आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 8 - मंजुला गुप्ता की कहानी : चक्रवात

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कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ संस्करण : 2011 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन विवेक व...

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कहानी संग्रह

आदमखोर

(दहेज विषयक कहानियाँ)

संपादक

डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’

संस्करण : 2011

मूल्य : 150

प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन

विवेक विहार,

शाहदरा दिल्ली-32

शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा

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चक्रवात

श्रीमती मंजुला गुप्ता

 

उनकी मृत्यु इस तरह से अचानक आत्महत्या के रूप में होगी, जानकर जहाँ अत्यन्त दुःख हुआ वहीं सहज विश्वास नहीं हो रहा था, आखिर उन्हें ऐसा कदम उठाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? उस परिवार से मेरा बहुत पुराना एवं गहरा रिश्ता रहा है। यहीं कोई तीस-पैतीस साल पुराना उस परिवार के एक-एक व्यक्ति के स्वभाव, मानसिकता एवं विचार से न केवल मैं भली-भांति परिचित था अपितु वे मेरी हर सलाह मसवरे में भागीदारी आवश्यक समझते थे। उनका बेटा सुधीर आरम्भ से ही पढ़ने में अव्वल दर्जे का था। पिता किराने की दुकान अरसे से लगाया करते थे। न उनके पास इतना पैसा था कि वे उसे ऊँची शिक्षा दिलाते और न उसका कोई महत्व ही था। बेटी एक दिन ब्याह कर अपने घर चली जायेगी और बेटा बड़ा होकर आगे पिता की दुकान संभाल लेगा। ऐसा उनका मानना था। इससे अधिक वे कुछ न सोचते थे।

परन्तु सुधीर को उनकी सोच पर तरस आता अथवा यूं कहिये उसे चिढ़ सी होने लगी थी परन्तु पिता का लिहाज कर वह उनके सम्मुख कुछ न बोलता था। विचारों का दृढ़, धुन का पक्का वह कई बार हसरत से भर कर कहता ‘‘यार निशांत! मैं जब भी सूट, बूट टाई बेल्ट लगाये चमचमाती गाड़ियों में लोगों को जाते देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या मैं उन जैसा नहीं बन सकता। मुझे पिता जी की सेाच पर तरस आता है। वे अपनी तरह मुझे एक दुकानदार बनाकर क्यों रख देना चाहते हैं। मेरी पढ़ाई पर भी उन्हें कुछ नहीं खर्च करना पड़ता। मेरी पढ़ाई का अधिकतर खर्चा तो मेरी छात्रवृत्ति से ही निकल जाता है। अनुराधा के लिए वह बार-बार यही कहते हैं कि वह पराया धन है जब तक मैं उसका विवाह नहीं कर लूंगा, गंगा नहाने का कर्ज मेरे ऊपर चढ़ा रहेगा। अनुराधा की चर्चा चली नहीं कि बस विवाह... वे क्यों नहीं इस बात को समझने की कोशिश करते कि वक्त बहुत बदल गया है। लड़कियों को भी तभी अच्छा घर-वर मिलेगा, जब वे पढ़-लिखकर पांव पर खड़ी होगी। आज कल दहेज के साथ-साथ लड़कियों का पढ़ा-लिखा एवं नौकरी शुदा होना कितना आवश्यक हो गया है। कई बार मैंने पिताजी से तो नहीं, परन्तु माँ को समझाने की बहुत कोशिश की कि अनुराधा को आगे पढ़ने दो। इसे केवल बारहवीं पास कर लेने से काम नहीं चलेगा। इसे बी.ए. कराकर एम.बी.ए. अथवा कोई कम्प्यूटर कोर्स कराओ। आजकल लड़कियों का भी पढ़-लिखकर पाँव पर खड़ा होना उतना ही आवश्यक है जितना लड़कों को। देखो न अखबार में रोज-रोज कैसी खबरें आती हैं। आज यहाँ दुर्घटना कल वहाँ... जीवन कितना असुरक्षित हो उठा है। लड़की अगर समर्थ होती है तो इन दुर्घटनाओं का मुकाबला वह साहस से कर लेती है किसी पर बोझ नहीं बनती........परन्तु मेरी बात को बीच में ही काटते हुये उन्होंने मुझे डांटा कि आज तक मुझे इस विषय पर कुछ बोलने की हिम्मत ही न पड़ी। ‘‘सुबह-सुबह ऐसी अशुभ भाषा बोलते तुझे शर्म नहीं आती, ब्याह हुआ नहीं और तू बड़ा भाई होकर उसे बेवा होने का आशीर्वाद पहले दे रहा है। हाय..हाय..ऐसे भाई से तो यह बिना भाई भली। ऐसे भाइयों से मैं आगे क्या उम्मीद लगाऊँ। भाई तो माँ-बाप के बाद बहनों का सहारा बनते हैं और एक ये है....और वे माथे पर दोहत्थड़ मार कर जो दहाड़ मार कर रोयी कि मुझे तो इस विषय पर कुछ बोलना तो दूर-किनार, यदि इस विषय पर जिक्र छिड़ता भी तो मैं वहाँ से हट जाने में ही अपनी भलाई समझता। वे उसके लिए ऐसा घर-वर खोज रहे थे कि अव्वल तो परिवार बड़ा हो। उन्हें इस बात का दुःख था कि भगवान ने उनके दो बच्चों के बाद ही हाथ क्यों खड़े कर लिए, उनका मानना था कि बड़े परिवार में व्यक्ति सुरक्षित रहता है, दूसरे लड़की को क्यों अधिक पढ़ाया लिखाया जाये। पढ़ाई में भी पैसा लगाओ और शादी में भी......परायी वस्तु पर इतना खर्चा, उनकी संकीर्ण मनोवृत्ति एक दायरे में कैद थी।

