"मेरा यह यात्रा-संस्मरण आपको नीरस व उबाऊ लग रहा होगा और आप खीझकर मुझे कोसना शुरू करें, इससे पहले ही मैं धीरे से आपको यह बची हुई जानका...
"मेरा यह यात्रा-संस्मरण आपको नीरस व उबाऊ लग रहा होगा और आप खीझकर मुझे कोसना शुरू करें, इससे पहले ही मैं धीरे से आपको यह बची हुई जानकारी देना चाहता हूँ कि उस रात के सहयात्री का नाम आनंद मोहन है। वही आनंद मोहन सिंह जिसे पिछले दिनों न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाई है।....."
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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यात्रा-वृत्तान्त
सीतामढ़ी : एक दिन उर्विजा की जन्मभूमि पर
बुद्धिनाथ मिश्र
‘सीयाराममय पथ पर'•यात्रा की पूर्व संध्या यानी 23 जनवरी की शाम महावीर वर्धमान की जन्भूमि तथा लिच्छवि नरेशों की कर्मभूमि वैशाली के जीर्ण-शीर्ण किन्तु देदीप्यमान अवशेषों में संस्कृति के रजत-कणों को चुनते-बटोरते तथा साहित्यानुरागियों के सात्त्विक स्वागत-सत्कार को कृतज्ञतापूर्वक अंगीकार करते और सँभालते बीती। राजनेताओं के अर्थहीन भाषणों से निराश जन-समुदाय रचनाकारों के शब्दों से तृप्ति पाना चाहता था। अज्ञेयजी का किसी बहाने उस क्षेत्र में जाना वहाँ की जागरूक जनता के लिए एक ऐतिहासिक घटना थी। हर जगह, हर व्यक्ति यही चाहता था कि इस युगस्रष्टा कवि को भर आँख देखें और भरपूर सुनें। स्वभाव से अन्तर्मुखी तथा मितभाषी अज्ञेय भरसक प्रयास करते थे कि न बोलना पड़े, लेकिन मिथिला की सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित जनता के अनुनय भरे आग्रह के समक्ष उन्हें बार-बार झुकना पड़ता था। गणतान्त्रिक व्यवस्था के मूल स्थान पर जनमत का अनादर करना उनके लिए सम्भव नहीं था। एक दिव्य स्मिति के साथ बिखरते उनके शब्द जहाँ एक ओर स्थानीय जन-समूह के लिए प्रेरणादायक थे, वहीं दूसरी ओर पाटलीपुत्र से वैशाली तक यात्रा करने के बाद कुछ-कुछ विथकित हो चले जानकी-जीवन यात्रा के सदस्यों के लिए बेहद स्फूर्तिदायक भी थे। अज्ञेयजी की भाव-भीनी वाणी को सुनकर लगता था कि लंका के यु( में क्षत-विक्षत और क्लान्त राम-सेना को पुनरुज्जीवित करने के लिए रातों में जो अमृतवर्षा होती थी, वह कुछ और नहीं, लोकनायक राम की वरदा वाणी ही थी।
वैशाली से सीतामढ़ी तक की लगभग चार घंटे की जीप यात्रा सर्द हवा, चाँदनी रात, काव्य-शास्त्र विनोद एवं कहकहों में तय हुई। रात के दस बजे जब काफिला सीतामढ़ी की बाहरी सीमा पर स्थित विश्रामगृह पहुँचा तो वहाँ प्रतीक्षा कर रहे व्यवस्थापकगण लगभग ऊँघ रहे थे। गाड़ियों की तेज़ रोशनी में उनकी तन्द्रा तो टूटी, मगर बिजली अन्य दिनों की तरह ही प्रगाढ़ निद्रा में सोती रही। किसी तरह पेट्रोमैक्स और चाँदनी की सहायता से यात्रियों ने धूलि-धूसरित गर्म कपड़े उतार कर अपने को व्यवस्थित किया। भोजन करते और गप-शप करते एक बज गया। फिर भी आँखों में नींद नहीं थी। आज का पूरा दिन कितना उन्मुक्त और सुखद बीता। घर और दफ्तर की दूरी नापते कट रही महानगरीय जिन्दगी कोल्हू से छूटे बैल की तरह सब कुछ खुला-खुला महसूस कर रही थी। विश्रामगृह के सभी कक्षों की चहल-पहल धीरे-धीरे बन्द होती जा रही थी। मेरे कमरे में भी श्री देवकुमार मच्छरों के भय से पाँव से सिर तक चादर ओढ़े सो रहे थे। यात्रा-नायक का निर्देश था कि सब लोग सुबह नौ बजे तक बिल्कुल तैयार हो जायें ताकि यात्रा विधिवत् प्रारम्भ हो। सोते समय बार-बार ये ही प्रश्न उभर रहे थे, कैसी होगी यह यात्रा? क्या अज्ञेयजी की आकल्पना के अनुसार सामूहिक रूप से ग्रन्थ लिखा जा सकेगा? प्रस्तावित ग्रन्थ का स्वरूप क्या होगा? वह उपन्यास होगा या यात्रा-वृत्तान्त या और कुछ? वस्तुतः अज्ञेयजी की योजना अभी तक सहयात्रियों के समक्ष स्पष्ट नहीं हो पायी थी। (वैसे भी तो अज्ञेयजी दस प्रतिशत ही अन्यों के लिए ज्ञेय हो पाते हैं।)
24 जनवरी की सुबह। आदतन सूर्योदय से पहले नींद टूटी तो यात्रा के प्रबन्धक आदरणीय शंकर भाई (शंकर दयाल सिंह) की हाँक सुनाई पड़ी। वह मुझसे भी पहले जाग चुके थे और यात्रियों के लिए चाय की व्यवस्था करवा रहे थे। मुझे देखा तो ठठा कर हँसे और अपने कमरे में ले गये। मैंने देखा, रात भर में उन्होंने बहुत सारे पत्र, डायरी, रिपोर्ताज आदि लिख डाले थे। कुछ मैंने स्वयं पढ़े, कुछ उन्होंने पढ़ कर सुनाये। काम के समय हमेशा तनाव-रहित रहना और विश्राम के क्षणों में लिखना शंकर भाई की विशेषता है। नल में पानी न रहने के कारण कार्यक्रम में थोड़ी शिथिलता आ गयी, फिर भी दस बजे तक पूरा दल प्रस्थान-तत्पर हो चुका था।
सीतामढ़ी को यदि सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाय तो यह इस धरती का सबसे बड़ा तीर्थ है। वह पवित्र स्थल, जहाँ आद्याशक्ति ‘धरती की पुत्री' के रूप में प्रकट हुई थी। इस उर्वी का सारस्वत रूप सीता है, जो एक संकल्प ले कर धरती से प्रस्फुटित हुई, राजा विदेह के हाथों पली, दशरथी राम के साथ वन-वन भटकी, समर-विजयी राम के समक्ष जिसने पवित्रता की अग्नि-परीक्षा दी, फिर भी संशय का वातावरण बने रहने पर आदिकवि वाल्मीकि के वात्सल्य का सम्बल ले कर राम-कथा के भविष्य को सँवारा... और अन्त में राजा राम के सारे वैभव को तिरस्कृत कर जो धरती की गोद में समा गयी। सीतामढ़ी पर उस त्याग और करुणा की प्रतिमूर्ति की थोड़ी भी छाप रहती तो निश्चय ही इसका कुछ दूसरा स्वरूप होता। एक अविकसित-सा पुराना कस्बा, जिसकी सड़कें पदयात्रियों के नाप की ही हैं। बाजारू भीड़-भाड़, मूँगफली के तेल में छनती जलेबियों की अप्रिय गन्ध। सँकरी सड़कों के किनारे मोटे चावल, मकई, खेसारी दाल, आलू-गोभी- बैगन, उर्वरक और खली के खुले ढेर।
जानकी मन्दिर के सामने थोड़ा फैलाव है। मन्दिर सामान्य ही है। मुख्य मन्दिर में काले पत्थर के राम और लक्ष्मण तथा सफेद पत्थर की सीता की मूर्ति। कक्ष का वातावरण विगलित दरबारी व्यवस्था का परिचायक। मन्दिर के अहाते में एक शिवालय, जिसके एक कोने में सर्प की समाधि। पुजारी इस प्रसंग में पिछले महन्त जी के उन चमत्कारों का वर्णन करते हैं जिनसे चमत्कृत होकर दरभंगा नरेश ने काफी जमीन मन्दिर के लिए दान कर दी थी। अज्ञेयजी, इलाजी, शंकर भाई, वर्माजी और शर्माजी, सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से सारे परिवेश को परखते रहे, मगर समुद्र-मन्थन में अनन्त की प्राप्ति का परितोष किसी चेहरे पर दिखाई नहीं पड़ा। मन्दिर का वातावरण साधारण भक्तों के लिए भले ही तृप्तिकर हो, मगर इन रचनाकारों को उस मन्दिर में आकर्षण का ऐसा कोई केन्द्र नहीं मिल पाया, जहाँ थोड़ी देर के लिए मन ठहर सके। मन्दिर के बगल में जानकी कुंड है जो जानकी के उद्भव-स्थल के रूप में प्रचारित है। जानकी नवमी के अवसर पर यहाँ भारी मेला लगता है। उन दिनों इसका जो भी रूप रहा हो, मगर सामान्य दिनों में यह एक ऐसा श्रीहीन पोखरा है जिसे आसानी से गन्दगी का आश्रयस्थल कहा जा सकता है। जानकी मन्दिर की चहारदीवारी से सटाकर बनवाया गया शौचालय भी सहयात्रियों के लिए कष्टकर था।
‘वत्सल-निधि' की सचिव इलाजी अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाती हैं- 'यहाँ आकर तो बड़ी निराशा हुई। कुछ भी तो ऐसा हो, जहाँ आस्था टिके।’ वस्तुतः यह निराशा, कल्पना और यथार्थ के टकराव की उपज थी। जो जितने अधिक कल्पनाशील थे, उन्हें सीतामढ़ी से उतनी ही निराशा हुई। कल्पना और यथार्थ की टकराहट से ऐसी अरुचि पैदा होना स्वभाविक है। आदिकवि वाल्मीकि के वर्णनों के आधार पर राम की जो छवि हमारे अन्तर में अंकित है, वह वास्तविक राम की छवि से शायद कई गुना अधिक सुन्दर और दिव्य है। आज यदि वास्तविक राम कहीं मिल जायें तो उनके दर्शन हमारे लिए सम्भवतः उतने आनंदकारी न हों, जितना कविता के राम के साक्षात्कार से होता है।
शंकर भाई आशा का दीप जलाते हैं- 'यहाँ से लगभग आठ किलोमीटर दूर पुरौना यानी पुण्यारण्य है। कुछ लोगों के मत से सीता का वास्तविक उद्भव-स्थल वही है। अब वहाँ चला जाये।’
