी कि अब दुबारा उसे अपने से जोड़ा नहीं जा सकता था क्योकि वह उसके ऊपर एक बोझ तो होगा ही खुद उसकी अपनी ज़िंदगी एक बोझ बन जायेगी. मंजुल से अगले दिन आने की बात कहकर वहां से चल दी.
पूरी रात मीता को नींद नहीं आयी. वह एक अजब सी कशमकश महसूस कर रही थी. वह अपनी पूरी ज़िंदगी के बारे में सोच रही थी. उसने पत्नी और माँ बनने का सुख नहीं पाया था. बिना पत्नी बने वह माँ बनने के लिए तैयार नहीं थी. सुमित से उसके सम्बन्ध की एक शर्त यह थी कि वह कभी शादी नहीं करेगी और न ही कभी माँ बनना चाहेगी. वह यह भी जानती थी कि उम्र का एक ऐसा मोड़ भी आयेगा जब सुमित और उसके सम्बन्ध शायद ही ऐसे हो जब वह उसकी जिम्मेदारिओं को उठाने के लिए तैयार हो. उसे पता था कि अपना पति और अपनी संतान ही जीवन के अंतिम पहर में सहारा बन सकते है. पता नहीं क्यों उसके मन में पत्नी और संतान की ख्वाहिश घर करने लगी थी. सुमित की पत्नी कहलाने का सुख उसे नहीं चाहिए था और मंजुल उसे पति का सुख दे नहीं सकता था. उसकी मनोदशा अजीब सी हो रही थी.
उसके मन और मनोदशा ने उसे एक रास्ता सुझाया. अब वह मंजुल को उसको मिल चुकी सज़ा को देखते हुए माफ़ करने को सोचने लगी. उसका एक दूसरा मन उसे सज़ा देने को भी बेताब होने लगा. उसकी कमजोरियों को वही जानती थी. वह अपनी कमजोरियों को भी समझ रही थी. उसे लगने लगा कि वह मंजुल की कमियों का इस्तेमाल अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कर सकती है. मंजुल का इस्तेमाल वह अपने को एक पत्नी कहलाने के लिए करेगी और सुमित के साथ अपने संबंधों से वह संतान का सुख पायेगी. उसे यह बात सिर्फ मंजुल को बतानी थी जब कि सुमित के मामले में उसे कुछ भी कहने और पूछने की ज़रूरत ही नहीं थी. वह जानती थी कि मंजुल उसकी हर शर्त और हर बात मानने को तैयार होगा.
इस तरह के दो संबंधों को एक साथ रखने में क्या और कितना गलत है, इस बारे में वह नहीं सोचना चाहती थी. दरअसल, इन संबंधों के बारे में तो सिर्फ मंजुल और सुमित को ही मालूम होता और फिर वह अपने को इस मामले में खुद को पूरी तरह आज़ाद मानती थी. मंजुल के साथ का जो अतीत था उसके लिए उसकी ज़िंदगी में कोई जगह थी ही नहीं और सुमित के साथ उसका वर्तमान दोनों की इच्छा और मर्जी के अलावा उनकी आपसी समझ पर टिकी थी. किसी और के साथ उसने अपने को न जोड़ा था और न ही जोड़ना चाहती थी इसलिए उसे अपने इस सम्बन्ध पर कोई संकोच या हिचक या अफ़सोस करने की ज़रूरत ही नहीं थी. वह सुमित के साथ पूरे मन और तन से जुडी थी और जुडी रहना चाहती थी और इसमे मंजुल किसी भी तरह से कोई दखल नहीं कर सकता था. सब कुछ उसने तय कर लिया था और अपना फैसला उसे मंजुल और सुमित को बताना था. उनकी सहमति या मंजूरी की न तो ज़रूरत थी और न गुंजाइश ही थी.
मीता ने जो रास्ते चुने और तय किये थे उसी रास्ते पर वह मंजुल और सुमित के साथ चल पडी. मंजुल के साथ उसने कोर्ट मैरेज कर ली और सुमित ने उन दोनों का साथ दिया. मंजुल को इस बात की खुशी थी कि मीता ने उसे माफ़ कर दिया और जीवन भर उसके पास रहने का मौक़ा मिल गया था. मीता के मन को इस बात का अहसास था कि लाचार और मजबूर मंजुल को उसने एक आसरा और हमदर्दी दी है. मीता और सुमित को इस बात से संतोष और खुशी थी कि जीवन में हमसफ़र न होते हुए भी वे एक दूसरे को खुश रख रहे थे. मीता महसूस करती थी कि सुमित उसे पूरी तरह जानता है और उसकी ज़ज्बातों को तरजीह देता है. उसकी सोच यह भी थी कि कई जोड़े पूरी ज़िंदगी एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे को न तो जान पाते है और न ही एक दूसरे की ज़रूरतों को अहमियत देते है. इस तरह कई जिंदगियां बस रिश्तों के नाम पर रस्में और रवायतें निभाते ही बीत जाती हैं.. शुरुआत होती है हर बात, हर काम के साथ अहसासों और जज्बातों के जुड़े होने से और धीरे धीरे बस काम रह जाता है अहसासात कम होने लगते हैं. बिना जज्बातों के आदमी . मशीन की तरह काम करता है यही उसकी ज़रूरत बन जाती है, जब मन साथ न हो तो वही काम एक जिस्मानी हरकत ही होती है.
