सियासत के शोर में गुम हुईं किसानों की समस्याएँ भारतीय सियासत एक शोर में तब्दील हो गई है। विपक्ष जनता की समस्याओं के नाम पर शोर करता है त...
सियासत के शोर में गुम हुईं किसानों की समस्याएँ
भारतीय सियासत एक शोर में तब्दील हो गई है। विपक्ष जनता की समस्याओं के नाम पर शोर करता है तो सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियों पर। इस शोर में आम आदमी की वेदना और कसमसाहट दब जाती है। संसद के अंदर और संसद के बाहर सिर्फ यही शोर सुनाई पड़ता है। ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब संसद में किसी विषय पर शांतिपूर्ण बहस होती हो। अति आवश्यक विधायी कार्य इस शोर के भेंट चढ़ जाते हैं। महत्वपूर्ण मुद्दे धरे के धरे रह जाते हैं। कई महत्वपूर्ण विधेयक या तो लटका दिये जाते हैं या बिना बहस के पारित हो जाते हैं। पिछले कई सत्रों का यही हश्र हुआ। हाल के वर्षों में इस हंगामे और शोर की वजह से आम जनता की आवाज दब कर रह गयी है। हमारे सांसदों का एकमात्र लक्ष्य यही रह गया है कि अब किसी भी मुद्दे पर बहस नहीं होगा, सिर्फ शोर और हंगामा होगा।
संसद के मौजूदा सत्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश होने वाला है। पक्ष और विपक्ष की तैयारियों को देखकर लगता है कि संसद में यह विधेयक बिना हंगामे के पारित नहीं हो पाएगा। देश के विभिन्न हिस्सों में भूमि अधिग्रहण ने हिंसक विवादों को जन्म दिया है। भूमि अधिग्रहण को लेकर एक ओर किसान असंतुष्ट हैं वहीं दूसरी ओर देश का औद्योगिक विकास रूक रहा है। भूमि अधिग्रहण विधेयक जल्द से जल्द पारित किया जाना चाहिए। प्रस्तावित विधेयक में इस बात का प्रावधान है कि अगर सरकार निजी कंपनियों के लिए या प्राइवेट पब्लिक भागीदारी के अंतर्गत भूमि का अधिग्रहण करती है तो उसे 80 फीसदी प्रभावित परिवारों की सहमति लेनी होगी। इतना ही नहीं बहु-फसली सिंचित भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि इससे भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर पारदर्शिता आयेगी, वही कुछ लोग यह शंका व्यक्त कर रहे हैं कि भूमि अधिग्रहण कानून अगर पास हो गया तो देश में पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लागू हो जाएगी।
किसानों के मुद्दों और भूमि अधिग्रहण को लेकर संसद में तो शोर है ही, यूपी का राजनीतिक माहौल भी गरमा गया है। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण को लेकर बसपा के खिलाफ आंदोलन चला रखा है। भट्टा परसौल की घटना के बाद उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार कांग्रेस, भाजपा, सपा और राष्ट्रीय लोकदल के निशाने पर हैं। भट्टा परसौल में आंदोलनकारी किसानों के बीच सबसे पहले पहुंच कर राहुल गांधी ने अन्य दलों के नेताओं में हलचल मचा दी थी। अरसे बाद आये इस मौके को कांग्रेस किसी भी कीमत पर हाथ से जाने देना नहीं चाहती थी। इससे पहले टप्पल के किसानों को लेकर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री से मुलाकात भी की थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अगस्त 2010 में भूमि अधिग्रहण कानून संसद में लाने की बात कही थी, लेकिन उस वक्त यह बिल पेश नहीं किया जा सका। इस बीच भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर कांग्रेस खुद कठघरे में आ गयी है। हरियाणा सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि सरकार ने किसानों की अनदेखी कर राजीव गांधी ट्रस्ट को जमीन उपलब्ध कराने के लिए नियमों को ताक पर रख दिया। मजबूर होकर किसानों को हाइकोर्ट का शरण लेना पड़ा। पंजाब के मंसा जिले के किसान भी राज्य में ताप विद्युत परियोजना के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं।