सीतामढ़ी की संकरी, भीड़-भरी गलियों में रेंगता हुआ साहित्यकारों का काफिला पुरौना गाँव पहुँचा। निर्जन प्रान्तर में नवनिर्मित भव्य मन्दिर दूर से ही आकृष्ट करता है। मन्दिर की स्वच्छता एवं वयोवृ( महन्तजी की जीवन्तता से कोई भी प्रभावित हो सकता है। सर्वप्रथम सभी यात्री उस टूटे-फूटे तालाब के पास पहुँचते हैं जहाँ, बताया जाता है, राजा जनक को हल जोतते समय नवजात कन्या के रूप में सीता प्राप्त हुई थीं। महन्तजी तालाब के अल्पावशिष्ट, किन्तु परम स्वच्छ जल से यात्रियों का अभिषेक करते हैं और सबको माला पहना-कर इस साहित्यिक-सांस्कृतिक अभियान के सफल होने की मंगलकामना करते हैं। मन्दिर में राम-जानकी के समक्ष एक दरी पर सभी साहित्यकार बैठते हैं और अज्ञेयजी वास्तविक यात्रा प्रारम्भ होने की घोषणा करते हैं। महन्तजी प्रसाद के रूप में बताशा वितरित करते हैं। मन्दिर का शान्त वातावरण तपोवन की तरह सात्त्विक है, जिसमें थोड़ी देर बैठना सबको भला लगता है। बाहर जाड़े की धूप, गेंदे के फूल की तरह महमहा रही है। महन्तजी बताते हैं कि पोखरे के जीर्णोद्धार का कार्य शीघ्र ही शुरू हो जायेगा।
इस यात्रा में व्यवस्था थी कि समय-समय पर सहयात्री स्वेच्छया वाहन बदल लिया करेंगे। पुनौरा आश्रम से चलते समय इलाजी, गिरिराज किशोरजी, शर्माजी और मैं मैटाडोर में आ गये। बीच में एक र्धमशाला में नेत्र-चिकित्सा शिविर लगा रहे डाक्टरों ने रास्ता रोक कर ‘जानकी जीवन यात्रा' दल का स्वागत किया। शंकर भाई ने सबका परिचय दिया और उपस्थित जन-समुदाय के आग्रह से बाध्य होकर अज्ञेयजी को यात्रा दल की ओर से दो शब्द बोलने पड़े। उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में समाज सेवा से वस्तुतः जुड़े व्यक्तियों के कार्य की प्रशंसा की और इस स्नेह-प्रदर्शन के लिए आभार व्यक्त किया।
वहाँ से सभी सहयात्रियों को रोगशय्या पर पड़े एक पुराने साहित्यकार से मिलने उनके आवास पर जाना था, किन्तु रास्ता भटक जाने के कारण हमारी मेटाडोर सीधे गोयनका महाविद्यालय पहुँच गयी। वहाँ यात्री साहित्यकारों को विधिवत् विदाई देने और यथार्थतः अज्ञेयजी को देखने व सुनने के लिए नगर के बुद्धिजीवियों, छात्रों और नागरिकों का इतना बड़ा जमघट लग गया था कि पीछे छूटे सहयात्रियों के आने तक अस्तित्व-रक्षार्थ हम लोगों ने अपने को मेटाडोर के अन्दर ही समेटे रखना उचित समझा! विदाई समारोह में वक्ताओं ने इस यात्रा को ‘ऐतिहासिक सांस्कृतिक घटना' करार देते हुए इसकी सफलता की कामना की और यह इच्छा भी व्यक्त की कि प्रस्तावित ग्रन्थ का प्रकाशन होने पर उसका लोकार्पण समारोह सीतामढ़ी में ही हो। अज्ञेय जी ने यात्रा का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा कि हम न तो रामकथा सम्बन्धित स्थलों की एतिहासिकता जाँचने चले हैं, न भक्तों की तरह तीर्थ-यात्रा करने और न पर्यटकों की तरह रम्य स्थलियों का आनन्द लेने। हम इन स्थलों से अपने को जोड़ कुछ नया सर्जन करने निकले हैं। वह सर्जन क्या होगा, कैसा होगा- यह सब उसी राम की प्रेरणा पर निर्भर है। महान् साहित्य की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि वह न केवल रचनाकार को अकेला और निर्विशेष करता है बल्कि पाठक को भी अकेला और निर्विशेष बना देता है। सर्जन के क्षणों में रचनाकार बिल्कुल अकेला होता है। निर्विशेष होने का तात्पर्य लोक से जुड़ जाना भी है।
मैंने गौर किया- लोग अज्ञेयजी के उस गम्भीर भाषण को पूरा न समझ पाने के कारण पंचामृत की तरह कुछ पी रहे थे और कुछ मस्तक पर छिड़क रहे थे। समारोह खत्म होते-होते अपरािर्ं हो चला था। वहाँ से हम लोग शंकर भाई के ‘मधुर-सम्बन्धी' श्री हरिकिशोर सिंह के आवास पर गये, जहाँ पर कारों के लिए दुर्लभ पदार्थ पेट्रोल का किसी तरह प्रबन्ध किया गया। दोपहर का भोजन हमें वहीं करना था। वहाँ से विश्रामगृह लौटते-लौटते चार बज गये। नवगीतकार श्री रामचन्द्र चन्द्रभूषण तथा अन्य कई साहित्यकार अज्ञेयजी से तथा यात्रा दल के अन्य सदस्यों से मिलने के लिए वहाँ पहले से बैठे हुए थे। उनसे बातचीत करते तथा तैयार होते सूर्य ढलान पर आ गया था। इसके बाद हमारी आगे की यात्रा शुरू हुई- जनकपुर की ओर। सीतामढ़ी से भीठामोड़ यानी भारतीय सीमान्त तक शेरशाह सूरी मार्ग से भी ज्यादा ऊबड़-खाबड़ थी। भीठामोड़ से कुछ पहले सुरसंड का अत्यधिक भव्य किन्तु परम उपेक्षित मन्दिर जब बगल से गुजरा तो किसी सहयात्री ने टिप्पणी की- 'सीतामढ़ी के बजाय यदि इस मन्दिर में आते, तो कहीं ज्यादा ‘आत्म साक्षात्कार' हुआ होता।’
सीतामढ़ी पीछे छूट गयी थी, मगर वहाँ के साहित्यानुरागी निवासियों की प्रगाढ़ प्रीति पूरी उर्जस्विता के साथ हमारे अन्तर में व्याप्त थी। पीछे छूटी सीतामढ़ी से हमारे संग-संग चल रही यह सीतामढ़ी कहीं ज्यादा महिमा-मण्डित, कहीं ज्यादा देदीप्यमान थी। साथ ही, यह अनुभूति भी काफी स्फूर्तिदायक थी कि जिस पुण्यभूमि से अभी-अभी हम गुजरे हैं, वहीं कहीं जगज्जननी जानकी का बचपन बीता था।
यात्रा-वृत्तान्त
एक रात का वह सहयात्री
बुद्धिनाथ मिश्र
दिल्ली और देहरादून के बीच रात में चलने वाली एकमात्र एक्सप्रेस ट्रेन का नाम है मसूरी एक्सप्रेस। हिममंडित पर्वतों के दीवाने अंग्रेज अफसरों के लिए शिमला और दार्जीलिंग की तरह मसूरी भी एक खूबसूरत खोज थी। वे शिमला और दार्जीलिंग की तरह मसूरी भी रेललाइन ले जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने बुनियादी काम भी कर लिया था, मगर अंग्रेजों के जाने के बाद वह परियोजना अंगद के पाँव बन गयी। मजाल क्या कि एक कदम भी आगे बढ़े- यही रुख रहा देशी शासकों का। इसीलिए साठ साल बीत जाने के बाद भी यह ट्रेन मसूरी के नाम पर यात्रियों को एकत्र कर देहरादून में लाकर छोड़ देती है। अब आपकी मर्जी कि आप बस से मसूरी प्रस्थान करें या टैक्सी से। इस ट्रेन की गति भी लगभग ट्वॉय ट्रेन जैसी है। दिल्ली से देहरादून आप कार से पाँच घण्टे में, रास्ते में खतौली में चाय-वाय पीते हुए, पहुँच सकते हैं मगर पुरानी दिल्ली के प्लेटफार्म नं. 9 से रात 10 बजे चलने वाली यह अतिवृद्धि ट्रेन दूसरे दिन सुबह 8 बजे यदि देहरादून पहुँच जाय, तो इसके यात्री घर जाकर भगवान को प्रसाद चढ़ाते हैं। चूँकि रात में दूसरी ट्रेन नहीं है, इसलिए रात में सोकर यात्रा करने के इच्छुक यात्री इसी ट्रेन का सहारा लेते हैं। मैंने भी यही किया था।
मसूरी एक्सप्रेस के एसी फर्स्ट क्लास में मेरा निचला बर्थ था। बाहर काफी गर्मी थी, इसलिए ट्रेन के प्लेटफार्म पर लगते ही मैंने कोच के भीतर जाकर बर्थ पर कब्जा जमा लिया। पंखे पूरी स्पीड में चल रहे थे, जिससे थोड़ी देर में ही नींद आने लगी। मैं सोने का उपक्रम कर ही रहा था कि तीन चार युवक, जो कि वेश-भूषा से राजनीतिक प्रशिक्षार्थी लग रहे थे, मेरे पास आये और बिना किसी अनुनय विनय के बोले- ‘आप ऊपर वाले बर्थ पर चले जायेंगे?'
मैंने प्रतिवाद किया- ‘क्यों?'
‘इस कूपे में नेताजी का भी रिजर्वेशन है।' युवकों ने पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया। सामान्यतः निचले बर्थवाले ऊपरी बर्थ पर जाना पसंद नही करते, क्योंकि उसमें बार-बार उतरना-चढ़ना पड़ता है। उन दिनों एसी फर्स्ट क्लास में ऊपरी बर्थ पर चढ़ने के लिए अलग से एक अल्युमुनियम की सीढ़ी रखी रहती थी। उसे लगाना झंझट का काम था, इसलिए जेंटिलमैन बंदर की तरह उछल-कूद कर ऊपरी बर्थ पर चढ़ते थे। मेरे लिए यह संभव नहीं था, इसलिए निचला बर्थ छोड़ने के लिए मैं कतई तैयार नहीं था। फिर भी शिष्टता के नाते मैंने पूछा- ‘कौन नेताजी हैं जिनके लिए मैं निचला बर्थ छोड़ूं?'
तीनों युवक एक दूसरे का मुँह देखने लगे। फिर उनमें से एक युवक गला खखारकर बोला ‘हम लोग उनका नाम तो नहीं जानते। बस इतना जानते हैं कि वे पहले एम.पी. थे।' मैंने कहा- ‘ठीक है। उनको आने दीजिए। जरूरत पड़ी तो मैं ऊपर चला जाऊँगा।'
वे लोग आश्वस्त होकर कूपे से बाहर निकल गये। मैं भी बर्थ पर आराम से पसर गया। ट्रेन चलने के तीन मिनट पहले ‘नेताजी' आये। उनका सामान लेकर चार-पाँच लोग घुसे और फुर्ती से सभी सामान बर्थ के नीचे घुसाकर और एक पोलिथिन में रखी खाने की चीजें छोटी मेज पर सजाकर तथा ‘नेताजी' को प्रणाम कर ट्रेन से उतर गये। मैंने गौर किया कि नेताजी की उम्र मुझसे कम है, इसलिए मन ही मन तय कर लिया कि मैं तो निचला बर्थ छोड़ने वाला नहीं। अलबत्ता मैंने शिष्टाचारवश उनके बैठने के लिए पैताने की ओर पर्याप्त जगह दे दी। कद-काठी से सुडौल, पौरुष की प्रतीक मूँछें, गेहुआं रंग, पसीने से तर-ब-तर। पहली चाल मेरी थी- ‘आप हरिद्वार जा रहे हैं या देहरादून?'
