कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ प्रथम संस्करण : 2008 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन व...
कहानी संग्रह
आदमखोर
(दहेज विषयक कहानियाँ)
संपादक
डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’
प्रथम संस्करण : 2008
मूल्य : 150
प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन
विवेक विहार,
शाहदरा दिल्ली-32
शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा
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तोड़ने की पहल
डॉ. सरला अग्रवाल
फरवरी का सुहाना महीना था। सर्दी कुछ कम हो चली थी। स्वाति के पिता के पास लड़के वालों का पत्र आया था, वे लोग लड़की देखने आने वाले थे, लड़का भी साथ आ रहा था उनके। स्वाति ने पिछले वर्ष ही विज्ञान विषय लेकर स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और अब वहीं के स्थानीय डिग्री कॉलेज में व्याख्याता के पद पर नियुक्त हो गई थी।
बसंत पंचमी का शुभ दिन देखकर दिवाकर बाबू ने स्वाति का सम्बन्ध निश्चित कर दिया। इस अवसर पर लड़के के माता-पिता, बहन, छोटा भाई सभी परिवारजन आए थे। लड़की को देखते ही उन लोगों ने पसन्द कर लिया था और उसी समय उसकी अंगुली में शिशिर के हाथ से अंगूठी भी पहनवा दी थी। काफी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे वे लोग! स्वाति के माता-पिता तथा बहनें भी प्रसन्न थीं क्योंकि अधिक प्रयत्न किए बिना ही समय से उन्हें इतना अच्छा रिश्ता मिल गया था। लड़का डॉक्टरी पास कर चुका था और राजकीय अस्पताल में उसकी नियुक्ति भी हो गई थी। माता-पिता दोनों ही शिक्षित थे। पिता राजकीय दफ्तर में एकाउण्टेंट थे। सम्बन्ध पक्का करते समय शिशिर के पिताजी ने दिवाकर जी से पूछा था कि उनका बेटी के विवाह में कितना रुपया व्यय करने का विचार है, इस पर दिवाकर जी ने उन्हें पैंतीस-चालीस हजार का अनुमानित खर्च बताया था। इस पर शिशिर के पिता बनवारी लाल बोले थे-‘‘ठीक है, इसमें से दस हजार आप नकद धनराशी दे देना, किन्तु सामान सब अच्छे स्तर का होना चाहिए एवं बारात की खातिर अच्छी हो।’’ दिवाकर जी ने उनकी इस शर्त को सहर्ष स्वीकार किया था। वह स्वयं ही अपनी बेटी का विवाह खूब धूमधाम से करना चाहते थे, भला इसमें कहने-सुनने की बात ही क्या थी? उनके घर का तो यह पहला ही विवाह था, बड़ी उमंगें थीं सब की। फिर उन दिनों पचीस-तीस हजार रुपए में अच्छी शादी हो जाया करती थी, वह तो पैंतीस-चालीस की बात सोच रहे थे।
यह बात सन् 1977-78 की है। तब देश में आपात कालीन स्थिति चल रही थी। आपातकाल की उस स्थिति की चाहे कितनी भी बुराई क्यों न की जाए किन्तु इतना तो अवश्य ही कहा जाएगा कि उस समय देश में अनुशासन और आतंक-भय अपनी चरम सीमा पर थे। जो नियम बनाए गए थे वे प्रत्येक वर्ग के लोगों पर एक समान ही लागू किए जा रहे थे। दहेज लेने-देने की मनाही थी तो ऊपर से नीचे तक सभी लोगों के लिए थी- व्यर्थ का दिखावा, लाइटों, शामियानों आदि पर भी फिजूलखर्ची करना मना था। इस कारण शादी-विवाह के मामले में लड़के वाले दहेज की मांग लड़की वालों के समक्ष स्पष्ट रूप से करने में डरने-हिचकने लगे थे। यह बात दूसरी थी कि जिसका जहाँ दांव चलता, मेज के नीचे से ली जाने वाली रकम की भांति चूकता नहीं था। अध्यात्म की लम्बी-चौड़ी