दरअसल किसानों को राजनीति में उलझाकर सभी दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे हैं। दादरी, नंदीग्राम, सिंगुर, टप्पल और नियमागिरी में भी यही हुआ। मसले वही पुराने के पुराने हैं। समस्याएं जस की तस हैं। सिर्फ हंगामा खड़ा कर गरीबों का दुखः दर्द दूर नहीं किया जा सकता है। किसानों के जीवन-मरण से जुड़े इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कभी गंभीरता से चर्चा नहीं होती। शोर-शराबा किसी समस्या के समाधान का फॉर्मूला नहीं हो सकता। सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के नाम पर किसानों पर लगातार जुल्म हो रहे हैं। भूमि अधिग्रहण के चलते कई आंदोलन भी हुए हैं। विकास के नाम पर किसानों की जमीन छीनी जा रही है। खेतों में बड़े-बड़े मॉल खड़े किये जा रहे हैं। सैकड़ों-हजारों गांव उजाड़ दिये गये हैं। कृषक समुदाय भूमिहीन और मजदूर बन पलायन को मजबूर हो गया है। किसानों की जमीन को सस्ते में खरीद कर निजी कंपनियां भारी मुनाफा कमा रही हैं। कौड़ियों के मोल खरीदी गयी जमीन की कीमतें कॉरपोरेट घरानों के हाथों में पहुंचते ही आसमान छूने लगती है।
सारे विवादों की जड़ में मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून है। सरकार आज भी 1894 में ब्रिटिश शासनकाल में बने भूमि अधिग्रहण कानून से ही काम चला रही है। ब्रिटिश साम्राज्य की नीति कभी भी कृषि सुधार की नहीं थी। आजादी के बाद भी किसानों का इस्तेमाल राजनैतिक फायदे के लिए किया जाता रहा है। नेहरू ने विकास के पश्चिमी मॉडल को स्वीकार किया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में तीव्र औद्योगीकरण पर जोर दिया गया और किसानों को तथाकथित विकास की बलिवेदी पर चढ़ा दिया गया। आज भी प्रायः सभी सरकारें इस कानून का ही सहारा लेकर किसानों की करोड़ों की जमीन कौड़ियों में अधिग्रहण कर उसे निजी हाथों में सौंप रही हैं। 1984 में इसमें संशोधन किया गया था लेकिन उक्त संशोधन किसानों के बजाए कॉरपोरेट घरानों के हित को ध्यान में रखकर किया गया था।
देश के तमाम हिस्सों में किसानों और आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण जबरन किया जाता रहा है। किसानों की स्वीकृति और सहभागिता की चर्चा कोई नहीं करता। चाहे सिंगूर हो या नंदीग्राम या फिर भट्टा पारसौल हर जगह किसानों की स्वीकृति के बिना भूमि का अधिग्रहण किया गया। राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के लिए सशक्त आवाज उठाने वाला नेतृत्व का अभाव है। इस बीच टिकैत का जाना किसान आंदोलन के लिए बड़ा झटका है। विकास कार्यों के लिए तो सरकार को जमीन चाहिए, जिससे विस्थापन होगा ही। सरकार की नीति ऐसी होनी चाहिए कि लोग स्वतः अपनी जमीन देने को तैयार रहें। विकास की परिकल्पना सिर्फ अमीरों के हितों को ध्यान में रख कर नहीं की जा सकती है। किसानों को उनकी जमीन का वाजिब हक मिलना चाहिए। चाहे अधिग्रहण सरकार कर रही हो या निजी कंपनियां, सरकार को ऐसी भूमि अधिग्रहण नीति बनानी चाहिए जिसमें किसानों को हर तरह से संरक्षण मिल सके।
भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है। भारत के आर्थिक विकास में खेती की प्रमुख भूमिका रही है। देश की अस्सी फीसदी आबादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपने रोजगार के लिए कृषि से जुड़ी है। विडंबना है कि उत्पादन बहुतायत होने के बावजूद किसानों को वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा है। किसानों के लिए प्रति एकड़ आनेवाली लागत भी बहुत बढ़ गयी है और खेती घाटे की चीज बनती जा रही है। कृषि क्षेत्र और उससे जुड़े मजदूरों और किसानों की अनदेखी का परिणाम है कि ग्रामीण इलाकों की हालत लगातार खराब होती जा रही है। उदारीकरण का दौर 90 की दशक में शुरू हुआ। भारत के संदर्भ में सरकार की नयी आर्थिक नीति हितकर नहीं साबित हो रही है। उन्मुक्त अर्थव्यवस्था वाले में छोटे किसानों की समस्याएं बढ़ जाती हैं। छोटे किसान सीमित कृषि संसाधनों के बल पर भरण-पोषण करते आए हैं। किसानों की अनदेखी कर भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ नहीं किया जा सकता है।