उसने मुझे गौर से देखा, फिर ‘क्या कर लोगे' वाली लापरवाही दिखाते हुए कहा- ‘देहरादून ही जा रहा हूँ।' मैंने अपना भारी-भरकम परिचय देकर उसे प्रभावित करना चाहा। उसने पूरी विनम्रता से कहा- ‘मैं बिहार का हूँ। दिल्ली कुछ काम से आया था।'
मैंने तुरंत चस्पाँ किया- ‘मैं भी बिहार का ही हूँ। यह अलग बात है कि बचपन से बनारस में पला-बढ़ा, वहीं ‘आज' की सम्पादकी करने लगा और वहीं से कवि के रूप में मेरा परिचय पूरे देश को मिला।
अपनत्व के वातावरण में वह सहयात्री धीरे-धीरे खुलता गया। उसने ‘दिनकर' के ‘कुरुक्षेत्र' और ‘रश्मिरथी' की कविताएं सुनाकर यह जता दिया कि उसे भी साहित्य से लगाव है। आधे घंटे तक हम दोनों हिन्दी साहित्य की और बिहार की बातें करते रहे। बिहार की दुर्दशा की चर्चा के दौरान उसकी वाणी में ‘कुरुक्षेत्र' के कर्ण का आक्रोश मुखर था। उसके शब्द-शब्द में बेचैनी थी। फिर उसने बातों के क्रम को मोड़ते हुए पूछा- ‘आपने खाना खा लिया?' मैंने कहा- ‘जी हां, मैं होटल में ही सैंडविच खाकर आ गया हूँ। गर्मी में हल्का पेट रहना ही यात्रा के लिए ठीक है।'
उसने कहा- ‘मैं तो दिन भर भागदौड़ में रहा, इसलिए खाना साथ ले आया हूँ कि इत्मीनान से खाकर सो जाऊंगा। आप भी मेरे साथ कुछ खा लें। घर की बनी हुई घी की पूड़ी हैं, नुकसान नहीं करेंगी।'
मैंने भरपूर कोशिश की पिंड छुड़ाने की, मगर उसने किसी से ‘ना' सुनना जाना ही नहीं था। पूरे अधिकार के साथ उसने अल्टीमेटम दे दिया- ‘आप नहीं खायेंगे, तो मैं भी नहीं खाऊँगा। फिर उसने खाने के पैकेट खोले। पहले मुझे पूड़ी और आलू-परवल की सब्जी के साथ अचार परोसा, फिर अपने लिए खाना निकाला। भोजन के दौरान ही उसने बताया कि बिहार की सिस्टम इतनी खराब हो गयी है कि किसी भी कुलीन परिवार का वहाँ जीना मुश्किल है। वहाँ न तो बच्चों की पढ़ाई है न सुरक्षा ही, इसलिए मैंने एक छोटा-सा मकान देहरादून में लिया है, जिसमें मेरे बच्चे रहते हैं। नौकर की देख-रेख में ही वे स्कूल आते-जाते हैं। कभी मैं, कभी मेरी पत्नी आकर देख जाती है। आप कवि हैं, जरा हमारी जिन्दगी पर सोचिए। हमारा अपराध सिर्फ यह है कि हम अपने पुरखों की सम्पत्ति को, कुल की इज्जत को लुटते हुए नहीं देख सकते। ‘दिनकर' हमारे आदर्श कवि हैं। अन्याय के सामने झुकना हमारे खून में नहीं है। आप ब्राह्मण हैं, हमारे लिए पूजनीय हैं। बताइए कि अगर कोई हाथ बांधकर आपके खेत पर कब्जा करने आए या आपका माल-जाल खूंटे से खोल ले जाए तो आप हाथपर हाथ धरे नहीं रह सकते। उसका तमतमाया चेहरा कूपे की मद्धि रोशनी में भी साफ दमक रहा था।
मैंने प्रसंग बदलने के लिए उसे वीनस कं. द्वारा निर्मित अपना ऑडियो कैसेट ‘जाल फेंक रे मछेरे!' भेंट किया। बताया कि इसमें मेरे आठ प्रेमगीतों का सस्वर पाठ है। उसने थोड़ा सोचकर कहा- ‘इस तरह के कैसेट बाजार में मिलते नहीं। अगर आपके पास और हों तो मुझे दो और कैसेट दे दीजिए।'
संयोग से मेरे पास उस समय काफी कैसेट थे। मैंने उदारतापूर्वक उसे पाँच कैसेट थमा दिये। उसने बहुत संभालकर अपनी अटैची में उन्हें रख लिया और अटैची से ही एक पैकेट लेकर मेरे हाथों में सौंपा- ‘यह मेरी ओर से एक बहुत छोटी-सी भेंट है। यहां दिल्ली में किसी ने मुझे यह ट्रांजिस्टर दिया था। मैं चाहता हूँ कि इसे आप अपने पास रखें। यात्रा में समाचार सुनने के लिए अच्छा रहेगा। इसमें दुनिया के सभी स्टेशन लगते हैं।' मैंने ना-नुकुर किया, इतना महंगा उपहार लेने में। मगर उसकी जिद के सामने हार मान गया। थोड़ी देर तक और बातें होती रहीं। बिहार के नेताओं को मैं चेहरे से बहुत कम को ही पहचानता हूँ। वह जब पहली बार घुसा, तो मुझे लगा कि उसके पीछे दो-चार शस्त्रधारी होंगे। एक बार विस्थापन का दुख झेल रहे पूर्व गृहराज्य मंत्री सुबोधकांत सहाय के ब्लैक कैटों की चहलकदमी से परेशान होकर मुझे सहायजी से अनुरोध करना पड़ा कि ‘आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांकते कांपे।' वे ठठाकर हँसे थे और तुरंत उन्होंने सबको बाहर चले जाने का आदेश दे दिया था। इस अपरिचित सहयात्री के बारे में भी मैं सोच रहा था कि कुर्ते के नीचे से रिवाल्वर आदि निकालकर सोते समय रखेगा, मगर उसके पास ऐसा कुछ नहीं था। उसके पास शस्त्रास्त्र के नाम पर सिर्फ आत्मविश्वास था। मैं भयरहित होकर निचले बर्थ पर सो गया और वह ऊपर जाकर छोटा लैम्प जलाकर पत्रिकाएं पढ़ने लगा।
सबेरे वह मुझसे पहले जाग चुका था। उसने दो कप चाय मंगवायी। पहला कप उसने अपने हाथों मेरी ओर बढ़ाया। मैं अभिभूत था। देहरादून स्टेशन आने पर मैं सोच रहा था कि उसका स्वागत करने के लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भीड़ फूलमाला लिए खड़ी होगी। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह मुझसे विदा लेकर अकेले उतरा और भीड़ में खो गया। उसने मुझे एक पुर्जे पर अपने तीन-चार फोन नंबर दिये थे, मगर वह कहीं गिर गया। इसलिए उस सहयात्री से फिर कभी संपर्क नहीं हो सका।
मेरा यह यात्रा-संस्मरण आपको नीरस व उबाऊ लग रहा होगा और आप खीझकर मुझे कोसना शुरू करें, इससे पहले ही मैं धीरे से आपको यह बची हुई जानकारी देना चाहता हूँ कि उस रात के सहयात्री का नाम आनंद मोहन है। वही आनंद मोहन सिंह जिसे पिछले दिनों न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाई है।
समीक्षा
जाल फेंक रे मछेरे!
सौन्दर्य, प्रेम और प्रकृति का निष्णात गीतकार
जितेन्द्र वत्स
बुद्धिनाथ मिश्रजी का प्रथम नवगीत संकलन ‘जाल फेंक रे मछेरे!' पारिजात प्रकाशन, पटना से यद्यपि सन् 1983 में प्रकाशित हुआ, लेकिन इसके एक दशक पूर्व ही काव्य मंचों पर मिश्रजी के गीतों का जादुई असर दिखाई देने लगा था। काव्य-मंचों पर सुकोमल भाव और संवेदनाओं से युक्त उनके मधुर कंठ से गूँजते नवगीत श्रोताओं को भाव-विभोर और मंत्र-मुग्ध करने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं। किसी भी मंच पर मिश्रजी की उपस्थिति एक ऐसा विज्ञापन है जो श्रोताओं का सागर उमड़ा दे। मंच पर उनके गीतों की प्रस्तुति-कला श्रोताओं को ऐसा मंत्र-मुग्ध करती है कि वे रात-रात भर जागकर भी उनकी रचना का आनंद उठाना चाहते हैं। न आँखों में नींद, न आलस, अंत तक प्यास बुझाने और रसमग्न रहने की असीम चाहत। ऐसा लगता है, मिश्रजी के पास कोई-न-कोई मंच-सिद्धि है, सम्मेाहन-विद्या है और उनके गीतों को पढ़ने के बाद सहसा ऐसा विश्वास हो जाता है, एक धारणा बन जाती है कि मिश्रजी के पास कौशल भी है। शायद यही कारण है कि मिश्रजी अपने भावों और संवेदनाओं को जिस रूप, रंग, आकार में अभिव्यक्त करना चाहते हैं, उनकी रचना उन्हें मनोवांछित परिणाम देने के लिए विवश हो जाती है।
मिश्रजी के प्रस्तुत संकलन ‘जाल फेंक रे मछेरे!' में कुल 51 नवगीत संकलित हैं। इसमें अधिकांश रचनाएँ सन् 1970 से 1980 के बीच लिखी गई हैं। ध्यातव्य है कि इस कालखण्ड में मिश्रजी की उम्र 21 से 31 वर्ष के बीच थी। एकदम नवोदित युवा-मानस के गीतकार की रचनाओं में प्रेम की जो लालसा, उत्कंठा, उत्साह, निराशा, पीड़ा अपेक्षित होती है, इस संकलन के गीतों में वही भाव और संवेदनाएँ अपने प्रखर रूप में विद्यमान हैं। इन गीतों में एक जादुई सम्मोहन, आकर्षण और चमत्कारी प्रभाव है, लेकिन युवा कवि की अपेक्षित सीमाएँ भी हैं। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि इन गीतों के वैशिष्ट्य-प्रवाह में सीमाओं का अस्तित्व अत्यंत विरल हो जाता है।
मिश्रजी के संकलित गीतों को दृष्टिपथ में रखते हुए धारणा बनती है कि वे सौंदर्य, प्रेम और प्रकृति के पुजारी हैं। जो सौंदर्य का उपासक होगा, उसके हृदय में प्रेम की रसधार बहेगी। यह रसधार प्रेयसी और प्रकृति के विविध रूपों से होकर गुजरेगी। युवा-मन स्वाभाविक रूप से प्रेयसी की अंतरंगता और उसकी समीपता पाने के लिए व्याकुल रहता है, लेकिन मनोनुकूल प्रेयसी की आकांक्षा बिना किसी संयोग या उद्यम के पूरी नहीं होती। इसके लिए हताश या निराश होने के बजाय निरंतर प्रयत्नशील होना ही विकल्प है। अतएव गीतकार प्रयत्नशील है-
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
वह जिसके प्रेम-पाश में बंधना और जिसे बांधना चाहता है, वह उसके लिए अज्ञात और अदृश्य है, लेकिन उसे खोजने और पाने की उसमें असीम उत्कंठा है। इस क्रम में, वह हर किसी को स्वीकार कर लेने के लिए आतुर नहीं है। उसे समान र्धमा की तलाश है। समरूप संवेदना, उद्वेग, प्रेमातुर प्रेयसी की उसे प्रतीक्षा है, जो उसके मन-कमल को प्रेम की बरसात से समग्रता के साथ भिगो सके। उसकी कामना अगले गीतों में पूरी होती है। उसे मनोवांछित प्रतिमा प्राप्त होते ही वह अचानक रंक से राजा बन जाता है-
एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से
आज मेरा मन स्वयं देवल बना।
मैं अचानक रंक से राजा हुआ
छत्र-चामर जब कोई आँचल बना।
प्रेयसी की प्राप्ति, उसकी मनभावन अनुकूलता, रूप-लावण्य प्रेमी-मन को हर्षातिरेक से मदमस्त करता है। पूरी प्रकृति उसकी खुशी में साथ हो जाती है। प्रणयानुभूति की इस तरल अहसास को शब्द दे पाना किसी संवेदनशील और मेधासम्पन्न कलाकार के लिए ही संभव है। इस संवेदना की सरस और मनोहर अभिव्यक्ति में गीतकार के नैपुण्य की बानगी देखिए-
यह तुम्हारा रूप- जिसकी आब से
घाटियों में फूल बिजली के खिले
इंद्रधनु कँपने लगा कंदील-सा
जब कभी ये होठ सावन के हिले।
खिलखिलाहट-सी लिपट एकांत में
चाँदनी देती मुझे पागल बना।
युवा प्रेमी-युग्म को यदि संयोग से कभी एकांत नसीब होगा तो उनकी आकांक्षाओं के हजार रूप खिलेंगे, प्रकृति और मौसम उनके मनोनुकूल होने के लिए विवश होंगे। कभी सावन की बरसात, कभी फागुनी बयार में बौर-गंध का अहसास होगा। मस्त मौसम में मन को मर्यादित और नियंत्रित रख पाना अत्यंत कठिन होता है। गीतकार ने इन स्थितियों की सुंदर अभिव्यंजना इन गीत-पंक्तियों में की है-
ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाहें
और मेरे गुलमुहर के दिन
आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन।
×× ×× ××
एक बौराया हुआ मन/ चंद भूलें
और गदराया हुआ यौवन।
×× ×× ××
रोप लें हम आज चंदन-वृक्ष, वरना
बख्शती कब उम्र की नागिन।
युवा-कवि कल्पना के वृंत पर सपनों के सुंदर पुष्प सजाता है। वह अपने प्रेम को स्थायी रूप देने के लिए चंदन वृक्ष की पौध रोपना चाहता है। भावी सृष्टि की योजना प्रकल्पित करना चाहता है। संयोग पक्ष से संबद्ध ये गीत श्रृंगार के अद्भुत नमूने हैं, लेकिन प्रेम का दूसरा प्रबल पक्ष वियोग की स्थितियों का चित्रण करना भी वह नहीं भूलता। विरहजनित स्थितियों में अतीत के सुखद संयोग की स्मृतियाँ मन को दर्द के सागर में डुबो देती हैं। मनुहार के वे सुखद पल मात्र स्वप्न के हिस्से प्रतीत होते हैं। जब नींद टूटी है, मन बहुत उदास है और उदास मन के आईने में हिरनी की उदास आँखों का प्रतिबिम्ब है, फागुन मास में जेठ की दुपहरी का अहसास है, बियावान के बीच मृगतृष्णा झेलती जिंदगी है और आँखों में आँसू के बूंद हैं-
आँसू था सिर्फ एक बूंद/ मगर जाने क्यों
भीग गयी है सारी जिंदगी।
अब तो गुलदस्ते में/ बासी कुछ फूल बचे
और बची रतनारी जिंदगी।
अब तो हर रोज/ हादसों से गुमसुम सुनती है
अपनी यह गांधारी जिंदगी।
प्रणयाघात प्रेमी-जन की मनःस्थिति पर कितना नकारात्मक प्रभाव डालता है, इसे गीतकार ने जिंदगी के साथ ‘रतनारी' और ‘गांधारी' जैसे विशेषणों के माध्यम से अभिव्यंजित किया है। गदराए यौवन के बीच यह विपर्यय स्थिति बहुआयामी उदासी और नैराश्य का सृजन करती है। इस आकस्मिकता को कोमल मन झेल पाने में समर्थ नहीं होता। पुरवैया उसे बिंधती है, अतीत दंश देता है और अपनी ही बाँसुरी से निकली प्रतिध्वनि भी काँटा चुभो जाती है। गीतकार के शब्दों में- 'अपनी ही वंशी की प्रतिध्वनि/ मर्मस्थल ऐसे छू जाए/ जैसे नागफनी का काँटा/ नागफनी को ही चुभ जाए।’
मिश्रजी के नवगीतों में केवल पुरुष के विरह भाव की ही पड़ताल नहीं की गई है, अपितु विरही नारी के दुःख-दर्द और व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति भी की गई है। विरह का काल-खण्ड छोटा हो या बड़ा, दोनों ही स्थितियों की सूक्ष्म व्यंजना करने में मिश्रजी निष्णात हैं। दिन-भर काम करने वाला पति जब शाम में घर वापस आता है, उसकी नई-नवेली प्रिया के मन में आकाशदीप जल उठता है। ‘भोर के गये पंछी' शीर्षक नवगीत इसी वर्ण्य विषय पर केंद्रित एक उत्कृष्ट रचना है। लेकिन विरह-काल यदि अपेक्षा से कहीं ज्यादा हो तो प्रिया के लिए प्रवासी प्रिय की प्रतीक्षा अत्यंत पीड़ादायक बन जाती है। मिश्रजी ने ऐसी नायिकाओं की व्यथा के चित्रण में परंपरा से विलग नये प्रतीक और बिंबों का सृजन करके अभिव्यक्ति के नए प्रतिमान गढ़े हैं। ‘अमवा की डार', ‘दिन फागुन के', ‘साँसों के गजरे' तथा ‘सांध्यगीत' जैसी रचनाएँ मिश्रजी के परकाया प्रवेश तथा उनकी अद्भुत संवेदनशीलता के उत्कृष्ट नमूने हैं। ‘सांध्यदीप' की नायिका का यह उदात्त चिंतन-
पत्थर की एक अहल्या को/ जीवन देने
भूले-भटके हे राम! कभी तुम आ जाना।
पंडित बुद्धिनाथ मिश्र मूलतः वैयक्तिक चेतना के गीतकार जरूर हैं, लेकिन इस संकलन में उनके कई गीत सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों से संबंध रखते हैं। राजनीतिक दुश्चक्र और ग्राम-समाज की उपेक्षा से गीतकार मर्माहत है। गाँव में जी पाने की स्थितियाँ दुष्कर होती जा रही हैं। कभी प्रकृति की मार- बाढ़, सूखा और अकाल तो कभी शोषणमूलक चरित्रों के छल-छद्म और कुत्सित राजनीति ने ग्रामीण जन-जीवन को तबाह कर रखा है। ग्रामीण यथार्थ की विद्रूपता को मिश्रजी ने कई नवगीतों में तल्खी के साथ उभारा है। कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
कुछ ऐसी हवा बही/ जहरीली-सी
सारा का सारा युग/ हकलाता है।
×× ×× ××
हर तरफ है साँप-बिच्छू के/ जहर का ज्वार
यह जलन हमने सही सौ बार।
×× ×× ××
चौधरी का हुआ/ बरगद-छाँव पर अधिकार
यह घुटन हमने सही सौ बार।
मणि-हारे तक्षक-सी/ बस्ती की है नींद हराम
अर्थहीन पैबंद जोड़ते/ बीते सुबहो-शाम
कितना कठिन यहाँ/ जी पाना/ दिन के चार पहर।
न केवल ग्रामीण जनों की मुश्किलों की यथार्थ अभिव्यक्ति मिश्रजी की रचनाओं में उपलब्ध है, अपितु बुद्धिजीवी वर्ग की तबाही, सत्ताधीशों के जय-जयकार नहीं करने पर उनकी उपेक्षा और घुटन की मार्मिक व्यंजना भी इनके नवगीतों में उपलब्ध है। कवि बुद्धिजीवी वर्ग की निराशा और घुटन की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार करता है-
हर कलम की पीठ पर/ उभरी हुई साँटें
पूछती- हयमेध का/ यह दिन कहाँ काटें
मंत्र-जो जयघोष में पिछड़े/ हुए गुमनाम
यह हँसी चिढ़कर/ घुटन हो जाए/ मुमकिन है।
बदलते हुए मौसम का मिजाज आँकने और उसे शब्दबद्ध करने में मिश्रजी की सूक्ष्म दृष्टि का कोई जोड़ नहीं। प्रकृति के बदलते रंग-रूप, मिजाज, उष्मा और शीतलता की परख मिश्रजी के ‘नीम तले', ‘आर्द्रा', ‘आज का मौसम' आदि नवगीतों में की गई है तो ‘बागमती' में बाढ़ के भयावह दृश्य साकार हो गये हैं। वर्ण्य विषयों की जितनी विविधता इस संकलन के गीतों में उपलब्ध है, शायद ही कोई ऐसी कृति हो जिसमें बहुरंगी नवगीतों को एक ही साथ संकलित किया गया हो।
समीक्ष्य संकलन में प्रेम, प्रकृति और सौंदर्य के साथ-साथ करुणा की अभिव्यक्ति भी हुई है। वर्ण्य-विषय बहुआयामी होने के कारण इनके नवगीतों ने पथ का विस्तार भी किया है। इनके नवगीतों में लोक-चेतना, लोक-विश्वास, लोक-जीवन, लोकावेग, लोक- संवेग, लोकराग, लोकछंद, लोकयति, लोक-गतिविधि, लोक-लय, लोक-ताल, लोक-स्वर, लोकभाषा आदि को सर्वायत किया गया है। साथ ही लोकोक्तियों, लोक-व्यवहारों, लोक में प्रचलित मुहावरों, लोक-मूल्यों, लोक आस्थाओं, लोकाभिवृत्तियों आदि को भी उपजीव्य बनाया गया है। निश्चय ही इस संकलन के नवगीतों में विषय-वस्तु, शिल्प, शैली, रूप, भाषा, अंतर्तत्व आदि के नयेपन को भी स्थान मिला है। यही कारण है कि मिश्रजी के नवगीत न केवल मंचों पर सराहे जाते हैं, अपितु साहित्यिक दृष्टि से भी ये गौरवपूर्ण माने जाने की योग्यता रखते हैं।
समीक्षा
जाल फेंक रे मछेरे!
संवेदना का गगन चूमते गीत
आनन्द कुमार ‘गौरव'
असीम आकाश-सी वेदना की अथाह संवेदनात्मक गहराई और गीत की गेयता की संगीतात्मकता के जीवत्व को समाहित किए हुए, मानवीय आत्मीयता के उद्बोधक हैं ‘जाल फेंक रे मछेरे!' के गीत। श्री बुद्धिनाथ मिश्र नवगीत की प्रासंगिकता और भाव- संप्रेषण क्षमता का साँस-साँस गुनगुनाते हैं तथा मंचीय लोकप्रियता के लिए उन्होंने साहित्य की गरिमा को समझौते जैसी दुविधा से सदैव सुरक्षित रखा है।
निःसंदेह ‘जाल फेंक रे मछेरे!' के गीत संवेदना का गगन चूमते हैं। कृति के प्रथम एवं शीर्षक गीत में प्रीत की प्यास का वह उजास आलोकित है जो सर्वथा निराशा के नागों को झटकते हुए, आस को प्रशस्ति प्रदान करता हुआ अडिग है-
कुंकुम सी निखरी कुछ/ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर/ बहुत कांप रही आज है।
यों ही न तोड़ अभी बीन रे सपेरे!