बातें करना व भौतिकता में विश्वास रखना भारतीय चरित्र की विशेषता रही है। रुपए-पैसे को आता देखकर उसका मोह किस प्रकार छोड़ा जा सकता है!! उन दिनों ऐसे भी समाचार देखने-सुनने में आए थे कि लड़के वालों ने विवाह से पूर्व ही लड़की वालों से चोरी छिपे दहेज का सारा का सारा सामान पेशगी में अपने घर मंगवा लिया था ताकि विवाह के समय ‘लेना’ दिखाई न देवे, या फिर ऐसे भी मामले सुनाई पड़े जिनमें सारा पैसा पहले ही लेकर लड़के वालों ने स्वयं ही अपनी पसन्द से सारा सामान खरीदा-ये अपवाद ही थे।
उन दिनों सरकार की ओर से खुले आम पचास से अधिक व्यक्तियों को बारात में लाने-ले जाने तथा पचास से अधिक व्यक्तियों को एक साथ पंगत में बिठाकर अन्न भोजन कराने पर भी प्रतिबन्ध था। लोग इन सब नियमों का कड़ाई से पालन करते थे क्योंकि किसी तरह की अवहेलना व ना नुकर करने पर उन्हें जेलों में ठूंस दिए जाने का भय बना रहता था। जिस समय बनवारी लाल जी ने अपने इकलौते बेटे शिशिर का सम्बन्ध निश्चित किया था, इमरजेंसी अपने पूर्ण यौवन पर थी। किस समय कौन, क्योें कारावास के अन्दर (बिना मुकदमा चलाए) हो जाए, इसका कुछ हिसाब न था। सो बेचारे क्या करते? मन मसोस कर रह गए, फिर बाप-बेटे दोनों ही सरकारी कर्मचारी थे। दिवाकर जी भी क्या करते, मंहगाई का जमाना, तिस पर तीन-चार बेटियों को खूब पढ़ाया-लिखाया, व्याख्याता, डॉक्टर, इंजीनियर बना दिया, सो सबके पढ़ाने-लिखाने, पालनें-पोसने में बचा कुछ भी न पाए, फिर भी उस समय के हिसाब से चालीस हजार रुपया कुछ कम न था। आगे तीन लड़कियों की शादियां और भी तो थीं।
इधर दिवाकर जी के यहाँ हर्ष की लहर दौड़ गई थी। बड़ी उमंगों के साथ तैयारियां आरम्भ हो गईं। लड़की वाले तो विवाह शीघ्रातिशीघ्र ही करने के इच्छुक थे किन्तु बनवारी लाल जी का कहना था कि बच्चों की परीक्षाएं समाप्त होने पर रखें, अप्रेल के अन्तिम सप्ताह तक विवाह की तारीख तय की जाए। दोनों पक्ष इस बात पर राजी हो गए और विवाह की तैयारियां जोर-शोर से चलने लगीं।
अब साहब आगे की बात सुनिए, बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। अप्रैल का महीना आते-आते जैसे ही विवाह के दिन पास आने लगे कि अचानक इमरजेंसी हट गई। अब क्या था जैसे किसी चिड़ियाघर के सभी पिंजरे खोल दिए जाएं और सभी जानवर-पक्षी स्वतन्त्र हो दौड़ने-भागने, चिल्ल पौं करने, शोर मचाने, काटने-खसोटने लगें, वही हाल हमारे देश का हुआ। सारे कायदे-कानून ही हट गए, पूर्ण स्वतंत्रता का नारा बुलंद हो गया। सभी हड़तालें करने लगे, नारे लगाने लगे, मनमानी, मनचाही करने लगे। सभी की मन मांगी मुरादें पूरी हो रही हैं तो फिर बनवारी लाल जी ही क्यों चूकें भला? उन्होंने भी अवसर का पूर्ण लाभ उठाने का निश्चय किया और लड़की वालों के यहां पत्र लिख भेजा-‘‘गर्मी वाकई बहुत गजब की पड़ रही है, जी घबराता है, हम चाहते हैं कि विवाह सर्दी के मौसम में किया जाए, ताकि खाने-पहनने का आनन्द तो आए। सीधे-सीधे समझो या फिर भारतीय लड़की वाले कहो-बेचारे क्या करते? दूह्ला दुहने वाले ग्वाले के समक्ष भी कभी गाय की चली है? चुप होकर बैठ गए। तैयारियां तो हो ही चुकी थीं-अब सर्दियों की प्रतीक्षा थी।