उन्होंने अनुराधा का ब्याह अपने ही शहर से लगे हुये कस्बे में कर दिया। बहुत देखभाल कर परिवार चुना था। छः भाई चार बहनों वाला परिवार जिसमें दो बिजनेस करते थे। चार खेती का काम। घर में राशन पानी की कोई चिंता न थी। खेती से अनाज घर में आता था। खाने पीने की कोई कमी न होने के कारण हर भाई के चार-चार पांच-पांच बच्चे थे। उनका सोचना था कि जितने लड़के होंगे उतने ही खेती में हाथ बटायेंगे, लड़कियाँ तो पराया धन है, एक पल में फुर्र से उड़ जायेगी। अनुराधा उस घर में पांचवे नम्बर की बहू बन कर गयी थी। वहाँ के रिवाज के अनुसार सुबह-सुबह घर को बासी न छोड़ने की प्रथा के अनुसार उसे झाडू, बुहारी बर्तन चौका, कपड़े, खाना आदि काम करना पड़ता था, जब तक पुरुष भोजन न कर लें महिलाओं को भोजन करने का अधिकार नहीं था। घर के पुरुषों को पहले भोजन में पौष्टिक वस्तुयें जैसे दूध, फल देशी घी आदि दिया जाता था। बाद में सास एवं जिठानियों के हिस्से आता था। अनुराधा को तो सबसे पीछे वह भी आखिरी रोटी कभी बर्तन की तलछट पोंछ कर या रोटी पर नमक हरी मिर्च लगाकर खानी पड़ती थी। शुरु-शुरु में तो वह कुछ न बोलती थी। बस चुप-चाप सहती जाती थी कि माँ-पिताजी पर क्या बीतेगी। परन्तु सच्चाई ज्यादा दिन छुपी न रह सकी। जब भी वह आती शरीर पहले से अधिक सूखा हुआ मिलता। अब उसे रह-रह कर खांसी भी आने लगी थी जो कि पहले धीरे-धीरे बाद में तेजी से शुरु हो गयी। माँ ने ध्यान से देखा तो उसमें बलगम के साथ रह-रह कर खून भी आने लगा था। माँ-पिताजी यह देख सकते मैं आ गये। मालूम चला कि पहले भाइयों के बच्चे इसलिए ज्यादा हो गये कि जब तक लड़का नहीं हो जाता था लड़कियों होती चली जाती थी परन्तु अब तो यह भी सुविधा वैज्ञानिकों की मदद से मिल गयी है। अतः अनुराधा के एक वर्ष के भीतर तीन-तीन गर्भपात करा दिये। उसकी सास और पति प्रसूति कक्ष के बाहर डॉ. की रिपोर्ट जानने की प्रतीक्षा में बैठे रहते और कन्या का पता लगते ही गर्भपात करा देते। एक के बाद एक गर्भपात से अनुराधा का शरीर दुर्बल होता चला गया। एक दिन माँ ने ही किसी से दबी आवाज में कहलाया था। ‘‘हमारे वहाँ एक गर्भपात सौ जापा के बराबर मानते हैं। जब जबरन गिरवाया तो कम से कम खाने-पीने का तो ध्यान रखना चाहिए।’’ जबाब मिला ‘‘क्या बेटा जना था जो देशी घी के लड्डू वाको वारती।’’ माँ चुप थी क्योंकि बेटी पराया धन जो थी।