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
यहाँ प्रीत का उछाह चहुंदिस बिखरे अवसादों, निराशाओं और बाधाओं को नकार कर प्रीत की शाश्वत सत्यता को हर परिस्थिति में जीवन्त रखने का आवाहन है। एक ऐसा आश्वासित आवाहन जो हर धड़कन में मृदुता संचरित करने का वृत्त धारण किए हुए है। बुद्धिनाथ मिश्रजी को प्रेम-प्रतीति और उसके मर्यादित आचरण को गीत में जीने का महारथ हासिल है। उनके गीतों में कुछ भी गढ़ा हुआ नहीं लगता, अपितु जीवन की सहज-सरल धरा में निर्मल गंगा-सा अबाध बहता है उनका हर गीत। मिश्रजी की सृजनात्मकता में ही कांप सकता है इन्द्रधनुष। जब अजानी प्यास मरुथल की, हाँफती पहुँचे नदी के द्वार पर- ‘इन्द्रधनु कंपने लगा' शीर्षक गीत की ये पंक्तियाँ उनके सृजन की थाह को परिभाषित करती है-
मैं अजानी प्यास मरुथल की लिये
हाँफता पहुँचा नदी के द्वार पर।
तुम बनी मेरे अधर की बांसुरी
मैं तुम्हारे नैन का काजल बना।
इसी गीत का एक और अमर सात्विक भाव स्तुत्य है-
मैं तुम्हें देखा किया अपलक-नयन
देवता मुझको सभी कहने लगे
सम्पूर्ण सृष्टि का प्रेमत्व और देवत्व पूरी सच्चाई के साथ प्रेम की पावन धरा की तरह परिलक्षित है। गीत के इस चित्र और रंग में मिश्रजी का कवि हवा में लड़खड़ाती बौर की खुशबुओं की बंदिशों के चरमराने के प्रति चिंतित होता है, पर साथ ही झील के जल में कंकड़ फेंककर लहरें गिनने की जिज्ञासा भी रखता है। यही नहीं जीवन के सकारात्मक उन्माद को दीर्घ चिंतन में डुबोने की जगह उन्हें पूर्णतः जी लेने की हिमायत करता है यह कवि- 'रोप लें हम आज चंदन वृक्ष/ वरना बख्शती कब उम्र की नागिन।’
यही चिंता प्रेमपरक आत्मीयता का परम सत्य है भले ही वह धर्माचार्यों की भाषा में परित्यक्तता की अभिव्यक्ति योग्य हो। किंतु इस प्रकृति बोध से परम संतों का हृदय भी अछूता नहीं रहा है। अनगिनत प्रमाण यह सब परिभाषित करते हैं। मिश्रजी की यह गीत-अभिव्यक्ति भी इसी परिप्रेक्ष्य को साकार करती है-
साखू की घनी-घनी छाँह में
आओ बैठें सूखे पात पर
अधरों से अधरों की प्यास हर
पल भर हँस लें मन की बात पर।
किस्से बासंती मनुहार के
जानें ये मंजरियां आम की
जानेंगे फूल ये बहार के।
मौसम ने गीत रचे प्यार के।
जो मौसम प्यार के गीत रचता हो उसी का उपमान रखकर प्रतीकों में कहा जाता रहा है कि- बदल गये मौसम की तरह प्यार के समर। या मौसमों का सम्बन्ध बदल जाते हैं, मौसमी जुराबों सी उतरन है प्यार अब... लेकिन मिश्रजी ने इस दुःखदता को भी सुंदरता के रूप में स्वीकार कर प्रेम को असीम ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। ‘गांधारी जिंदगी' शीर्षक गीत को इसके प्रमाणन में आँका जा सकता है-
बीत गई बातों में रात वह खयालों की
हाथ लगी निंदियारी जिंदगी
आँसू था सिर्फ एक बूंद मगर जाने क्यों
भींग गई है सारी जिंदगी।
इस प्रीत के सागर के मंथन में यदा-कदा और बिछोह में सर्वदा-अवसाद की उद्बोधना जन्मती है और एक ऐसी टीस की अनुभूति बरसती है जिसके प्रभाव में सामने स्पष्ट और साकार खड़ी बोलती हुई अनुभूति में कोई प्रभाव शेष नहीं रह जाता। नदी पर मंडराता कोहरा, सांकल का मौन, बहरी दीवार, बियावान में पड़ाव ढूंढ रही मृगतृष्णा की मारी जिंदगी, आईने में उगते चेहरे, हर चेहरे में उदास हिरनी की आँखें, दूबों पर बिखरी बगुलों की पांखें- ये सारे दृश्य-प्रतीक-उपमान एक ही गीत में विद्यमान हैं। इन्हीं से श्री मिश्र की सृजन-शक्ति, मन की गति और गीत की मृदुल कल-कल धरा सहज प्रमाणित है।
मिश्रजी जब गुहराये परिचय, पातझरी डालों के साये में, पनघट के वादे, पायल के स्वर सादे, कस्तूरी घूँघट, बिंती सुधि की पुरवाई, अंजली भर साँझ, सवेरों की चाहना करते हुए नागफनी को नागफनी का कांटा चुभ जाने की आह के साथ, वंशी की प्रतिध्वनि के मर्मस्थल छू जाने की धुन में झूमकर गाते हैं तो वे सही मानों में फल की आस का अमृत गीतों को देकर और स्वयं जाने-समझे परिणामों का विष पीकर अर्न्तमन में निहित सम्भावनाओं की पीठ बड़े नेह से थपथपाते हैं। ‘आकाशदीप' इसी श्रृंखला का सार्थक व सशक्त गीत है। इस गीत में चाँदनी उजास में अंगार चुगता हुआ आंगन का आकाशदीप समस्त अवसादी संवेदनाओं को जीवत्व प्रदान करने को लालायित है।
‘मुमकिन है' शीर्षकीय-गीत एक गुमनाम घुटन की त्रासदी बन चली जिंदगी की वह सदी है जो सोच की पागल हवा के नाम लिख दी गई है। कवि जहाँ प्रीत की उछाह गीतों में संजोता है- वहीं रौंदे गये मधुमासों को मुँह चिढ़ा रहे, हताश जयघोष-मंत्रों को आईना दिखाने में तनिक नहीं झिझकता। यथा-
सख़्त हैं सच की तरह होते नहीं दोहरे
आइनों से हैं बहुत नाराज़ कुछ चेहरे।
जीवन के व्याकरणों को दफ़ना कर, भाषा के भ्रम में वह तुतलाता है, बेहोशी में रोता-चिल्लाता है, दर्पन की सत्ता को झुठलाता है, सारा का सारा युग हकलाता है। आंगन के पंछी को कर्त्ता रखकर गीत- ‘आंगन का पंछी' सारी निष्ठा के साथ मानव समाज की सुरक्षा में, बह रही जहरीली हवाओं के खिलाफ उठ खड़े होने का सचेत आवाहन है। जीवन की विसंगतियों का मार्मिक व सजीव चित्रण करते हुए कवि की कलम से निखरा गीत- ‘यह तपन हमने सही सौ बार' का एक ही छन्द- 'सूर्य खुद अन्याय पर होता उतारू जब/ चाँद तक से आग की लपटें निकल पड़तीं/ चिनगियों का डर समूचे गांव को डँसता/ खौलते जल में बिचारी मछलियाँ मरती/ हर तरफ है सांप-बिच्छू के जहर का ज्वार/ यह जलन हमने सही सौ बार।’, सम्पूर्ण सामाजिक, पारिवारिक और वैयक्तिक विद्रूपताओं को दृश्यांकित करता हुआ परिवर्तन की संभावनाओं की सजीव भूमिका के निर्वहन को प्रेरित करता है।
‘आर्द्रा' शीर्षक के गीत को प्रकृति के अनूठे आराधन का जीवन्त आशागीत कहा जाना चाहिए। इस गीत में लोकात्मकता का प्रभुत्व आधारभूत मान्यताओं के प्रति जहाँ श्रद्धा को संरक्षण देता है, वहीं वर्तमान के दृष्टिकोण का प्रश्नचिह्न भी स्थापित करता है। यहाँ लोकात्मकता को सृजनधर्मी समाज द्वारा उपेक्षित किये जाने पर चिंतन होना ही चाहिए। क्योंकि लोक साहित्य से वर्तमान रचनाधर्मिता का अधिकांशतः कट जाना और केवल छपास और सस्ती लोकप्रियता को आस्था का केंद्र-बिंदु बनाकर स्वयम् को पूरी तरह निवेशित करते जाना अत्यंत चिंताजनक है। यह निश्चित ही है कि ऐसी रचनाधर्मिता जो नारों, बयानबाजियों, मंचीय लोकप्रियताओं आदि के माध्यम से आज चर्चा के शिखर पर हो, उसकी आयु बहुत कम है।
रचनाकार जब अपनी बुनियादी आस्थाओं, मान्यताओं और जीवन्त परंम्पराओं से विमुख होकर आचरण करता है तो वह सीमित काल-मात्र के लिए साहित्य में जीवित रह पाता है। एक सजीव उदाहरण ‘कबीर' को लें- ‘कबीर' की भाषा की दृष्टि से वे अपने काल में गूढ़ साहित्य सृजक रहे पर उन्हें खूब समझा सराहा गया और वे आज भी उतने ही लोकप्रिय और प्रासंगिक हैं, क्योंकि ‘कबीर' का साहित्यकार लोकात्मक-बुनियादी- परम्पराओं व मान्यताओं को साथ सहेजकर अपनी रचना-यात्रा करता रहा।
वर्तमान में प्रासंगिक, किन्तु अल्प समय में अप्रासंगिक होते जा रहे रचनाकारों को मिश्रजी के ‘आर्द्रा' गीत की ये पंक्तियाँ अवश्य ही विचारनी चाहियें-
लाज तुम्हीं रखना पियरी की हे गंगा मइया
रेत नहा गोरैया चहकी वर्षा होगी क्या?
