ब्रिटेन में भड़की हिंसा उस आधुनिक विकास की देन है, जो असमानता की खाई चौड़ी कर वंचितों और गरीबी की संख्या बढ़ाने वाली है। दंगे, अराजकता, हिंसा ...
ब्रिटेन में भड़की हिंसा उस आधुनिक विकास की देन है, जो असमानता की खाई चौड़ी कर वंचितों और गरीबी की संख्या बढ़ाने वाली है। दंगे, अराजकता, हिंसा और लूटपाट की गतिविधियों में जिस तरह से बच्चे, किशोर, युवा और महिलाएं शामिल पाए गए हैं, उससे लगता है असंतोष की यह आग भीतर ही भीतर अर्से से सुलग रही थी। 29 साल के अश्वेत मार्क डुगन की मौत तो इस दबी चिंगारी को असंतोष के विस्फोट में बदलने का एक बहाना भर है। लंदन से भड़के दंगों का विस्तार बारह अन्य शहरों तक हो जाना भी इस बात का पर्याय है कि ब्रिटेन में आधुनिक और आर्थिक विकास की परछाईं में फैली असमानता की खाई का दायरा बहुत व्यापक है। हालांकि ब्रिटेन ही नहीं अमेरिका समेत पूरा यूरोप इस समय अपनी ही बनाई आर्थिक नीतियों की जबरदस्त चपेट में है। ऐसे में इन देशों में आर्थिक सुधार के जो भी उपाय किए जा रहे हैं, उनकी मार भी उसी तबके पर पड़ रही है जो आर्थिक विकास की चपेट में आकर आजीविका के संकटों से दो-चार हुआ। लिहाजा हर बार गलत आर्थिक नीतियों का अंजाम इसी वंचित तबके को भोगना पड़ा है। रोजी-रोटी के संसाधनों से लगातार महरूम होता जा रहा आम आदमी अपने हक के लिए आक्रोश न जताए तो क्या करे ?
ब्रिटेन के शहर लंदन, जहां दंगों के भड़कने का सिलसिला शुरू हुआ, वह वैसे एक बहुलतावादी संस्कृति बहुजातीय और बहुभाषी महानगर है। यहां की कुल आबादी के 31 फीसदी लोग अन्य देशों से हैं। तीन सौ भाषाएं प्रचलन में है। डेढ़ सौ से भी ज्यादा जातीय समूह और करीब दर्जन भर विभिन्न धर्म व संप्रदायों से जुड़े लोग आपसी सामंजस्य बिठाकर ब्रिटेन के विकास में सहभागी बने हुए हैं। 1831 से 1925 तक दुनिया का यह सबसे अधिक आबादी वाला शहर था। आधुनिक सुविधाएं होने के कारण दुनिया को महानगरों से जोड़ने वाले सबसे ज्यादा संसाधन व सुविधाएं इसी शहर में हैं। लंदन के हवाई अड्डे से सबसे ज्यादा यात्रियों की आवाजाही होती है। इसीलिए इसे विश्व सभ्यता का महानगर माना जाता है, क्योंकि दुनिया की सबसे ज्यादा सांस्कृतिक सभ्यताओं के लोग यहीं बसते हैं। लेकिन इस महानगर के वैश्विक शहर बनने के पीछे एक स्याह पृष्ठ भी जुड़ा है। जिसकी दमित कुंठाएं और आक्रोश अब आकार ले रहे हैं। दरअसल दुनिया जानती है कि ब्रितानी हुकूमत एक समय दुनिया में छाया हुआ ऐसा साम्राज्य थी, जिसका सूरज कभी डूबता नहीं था। साम्राज्यवादी इसी लिप्सा के चलते इन ब्रितानी हुक्मरानों ने न केवल दुनिया की प्राकृतिक और आर्थिक संपदा को लूटा बल्कि अत्याचार के चरम दुराचरणों का इस्तेमाल कर कई एशियाई और अफ्रीकी मूल के लोगों को गुलाम बनाकर ब्रिटेन लाए और उन्हें बेगारी के काम-धंधों में लगा दिया। इन्हीं देशों से लूटी संपत्ति और इन्हीं देशों के गुलाम बनाकर लाए लोगों ने लंदन समेत ब्रिटेन के उन सभी महानगरों के नवनिर्माण में अपना खून-पसीना बहाया, जो दंगों की चपेट में हैं। दरअसल श्वेत और अश्वेत का नस्लवादी खोट पूरे ब्रिटेन में सांस्कृतिक बहुलता और बहुभाषी शिक्षा के बावजूद कभी निर्मूल हुआ ही नहीं।
दंगों की शुरूआत तो लंदन के बहुजातीय जिले टोटेनहैम के एक कैरेबियन मूल के नागरिक मार्क डगन को टैक्सी से उतारकर पुलिस द्वारा मार गिराए जाने के बाद हुई थी। इस अश्वेत को मारा तो गुंडा कहकर गया था, लेकिन वास्तव में यह उन अफ्रीकी और कैरिबियन मूल के गरीब और बेरोजगार लोगों के नेतृत्वकत्ताओं में भी शामिल था, जो वंचितों के हकों की मांगों के लिए लड़ रहे थे। लिहाजा पुलिस द्वारा सार्वजनिक स्थल पर हत्या कर देने के बाद इन समुदायों के लोगों ने जब हत्या को गैरजरूरी व गैर कानूनी ठहराने की फरियाद आला अफसरों से की तो इसे अनसुना कर दिया गया। जिससे जनता भड़क गई और बेकाबू होकर हिंसा व आगजनी पर उतर आई। पुलिस की यह नादानी अब पूरे ब्रिटेन पर भारी पड़ रही है।