उसके पिता दीनानाथ जी एक बार गये। यद्यपि यह भी उनके उसूलों के विरुद्ध था। जिसे बेटी के घर का जल भी ग्रहण करना उनके उसूलों के विरुद्ध था वहाँ उनका जाना क्या सहज संभव था। परन्तु पत्नी की कातर अवस्था और आँखों से भल-भल आँसू बहते देख स्वयं को रोक न सके-लगभग आधा घंटा ड्राइंग रूम में बैठने और इन्तजार करने के बाद अनुराधा उनके सामने लायी गयी। लगता था उसे बहुत ठोंक बजा कर उनके सामने लाया गया है। दीनानाथ जी जो भी बात पूछते बस उसी का और उतना ही जवाब वह देती। परन्तु उसके हाव-भाव, निस्तेज आँखें, धंसे गालों के ऊपर उभरती हड्डियाँ मानों बिना कहे ही सब कुछ कह रही थीं। घर आकर उन्होंने पत्नी जानकी को बहुत ही संतुलित और नपे तुले शब्दों में जो कुछ बताया तो जैसे माँ की पारदर्शी आँखों ने सब कुछ बिना कहे ही जान लिया। उन दिनों आजकल के समान फटाफट तलाक का चलन नहीं था। समस्या गंभीर होने के उपरान्त भी वे विवश से उसके तबाही का मंजर देखते रहे। उसकी ससुराल वालों की अनपेक्षित मांग के कारण सुधीर के विवाह के अच्छे-अच्छे आने वाले रिश्ते ठुकरा दिये गये और उसकी आमदनी का एक बड़ा भाग अनुराधा के ससुराल वालों की भेंट चढ़ता चला गया।

परन्तु बहन के घर को इस तरह कब तक भरा जा सकता था और सुधीर के विवाह को कब तक रोका जा सकता था। अतः पांच वर्ष पूर्व उसका विवाह हो गया था और उसके चार वर्षीय बेटे की एक मोटी रकम पब्लिक स्कूल में जाने लगी थी। एक दिन उसके पिता दीनानाथ जी आये और अनुराधा की मर्मस्पर्शी कहानी सुनाकर, उससे आर्थिक सहयोग मांगी थी। सुधीर की अपनी विवशता बताने पर वे दबी जुबान से यह भी कहने से न चूके थे कि उसकी ‘‘ऊपरी कमाई’’ बिल्कुल भी नहीं होती है। उनकी जान पहचान में तो न जाने कितनों की....’’

अन्त में सुधीर ने बड़े ही रूखे स्वर में बेबाकी से कह दिया था कि जब वह अनुराधा को पढ़ाने और इन्हीं परिस्थितियों से लड़ने के लिए आग्रह किया था तो माँ ने कैसा रोला मचाया था। उसने उन्हें अपनी पूर्ण असमर्थता बताते हुये अपनी आमदनी और खर्च का मोटा-मोटा हिसाब ब्योरेवार समझा दिया था।

दीनानाथ जी उल्टे पांव लौट गये थे। तीन चार-दिन तो बड़ी चिंता में बीते। कहाँ से रुपयों का प्रबंध करें। इधर सास ने कहला भेजा था कि अनुराधा के पाँव भारी हैं, इसका मतलब इस बार बेटा अवश्य होगा। दीनानाथ जी को अब ‘‘छूछक’’ की चिंता सताने लगी। हार मानकर जब कोई रास्ता उन्हें दिखायी न दिया तो उन्होंने नाले पार की पुश्तैनी जमीन बेच दी। बाप दादों की वह लम्बी-चौड़ी जमीन बटते-घटते छोटे से रूप में उनके हिस्से आयी थी। उन्होंने उसे बटाई पर दे रखा था। परन्तु वक्त की मार, वह भी हाथ से निकल गयी। आखिर उनकी और बेटी दोनों की इज्जत का प्रश्न था। उन्होंने मुझे भी इस विषय में सलाह मसवरे के लिए बुलाया था और मैंने भी जैसा आप लोगों की इच्छा कह कर मानों पिंड छुड़ाया था।