‘बागमती' में जहाँ अतिवृष्टि परिणामित जन-साधारण की दुर्दशा का मार्मिक व सटीक दृश्यांकन है, वहीं ग्रीष्म ऋतु के आतंक से प्रभावित जन-जन्तु को कवि ने ‘नीम तले' सुरक्षित ला बिठाया है। इसी क्रम में ‘आज का मौसम' के प्रतीकों को प्राण देते हुए कवि मन आशान्वित है कि वो अपने प्रिय की स्मृतियों में जाग उठा होगा। उदासीन रिश्तों, आलस्यपूर्ण-निष्ठाओं और सक्रिय निष्ठुरताओं के प्रति कवि अत्यंत चिंतित होकर धुंधलाये आईने को साफ़ करने की प्रेरणा देता है। श्रृंगारिकता का शिष्ट व सम्पूर्ण भाव-चित्रण ‘सावन की गंगा' शीर्षकीय गीत में आकर्षित करने वाला है, जो कवि की उत्कृष्टता प्रमाणित करता है-
सुलगे क्यों न छुअन की/ पीड़ा में पल्लव का अंक
कांटों से भी जहरीले होते/ फूलों के डंक।
तपती रेत डगर की/ जलकर मन्मथ हुआ विदेह
बिन बरसे न रहेंगे अब/ ये काले-काले मेघ।
कजरारी बरसात के प्रतीक से ‘नाच गुजरिया नाच' शीर्षकीय गीत में प्राकृतिक सौंदर्य बोध का अनूठा चित्रण करते हुए मिश्रजी ने गीत का हरियाला आँचल फैलाकर प्यास की आत्मिक तृप्ति की कामना के मधुर संगीत से आनंद विभारे करते हुए कहा है-
जिस प्यासे को तृप्त न कर पाया/ जग का कोई सागर
कर दे उसको बेसुध इक पल में/ उलीच मधु की गागर।
तड़प-तड़प रह जाए जो देखे तुझको/ तेरा ही नागर
इतरा ले बन जाए आज/ यह हरसिंगार सपनों का घर।
धनिक-धनिक ताधनि्/ मृदंग पर फुदके कल का प्रात री!
फुदक गुजरिया फुदक/ कि आयी कजरारी बरसात री!
गीत के लालित्य को पारिभाषिक या व्याकरणीय कट्टरता से मुक्ति पाने की छटपटाहट कदापि नहीं रही, क्योंकि गीत का लालित्य ही गीत का संगीतात्मक व्याकरण है और गेयता गीत की जीवंतता का प्रमाण है। गीतकार ने नित-नवीन उपमानों के आभूषणों द्वारा अपनी गीत-प्रिया को अंतर्मन की अथाह गहराइयों से सजाया-संवारा ही नहीं बल्कि निःसन्देह कहा जा सकता है कि बुद्धिनाथ मिश्र ने अपनी गीत गंगा में अपनी श्रद्धा श्रेष्ठ प्रज्ञा को पूर्णतः आहूत कर दिया है, और तभी उपजे हैं गीतों के नये-नये आकाश उनकी रचनायात्रा में।
जहाँ रोशनी अंधेरे का महाजाल बुनती है, लम्बी से लम्बी यात्रा हल्की सी गठरी और संदली छाँह के साथ पूर्ण करने का लौकिक विश्वास सपने बुनता है, जहाँ हर नाजुक रिश्ते के रेशे के टूटने की पीड़ा अनुभूति है, जहाँ पंकिल खेतों की मेड़ों पर बहकी-बहकी नीलिमा बढ़ रही है। जहाँ निर्माता के मृदु आघातों पर सर्जना-सुरभि मुखरित हो, जहाँ कान्हा गोपिका के मधुघट पर कंकड़ फेंकता हो, जहाँ रेत भरे तीर बुहारने की कामना जीवंत हो, जहाँ केसर-क्यारी में सँवरी हिरना बहकी हो, जहाँ छुई-मुई प्रीत पीपल की छाँह में बसी हो, बार-बार नीले दर्पण में एक परी डूबती-उतराती हो, जहाँ झरते पत्तों से रस की बातें चिपकी हों, पुरवा के झोंके हौले-हौले पीर सहलाते हों, जहाँ धनी चूनर पहन तापसी अपर्णा झूम रही हो, नभ के वायस पंख पसारे शुभ-संदेश की उड़ान पर हों, जहाँ पानी जुगनू सा चमकता हो, जहाँ हांफते युग के लिए अभिराम शीश भेंटने की निष्काम कामना बलवती हो, क्वारी धूप गोखरू के कांटे-सी तन बींधती हो और हल्दी हाथों को भरे दृगों से जोड़कर मौसम के सारे पीले पात बटोरने की अद्वितीय उपमाएँ महकती हों, वह गीत संसार हो सकता है। और यह संसार रचा है कुशल शिल्पी बुद्धिनाथ मिश्रजी ने।
विशेष उल्लेखनीय है कि बुद्धिनाथ मिश्र के गीतों को किसी वाद में सीमित नहीं किया जा सकता। वे प्रत्येक मानवीय पहलुओं की आशाओं और संभावनाओं के गीतकार हैं। समूची प्राकृतिक वैविध्यता और प्रासंगिकता के कवि हैं। मिश्रजी की गीत-प्रिया के प्रति अथाह प्रेम, समर्पण और लालिमा शोभित यह रचना यात्रा दीर्घायु हो ताकि साहित्य-संसार गीत-गंगा की पावन उजास में नहाने की तत्परता से सदैव जुड़ा रहे, जीवंत रहे और संवेदनशीलता की सार्थक सृजनात्मकता सुस्थापित रहे। भाषा सहज-सुबोध और ग्राह्य है। गीत के व्याकरण और गीत की आवश्यकताओं को सहज ही पूर्णता प्रदान की गई है।
समीक्षा
जाल फेंक रे मछेरे!
मानव जीवन को सुगंधित करते गीत-पुष्प
पारसनाथ ‘गोवर्धन'
‘जाल फेंक रे मछेरे!' काव्यकृति को बुद्धिनाथ मिश्र का प्रथम नवगीत संग्रह होने का गौरव प्राप्त है। ‘होनहार बिरवान के, होत चीकने पात' से भरी उनकी प्रगति कथा में प्रथम अध्याय मंचों से प्रारम्भ हुआ, किन्तु प्रथम नवगीत-संग्रह के प्रकाशन से वे साहित्य की इस विशिष्ट काव्य विधा में स्थापित हो गये। प्रकृति के प्रतीक-बिम्बों और भारतीय संस्कृति एवं दर्शन से जुड़े उनके कथ्य में जीवन-मूल्यों की स्थापना करने की छटपटाहट स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। श्री मिश्र ने अपनी प्रकृति एवं प्रवृत्ति के अनुसार समकालीन यथार्थ को अद्भुत रागात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है, जिसकी अनेकार्थी भाषा प्रत्येक श्रेणी के पाठक को सौन्दर्यबोध से अभिभूत कर देती है। साधारण शब्दों में प्राण फूंक देने में कुशल शब्द-शिल्पी संघर्षों की आंच में दिन-प्रतिदिन और निखर कर सामने आते रहे हैं और हर निकष पर खरे उतरते रहे हैं। प्रकृति के विविध मनोरम दृश्यों के मध्य मानवीय पीड़ा के गहरे सरोकारों की समन्विति तथा मानव के समकालीन संघर्ष के यथार्थ को भी उन्होंने लय-छन्द की निजता में, टटकेपन के साथ सम्प्रेषित कर, पाठक वर्ग को चिंतन का नया आयाम देने की भूमिका निभाई है, जिसमें प्रकृति और मनुष्य के असीम सम्बन्धों का नया रंग उद्घाटित होता है। अपनी प्रतिभा और सृजन और अपने प्रस्तुतिकरण के सुदृढ़ आधार पर उन्होंने मंच और साहित्य के मध्य सेतु का कार्य पूरी कुशलता से किया है जिसके लिए वे निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं।
उन्होंने उन्हीं प्रतीकों-बिम्बों का चयन किया है जो सर्वसाधारण की दृष्टि में बेहद सामान्य हैं, किन्तु उन्हीं साधारण प्रयोगों से वे सौन्दर्य के असाधारण बिम्ब निर्मित करते हैं। यथा-
सपनों की ओस/ गूँथती कुश की नोक है
हर दर्पण में/ उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में/ सीप के बसेरे।
सुमित्रानन्दन पंत ने कहा था ‘काव्य की भाषा चित्रात्मक होनी चाहिए', जिसे सार्थक किया है बुद्धिनाथ मिश्र ने। उनके प्रत्येक नवगीत में रागात्मकता के साथ प्रकृति का संयोग, अर्थवत्ता से समृद्ध होता है और तदनुकूल संवेदना का सृजन करता है। कथ्य की विविधता, छन्द की विविधता और शिल्प की विविधता के फलस्वरूप उनके मनोरम नवगीत आकर्षण का केन्द्र बन जाते हैं- 'एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से/ आज मेरा मन स्वयं देवल बना/ मैं अचानक रंक से राजा हुआ/ छत्र, चामर जब कोई आँचल बना।’ कवि की यह कोमल कान्त प्रवाहमय रसात्मक पदावली के गुणात्मक योग में प्रवीण सम्पूर्ण कृति ऐसे उदाहरणों से समृद्ध है। प्रत्येक गीत में पाठक/श्रोता तन्मय होकर भाव-बिम्ब में डूब जाता है।
श्री मिश्र के गीतों में जो संवेदना है वह प्रो. श्रीपाल सिंह ‘क्षेम' एवं पंडित जानकी वल्लभ शास्त्री के गीतों से किसी प्रकार कमतर नहीं है। अल्पवयस में ही मिश्रजी ने नवगीतों के आकाश में आत्मविश्वास एवं पूर्ण कौशल से उड़ना प्रारम्भ कर दिया था और उनकी यह कृति उसका प्रमाण है। इसमें श्रृंगार के दोनों पथों- संयोग एवं वियोग को उकेरा गया है। उनमें नूतनता एवं ताजगी है। ‘गांधारी जिंदगी' में जब दिशाहीनता एवं निराशा का अहसास होता है तो आँसू की एक बूंद भी सम्पूर्ण जीवन को भिगो जाती है। एक ही गीत में मिलन, विरह के चित्रों से सजी पंक्तियाँ देखें- 'बीत गयी बातों में रात वह खयालों की/ हाथ लगी निंदियारी जिंदगी/ आँसू था सिर्फ एक बूँद/ मगर जाने क्यों/ भींग गयी है सारी जिंदगी।’
मिश्रजी संवेदनशील चित्र उकेरने में दक्ष हैं। 'मन के आईने में/ उगते जो चेहरे हैं/ हर चेहरे में/ उदास हिरनी की आँखें हैं/ आँगन से सरहद को जाती/ पगडण्डी की/ दूबों पर बिखरी/ कुछ बगुलों की पाँखें हैं/ अब तो हर रोज/ हादसे गुमसुम सुनती है/ अपनी यह गांधारी जिन्दगी' जैसी पंक्तियों में जिस परिवेश, जिस वातावरण को वे शब्दों में उकेरते हैं, उनमें उससे सम्बन्धित छोटी से छोटी वस्तु का भी महत्व समझ में आने लगता है। छन्दों में भी उन्होंने अनेक प्रयोग किए हैं और प्रायः एक गीत का छन्द दूसरे गीत के छन्द से भिन्न है। ‘कस्तूरी घूँघट' में सुधि की पुरवाई का बींध जाना और अपनी ही छवि में झलकती प्रियतम की छवि को शाम-सुबह अंजलि में भर कर दुलारना- ऐसा भावबोध है जो मिश्रजी को नवगीतकार बनाता है। तभी तो उनके गीत नयी कविता के युग में भी पाठकों को गुनगुनाने को विवश कर देते हैं। अपूर्व कल्पना प्रवण, अनन्त सौन्दर्य को रूपाकार करने में सिद्धहस्त कवि ने एक ओर तो रूप को शब्दाकार करने का उत्तरदायित्व निभाया, तो दूसरी ओर जीवन के यथार्थ को भी उसी अटूट विश्वास के साथ व्यक्त किया है। उनके अनेक गीत इस कृति में संग्रहीत हैं जो जीवन-संघर्ष, आशा-निराशा, सुख-दुःख की परिवेशगत विडम्बनाओं को रेखांकित करते हैं-