समय व्यतीत हो रहा था। दिवाकर जी का बनवारी लाल जी के साथ पत्र-व्यवहार बराबर चलता रहता था। सितम्बर के महीने में विवाह का मुहूर्त निकलवाया गया। एक दूसरे को बताते-लिखते सितम्बर का महीना भी बीत गया तभी बनवारी लाल जी ने लड़की वालों को पत्र लिखा-‘‘भई चालीस हजार की शादी का अर्थ कहीं आप यह न समझ लें कि अपने ही रिश्तो, बहन-बेटियों को लेन-देन में जो खर्च हो वह भी इसी में मढ़ दो। अतः हमें विवाह में लड़के के लिए स्कूटर, सोने की एक तोले की अंगूठी, दो गर्म सूट, एक टैरीकोट का सूट, सोने की गले में पहनने की चेन, फ्रिज, डनलप का सोफा सैट डाइनिंग सैट, गोदरेज की बड़ी अल्मारी, साथ ही पन्द्रह हजार कैश तथा घर-गृहस्थी का सब सामान चाहिए, तभी हम तुम्हारे यहाँ अपने लड़के का विवाह करेंगे। हमारा लड़का डॉक्टर है, कोई मामूली क्लर्क नहीं। हाँ ऐसा भी हो सकता है कि आप हमें सामान के लिए पैंतीस हजार कैश दे दें, लड़की का सामान, जेवर कपड़े, बारात की आवभगत आदि सब अलग से कर लेना।’’ इतना सब बड़े ही स्पष्ट रुप से लिखकर बनवारी लाल अपने चातुर्य पर काफी प्रसन्न थे। उनका विचार था कि उनके इस पत्र को देखते ही लड़की वालों के पेट में पानी हो जाएगा, क्योंकि विवाह के निमंत्रण पत्र छपने जा चुके थे। विवाह की तैयारियां भी पूरी कर चुके थे, स्थान-स्थान पर अग्रिम रकम देकर उन्होंने बुकिंग करवा रखी होगी-अब तो बेटा फंस ही गए। चाहे जहाँ से भी करो, करना ही पड़ेगा। आदिकाल से बेटियों के विवाह में बाप बिकते आए हैं- कोई नई बात है क्या-जैसे बेटे वाले नाच नचाएंगे, उन्हें नाचना ही होगा! बनवारी लाल और उनकी पत्नी बड़े प्रसन्न थे।बात दिवाकर जी तक पहुँची। लड़की के माता-पिता के पैरों के नीचे से मानों धरती खिसक गई। हाथ-पैर फूलने लगे-कैसे करें? कहाँ से करें? क्या करें? यह क्या हो गया? सब कुछ इतनी अच्छी तरह से चल रहा था। हमने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि हमारे साथ ऐसा घटित होगा, इतने शिक्षित घराने में विवाह निश्चित किया था कि लड़की पढ़े-लिखे परिवार में शान्ति-पूर्वक प्रेम से जीवन व्यतीत करेगी, पर यह तो.....दिवाकर जी सोचने लगे। ये लोग इतने झूठे कैसे निकले? जो लेन-देन की बात एक बार तय हो चुकी थी, उस पर ये लोग स्थिर क्यों नहीं रह सके, इन्सान की जुबान एक होती है! फिर यह तो सदा-सदैव के सम्बन्ध हैं! पहले तो विवाह को टालते रहे, आठ महीने इसी प्रकार निकाल दिए। आपने समस्त परिवार के साथ स्वाति की फोटो खिंचवा-खिंचवा कर, शिशिर-स्वाति की फोटो खिंचवा कर अपने सारे परिवार में बांटी। शिशिर व स्वयं ये अपनी पत्नी सहित कैसे मीठे-मीठे पत्र स्वाति को भरमाने को लिखते रहे, बीच-बीच में कभी इनके बेटे तो कभी बेटी दो तीन बार शिशिर यहाँ के चक्कर भी लगा गए-वह सब यूं ही था क्या? या हमारी बेटी को बंधन में बांध कर हमें ब्लैकमेल करने के लिए था? अब जब सभी लोगों को इस रिश्ते के विषय में पता लग गया है तो हमें घुड़की दिखा रहे हैं! यदि इतना दहेज चाहिए था तो पहले से ही बता देना चाहिए था। अब तो सारा विवाह कम-से-कम अस्सी हजार में तो बैठेगा ही! इसके अतिरिक्त मुख्य बात तो यह है कि लालची इन्सान का क्या भरोसा? हो सकता है कि विवाह के पश्चात् भी अपनी नई-नई मांगे रखें और हमारी लड़की को परेशान करें। हम भी यहाँ स्वाति का विवाह नहीं करेंगे, स्वराज्य है, स्वतंत्रता है तो सभी के लिए है! सुशिक्षित लड़कियाँ अब लालची लोगों की भेंट नहीं चढ़ेगी!!