परन्तु जैसा कि कहावत है ‘‘दुर्भाग्य कभी अकेले नहीं आता जाने कितनी सहचरियों को अपने संग लेकर आता है,’’ लगभग कुछ ऐसी ही स्थिति इन लोगों के साथ हो गई। ‘चेक अप’ में कहाँ और कैसे गलती हो गई। लड़का की जगह लड़की का जन्म हो गया और जैसा की पूर्व मानित था अनुराधा की प्रताड़ना पहले से अधिक मुखर एवं तीव्रतर हो उठी। इस बीच देवरानी के आ जाने एवं पहली बार में ही लड़का हो जाने से, जो कसर बच गयी थी वह भी पूरी हो गयी। अंत में माँ-बेटी दोनों की जान का संकट देख एवं जानकी का रो-रोकर बुरा हाल होते देख दीनानाथ जी ने एक साहस भरा कदम उठाया और वे उन्हें विलासपुर ले आये।

परन्तु जवान-जुहान बेटी एवं उसके नवजात शिशु की चिंता उन्हें लगातार खाये जा रही थी। वे मुँह से कुछ न बोलते परन्तु चुपचाप बस शून्य में ताकते रहते। लगता कोई अनजान कीड़ा लगातार उन्हें अन्दर ही अन्दर खोखला किये दे रहा है और एक दिन अचानक हार्ट अटैक में उनकी इह लीला समाप्त हो गई।

रोती-कलपती जानकी अपनी बेटी और दोहिती के संग सुधीर के घर पहुँची। आरम्भ में तो कविता एवं सुधीर इन इनचाहे मेहमानों को किसी तरह झेलते रहे। यद्यपि कविता ने बहुत कोशिश की कि अनुराधा कोई काम करे ताकि आमदनी के संग-संग मन भी लग जाये। कई बार सुधीर ने दबी जुबां से यह भी बताने की कोशिश की उसकी सीमित आय में पाँच-पाँच प्राणियों का गुजर-बसर संभव नहीं। परन्तु जानकी को विश्वास नहीं होता वह अक्सर घर का खर्च कम करने की उसे नसीहतें देते हुए कहती ‘‘यह चार पैरों वाला घोड़ा गाड़ी रखने की क्या जरूरत। तेरे पिता जी ने तो जिन्दगी भर साईकिल से ही काम चलाया। उन्होंने तो कभी स्कूटर का ही सपना नहीं देखा। बहू का इतनी कीमती साड़ी पहन कर, घर में रहने की क्या जरूरत, हम तो पुरानी को भी चार बार सिलकर काम चला लिया करते थे। मंटू को इतने मंहगे स्कूल में पढ़ाने की क्या जरूरत...क्या सुधीर इतने मंहगे स्कूल में पढ़कर ही बैंक में इतने ऊँचे पोस्ट पर काम कर रहा है।

सुधीर कई बार व्यथित होकर मुझसे कहता ‘‘तू ही बता अरविंद, जिस पोस्ट-पोजिशन पर मैं यहाँ कार्यरत हूँ, जिस तरह यहाँ पर मेरे सहकर्मी और उनकी पत्नियाँ यहाँ पर रहते हैं, मुझे भी उसी तरह से रहना पड़ता है। शुरु-शुरु में तो हम परिवार को भरते रहे। लेकिन हमारी दशा क्या हो गई मालूम है, हमारे पास पार्टी अथवा शादी ब्याह के लायक कपड़े नहीं होते, न आने का कारण पूछने पर कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देना पड़ता। धीरे-धीरे हम समाज से, अपने आस-पास के परिवेश से कटने लगे। कविता और मुझमें एक हीन भावना घर करने लगी। कई बार घर में अचानक किसी के आ जाने पर हमें शर्म महसूस होने लगती। माँ-पिताजी ने गाँव वाला जीवन जिया, भोगा है। जहाँ किसी के आ जाने पर वे बैठने को टाट बिछा देते थे, या हुक्का पेश कर देते थे। क्या दिल्ली जैसे शहर एवं रिजर्व बैंक की कॉलोनी जैसी जगह में यह संभव है? मैंने सोच लिया है कि मंटू को आरम्भ से ही किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाऊँगा ताकि जो पीड़ा मैंने तीन-चार वर्षों तक भोगी, वह उसे न भोगनी पड़े, आरम्भ से ही वह हीन भावना ग्रसित हो, अपने आस-पास के परिवेश से न कटने लगे।’’