लिख गयी पूरी सदी/ पागल हवा के नाम
राख में चिनगी/ दफन हो जाय/ मुमकिन है।
एक पहिया घूम/ आया त्रासदी के पास
इस खुशी में बेतरह/ रौंदे गये मधुमास
जंग खाये स्तोत्र/ फिर गूँजे सुबह से शाम।
भले ही यह पूरी सदी पागलपन में बीत रही हो, आम आदमी के हित में कोई आवाज़ उठाने वाला न हो, परम्परागत तौर-तरीके, रीति-रिवाज़, सामाजिक सम्बन्ध जंग खा चुके हों किन्तु राख के नीचे चिनगारी का अस्तित्व है और वही नन्हीं-सी चिनगारी शोषण, उत्पीड़न, दमन, आतंकवाद, भ्रष्टाचार का विनाश कर सकती है। उसे केवल परिस्थिति चाहिए।
यह सफर छालों भरा है और हम शीशविहीन कबन्ध बन गये हैं। हममें जनोपयोगी, लोकमंगली मार्ग चुनने की सामर्थ्य नहीं रह गयी है, सत्य के ध्वजवाहक इधर-उधर भटक रहे हैं, भागते फिर रहे हैं अथवा भूमिगत हो गये हैं, और मन को बहलाने हेतु भौतिक पैबन्द जोड़े जा रहे हैं। उससे जीवन का अर्थ मुखर ही नहीं होता, आम आदमी का दर्द और भी भयावह हो जाता है। ऐसा नहीं कि कवि ने यह सब केवल देखा है, बल्कि वह स्वयं भुक्तभोगी है। देखने-सुनने और स्वयं भोगने में बहुत बड़ा अन्तर होता है। क्योंकि पीड़ित के प्रति हम सहानुभूति रखते हैं और उसकी पीड़ा-परेशानी को व्यंजित करते हैं। किन्तु जब खुद सहना पड़ता है तो वह अभिव्यक्ति यथार्थ होती है। श्री मिश्र का प्रारम्भिक जीवन भी इसी संघर्ष और पीड़ा के भयानक दौर से गुजरा है जिसने उन्हें भावप्रवण रचनाकार बना दिया और इसीलिए वह अपनी रचनाओं में शोषित- उत्पीड़ित-दलित आम आदमी के प्रबल पक्षधर दिखाई पड़ते हैं। यथा-
चिलचिलाहट धूप की/ पछुआ हवा की मार
यह तपन हमने सही सौ बार।
सूर्य खुद अन्याय पर/ होता उतारू जब
चाँद तक से/ आग की लपटें निकल पड़तीं
चिनगियों का डर/ समूचे गाँव को डसता
खौलते जल में/ बिचारी मछलियाँ मरतीं।
हर तरफ है साँप-बिच्छू के/ जहर का ज्वार।
नवगीत की प्रमुख विशेषताओं में लोकभाषा और आंचलिकता का समावेश भी है। मिश्रजी गाँव की पृष्ठभूमि में बचपन व्यतीत कर ही वाराणसी आये, लेकिन उनके हृदय से गाँव की रमणीयता, पर्व, उत्सव, अकाल की पीड़ा, बाढ़ की त्रासदी सभी कुछ कभी पृथक नहीं हुआ। वर्षा में विलम्ब होता है तो किसान की साँसें ऊपर-नीचे होने लगती हैं। भविष्य की चिंता उसे सताने लगती है और कभी इन्द्र को मनाने के लिए विविध आयोजन किये जाते हैं, तो कभी गंगा मैया को पियरी चढ़ाने की मनौती माँगी जाती है। इन सारे दृश्यों को मिश्रजी बड़ी कुशलता से अपने शब्दों में व्यक्त करते हैं-
घर की मकड़ी कोने दुबकी/ वर्षा होगी क्या?
बायीं आँख दिशा की फड़की/ वर्षा होगी क्या?
सुन्नर बाभिन बंजर जोते/ इन्नर राजा हो!
आँगन-आँगन छौना लोटे/ इन्नर राजा हो!
कितनी बार भगत गुहराए/ देवी का चौरा?
भरी जवानी जरई सूखे/ इन्नर राजा हो!
मिश्रजी के नवगीतों में गाँव की संस्कृति, आस्था, विश्वास आदि पूरी तरह रचे-बसे हैं। उदारता और करुणा उनकी जीवन-पद्धति में शामिल है। बागमती के किनारे बसा उनका गाँव आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिनसे पचास वर्ष पूर्व जूझता था। जब बागमती में बाढ़ आती है तो खेत, बाग, गाँव का अधिकांश भाग डूब जाता है और जब बाढ़ उतरती है तब भी उसकी विभीषिका अगले वर्षों तक बनी रहती है। मिश्रजी ने यह विध्वंस स्वयं देखा और अनुभव किया है और इसीलिए बागमती की बाढ़ का उन्होंने जो यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है वह मन को द्रवित कर देता है। उनकी पारखी दृष्टि से छोटा से छोटा वस्तुगत एवं भावगत तथ्य छूटता नहीं। स्मृतियों को सहेजने और उचित समय पर प्रकट कर देने में वे दक्ष हैं।
मिश्रजी का सौन्दर्यबोध कल्पना एवं यथार्थ का सम्मिलित रूप है, किन्तु उसके भीतर कहीं भी निराशा का भाव नहीं है। आमतौर से नवगीत में एक विशेष प्रकार की हताशा, कुण्ठा और पराजय दिखाई पड़ती है जो नकारात्मक है। लेकिन मिश्रजी का सकारात्मक दृष्टिकोण उन्हें अन्य रचनाकारों से अलग करता है। वे कहते हैं- 'रोपें हम क्यों बबूल बन/ आँगन में/ काँटों की क्यों सहें चुभन/ आँगन में' और 'हम विजय के फूल हैं/ चुपचाप धरती को/ समर्पित हो लिया करते'। उनमें उत्सव या तोरणदार बनने की इच्छा नहीं है, वे तो सन्नाटा तोड़ने के लिए महज कुछ मंत्र गुनते हैं। गैरों के लिए उत्सर्ग की भावना तथा मानव मूल्यों की स्थापना की चिन्ता भारतीय संस्कृति की देन है जिसे उन्होंने बचपन से ही संजोया है।
आकर्षक रचनाओं से सजी इस काव्य-कृति में वर्ष 1980 तक के प्रतिनिधि गीत संग्रहीत हैं, जिसमें लोकभाषा की रसधर है, लीक से हटकर अनुभूतियों को व्यंजित करने का शिल्प है, गाँव की सुगन्ध और नगर की विसंगतियाँ हैं, आम आदमी की त्रासद ज़िन्दगी का यथार्थ है, सामाजिक विषमताओं की गाथा है, जीवन्त आशाओं का अभिषेक है, जीवन-संघर्ष तथा जिजीविषा है और जिसे सहज, सरल, सरस, प्रवाहपूर्ण, सम्प्रेषणीय आकार प्रदान किया है श्री मिश्र ने। उन्हें पढ़कर महसूस होता है कि मानवीय कोमल भावनाओं का सिन्धु कभी सूख नहीं सकता। निर्दोष छन्द रचनाओं में सघनता, आंचलिक प्रयोग, मिथकों का संयोजन और समकालीन कथ्य श्री मिश्र के गीतों को महत्वपूर्ण बनाता है। इसी संग्रह में उनकी अनेक कालजयी रचनायें संग्रहीत हैं जिन्होंने उन्हें हिन्दी जगत में पहचान दी है और आज भी श्रोता उन्हीं गीतों को सुनाने की माँग करते हैं। उनमें ‘जाल फेंक रे मछेरे!', ‘नाच गुजरिया नाच', ‘धन जब भी फूटता है गाँव में' आदि गीत प्रमुख हैं। गीतों में नये प्रयोग स्पष्ट परिलक्षित होते हैं, फलस्वरूप ये गीत एकदम टटके और चटकदार लगते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मानव जीवन को सुगंधित करते पुष्प हैं ‘जाल फेंक रे मछेरे!' के गीत।
समीक्षा
जाड़े में पहाड़
शिल्प एवं कहन का अभिनव प्रयोग
योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
काव्य की अनुपम और अमर विधा ‘गीत' के सम्बन्ध में यों तो अनेकानेक प्रबुद्ध साहित्यकारों, गीतकारों तथा विद्वानों ने अपनी-अपनी शैली में मत प्रकट किए हैं, किन्तु विलक्षण नवगीतकार स्व. कैलाश गौतम ने जिस सहजता और सादगी से गीत को परिभाषित किया है वह स्वयं में अनूठा है- 'गीत कविता का शाश्वत स्वरूप है। उसकी देह को छन्द और प्राण को रस कहते हैं। अपने इसी स्वभाव के चलते गीत भारतीय जनमानस में बहुत गहराई तक रचा-बसा है और हमारी जीवन शैली की तरह हमारे साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चलता आ रहा है।’
इसी क्रम में गीत और नवगीत के ख्यातिलब्ध, परिपक्व और सशक्त हस्ताक्षर बुद्धिनाथ मिश्रजी का नवगीत संग्रह ‘जाड़े में पहाड़' नवगीत के नए प्रतिमान स्थापित करता हुआ गीत परंपरा और नवता के मध्य सेतु निर्मित करता है। मिश्रजी के गीतों में आंचलिक शब्दों का सटीक और बेहद खूबसूरत प्रयोग अभिव्यक्ति को अनूठा सौन्दर्य प्रदान करता है। पर्वतों का सदियों पुराना मौन किसी भी कोलाहल के लिए एक ऐसा चुनौतीपूर्ण प्रश्न है जिसका उत्तर आजतक कोई खोज नहीं सका है। पर्वतों के इस रहस्यमय मौन में कितनी वेदनायें छिपी हैं, कितनी घुटन, कितनी टूटन और कितना सृजन अपने सीने में द'ऱन किए हुए हैं ये पहाड़, कोई नहीं जानता। नितान्त एकान्त में रहकर मौन साधना करते हुए ये पहाड़ किसी ऋषि की भाँति तपस्यारत रहने के साथ-साथ इस समूची सृष्टि में परिवर्तन के फलस्वरूप सृजन और विध्वंस दोनों के साक्षी हैं। जाड़े का मौसम और पहाड़ का अकेलापन, मानो कोई उपन्यासकार महाकाव्य रच रहा हो।
अपने शीर्षक गीत ‘जाड़े में पहाड़' में मिश्रजी ने कथ्य के धरातल पर शिल्प एवं कहन के अभिनव प्रयोग करते हुए पहेलीनुमा बिम्बों को सहेजा है और प्रतीकों के माध्यम से ध्वस्त व्यवस्था, मुखर व निडर अन्याय तथा त्रासद वातावरण में असहाय आम आदमी की व्यथा को बखूबी उकेरा है-
मौत का आतंक फैलाती हवा/ दे गई दस्तक किबाड़ों पर
वे जिन्हें था प्यार झरनों से/ अब नहीं दिखते पहाड़ों पर।