दिवाकर जी दुःख, क्षोभ, क्रोध में डूब-उतर रहे थे, पत्नी पास ही बैठीं उन्हें शान्त हो जाने के लिए कह रही थीं कि स्वाति वहाँ आ गई, कहने लगी-‘‘पिताजी, इसमें अधिक सोचा-विचारी की तो बात ही नहीं है। आप जो अपने मन से सोच रहे हैं, वही मैं उचित समझती हूँ। आप तनिक भी घबराए नहीं, आपका निर्णय सही है। अपनी बात पर दृढ़ रहिए। आप सोचते हैं कि लोगों को पता लगेगा, लगने दीजिए, तब और लोग भी आपकी ही तरह सोच पाने की शक्ति जुटा पाएंगे।’’स्वाति की बातों से दिवाकर जी को और भी बल मिला पर वे बोले-‘‘बेटी, मुझे भय है कि कहीं तुम्हें शिशिर से लगाव न हो गया हो, तुम्हारा पत्र व्यवहार जो चल रहा है उससे।’’
‘‘पिताजी, लगाव एकतरफा ही हो, तो क्या लाभ? शिशिर को मुझसे तनिक भी लगाव होता तो क्या वह अपने पिता को ऐसा करने देते?’’
दिवाकर जी ने तब तुरंत ही बनवारीलाल जी को पत्र लिख दिया-‘‘क्षमा कीजिए, हमें अपनी बेटी आप जैसे लालची लोगों को नहीं देनी।’’
अब बारी थी बनवारी लाल जी के पैरों तले की जमीन खिसकने की-‘‘ओह! यह क्या गजब! जरा सुनती हो शिशिर की माँ! भारत में कहीं लड़की वाले भी रिश्ता तोड़ने की पहल कर सकते हैं?’’
‘‘हमारे इतने सामान्य रूप रंग वाले लड़के को इतनी सुन्दर-सुशिक्षित कमाऊ बधू मिल रही थी, हमने तो स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।’’ शिशिर की माँ दुखी होते हुए बोली।
‘‘चलो देखते हैं,’’ बनवारीलाल जी बोले और उन्होंने तुरन्त ही लड़की के पिता दिवाकर को पत्र लिखा-‘‘ऐसा लगता है कि आप सम्बन्ध तोड़ने की बात बिना सोचे-विचारे लिख गए हैं। जैसा कि आप को विदित ही है कि सब ही लोगों को निमंत्रण-पत्र तक भेजे जा चुके हैं, आपने संभवतः यह अनुमान नहीं लगाया है कि इस तरह रिश्ता तोड़ने पर आपकी लड़की कितनी बदनाम हो जाएगी। आप कहीं मुंह दिखाने योग्य तक नहीं रहेंगे। लड़की की सगाई टूटने पर दोबारा कहीं उसकी शादी नहीं हो सकेगी-वह लड़के के साथ मिलती-जुलती रही है, पत्र लिखती रही है तथा फोटो खिंचवा चुकी है। लड़की आपकी जीवन पर्यन्त कुंवारी ही बैठी रहेगी, फिर सोच देखिए! रुपया-पैसा तो आनी-जानी वस्तु है, लड़की के जीवन के समक्ष इसका मूल्य क्या है? आप स्वयं अपने हाथों अपनी लड़की का जीवन नष्ट करने पर तुले लगते हैं। हम तो अब भी बिगड़ती बात संवारने को तैयार हैं, आप चाहें तो लेन-देन का फैसला फिर से किया जा सकता है, तुरन्त यहाँ आ जाइए।’’
पत्र दिवाकर जी ने पढ़ा, पत्नी ने पढ़ा, स्वाति ने पढ़ा, सभी के चेहरों पर दृढ़ता के भाव उभरे थे। दिवाकर जी ने उत्तर दिया-‘‘क्षमा करें, मेरी लड़की है कोई गाय-भैंस नहीं, जो उसका मोल-भाव किया जाए, नीलामी लगाई जाए। अब हम आपके यहाँ हरगिज आपनी लड़की नहीं देंगे।’’
और, इस पत्र व्यवहार के महीने भर बाद ही डॉक्टर शिशिर के पिता बनवारी लाल को एक सुन्दर सा निमंत्रण पत्र मिला जिसमें वे सपरिवार कुमारी स्वाति पुत्री श्रीमती एवं श्री दिवाकर के शुभ विवाह में आमंत्रित थे जो शिशिर के ही एक सहपाठी डॉ0 शशांक से होना निश्चित हुआ था। ’’’
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is mashaal ki lau ko bujhne na dena
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