उसकी बातें सुन, निरुत्तर अवाक् सा मैं उसकी बातें सुनता रहा।

धीरे-धीरे परिवार में, पहले दबे-दबे रूप में पुनः मुखर स्वर में, गृह क्लेश शुरू हो गया। सुधीर अपनी माँ एवं बहन को कुछ कहने में झिझकता और सारा गुस्सा किसी न किसी रूप में कविता पर निकलता। दोनों पक्षों में अधिकारों की लड़ाई पैसों की खींचतान का मानों रात-दिन रोला मचा रहता। जानकी अकेले बैठ बिसूर-बिसूर कर कभी अनुराधा कभी अपनी बेटी को कोसता की वे दोनों पैदा होते ही क्यों न मर गयीं। कभी अनुराधा अपना क्रोध अपनी अबोध बेटी को बेतहाशा पीट-पीटकर निकालती।

आखिर में तय हुआ कि अनुराधा का दूसरा ब्याह कर दिया जाये परन्तु यह भी एक विकट समस्या थी। एक बच्ची की माँ से भला कौन भलामानुष ब्याह करेगा। बहुत प्रयास करने पर एक भलामानुष मिला। जिसके पहले से ही विवाह योग्य तीन बेटी थीं। उसके होने वाले पति रामचंद्र को बुढ़ापे का सहारा, एवं सेवा करने के लिए जीवन संगीनी की तलाश थी। उसके पिचके, धंसे गाल, आगे को झुकी काया, सफेद केश लड़खड़ाती आवाज देख, जानकी ने सिर पीट लिया। लोगों ने समझाया कि ‘‘हाँ’ कर दो। तुम कितने दिन की मेहमान हो। तुम्हारे बाद अनुराधा का क्या होगा। ब्याह से अनुराधा को एक घर तो मिल जायेगा, बच्ची के ऊपर पिता का साया हो जायेगा।’’

अनुराधा के विदा होने के एक माह पश्चात् ही जानकी अपने कमरे में मृत पायी गयी। पास में ही स्यूसाइड नोट, एवं चूहा मारने की दवा पड़ी मिली। यद्यपि उस नोट में लिखा था कि मेरे मरने का दोष किसी के सिर न मढ़ा जाये मैं स्वेच्छा से जान दे रही हूँ, क्योंकि मेरे हृदय में जीने की लालसा समाप्त हो गई है।’’

परन्तु जितने मुँह उतनी बातें........‘‘सबके हृदय में एक ही प्रश्न बारम्बार ध्वनित हो रहा था ‘आखिर जानकी को ऐसा क्या संताप था कि उसे जान देने की नौबत आ गयी। अनुराधा की ही तो चिंता थी, वह भी विवाह के उपरान्त दूर हो जानी चाहिए।’’ कोई कविता पर इल्जाम लगाता ‘‘रात सास-बहू में ऐसा झगड़ा हुआ होगा जो जानकी सहन न कर पायी। कोई सुधीर को दोष देता कि उसने ही माँ के संग ऐसी बदसलूकी की कि उन्हें सहन नहीं हुआ।’’

रो-रोकर बेजार हुई कविता को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी बेगुनाही का सबूत कैसे दे, अपराधी के कटघरे में अनजाने ही खड़ा कर दिया सुधीर, सिर झुकाये धीरे-धीरे अपनी माँ के अन्तिम संस्कार की तैयारी कर रहा था।’’’’

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रचनाकार: आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 8 - मंजुला गुप्ता की कहानी : चक्रवात
आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक शशि - 8 - मंजुला गुप्ता की कहानी : चक्रवात
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