मिश्रजी के नवगीतों के केन्द्र में आम आदमी की पीड़ा मुख्य रूप से गुंजायमान होती है। उनके नवगीतों में तेज़ी से बदलते परिवेश और वर्तमान समय में सामाजिक विद्रूपताओं, छीजते सांस्कृतिक मूल्यों और महानगरीय जीवन की खटास के प्रति कवि की चिन्ता स्पष्टरूप से झलकती है- 'आँगन का मटमैला दर्पण/ पीपल के पत्तों की थिरकन/ तुलसी के चौरे का दीया/ बारहमासी गीतों के क्षण/ शहरी विज्ञापन ने हमसे/ सब कुछ छीन लिया।’ वहीं दूसरी ओर मिश्रजी ग्रामीण परिवेश की ज़मीनी सच्चाइयों से रूबरू कराते हुए अपने नवगीत को नए बिम्ब और कहन के माध्यम से मार्मिक और हृदयस्पर्शी बनाने में सफल हो जाते हैं-
धन जब भी फूटता है गाँव में/ एक बच्चा दूधमुँहा
किलकारियाँ भरता हुआ/ आ लिपट जाता हमारे पाँव में।
‘माँ' एक अक्षर का ऐसा शब्द, जिसमें समूची सृष्टि समाई है और जिसके आशीष के बिना किसी भी सृजन की कल्पना नहीं की जा सकती। संग्रह के प्रथम गीत का शीर्षक ‘बूढ़ी माँ' जिसे कवि द्वारा सरस्वती की संज्ञा भी दी गई है, सीधे-सीधे माँ की ममता को अलग ही रूप में व्याख्यायित करते हुए मन को छू जाता है-
अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ/ मुझसे लिखवाती है
जो भी मैं लिखता हूँ/ वह कविता हो जाती है।
फूलों से भी कोमल/ शब्दों से सहलाती है
मुझे बिठाकर राजहंस पर/ सैर कराती है।
भारत को स्वतंत्र हुए छः दशक से भी अधिक समय व्यतीत हो चुका है किन्तु आज भी हम मानसिक रूप से परतंत्र हैं। हम आधुनिक बनने की होड़ में पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण कर रहे हैं और अंग्रेजियत अपने ऊपर हावी होने दे रहे हैं। अपनी मातृभाषा को गाली और पराई भाषा पर ताली की घटिया नीति पर चोट करते हुए कवि आशान्वित और आश्वस्त है अपनी भाषा की जय होने के प्रति-
जय होगी, निश्चय जय होगी।
भारत की धरती पर इसकी/ जनभाषा की ही जय होगी।
आज नहीं तो कल बैठेगी/ सिंहासन पर जन की भाषा
पूरी होगी आज नहीं तो/ कल स्वतंत्रता की परिभाषा।
अपने गीत-संग्रह ‘समर करते हुए' में प्रसिद्ध गीतकार श्री दिनेश सिंह का कथन है- 'जो रचना अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति नहीं रखती, जिसमें जीवन की बुनियादी सच्चाइयाँ केन्द्रस्थ नहीं होतीं, जिनका विजन स्पष्ट और जनधर्मी नहीं होता वह कलात्मकता के बावजूद भी अप्रासंगिक रह जाती है।’ बुद्धिनाथ मिश्रजी के गीतों/ नवगीतों में अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति विद्यमान है तभी तो उनके गीत समय के दस्तावेज़ बनते हैं और जनमानस के मन मस्तिष्क पर दीर्घावधिक प्रभाव छोड़ने में सफल भी होते हैं। ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो' सर्वाधिक सटीक उदाहरण के रूप में उल्लेखनीय उनका यह अत्यधिक लोकप्रिय गीत मिश्रजी के समग्र रचनाकर्म को व्याख्यायित करता है। कुल मिलाकर मिश्रजी की कृति ‘जाड़े में पहाड़' नवगीत के इतिहास में उत्कृष्ट और अभिलेखीय नवगीत संग्रह के रूप में स्मरणीय और उल्लेखनीय प्रविष्टि पायेगा, ऐसी आशा है।
समीक्षा
जाड़े में पहाड़
सोन की बालू नहीं, यह शुद्ध जल है
प्रियंका चौहन
प्रबुद्ध कलमकार बुद्धिनाथ मिश्रजी के द्वितीय गीत संग्रह ‘जाड़े में पहाड़' में कुल सैंतीस रचनाएँ संकलित हैं। देखने में छोटा यह संग्रह कवि के व्यापक चिंतन को प्रस्तुत करता है। मुझे लगता है कि इस संग्रह का शीर्षक गीत ही वर्तमान समय की वैचारिकता को पूरी गंभीरता एवं टटकेपन से व्यंजित करने में सक्षम है। यहाँ पर मुझे विद्वानों द्वारा बार-बार जिक्र किये गये उस गीत का स्मरण हो आता है जिसे मिश्रजी ने अपनी किशोरावस्था में मन की कोमल भावनाओं को व्यक्त करने के लिए रचा था। गीत है- ‘जाल फेंक रे मछेरे!' लेकिन आश्चर्य होता है इन विद्वानों का ध्यान दूसरे शीर्षक गीत, जोकि उतना ही महत्वपूर्ण है सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से, पर क्यों नहीं गया?
जरा कल्पना कीजिए जाड़े में पहाड़ की और पहाड़ों में भी एकाग्र हिमालय की। हिमालय जहाँ पर मेघ आसमान से उतर आये हैं अपना डेरा डालने के लिए, सर्द हवा बह रही है, बर्फ की श्वेत चादर फैली हुई है, ठिठुरन ने, गलन ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा है, घास-वनस्पतियों का नामोनिशान नहीं रहा, पशु-पक्षी अपना स्थान छोड़कर चले गये हैं, झरनों-झीलों की लहरें खामोश हैं, ‘शिवाले सूने' पड़े हैं, ‘बहुत महँगी धूप के ऊनी दुशालों' की माँग बढ़ गयी है, और हवा मौत का आतंक फैलाने लगी है, जिससे छा गया है चारों ओर भय और सन्नाटा। जाड़े में पहाड़ का चित्रण कितना सटीक है। हमारा जीवन, हमारा परिवेश भी बहुत कुछ इसी स्थिति को प्राप्त हो चुका है। कवि की इस प्रतीकात्मक प्रस्तुति का विश्लेषण करने पर लगता है कि वह चीज़ों को बड़ी बारीकी से देखता-परखता है, तभी तो इस चित्रांकन के समानांतर एक दृश्य और उभरने लगता है- नये समय के भद्दे रंगों वाला दृश्य। यानी कि हमारे आस-पास भी दुःखों के, निराशा के बादल मंडरा रहे हैं, हमारे बीच अलगाव की, टकराव की, भटकाव की हवा बह रही है, हमारी चेतना, हमारे विवेक पर बर्फ जम गई है, दाना-पानी की समस्याओं से जूझ रहे हैं हमारे तमाम भाई-बहिन, रोजी-रोटी के लिए घर-द्वार छोड़कर लोग परदेश जा रहे हैं, हमारे बीच बहने वाली प्रेम, राग, अनुराग की लहरें खामोश हो गई हैं, और खतरे में है हमारी संस्कृति एवं वन सम्पदा। ऐसे में हम सबको अपनी-अपनी पड़ी है, और इन स्थितियों से उबरने के लिए जो ऊर्जा हममें बची है वह है 'बस कांगड़ी की आग'। काँगड़ी हमारी छाती से सटी रहकर कोयले की आग की उष्मा प्रदान करती है काँगड़ी की आग। यानी थोड़ी ताकत, थोड़ा सामर्थ्य। पर कुछ न कुछ तो अब भी है हमारे पास, जिसके बल पर कवि को विश्वास है, हम इन उपजे विषैले खरपतवारों को उखाड़ फेंक सकते हैं, बशर्ते हम धैर्य बनाये रखें और करते रहें सही दिशा में प्रयास, हमारे आज के लिए, हमारे कल के लिए।
यह गीतकार जानता है कि जो समय बीत रहा है वह पहाड़ की किसी सर्द रात से कम दुखदायी नहीं है, जिसमें हमारी ऊष्मा, हमारी लालिमा, हमारा तेज क्षीण होता चला जा रहा है। और जो स्वर हमें स्पंदित रखते थे, वे अब सुनाई नहीं पड़ते। हमारी मानवीय संवेदना, सांस्कृतिक चेतना, सहयोगी भावना भी इसी हिमपात की शिकार हो गयी है-
कभी दावानल, कभी हिमपात/ पड़ गया नीला वनों का रंग
दब गये उन लड़कियों के गीत/ चिप्पियों वाली छतों के संग।
लोकरंगों में खिले सब फूल/ बन गये खूंखार पशुओं के निवाले।
इसीलिए बचे-खुचे मानवता के पुजारी, संस्कृति के पोषक तथा राग-अनुराग- उल्लास के वाहक इन हिमाच्छादित घाटियों, वादियों, झील-झरनों को छोड़कर कहीं और चले गये हैं या शांत होकर कहीं बैठ गये हैं- 'वे जिन्हें था प्यार झरनों से/ अब नहीं दिखते पहाड़ों पर' और कर रहे हैं इंतजार उस भोर की किरण का, जिससे पिघलेगी यह पीड़ादायक बर्फ और दूर होगा चहुँ ओर छाया अंधेरा। और इस हेतु इस कवि का प्रयास है-
एक किरण भोर की/ उतरायी आँगने/ रखना इसको संभालकर।
लाया हूँ माँग इसे/ सूरज के गाँव से/ अँधियारे का खयालकर।
यही तो है परहित की भावना। और यदि इस भावना का संचार हम सभी में हो जाय तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि तब हमारे बीच कोई दुःखी नहीं होगा (होगा भी तो उसकी पीड़ा कम हो जायेगी) और होगा सबके जीवन में उजास और उल्लास भोर होते ही। सच तो यह है कि इस संग्रह के सभी गीत विचार की गहराइयों में ले जाते हैं, इतना अधिक कि उन सभी पर अलग से एक-एक अध्याय लिखा जा सकता है। कुल मिलाकर इन रचनाओं में इस गीतकार के चिंतन-मनन एवं सार्थक अनुभूतियों का अभिप्राय यह है कि हम अपने आप को ऐसा बनायें कि हम मानवता विरोधी, संस्कृति विरोधी एवं प्रकृति विरोधी शक्तियों का डटकर मुकाबला कर सकें और एक ऐसे समाज, परिवेश, राष्ट्र का निर्माण कर सकें जहाँ पर न केवल खुशहाली हो, आनंद हो, समृद्धि हो, स्नेह और सुकून हो, बल्कि अंधकार को मिटाने वाला प्रकाश भी हो। इस सपने को मन में संजोये यह गीतकार अपनी शब्द आहुति दे रहा है इस भरोसे के साथ कि वह दिन भी आयेगा जब लोग साहित्यकारों, विचारकों, समाज सुधारकों की बातों पर अमल करते हुए अपने जीवन पथ पर सोल्लास आगे बढ़ेंगे- 'धूप की हल्की छुअन भी/ तोड़ देने को बहुत है/ लहरियों का हिमाच्छादित मौन/ सोन की बालू नहीं, यह शुद्ध जल है/ तलहथी पर/ रोकने वाला इसे है कौन?/ हवा मरती नहीं है/ लाख चाहे तुम उसे तोड़ो-मरोड़ो/ खुशबुओं के साथ वह बहती रहेगी।’
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