यूपी की सत्ता में पहुंचने का रास्ता पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड से होकर गुजरता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीन के मुद्दे को कांग्रेस चुनावी रणनीति के तहत अपने एजेंडे में शामिल करने की कवायद कर रही है। किसान संदेश यात्रा और किसान महापंचायत इसी कवायद के अहम हिस्से हैं। जानकारों के मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा का प्रभाव कम है। बुंदेलखंड का भी कमोबेश यही हाल है। विकास की तमाम योजनाओं और घोषणाओं के बावजूद पिछले तीन सालों में बुंदेलखंड में डेढ़ हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली है। इस साल जनवरी से अब तक 521 किसानों की खुदकुशी की खबर है। पिछले वर्ष यह संख्या 583 के करीब थी। बुंदेलखंड की समस्या पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। कर्ज से परेशान किसान खुदकुशी करने को मजबूर हैं। मालूम हो कि यूपीए सरकार ने 2007 में पांच एकड़ के किसानों का पूरा और पांच एकड़ से ज्यादा बड़े किसानों का 25 फीसदी कर्ज माफ किया था लेकिन किसानों का आरोप है कि माफ कर्ज जबरन वसूले जा रहे हैं। किसानों के पास अपनी जान देने के अलावा और कोई चारा नहीं हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री ने बुंदेलखंड के नाम पर लगभग 7300 करोड़ रूपये देने का ऐलान किया था, जिसमें यूपी के लिए करीब 3500 करोड़ दिये गये हैं। कांग्रेस का आरोप है कि यूपी सरकार ने इसके उपयोग में तेजी नहीं दिखायी। सच तो यह है कि कोई भी दल किसानों के हित के प्रति संवेदनशील नहीं हैं।
भट्टा पारसौल का मामला हो या बुंदेलखंड का आरोप-प्रत्यारोप के बीच सारी कवायद किसानों की समस्या से हटकर यूपी में खुद के लिए जमीन तैयार करने में लग गयी। 403 विधानसभा सदस्यों वाले विधानसभा में कांग्रेस के महज 20 विधायक हैं। राहुल के अलावा कांग्रेस में प्रदेश स्तर पर अन्य कोई नेता मौजूद नहीं है। पिछले दो दशकों से उत्तरप्रदेश में राजनीति की मुख्य लड़ाई सपा और बसपा के बीच ही रही है। भारतीय राजनीति में जितनी अहमियत उत्तरप्रदेश की है उतनी किसी अन्य राज्य की नहीं। उत्तरप्रदेश में अगले साल होनेवाले आम चुनावों को देखते हुए राजनीतिक दलों में किसान आंदोलन का राजनीतिक लाभ लेने की होड़ मची हुई है। कांग्रेस के लिए हाल में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजो में अच्छे संकेत नहीं मिले हैं। राहुल के सहारे कांग्रेस यूपी में अपनी खोयी हुई जमीन पाने की जुगत में है तो वहीं सपा और भाजपा अपने वोट बैंक मजबूत करने की फिराक में। यूपी में पार्टी का पुनरूत्थान राहुल के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। कांग्रेस यहां 1989 से सत्ता से बाहर है। जानकारों के मुताबिक दलित वोट को मायावती से दूर करना आसान नहीं है। इस वजह से सबकी निगाह किसानों और अल्पसंख्यकों के वोट बैंक पर है।
देश की प्रगति में किसान बहुत महत्व रखते हैं। विकास की दौड़ में किसान अपने जीविका के आधार को खोते जा रहे हैं। ज्यादातर किसान महंगाई और कर्ज के बोझ तले कराह रहे हैं। विकास के नाम पर किसानों की अनदेखी ठीक नहीं है। किसानों के मसले पर पक्ष और विपक्ष को साथ मिलकर काम करना होगा।
हिमकर श्याम
द्वारा ः एन. पी. श्रीवास्तव
5, टैगोर हिल रोड, मोराबादी,
रांची ः 8, झारखंड।
उम्दा आलेख। कई अहम सवाल उठाये गए हैं। विकास की योजनाएं विकास का भ्रम ही करवाती रहेंगी या हकीकत में कभी विकास भी होगा।
जवाब देंहटाएंआपके विचारो से सहमत हूँ बढ़िया आलेख
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