मीता मंजुल की हर ज़रूरत का ख़याल रखती.उसे समय भी देती. आखिर उनके रिश्ते की बुनियाद हमदर्दी और मदद थी. मंजुल उसे उतना ही समय दे पाता जो वह मंजुल को देती थी. उनकी बातें भी रोज़मर्रा की ज़रूरतों तक महदूद रहती थी. वह कभी मीता को निहारना भी चाहता था तो चुपके से ही कर पाने की छूट थी. दोनों के बीच एक दूसरे से खुलने या एक दूसरे के बारे में कुछ बांटने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. मीता जब चाहती सुमति से मिलती और उसके साथ समय बीताती थी. यह उसका निजी मामला था इसे लेकर कुछ भी जानने और पूछने का मंजुल को कोई अधिकार या इजाजत नहीं थी.
वक़्त मीता और सुमित के साथ था. जो कुछ भी हो रहा था उसे एक .दर्शक की तरह मंजुल देख सकता था समय का चक्र चलता रहा.एक दिन मीता ने पहले सुमित को और बाद में मंजुल को बताया कि वह माँ बनने वाली है. इस बात से सभी खुश थे.हालाकि खुशी के पैमाने सब के लिए अलग अलग थे. मीता ने तो पूरे होशोहवाश में यह पाने की कोशिश की थी. उसके लिए तो यह एक नेमत थी.मीता और सुमित के लिए तो यह सब चाहा और माँगा हुआ था. मंजुल के साथ रिश्ते से जब कुछ पाने का अहसास हुआ तो वह एक हादसा था.पर सुमित के साथ तो यह बेहद खुशनुमा अहसास था.अब उसे लगने लगा कि जिस रास्ते और मोड़ को उसने चुना वह उसका अधिकार था.वह पूरे जीजान से अपने पेट में पल रही जान कि चिंता और परवाह करने में जुट गयी.समय पूरा होने पर उसने एक सुन्दर गुडिया की माँ बनी. उसे नयी दुनिया मिली. मंजुल नयी मेहमान के आने से खुश हुआ और उसने यह तय किया कि इस नयी मेहमान की हर तरह से देखभाल करेगा और उसे यह आभास तक नहीं होने देगा कि वह उसके लिए महज़ एक 'एडोपटेड' पिता है.उधर सुमित को खुशी के साथ इस बात का पूरा भरोसा था कि समाज उसे पिता का दर्ज़ा भले न दे पर मीता और मंजुल की नज़रों में उसे उसकी जगह ज़रूर मिलेगी जिसका वह हक़दार है. बेटी के जनम के बाद मीता और सुमित के रिश्ते मजबूत हुए और एक दूसरे के प्रति वे ज़्यादा अपनापन और जवाबदेह महसूस करने लगे थे,
बिटिया की देख भाल में मीता रम गयी और मंजुल भी इसमें उसकी मदद पूरे मन से करने लगा. मंजुल के लिए तो यह मोड़ इसलिए अच्छा था क्योंकि अब उसके पास कुछ जिम्मेदारियां बढ़ गयी थी. उसका मन और समय दोनों बेटी के साथ लगने लगा और वह पहले के मुकाबले अब ज़्यादा खुश रहने लगा. बिटिया जब पांच साल की हुयी तो मीता के मन में दुबारा माँ बनने की ख्वाहिश जगह बनाने लगी. उसकी इस ख्वाहिश को पूरी करने के लिए सुमित ने हामी भरी और इस बार मीता की गोद एक सुंदर से लाल से भरी.
मीता के आँखों के दो तारे आशी और तेजस उसके आँगन में में खेलते , पलते और बढ़ते हुए उम्र की सीढियां चढ़ने लगे और दोनों बड़े हुए. पढ़ने में होशियार, मेधावी, कुशाग्रबुद्धि के संतानों पर मीता और मंजुल को बड़ा ही गर्व होता था. सुमति को उनके बारे में जान कर, देखकर, मिलकर बड़ा ही संतोष और सुख मिलता था. दोनों जब बड़े हो गए , उनकी शिक्षा पूरी हो गयी, भला बुरा समझने के काबिल हो गए तो एक दिन मीता ने उन्हें अपनी दुनिया और अपने रिश्तों के सारे सच बता दिए . वह उनसे कुछ भी छुपाना नहीं चाहती थी. वह चाहती थी कि उसके बच्चे रिश्तों की बारीकियों और पेचीदगियों से अच्छी तरह परिचित हो. दोनों बच्चों ने अब तक तो यही समझा और जाना था कि मंजुल उनके पिता है पर अब वे यह जान सके थे कि पालन पोषण करने वाले पिता के अलावा उनके बायोलोजिकल पिता सुमित थे. माँ से उसके कष्टपूर्ण अतीत और पिता के विवशता भरे जीवन के बारे में जानकार उन्हें उन पर फख्र हो रहा था. सुमित के लिए उनके मन में श्रद्धा और आदर का स्थान था क्योंकि उनकी माँ को जीने का मकसद और माँ बनने और कहलाने का सम्मान उन्ही से मिला था. आशी और तेजस तीनों का ही बहुत सम्मान करते थे. दुनिया की नज़रों में सुमित को पिता का स्थान तो नहीं मिल सकता था पर दोनों बच्चों से मिल रहे आदर और सम्मान के कारण उन्हें उन जैसे संतानों को जन्म देने की अपार खुशी थी.
रिश्ते, खुशी,गुनाह, सज़ा, धोखा, अपनापन, सुख, हमदर्दी, संतान, इन सब के मायने सभी के लिए अलग अलग हो सकते है पर मीता,मंजुल, सुमित, आशी और तेजस के लिए इन सभी के मायने और मकसद एक जैसे थे. सभी खुश थे. एक दूसरे के लिए जीने और होने का मतलब वे समझने और जानने लगे थे.
“अवध प्रभा”, 61, मयूर रेज़ीडेंसी, लखनऊ-226016
एक अलग सोच को जन्म देती कहानी।
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अनकही और अनचाही रिश्ते की एक अनकही कहानी , बहुत ही सुन्दर
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