इन दंगों ने यह भी खुलासा कर दिया कि जिस ब्रिटिश पुलिस को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुलिस होने का दर्जा प्राप्त है, वह यह अनुमान ही नहीं लगा पाई कि इन दंगों की जड़े कहीं और हैं तथा बहुत गहरी हैं। इसीलिए देखते-देखते इस आग की चपेट में पूरा लंदन तो आ ही गया। लंदन से मध्य और उत्तरी शहरों की ओर भी असंतोष की अराजकता सुरसामुख की तरह फैलती चली गई। बारह शहरों में दंगाई मनमानी पर उतर आए। कई जगह पुलिस लाचार दिखी। यही वजह रही कि विभिन्न समुदायों के युवा संगठनों को खुद अपने समुदाय की रक्षा में हथियारों के साथ आगे आना पड़ा। हिंसा प्रभावित शहरों के एशियाई बहुल क्षेत्रों में सजग समूह, अपने पड़ोसियों और धर्मस्थलों की सुरक्षा करते देखे गए। सात सौ से भी ज्यादा सिख समुदाय के युवक तलवारे हाथों में लहराते हुए साउथहॉल स्थित गुरूसिंह गुरूद्वारे की सुरक्षा में तैनात हो गए। इसी तर्ज पर मुस्लिम युवाओं ने मस्जिदों की सुरक्षा की। ऐसी ही चेष्टाओं के चलते बर्मिधंम शहर में अपने समुदाय की रक्षा करने की कोशिशों में लगे एशियाई मूल के तीन युवक एक कार की चपेट में आकर प्राण गंवा बैठे। बहरहाल पूरे चार दिन चले हिंसा के खुले खूनी खेल ने पूरे ब्रिटेन में फिलहाल भय और अलगाव की बुनियाद रख दी है। इसे एकाएक पाटना नामुकिन है।
ब्रिटेन में फैले दंगों का यह एक रूप था, लेकिन इसका दूसरा रूप सीधे-सीधे आर्थिक पक्ष से जुड़ा है। ब्रिटेन में बढ़ते राजकोषीय घाटे और कर्ज के बोझ के कारण ऐसी आर्थिक नीतियों को अमल में लाने पर जोर दिया जा रहा है, जिससे खर्चों में बड़े पैमाने पर कटौती हो, नतीजतन अर्थ-व्यवस्था पटरी पर लौटे। लिहाजा ब्रिटेन में जो कल्याणकारी योजनाएं गरीबों के पेट का निवाला बनी हुई थीं, उन पर कटौती की मार पड़ना शुरू हो गई है। ऐसी योजनाओं के तहत बेरोजगार और बूढ़ों को मासिक भत्ते, सस्ती दरों पर खाद्यान्न सामग्री और मुफ्त इलाज की सुविधाएं हासिल कराई जा रही थीं। लेकिन 2008 में आर्थिक मंदी की गिरफ्त में आने के बाद इन योजनाओं के बजट को घटाने और गरीबों की संख्या कम करने के सरकारी प्रयास शुरू हो गए। नतीजतन इन उपायों की दबिश में सबसे बड़ी तादात में वही अफ्रीकी और कैरिबियन मूल का तबका आया जो गरीबी और बेरोजगारी की चपेट में पहले से ही था। लिहाजा हिंसा व लूट के अवसर अनायास फूटने पर बच्चे, किशोर, बूढ़े और महिलाओं की भीड़ विविध वस्तु भण्डारों की लूट में जुट गई। इस हालात ने जाहिर किया है कि गलत आर्थिक नीतियों के चलते ब्रिटेन का बहुलतावादी सामाजिक ढांचा टूट रहा है। जिस आधुनिक विकास की बुनियाद पर उसकी आजीविका संकट में डाली गई है, उसके चलते उसे अपना भावी जीवन भयग्रस्त लगने लगा है। विकास की दौड़ में पीछे छूटे इस वर्ग ने जब लगातार चौड़ी होती जा रही असमानता की खाई का अनुभव किया तो निराशा में हाथ मलते रहने के सिवाय उसके पास कुछ शेष रह ही नहीं गया था।
हालांकि ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन इस हिंसा को केवल जातीय अथवा नस्लीय परिप्रेक्ष्य में न देखते हुए इस हकीकत को भी स्वीकारा है कि आर्थिक नीतियों के चलते समाज में कुछ न कुछ ऐसे विपरीत हालात जरूर निर्मित हुए हैं, जिन्होंने समाज की मानसिकता को बीमार कर गलत दिशा दी है। इस नजरिए से उन्होंने ब्रिटिश समाज की जवाबदेही को भी रेखांकित किया है और एक मूल्यपरक स्पष्ट मानक संहिता वजूद में लाने पर जोर दिया है। ब्रिटेन की इस स्थिति से भारत को भी सबक लेने की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से भारत में लोगों को जल, जंगल और जमीन से बेदखल करके वंचितों की तादात बढ़ाकर आजीविका का संकट पैदा किया जा रहा है, उससे तय है असंतोष उनमें में पल व बढ़ रहा है। यह फूटकर हिंसा, आगजनी और लूटपाट का देशव्यापी हिस्सा न बने इससे पहले जरूरी है कि ध्वस्त हो रही योरोपीय अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने पर हम भारत में प्रतिबंध लगाएं। अन्यथा नतीजे भुगतने को तैयार रहें ?
pramod.bhargava15@gmail.com
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551
लेखक वरिष्ठ कथाकार एवं पत्रकार हैं।
kuchh tathyon ki kami akhar rahi hai...
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